मुमताज़ SURENDRA ARORA द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मुमताज़

मुमताज़

(नाटिका)

कहानी का मूल लेखक - सुरेंद्र कुमार अरोड़ा

नाट्य रूपांतरकार - डॉ मनोज मोक्षेंद्र

पात्र - परिचय

ज़ावेद-देश-विभाजन के समय पश्चिमी पाकिस्तान को पलायन करके वहाँ बसने वाला हिंदुस्तानी मुसलमान

हबीब-पाकिस्तान में कुछ समय के लिए ज़ावेद से मिलता है

राधा-ज़ावेद इसे हिंदुस्तान से भागाकर पाकिस्तान ले जाता है और इस अपनी बीवी बनाना चाहता है; ज़ावेद इसका नाम रुख़्साना रखता है

मुमताज़-ज़ावेद की बेटी जो पाकिस्तान जाकर राधा को वापस हिंदुस्तान लाती है

दृश्य - एक

(वर्ष 1947 का अगस्त महीना। देश-विभाजन के बाद बड़ी संख्या में मुस्लिम समुदाय के लोग भारत से पश्चिमी पाकिस्तान की ओर पलायन करते हुए और उसी तरह पश्चिमी पाकिस्तान से हिंदुस्तान भागकर आते हुए हिंदू जन जिनके अंग-प्रत्यंग लहू-लुहान हैं और शरीर पर ज़गह-ज़गह चोट के निशान हैं जिन पर पट्टियाँ बंधी हुई हैं।

लाहौर का दृश्य है। एक दढ़ियल मुसलमान-जिसका नाम ज़ावेद है-कोई 16 वर्ष की एक हिंदू लड़की को ज़बरन खींचते हुए ले जा रहा है। तभी एक दूसरा मुसलमान जिसका नाम हबीब है और जो मूल रूप से लाहौर का निवासी है—ज़ाकिर से मुख़ातिब होता है।)

हबीब—अमां मियां, तुम हो कौन और इस ख़ूबसूरत हूर को यूं घसीट कर कहाँ ले जा रहे हो? (वह ललचाई नज़रों से लड़की को घूरता है।)

ज़ावेद—अज़ी, मैं नामुराद हिंदुस्तान को तौबा करके पाकिस्तान का बाशिंदा बनने आया हूँ। ये है, उस मकान का पता जहाँ से काफ़िरों को निकालकर मेरे रहने का बंदोबस्त किया गया है। (वह अपनी पॉकेट से एक कागज़ निकालकर उसे देता है।)

हबीब—(कागज़ पढ़ते हुए) मियां, तुम तो बिल्कुल सही ज़गह पर आए हो। आगे नुक्कड़ पर दाईं ओर मुड़ते ही एक नारंगी रंग का दो मंज़िला मकान दिखेगा जिसके गेट पर “राम निवास कुटीर” लिखा हुआ है। उसकी मोमटी पर किसी हिंदू देवता की टूटा हुआ बुत भी दिखाई देगा।

ज़ावेद—शुक्रिया, ज़नाब। तुम्हारे बताए पते पर मैं मुकम्मल तौर पर वहाँ पहुंच जाऊंगा।

हबीब—(लड़की को देखते हुए) मियां, तुमने इस लौंडिया के बारे में मुझे कुछ नहीं बताया?

ज़ावेद—(घिघिया कर) मियां, यह हमारी नई बीवी बनने जा रही है।

हबीब—क्या ये क़ाफ़िर की औलाद है?

ज़ावेद—(झिझकते हुए) कुछ ऐसा ही समझो।

हबीब—फ़िर तो बहुत अच्छा कर रहे हो। अल्ला-ताला तुमसे बेहद ख़ुश होगा। यूं भी क़ाफ़िर औरतें तन्दुरुस्त बच्चे पैदा करती हैं। पैगंबर का हुक़्म भी यही है—चार-चार औरतों से निक़ाह करो और ख़ूब बच्चे पैदा करो ताकि मुसलमानों की तादाद में दिन दूनी और रात चौगुनी इज़ाफ़ा हो और दुनियाभर में बस एक ही मज़हब के बंदे हों।

ज़ावेद—शुक्रिया, मियां। मुझे अपने पैगंबर की हिदायतों के अनुसार ही चलना है। अच्छा किया जो तुमने मुझे याद दिला दिया।

हबीब—अल्ला-ताला फ़रमाते हैं कि एक दिन सारी दुनिया पर इस्लाम का परचम फ़हरेगा।

(ज़ावेद उसकी बात सुनकर अपनी दाढ़ी पर हाथ फ़ेरता है और लड़की को अपनी बाँहों में जकड़ लेता है जो उसकी पकड़ से मुक्त होना चाहती है।)

दृश्य - दो

(ज़ावेद तेज़ कदमों से चलते हुए और लड़की को दोनों हाथों से घसीटते हुए “राम निवास कुटीर” में प्रवेश करता है। वह ज़ोर से लड़की को धक्के देकर अंदर दाख़िल होता है।)

ज़ावेद—(लड़की को धमकाते हुए) राधा, हाँ यही नाम है ना तेरा? अब तूं मेरी बीवी है। अगरचे तूने यहाँ से भाग निकलने की कोशिश की तो यह खंझर तेरे सीने के पार कर दूंगा।

राधा—(गिड़गिड़ाते हुए) आप मेरे दादा की उम्र के हैं। मैं आपकी पत्नी कैसे बनूंगी?

ज़ावेद—औरत किसी भी उम्र की हो, बच्ची ही क्यों ना हो, एक सच्चे मुसलमान का ईमान यही बताता है कि वह उसे अपनी बीवी बनाए। अगरचे वह बात से न माने तो ज़बरन उसे अपनी बीवी बनाए; वर्ना, ख़ुदा नाराज़ होगा।

राधा—तुम्हारा ख़ुदा इतना अन्यायी है?

ज़ावेद—(खंझर निकालते हुए) ख़बरदार, जो तूने परवदिगार के लिए एक भी लफ़्ज़ अनाप-शनाप निकाला तो(रुकते हुए) हाँ, तूं मेरे मन-मुताबिक रहेगी तो दुनिया के सारे ऐशो-आराम तेरे क़दमों में होंगे।

राधा—(रोते हुए) दया करो मुझ पर। मुझे तो पहले ही तुमने अनाथ बना दिया है—मेरे माँ-बाप और भाई को मौत के घाट उतारकर। अब और अत्याचार सहन नहीं होता।

ज़ावेद—(बात बदलते हुए) देख, आज से तेरा नाम राधा नहीं, रुख़्साना होगा। हाँ, इसी नाम से तुझे मोहल्ले वाले जानेंगे।

(वह जोर-जोर से रोती है।

दृश्य-तीन

(कोई दो दिनों बाद। ज़ावेद बरामदे में कुर्सी पर बैठा हुआ है और सामने खड़ी राधा को जिसका नाम उसने रुख्साना रखा है, धमका रहा है।)

ज़ावेद—तेरे भेजे में अब तो सारी बात समझ में आ गई होगी। सुन, आज शाम को कस्बे की बड़ी मस्ज़िद में चलना है—मेरे साथ निकाह का सारा बंदोबस्त हो गया है। बस, तुझे मुझको कबूल करना है और मुझे तुझको। अगर वहाँ भीड़-भाड़ में कोई ज़बानज़दग़ी की तो समझ लेना तेरी कोई ख़ैर नहीं। ख़ुद अल्लाह भी तुझे मुझसे नहीं बचा पाएगा।

(तभी मेन गेट पर चहलकदमी होती है। कोई गेट से अंदर प्रवेश करता है। ज़ावेद एकदम से चौकन्ना हो जाता है और राधा को धकेलते हुए कोने में खड़े होने का इशारा करता है।

एक अठाईस साल की एक युवती भागते हुए अंदर प्रवेश करती है।)

ज़ावेद—(दरवाज़े से उसे दाख़िल होते हुए देखता है और पहचानता है।) अरे, मुमताज़ बेटा।

मुमताज़--हाँ, अब्बा, ये मैं हूँ। बहुत थक गई हूँ।

ज़ावेद—अरे, बेटा, तूं कहाँ छूट गई थी? मैं तो सोच रहा था कि तूं हिंदुस्तान में अपनी अम्मी के पास ही रह गई। चुनांचे, अच्छा किया जो तूं मेरे साथ रहने आ गई।

मुमताज़—लेकिन अब्बू...(वह राधा को देख विस्मित हो जाती है।)

ज़ावेद—(बात को टालते हुए और लड़की की ओर इशारा करते हुए) आज से ये तेरी नई अम्मी है।

मुमताज़—लेकिन, अब्बू, ये तो मुझसे भी छोटी है। मैं इसे अम्मी कैसे मानूंगी? वैसे भी मैं यहाँ एक पल भी टिकने वाली नहीं हूँ।

ज़ावेद—(आश्चर्य से) क्यों?

मुमताज़—अब्बा, ये घर किसी हिंदू का है। क्या आप उस परिवार के लोगों का क़त्ल करके यहाँ काबिज़ हुए हैं? ये निहायत ग़लत बात है।

ज़ावेद—इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। क़ाफ़िरों को मारकर ही तो हम ज़न्नत के हक़दार बनेंगे।

मुमताज़—हरगिज़ नहीं। आप कुअरान फ़िर से पढ़िए। ऐसा उसमें कुछ भी नहीं लिखा है।

ज़ावेद—(बात बदलते हुए) मुमताज़, तेरा वो अंदर वाला कमरा है। तुम्हारे ऐशो-आराम के सारे सामान-असबाब वहाँ पहले से रखे गए हैं।

मुमताज़—(अचानक वहाँ की जमीन और दीवार देखकर सिहर उठती है) अरे, यहाँ की सारी ज़मीन इंसानी ख़ून से रंगी हुई है। अब्बू, क्या आपने उन्हें मारा है?

ज़ावेद—भला, मैं क्यों उन्हें मारने लगा?

मुमताज़—अब्बा! आप ये घर खाली कर दीजिये। मैं यहाँ एक पल भी नहीं ठहरने वाली। (वह जाने को होती है। फ़िर, राधा को देखकर ठिठक जाती है।)

ज़ावेद—अब तुझे कहीं नहीं जाना है।

मुमताज़—(बुरी तरह नाराज़ होते हुए) अब्बू, आप बेहद ग़लत कर रहे हैं। आप इस मासूम को रिहा कर दीज़िए; वर्ना, इसे मै ख़ुद अपने साथ हिंदुस्तान ले जाऊँगी...

ज़ावेद—मैं तेरा बाप हूँ। तूं कब से मुझे हुक़्म देने लगी?

मुमताज़—अब्बा हुजूर! हमें ऐसे किसी घर में नहीं रहना जो हमारा नहीं है।

ज़ावेद--ये क्या कह रही हो तुम? क्या कमी है इस घर में? दो मंजिला है; खुला और हवादार भी है।

मुमताज़—बहरहाल, मैं आपको भी लेकर यहाँ से अपने मुल्क़ वापस जाऊँगी। हाँ, इस मासूम को इसके परिवारवालों से भी मिलाना है।

ज़ावेद—ये तुम्हारी ग़लतफ़हमी है। तुम ऐसा कुछ भी नहीं करोगी।

मुमताज़—(हड़बड़ाहट में) आप कब से इतने ज़ालिम हो गए।

ज़ावेद—मैं सच्चा मुसलमां हूँ। हाँ, पक्का मुसलमां हूँ। अपनी अस्मिता के लिए कुछ भी कर गुज़रने को तैयार हूँ।

मुमताज़—सब बकवास है। आप लुटेरे हैं।

ज़ावेद—(गुस्से पर काबू पाते हुए और समझाते हुए) देखो मुमताज़, मेरी पोस्टिंग इस बलवे से काफी पहले ही मुल्क के उस हिस्से में हो गयी थी जिसे अल्लाह ने एक ख़ास मकसद के लिए चुना है।

मुमताज़—यह अल्लाह का मक़सद नहीं, आपकी ख़ुदगर्ज़ी है, नहीं-नहीं, दग़ाबाज़ी है।

ज़ावेद—(अपना होठ भींचते हुए) देखो, धरती के इस हिस्से से शुरू होकर अल्लाह की सल्तनत सारे हिन्द पर फैलने वाली है। ये खुदा का ही करम है कि सलीम मियां हमारे अब्बा के पुराने कुलीग निकले और यहां इतने ऊँचे ओहदे पर तैनात हैं कि उनकी सिफारिश से हमें वही घर हमेशा के लिए क्लेम में मिल गया, जिसे हम चाहते थे।

मुमताज़—यह ख़ुदा का करम नहीं, एक मिली-जुली साज़िश है।

ज़ावेद—(थोड़े तैश में) अगर बंटवारा न हुआ होता तो हिन्दुस्तान में हम ताउम्र ऐसी शानदार कोठी, वो भी अपनी, के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। यह हमारी खुशकिस्मती है कि हिन्दुस्तान तकसीम हो गया और पहले हम और अब हमारी बेटी भी अपने असल मुल्क में आ गई है।

मुमताज़—अब्बा, ये आपकी भूल है कि मैं आपके साथ यहाँ रहूंगी। यह हमारा मुल्क़ कतई नहीं है। लूट के हराम के माल पर आप अपना हक़ जमाने से बाज आ जाइए।

ज़ावेद—(अपनी ही रौ में बोलते हुए) अल्लाह का करम हुआ तो तुम्हारी अम्मी भी अपने भाइओं की फर्जी मोहब्बत को अलविदा कहकर बहुत जल्द यहीं आ जाएँगी और हमारे दिन पूरी तरह से हरे हो जायेंगें।

मुमताज़—(व्यंग़्यपूर्वक हँसती है।) क़त्ले-आम और लूटपाट के बल पर, ग़ैरों की ज़ायदाद पर काबिज़ होकर क्या हम अपने दिन हरे करने वाले हैं?

ज़ावेद—अपनी ज़बान को लगाम दो। बार-बार हमें लुटेरा मत कहो।

मुमताज़—(थोड़ा नरम हो जाती है।) अब्बा! आप तो पाँचों वक्त के नमाजी हैं।

ज़ावेद—हाँ तो?

मुमताज़—इस्लाम में मुफ्त की हर चीज हराम है। अब्बा हुजूर! हराम की इस सौगात को आप कैसे कुबूल कर सकते हैं?

ज़ावेद—ये सौग़ात नहीं, हमारी मेहनत की कमाई है।

मुमताज़—मुझे इस घर के हर कोने में हर पल वो चीखें सुनाई दे रही हैं जो इस घर को बनाने वाले बाशिंदों के ज़िस्म के हर हिस्से से निकली होंगी जब उन्होंने ये घर छोड़ा होगा।

ज़ावेद—मुझे तो सब कुछ सुहाना और पाक-साफ़ लग रहा है।

मुमताज़—मैंने उन बाशिंदों के चेहरों पर जुल्म और दहशत के गहरे जख्म देखे हैं। क्या इसके हर कोने में आपको खून के कतरे नहीं मिले हैं? उनकी चीखें सुनाई नहीं दी थीं जिनका कत्ल हुआ था?

ज़ावेद--बिट्टो! ये घर हमें किसी खैरात में नहीं, उस ज़ायदाद के बदले में मिला है जो हम हिन्दुस्तान में छोड़कर आये हैं। अब हम अपने वतन में आ गए हैं।

मुमताज़—नहीं अब्बू, ये हमारा वतन तो हो ही नहीं सकता। बातें मत बनाइए।

ज़ावेद—ज़िद मत करो—यह हमारा ही घर है। यक़ीन करो, यहां के सारे काम अल्लाह के हुकुम से होंगे। अल्लाह ने धरती के इस हिस्से को ज़न्नत में तब्दील करने का ज़िम्मा लिया है।

मुमताज़—(व्यंग्यपूर्वक हँसते हुए) अभी तो मुझे यह जहन्नुम से भी बुरा लग रहा है।

ज़ावेद—कुछ दिन यहाँ रहो और फ़िर बताना। शायद, इसीलिए अल्लाह के हुकुम से उन काफिरों को यहां से सफ़ाया करना पड़ा है और अल्लाह के ही करम से ये कोठी हमें नसीब हुई है। हम तीनों मिलकर बेशक, इस कोठी को हमेशा के लिए आबाद करेंगे।

मुमताज़--अब्बू! आप अपने लालच और बदनीयती को अल्लाह का हुकुम मत कहिये। इसे मक्कारी कहते हैं। अल्लाह किसी की चीखों की बुनियाद पर दूसरों की इमारतें नहीं खड़ी करता।

ज़ावेद—तुम्हारे अल्फ़ाज़ नामुनासिब हैं।

मुमताज़—नहीं, अब्बाजान, मुझे तो इस घर के कोने-कोने से जवान बेटियों पर हुए ज़ुल्मों की तस्दीकेँ नजर आ रही हैं। यह घर नहीं, कब्रग़ाह है।

ज़ावेद—होश में आओ, मुमताज़। इसी रौनकदार घर में तुम्हें ताउम्र रहना है।

मुमताज़—तो आप रहिये ना, इस कब्रगाह में। मैं और अम्मी जिन्हें आप अपने साथ लाना चाहते हैं, इस घर में कभी नहीं रह सकते। ये घर नहीं, ये जवान बहू-बेटियों की लूटी गयी इस्मत का जंगल है। यहां की दीवारें मुझे न जाने कितने बाशिंदों के खून की गवाही दे रही हैं, जिन्हें बिना किसी कसूर के क़त्ल किया गया है।

ज़ावेद-- चुप हो जाओ मुमताज! बहुत हो चुकी तुम्हारी बज़्ज़ात और बेमतलब की तकरीर। क्या तुम्हें हमारी ख़ुशी कबूल नहीं है? सहन करने की भी एक हद होती है। तुम हमारी बेटी न होती तो हम तुम्हारी इन जली-कटी बातों को कभी नज़रअंदाज न करते। कहाँ जाओगी तुम, मेरा मतलब कहाँ जाकर रहोगी? अब तुम्हारा यही घर है और यही है--हम सबका अपना वतन।

मुमताज़—आप मुझे नहीं बहका सकते। असलियत मैं अपनी नंगी आखों से देख रही हूँ। इस वक़्त, आपमें मुझे अपना अब्बा नहीं दिखाई दे रहा है।

जावेद—याद रखो, तुम मेरी बेटी ही हो।

मुमताज़—अब्बा! आप मुझ पर अपनी बेटी होने का एहसान मत ज़ताइये ।

जावेद—पर, अब अगर तुमने ज़लालत-मलालत की बातें की तो मैं क्या कर गुजरूंगा—यह मैं नहीं, वक़्त बताएगा।

मुमताज़—हाँ, जब आप अपनी बेटी से भी कई साल छोटी लड़की को अपनी बीवी बना सकते हैं तो आप मेरे साथ क्या कर सकते हैं—यह मुझे अच्छी तरह मालूम है।

ज़ावेद—(वह गुस्से में अपने खंझर की ओर देखता है) अक़्लमंद को इशारा काफ़ी है।

मुमताज़—बेशक, आप मेरा कत्ल कर सकते हैं तो उठा लीजिये खंजर। ऐसा ही आपके मुल्क और वतन में होने वाला है। पर, मैं इसे अपना मुल्क नहीं मान सकती।

ज़ावेद—ख़बरदार।

मुमताज़—(अपनी ही रौ में बोलती जाती है।) मैं यहां रहूंगीं तो मुझे मरते दम तक यह एहसास रहेगा कि मैं किसी मकबरे के ऊपर ज़िन्दा लाश की तरह काबिज़ हूँ। जिन औरतों को इस घर में बेइज्जत किया गया होगा, वे भी किसी न किसी की बहन और बेटियाँ ही थीं, ठीक उसी तरह, जिस तरह यह बदनसीब मुमताज आपकी बेटी है। मुझे उन भाइयों की लाशों पर अपनी जिंदगी बसर नहीं करनी है जो अपनी बहनों की अस्मत बचाने के लिए शहीद हो गए।

ज़ावेद-- हमने किसी की बेटी पर कोई ज़ुल्म नहीं किया है। किसी के भाई को नहीं मारा है। ये कोठी सचमुच हमें क्लेम में मिली है और जब हम इसमें आये तो यह बिलकुल खाली थी। इसे खाली करवाने में हमारा कोई हाथ नहीं है। मैं सौ फ़ीसदी सच कह रहा हूँ कि मैंने किसी पर कोई ज़ुल्म नहीं किया है।

मुमताज़—आपके लफ़्ज़ों में सरासर झूठ और फ़रेब छुपा हुआ है।

ज़ावेद—(मनाने की आख़िरी कोशिश करते हुए) ऐसा मत कहो, बिट्टो। (फ़िर, जब वह मुमताज को गले लगाने के लिए आगे बढ़ता है तो मुमताज बिना देर किए पीछे हट जाती है। ज़ावेद मियां के बढ़े हुए कदम अपनी जगह पर ठिठक जाते हैं। उसका चेहरा तमतमा उठता है।)

मुमताज़—बहरहाल, मुझे आपकी किसी सफाई या लल्लोओ-चप्पो की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं अपने उसी मुल्क में जाऊंगीं जहां मेरा जन्म हुआ है। मेरा वतन वही है, जिसे छोड़कर आपने इस कोठीनुमा कब्रगाह में रहने का फैसला लिया है।

ज़ावेद—पर, तुम वहां किसके पास रहोगी और वहां जाकर क्या करोगी?

मुमताज़--पहला काम तो यह करूंगीं कि यहां रहने वाले जिन बाशिंदों की ये कोठी है, उनकी तलाश करूंगी। फिर, यह पता करूंगीं कि उस परिवार पर किसने और कितने जुल्म किए हैं जिनकी वज़ह से वे अपना हँसता-खेलता घर छोड़कर भागने को मजबूर हुए हैं। कोशिश करूंगीं कि उनके जख्मों की मरहम बन सकूं।

ज़ावेद--लाहोलवलाकुवत! तुम ये बिलकुल नहीं कर सकती। तुम ये मत भूलो कि मैं तुम्हारा बाप हूँ और तुम्हारी जिंदगी पर तुमसे ज्यादा हक़ हमारा है।

मुमताज़--अब्बा! आप भी मत भूलिए कि मेरी रगों में आपका ही नहीं, मेरी अम्मी का खून भी बह रहा है और अम्मी ने अभी भी अपना वतन नहीं छोड़ा है।

ज़ावेद—(अपना आपा खोते हुए) देखो, मुमताज! तुम अपनी हदें लांघ रही हो। ऐसा न हो कि तुम्हारी इस कतली सोच की वज़ह से मैं भूल जाऊँ कि तुम मेरी बेटी हो और इस घर की दीवारें एक बार फिर खून से लाल हो जाएँ और मैं वो कर बैठूं जो मैं नहीं करना चाहता।

(वह अपनी बात अभी पूरी भी न कर पाए थे कि अंदर के कमरे से एक चीख सुनाई दी। चीख सुनते ही मुमताज सकते में आ जाती है।)

मुमताज़--कौन है अंदर? किसकी चीख इन बेज़ान दीवारों का दिल भी छलनी कर रही है?

ज़ावेद—तुम पागल तो नहीं हो गई हो? मुझे तो कोई चीख सुनाई नहीं दे रही है। (ज़ावेद के चेहरे पर अपराध-भाव साफ झलकता है जिससे उसके चेहरे पर नरमी का भाव साफ़ उतर आता है।)

मुमताज़—अब्बू, अंदर इस मासूम लड़की के अलावा कोई और भी है जिसकी अस्मत लूटी जा रही है। (वह अंदर जाने को होती है तो ज़ावेद उसका रास्ता रोक लेता है।)

ज़ावेद—तुम क्या करना चाहती हो?

मुमताज़—आख़िर आपने कितनी मासूम लड़कियों को यहाँ कैद कर रखा है? मैं उन सभी को बचाना चाहती हूँ।

ज़ावेद—मैं तुम्हें ऐसा कभी नहीं करने दूंगा।

(ज़ावेद खंझर निकालकर मुमताज़ की ओर दौड़ता है जबकि मुमताज़ उसे पीछे धकेल देती है। ज़ावेद गिर जाता है और सिर पर चोट आने के कारण अपनी चोट सहलाता है, तब तक मुमताज़ कोने में मूक खड़ी राधा का हाथ पकड़कर तेज़ी से बाहर भागती है।)

मुमताज़—अलविदा, मेरे पत्थरदिल अब्बू। अब आपसे दोबारा मिलना मुझे गवांरा नहीं है। (राधा से) बहन, भागो। ये मेरा अब्बा किसी शैतान से कम नहीं है।

राधा—(हमदर्दी के लफ़्ज़ सुनकर उसकी जान में जान आ जाती है) अरे, तुमने अपने ही पिता के ख़िलाफ़ ये कदम उठाया है। तुम स्त्री के रूप में देवी हो।

मुमताज़—(तेजी से भागते हुए) अगर पल भर को यहाँ हम रुके तो इसका अंज़ाम बहुत बुरा होगा। हम दोनों वापस हिंदुस्तान जा रहे हैं। बस, कुछ दूर भागकर जाने के बाद, हम कुछ दिनों में छिपते-छिपाते सरहद पार कर ही जाएंगे।

राधा—(अत्यंत खुश होते हुए) तो क्या हम फिर से अपने देश की स्वच्छंद आबो-हवा में जीने की इच्छा पूरी कर पाएंगे?

मुमताज़—इस बात में तनिक भी संदेह नहीं है। मैं वहाँ पहुँचते ही तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ूंगी; फिर मैं अपनी अम्मी के पास जाऊँगी।

राधा—पर, मैं अब वहाँ जाकर भी क्या करूंगी? मेरे माता-पिता और भाइयों की तो हत्या कर दी गई है।

मुमताज़—च्च, च्च च। तो क्या तुम्हारा कोई भी नहीं है।

राधा—(सोचते हुए रुआंसी हो जाती है) मैं अपने मामा के घर जालंधर चली जाऊँगी। हाँ, यही उचित रहेगा।

(दोनों बिजली की चाल से भागती हुई उस काफिले का हिस्सा बन जाती हैं जो फ़ौज की निगरानी में बचे हुए शरणार्थीयों के रूप में, हिंदुस्तान जाने के लिए, एक सरकारी स्कूल में एकत्रित हुआ है।

पर्दा गिरता है।)

समाप्त