दस दरवाज़े - 29 Subhash Neerav द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दस दरवाज़े - 29

दस दरवाज़े

बंद दरवाज़ों के पीछे की दस अंतरंग कथाएँ

(चैप्टर - उनतीस)

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दसवाँ दरवाज़ा (कड़ी -1)

बंसी : मैं तेरी पहली मुहब्बत

हरजीत अटवाल

अनुवाद : सुभाष नीरव

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मुझसे यह प्रश्न अक्सर पूछा जाता है कि मेरी पहली मुहब्बत कौन थी। मैं याद करने लग जाता हूँ कि कौन थी मेरी पहली मुहब्बत। ऐसा सोचते ही कितने ही प्रश्न मेरे सम्मुख आ खड़े होते हैं - मुहब्बत क्या होती है? क्या मुहब्बत होती भी है या यह सब फिल्मी बातें हैं? सोचते-सोचते जो बात सहज ही मेरे हाथ लगती है, वह यह है कि शारीरिक आकर्षण ही मुहब्बत होती है। मुझे मुहब्बत अथवा शारीरिक आकर्षण पहली बार तब महसूस हुआ होगा, जब मैंने अल्हड़ आयु में पैर रखते हुए किसी लड़की को देखा होगा। यारब! मुहब्बत का इतना बड़ा खजाना है मेरे पास। ऐसे तो मेरी तरह हर पुरुष इतना ही मालामाल होगा। प्रारंभ में तो हर लड़की के साथ ही मुहब्बत हो जाया करती है। प्रारंभ में क्या, ऐसी मुहब्बत जीवन के किसी भी मोड़ पर हो सकती है। इस विषय में थोड़ा और गहरे हाथ मारने पर नज़र आता है कि शारीरिक आकर्षण भी मुहब्बत नहीं हो सकता। बुजुर्ग की राय में यदि मुहब्बत को अन्य जिंसों से अलग करें तो इसकी पहचान है दिल में उठता दर्द। जब सोचता हूँ कि इतने रिश्तों के बीच से गुज़रा हूँ, यह सब क्या था। इनमें शारीरिक आकर्षण ही प्रमुख था। प्रेम नाम की वस्तु तो इनमें कहीं भी नहीं थी, पर फिर भी जिससे संबंध बनते रहे, उसके साथ जुड़ जाता रहा हूँ। हर रिश्ता मेरा दूर तक पीछा करता रहा है। एक कसक-सी सीने में हर बार पैदा होती रही है। बहरहाल, मैं पहली मुहब्बत के बारे में बात कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि मेरी कोई भी पहली मुहब्बत नहीं रही।

परंतु, बंसी ऐसा नहीं सोचती। वह उलाहना देते हुए कहती है – “याद रख, मैं तेरी पहली मुहब्बत हूँ!” कभी-कभी मैं हिसाब-किताब लगाने लगता हूँ कि क्या वाकई वह मेरी पहली मुहब्बत है। मैं उसकी ओर देखता हूँ। संभालकर रखा हुआ जिस्म, रंगे हुए केश, चुस्त चाल-ढाल, वह तो अभी भी मेरी मुहब्बत है। अभी भी वह मेरे संग लगकर बैठती है तो मेरे दिल में गुदगुदी होने लगती है। अभी भी दिल करता है कि उसके साथ देर तक बैठकर बातें करता रहूँ। असल में, हमारे पास करने के लिए बातें हैं भी बहुत। हमारा बचपन जो एक साथ बीता है। हम छुआ-छुआई, आइस-पाइस तथा अन्य कई खेल खेलते रहे हैं।

बंसी मेरे रिश्तेदार की लड़की है। पंजाब में नकोदर के साथ ही उसका गांव है। उसका गांव क्यों, वह तो मेरी मौसी का गांव है। बंसी उसकी देवरानी की बेटी है। वह अपनी बहन सिमरन और भाई गुरवीर से बड़ी है। मेरे से भी दो वर्ष बड़ी और दो वर्ष आगे पढ़ती है। उसका पिता बलदेव सिंह तलवाड़े जहाँ पौंग डैम बन रहा है, क्रेन चलाता है। उसकी माँ घर में ही होती है। मेरी मौसी के घर मेरा अच्छा आना-जाना है। मेरी मौसी के दो लड़के कैनेडा में रहते हैं और मौसा का स्वास्थ्य ज्यादा ठीक नहीं रहता। मौसा की कुशल-मंगल की ख़बर लेने अथवा वैसे ही मिलने जाने का सबब बना रहता है। इस प्रकार बंसी के साथ मुलाकातें होती रहती हैं। हम मिलकर झूले झूलते हैं। वह पींग ऊपर चढ़ाने के लिए पैरों को ज़ोर देते हुए जब आगे-पीछे होती है तो उसका जिस्म मेरे साथ रगड़ खाता है। मुझे उसमें से खुशबू आने लगती है। शायद यही है मुहब्बत। इसी को वह पहली मुहब्बत कहती होगी।

समय बीतता जाता है। बचपन में दो वर्ष का अन्तर बहुत होता है। पर अब हम बराबर के हो रहे हैं। वह दसवीं करके कालेज चली जाती है। दो साल बाद मैं भी। उसको कालेज की हवा लगने लगती है, पर ग्रामीण इलाके के कालेज में हवा भी कितनी होती है। मैं उससे मिलने जाता हूँ तो कई कई घंटे हम बातें करते रहते हैं। कालेज की बातें वह मसाला लगा लगाकर सुनाती है। कभी-कभी घरवालों से चोरी उसका फिल्म देखने का दांव भी लग जाता है, इस बारे में वह बताते नहीं थकती। एक दिन वह पूछती है -

“किसी लड़की को पसंद करता है?”

मैं सोचने लग जाता हूँ कि जवाब दूँ। मैं तो सभी लड़कियों को ही पसंद करता हूँ, पर मुझे ही कोई पसंद नहीं करती। मैं कहता हूँ -

“लड़कियाँ तो सारी ही अच्छी होती हैं।”

“नहीं, सभी नहीं। कोई कोई ही अच्छी होती है। तुझे कोई एक अच्छी लगती है?”

“अच्छी तो अब तू भी बहुत लगती है।”

मैं भोलेभाव से कहता हूँ। वह हँसने लगती है और कहती है -

“ऐसे नहीं, वो कुछ और तरह से अच्छी लगा करती है। तेरी कक्षा में या कालेज में?”

“लड़कियाँ तो हैं, पर मेरी तरफ कोई देखती ही नहीं।”

मैं दिल की बात कह देता हूँ। वह मुझे समझाने लगती है -

“जो लड़की अच्छी लगे, उसका ध्यान खींचना पड़ता है। किसी न किसी तरह उसको बताना पड़ता है कि तू उसे लाइक करता है।”

“मुझे नहीं लगता कि कोई लड़की मुझे पसंद करेगी।”

“क्यों नही करेगी! तू इतना खूबसूरत लड़का है, तुझे तो हर लड़की पसंद करेगी।”

“पर मेरी तरफ कोई देखती क्यों नहीं?”

“लड़कियाँ घरवालों से डरा करती हैं, दुनिया से भी... लड़की को पटाना पड़ता है।”

वह रहस्य की बात बताती है। तभी कोई आ जाता है और वह चुप हो जाती है।

मैं सोचने लग पड़ता हूँ कि काश, बंसी मेरे कालेज में पढ़ती होती तो मैं हिस्ट्री वाली मैडम को यह बात बता सकता। हिस्ट्री वाली मैडम कुछ कुछ बंसी की तरह ही बातें करती है।

एक दिन वह फिर पूछती है -

“कभी किसी लड़की के साथ बातें कीं?”

“सिर्फ़ तेरे साथ।”

“मैं कोई लड़की थोड़े हूँ, मैं तो तेरी...।” कहते हुए वह चुप लगा जाती है। कुछ देर बाद पूछने लगती है -

“तुझे मैं कैसी लगती हूँ? ”

“बहुत सोहणी... परियों जैसी!”

“धीरे बोल पागल, पुआड़ा डाल देगा।” कहते हुए वह हँसती है।

अब मैं मौसी के गांव जाने का कोई न कोई बहाना तलाशता रहता हूँ। और कुछ न हो तो मौसा की बीमारी की ख़बर ही लेने चला जाता हूँ। मैं जाकर मौसी के छोटे-मोटे काम कर दिया करता हूँ जिसकी वजह से वह भी चाहते रहते हैं कि मैं आता-जाता रहूँ।

बंसी के बी.ए. का रिजल्ट आने वाला है। उसका रोल नंबर मेरे पास है। उससे कहीं अधिक मुझे उसके नतीजे की प्रतीक्षा है। वह पास हो जाती है। मैं उसको बधाई की चिट्ठी लिखता हूँ। उसका जवाब आता है कि थर्ड डिवीजन आने के कारण वह बी.ए. पास कहलाने में शरम महसूस करती है। मैं मिलने जाता हूँ। वह बताती है -

“मैं एम.ए. करूँगी।”

“यह तो बहुत अच्छी बात है।”

“पर मैं एम.ए. पढ़ाई के लिए नहीं करूँगी।”

“फिर?”

“वह इसलिए कि कोई अच्छा लड़का मिल जाए। बी.ए.की आजकल कोई कद्र जो नहीं है।”

लड़का मिलने वाली बात मेरे मन में बेचैनी-सी पैदा करने लगती है।

वह जालंधर कन्या महाविद्यालय में एम.ए. करने लग जाती है। वह मुझे अपने कालेज में आने का निमंत्रण देती है। मैं हवा में उड़ा फिरता हूँ। किसी लड़की द्वारा दिया गया यह पहला निमंत्रण है और किसी लड़की से अकेले मिलने का पहला अवसर। मैं उसके कालेज में पहुँचता हूँ। गेट पर जाकर चपरासी से उसके बारे में पूछता हूँ। वह सामने से चली आती मुझे दिखाई दे जाती है। हम कसकर एक-दूसरे को जफ्फी डाल लेते हैं। उसके अंगों की चुभन मुझे बहुत अच्छी लगती है। मेरा हाथ पकड़कर वह मुझे कैंटीन की तरफ ले चलती है। कैंटीन में कई लड़कियाँ लड़कों के साथ बैठी हैं। एक लड़की उसको ‘हैलो’ कहती है। वह उसका मेरे से परिचय करवाती है। मुझे कज़न ब्रदर के तौर पर मिलवाती है और बाद में कहती है -

“यहाँ सिर्फ़ रिश्तेदार ही लड़कियों से मिल सकते हैं।”

“ये मेरे सामने सारे कज़न-ब्रदर ही बैठे होंगे।”

मैं हँसता हुआ कहता हूँ। वह भी हँसती है। हम घंटाभर बातें करते हैं।

मैं अक्सर उससे मिलने चला जाया करता हूँ। हमारी मुलाकातें मेरे सपनों को ऊँची उड़ान दे देती हैं। हम एकसाथ फिल्म देखना चाहते हैं, पर घरवालों से डरते हैं। उसको गांव जाने के लिए समय से बस पकड़नी होती है। वह एम.ए. का प्रथम वर्ष पास कर लेती है, पर थर्ड डिवीजन में ही। दूसरे वर्ष, अधबीच में ही ख़बर मिलती है कि उसके लिए वर खोज लिया गया है। मेरे सपनों की उड़ान नीची होने लगती है। मैं उसको मिलने जाता हूँ। थोड़ा-सा वह उदास है और कुछ-कुछ खुश भी। लड़का नहर विभाग में ओवरसियर लगा हुआ है। अच्छी तनख्वाह है और ऊपरी कमाई भी बहुत। वह कहती है -

“मुझे भी कोई न कोई नौकरी मिल ही जाएगी, गुज़ारा अच्छा होगा।”

मैं जानता हूँ कि इस बारे में कुछ नहीं हो सकता। मेरे पास नौकरी तो क्या मैंने तो अभी बी.ए. भी नहीं की। फिर यह रिश्तेदारी ऐसी है कि रिश्ता नहीं हो सकेगा। समाज के बनाये ऐसे वर्जित रिश्ते जवान भावनाओं को फलने-फूलने की ज़मीन तो बनते हैं, पर इनकी यहाँ जड़ें नहीं लग सकती।

उसका विवाह होता है। मैं भी उसका हिस्सा बनता हूँ, पर मैं बहुत उदास हूँ। विवाह में उसकी एक सहेली आई हुई है - राजी। राजी मेरे संग बातें करती है। मेरी सारी उदासी दूर हो जाती है। विवाह के बाद मैं और राजी जालंधर तक एक साथ बस में आते हैं। अब मुझे राजी में से भी बंसी दिखाई देने लगती है। राजी जालंधर उतर जाती है। मैं फिर उदास होने लगता हूँ। जब भी कोई लड़की इधर-उधर देखता हूँ तो मेरी उदासी उड़ने लगती है। असल में, मेरी उदासी का कारण बंसी नहीं बल्कि कोई भी एक औरत है। औरत के इसी साथ को मुहब्बत कहें तो यह मेरी पहली मुहब्बत ही है।

विवाह के बाद वह नकोदर में अपने पति के साथ रहने लगती है। किराये का मकान है। उसका पति प्रकाश शांत-सा व्यक्ति है, पर बहुत नेक है। रिश्तेदारी के साथ-साथ उसके साथ मेरी दोस्ती भी होने लगती है। मैं उन दोनों को अपने गांव आने का निमंत्रण देता हूँ। प्रकाश की खूब सेवा करता हूँ। मैं भी प्रायः उनसे मिलने चला जाया करता हूँ। प्रकाश सदैव हँसकर मिलता है। कभी तो वह जल्दी घर आ जाता है और कभी रात गए। निर्भर करता है कि उसका टूर किस तरफ का है। वैसे भी उसके आने का दूर से ही पता चल जाता है, जब उसकी मोटर साइकिल गली का मोड़ मुड़ती है। मैं बंसी से मिलने जाता हूँ तो प्रकाश घर पर नहीं होता। वह मेरे साथ खुलकर हँसती है। हाथों से छेड़ती है। कई बार तो कोई बहाना ढूँढ़कर मुझसे हाथापाई भी करने लगती है। मेरा प्यार और ज्यादा उमड़-उमड़ पड़ता है। हम अपने अपने प्यार का इज़हार खुलकर करते हैं, पर मैं उसकी ओर नहीं बढ़ता। वह मेरी महबूबा है। प्यार में पवित्रता रहनी ज़रूरी है। इतने सालों में देखी हिन्दी फिल्मों से मैंने यही कुछ सीखा है। कुछ समय बाद बंसी को भी बिजली के दफ्तर में नौकरी मिल जाती है। वेतन यद्यपि अधिक नहीं है, पर इस में तरक्की के काफ़ी अवसर हैं।

करीब डेढ़ साल बाद उनके घर एक बेटा पैदा होता है। नाम रखते हैं - प्रदीप। बेटे की लोहड़ी मनाई जाती है। मैं भी पहुँचता हूँ। प्रकाश शराबी हुआ शीघ्र सो जाता है। मैं प्रदीप को गोदी में उठाता हूँ। बंसी शरारत से कहती है -

“जोगी, बिल्कुल तेरे जैसा है।”

“काश, यह मेरा होता!”

“तेरा ही है।”

“क्या मतलब? ”

“मैं तेरी पहली मुहब्बत हूँ, मेरा बेटा तेरा ही तो हुआ।”

“हाँ, यह तो ठीक है।” मैं हँसते हुए कहता हूँ।

पढ़ाई पूरी करने के पश्चात शीघ्र ही मेरा इंग्लैंड जाने का सबब बन जाता है।

(जारी…)