शुभसंकल्प Amita Joshi द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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शुभसंकल्प

"दीदी मैं दो दिन के लिए आपके पास रहने के लिए आना चाहती हूं",मीतू ने मुझसे फोन पर कहा ।उन दिनों मैं महाविद्यालय के कार्यों में कुछ अधिक व्यस्त थी और घर पर सुबह शाम कुछ समय अपने पति के साथ गुजारना पसंद करती थी या यूं कहूं अपने जीवन की सांध्य बेला में आए इस नए पात्र को‌ पढ़ने और समझने के लिए कुछ एकांत पल चाहती थी ।
"मीतू आ जाना,आजकल मैं इनके साथ ही रह रही हूं। मम्मी पापा अभी इलाज के लिए दिल्ली रुक गए हैं",ऐसा बोलकर मुझे लगा शायद वो अब मम्मी के लौटने के बाद ही आएगी ।
अगली सुबह मैं अपने तय समय पर महाविद्यालय चली गई । दिन भर मुझे कोई ध्यान न रहा,न घर का ,न मीतू का ।शाम को घर लौटी तो खाने की मेज पर खूब सारी हरी सब्जियां, धनिया,आलू और एक बड़े से थैले में आटा ।मैं इनके कहे बिना समझ गई कि मीतू आ गई है ।

"कैसी हो छोटी दीदी ? मैडम जी,बाबूजी ,बड़ी दीदी सब कैसे हैं?",उसके मुस्कुराते चेहरे और आत्मीयता से भरे ये दो शब्द मेरी थकान मिटाने के लिए काफी थे ।"दीदी मैं आपके लिए चाय बना देती हूं"। मीतू के हाथ की चाय पिए काफी समय हो गया था ।
"हां ,मीतू चाय पीने का बहुत मन है ।सुनो,इनके लिए फीकी चाय पहले निकाल देना ",मैंने उसी पुराने अधिकार और प्यार से कहा ।
चाय के साथ जब मीतू ने मेरे आगे नमकीन मठरी रखी तो मुझे लगा जैसे मां की कुछ कमी पूरी हुई ।
"मैडम जी जैसी तो नहीं बनी है पर मैंने पूरी कोशिश की है ,वहीं स्वाद लाने की ।आपको ठीक लगी छोटी दीदी ",मीतू ने सकुचाते हुए बड़े सृलीके से मठरी के डिब्बे को बंद करते हुए कहा ।
"तुम तो जानती हो मैं ज्यादा रसोई में नहीं जाती ,तुमने तो सबकुछ मां सा सीख लिया है ",मीतू के अन्दर की एक सुघड़ नारी ,एक स्नेही बहन,एक मां,एक प्यारी सहेली सभी रूपों को मन ही मन प्रणाम करते हुए मैंने कहा ।

इस बार उसके पैरों की पायल और कान की बाली कुछ अलग ही चमक रही थी।मै समझ गई बहू के आने से मीतू भी कुछ सज गई है।
अभी मैं कुछ कहती इससे पहले मीतू ने बैग से साड़ी निकाल कर मेरे हाथ में रखी और कहा,"आप छोटी दीदी हो,आपका हक है मुझसे लेने का"।
उसके देने में इतनी मधुरता और अपनापन था कि मेरी आंख की कोर से कब दो आंसू टपके , मुझे ही पता नहीं चला ।
इसी बीच मां का फोन आ गया और मैंने मां को सब बताया ।मां जानती थी मैंने मीतू के बेटे के विवाह पर कोई शगुन नहीं दिया था ।उन दिनों पिता जी बीमार थे और मुझे दिल्ली जाना पड़ा था और मीतू और मां दोनों ही जानते थे कि मै व्यवहारकुशल नहीं हूं।
इन सब बातों से दूर फिर भी वो भेंट दे रही थी और मैं साधिकार निस्संकोच ले रही थी ।
सरल,सहज, दिखावे से दूर ऐसे मधुर रिश्ते मित्रता के ही हो सकते हैं ‌।मेरी मित्र मीतू ,जिसे मेरी मां ने बहुत वर्षों तक अपना स्नेह
और मार्ग दर्शन दिया,जो सालों हमारे घर में मां की रसोई में मदद करती रही और मां सी ही सुघड़ भी हो गई ।आज मैं कितनी आसानी से वही सरनेम और गृहस्थी के लिए पर प्रदर्शन हेतु उसकी ओर आशा भरी नजरों से देख रही हूं ।
"दीदी ,मैं ११साल की थी जब मैंने कमाने के लिए, विधवा मां की गृहस्थी में उनका हाथ बंटाने के लिए घर से बाहर जज साहब के चाय बागान में कदम रखा था ।"
"हां मीतू,बहुत मेहनत करी तुमने जीवन भर ।उस छोटी सी उम्र में चाय के बाग के साथ लगी मटर की फसल से चिड़िया उड़ाने से शुरू हुआ तुम्हारा सफर ,जीवन की ऊंचाइयों को छू रहा है। तुम्हारी इस कहानी को जितनी बार सुनती हूं,मुझमें उड़ने की शक्ति आ जाती है"।
"आज तुमने अपने बच्चों को उच्च शिक्षा देकर स्वावलम्बी बना दिया,इस गुरू की धरती पर तुम्हारे शुभ संकल्प को पूरा करने के लिए जज साहब और मेरी मां से सच्चे गुरु मिले।"
"हां दीदी मैं कभी जज साहब और मैडम जी का मार्गदर्शन नहीं भूल सकती ।"मीतू की आंखें इतना कहकर भर आईं ।
सच में जब हम जीवन में शुभसंकल्प लेकर आगे बढ़ते हैं तो सारी सृष्टि हमारे संकल्प की पूर्ति में सहायक हो जाती है ।