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सोलमेट्स

सोलमेट्स

भागती-दौड़ती कॉलेज के लिए तैयार होती संजना की एक नजर घड़ी पर लगातार बनी हुई थी, अगर बस छूट गई तो दिन बर्बाद!

“ प्रोफेसर भार्गव एक नम्बर के खडूस! किसी से नोट्स भी कॉपी नहीं करने देंगे। ”

जल्दी-जल्दी जूतियों में पैर डालती संजना की बड़बड़ाहट रुक ही नहीं रही थी। झटपट बाल समेट कर रबरबैंड लगाती, बैग लिए दरवाजे से निकलते हुए माँ को पुकारा,

“माँ मैं जा रही हूँ, आने में लेट हो जाऊँगी, चिंता मत करना, बाय” माँ के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही तेज़ी से बाहर निकल आई।

गली से निकलकर लगभग तीन-चार मिनट की दूरी पर बस स्टॉप पर पहुँचने तक सभी देवी देवता मनाने के बाद भी यूनीवर्सिटी वाली बस निकल गई थी। पाँच मिनट बाद अगली बस थी तो, पर ये प्राइवेट बस थी, जिसमें यूनीवर्सिटी के अलावा बाहर के भी लोग होते हैं, उनकी उपस्थिति सजा से कम नहीं। पर मरता क्या ना करता। क्लास अटेंड करनी थी तो मजबूरी थी। अब से पहले भी दो चार बार गई है इसी बस से, वो भी भार्गव सर की ही बदौलत।

बस आ गई उसके जैसे ही दो-चार स्टूडेंट चढ़े बस में। इस बस में सीट की उम्मीद करना फ़िज़ूल था। फिर भी एक उचटती सी नज़र डाली, तो एक महिला ने इशारे से बुला लिया। किस्मत अच्छी थी सीट मिल गई नहीं तो चालीस मिनट खड़े होकर जाना पड़ता।

महिला देख कर मुस्कुराई, “कॉलेज जा रही हो?”

“जी” संक्षिप्त सा उत्तर देकर संजना ने अपने कानों में हेडफोन लगा लिया। और बैग में सरसरी नज़र मारकर चेक किया सब कुछ मौजूद तो है।

आँखे बंद कर सिर सीट से टिका अपने संगीत में डूबी संजना की बांह को किसी ने थपथपाया तो उसने आँखे खोल दी।

बगल वाली महिला ने हड़बड़ाकर पानी की बोतल बढ़ाई, और इशारे से साथ ही गैलरी में खड़े उस लडके को देने को कहा जिसने अपनी सीट संजना के लिए खाली की थी।

अचानक से तो जैसे संजना को कुछ समझ नहीं आया उसने यंत्रवत पानी पास कर दिया और अपने कानों से इयर प्लग निकालकर, बात समझने की कोशिश करने लगी।

उस लड़के ने अपनी कलाई कस कर पकड़ी हुई थी। चेहरे पर दर्द के भाव थे, उसका साथी उसकी कलाई पर पानी के छींटें मार रहा था और वह सिर हिला कर अपनी छटपटाहट पर काबू करने की कोशिश कर रहा था। पानी के छींटे, गीला रुमाल भी कुछ असर नहीं कर सका तो उसने अपने बाएं हाथ से बोतल छीन पूरा पानी उड़ेल लिया। दर्द उसकी आँखों से रिसने लगा था कभी दाँत भींचता कभी उफ़ कहकर सांस छोड़ता, सिर इनकार के अंदाज़ में हिलाता। आसपास के सभी लोग हैरान थे कि आखिर हुआ क्या?

“चोट लगी है?” किसी ने सवाल उछाला।

“अरे नहीं, अच्छा भला था अभी इस पिछले स्टॉप से बस चली तब से जलन और दर्द से बेहाल है,” साथी ने बताया।

अपनी आँखें बंद किए, कराहते लड़के को लोगों ने तुरंत बगल में सीट पर बैठाया, पर उसका तडपना अब, आस पास वालों को भी बेचैन कर रहा था। आखिर चौबीस पच्चीस साल का लंबा तगड़ा युवा इस तरह से तडप रहा था।

अचानक संजना को जैसे याद आया अपना बैग खोलकर उसने क्रीम निकाली और उस लड़के की कलाई पर अपने हाथ की पहली उंगली में थोड़ी सी क्रीम लगाकर हौले से चुपड़ दी। उसकी कलाई तो जैसे जलता कोयला हो! संजना की क्रीम ने करिश्माई असर किया। उसने अपनी आँखें खोल दी, लाल सुर्ख आँखें जिनकी कोरों पर आंसुओं की नमी टिकी थी, उनमें अब राहत थी शुक्रिया अदा करती आँखों ने संजना को पहली बार गहरी नज़र से देखा तो, उसके ऊपर झुकी संजना सकुचा कर अपनी सीट पर वापस बैठ गई।

“थैंक्स” राहत मिली तो शिष्टाचार जागा।

‘यूनिवर्सिटी जा रही हैं?”

“जी”

“मैं भी, क्या कर रही हो?”

“सेकेंड इयर”

“ओह गुड, सब्जेक्ट क्या हैं?” सवाल उभरा पर तब तक स्टॉप आ गया था। संजना ने सुन कर भी प्रश्न अनसुना कर दिया और लपक कर उतर गई। मेन गेट से डिपार्टमेंट तक आते आते संजना भी अपनी कलाई पर ठीक उसी स्थान पर अजब सी सनसनाहट महसूस कर रही थी। रह रह कर हाथ वहीँ जा रहा था।

“शिट! कोई इंफेक्शन तो नहीं था? गॉड क्या मुसीबत है?” संजना ने सबसे पहले जाकर नल पर अपने हाथ अच्छी तरह से धो डाले।

पीछे से पीठ पर किसी ने धौल जमाई, “आ गई महारानी! मुझे तो लगा था आज नहीं आएगी। ”
संजना पलटी, सामने संजना की बेस्टफ्रेंड अदिति खड़ी थी।

“अरे यार आती कैसे ना भार्गव सर का भूत सवार था। सारी रात सो नहीं पाई।”

“तब भी तो बस छूट गई तेरी। अदिति ने छेड़ते हुए कहा।

"अरे चिंता के मारे पूरी रात नींद नही आई न, सुबह सोई तो आँख ही नही खुली। " संजना ने खिलखिलाते हुए कहा ।

दोनों क्लास में जाकर बैठ गईं ,अब संजना को बस की घटना और अपने हाथ की जलन कुछ भी याद न था।

"फिल्म का प्रोग्राम पक्का है ना?" पिछली सीट पर बैठी उन्ही की साथी ने नीचे से पैर मारकर फुसफुसा कर पूछा।

संजना ने बिना पीछे मुड़े अपना अंगूठा साइड से दिखाकर, प्रोग्राम डन कर दिया।

भार्गव सर के आने से लेकर पूरा पीरियड बीतने तक क्लास में सर की आवाज़ के अलावा कोई आहट तक न हुई।

पीरियड ओवर होते ही पिछली सीट से जान्हवी भी उठकर अदिति और संजना की सीट पर आकर टिक गई।

" यार! ये बेचारे केशव को कठिन काव्य का प्रेत क्यों कहते हैं?" जान्हवी ने मासूमियत से पूछा ।

" केशव कठिन काव्य के प्रेत नही है वो तो रोमेंटिक कवि हैं।" अदिति ने शरारत से आँखें नचाते हुए कहा।

"सच में कठिन काव्य के प्रेत तो ये भार्गव सर हैं, जो हम साइंस वालों को ऐसे देखतें हैं जैसे अछूत हों ! लिटरेचर पढ़ने और समझने की बुद्धि नही हो हमारी।"

संजना ने कुढ़ते हुए कहा और तीनों खिलखिला कर हँस पड़ीं।

"अब बेचारे सर को क्या मालुम हम सब कितने रसिक साहित्य प्रेमी है।" समवेत ठहाका मार तीनों हँस पड़ी। सुबह से छाया तनाव छिटक कर दूर जा चुका था।

अभी दो पीरियड और भी थे पर इतना दबाव नही था। क्लास अटेंड कर तीनों सहेलियां फिल्म निकल गई जिसके लिए सप्ताह भर से प्रोग्राम बना रही थीं।

फिल्म के बाद सब अपने अपने घर चली गई। अगले दिन कॉलेज में मिलने के वादे के साथ।

रात को सोने से पहले सुबह की तैयारी के तहत संजना ने अपने बैग का सामान पलटकर खाली किया तो सारे सामान के साथ क्रीम की ट्यूब भी निकल कर गिरी, जिसे देख सुबह का दृश्य आँखों के सामने आ गया।

इस बार अजीब सी बात संजना के साथ हुई उस घटना को याद कर दर्द और जलन तो नहीं पर एक लाल सी आकृति उसकी कलाई पर ठीक उसी स्थान पर उभरी जहाँ कॉलेज में घुसते ही उसने सनसनाहट महसूस की थी।

अचानक उभरी और गायब हो गई। संजना घबरा गई। दौड़ कर बाथरूम में रखी डिटॉल, रुई में ले कर कलाई पर लगाई और रगड़ कर साफ़ कर ली। उसे मन ही मन डर भी लग रहा था कि ये कोई इंफेक्शन हो गया उसे भी, घर में अगर किसी को बताएगी तो खुद ही डाँट खाएगी कि सावधान रहना चाहिए, अपने हाथ से क्रीम लगाने की क्या जरूरत थी। अब दिमाग फिर अटक गया बात तो सही ही है वैसे उसने अपने हाथ से अजनबी को क्रीम लगाई ही क्यों? पर सब कुछ इतने अचानक से हुआ कि सोचने समझने का समय ही नही मिला।

हुंह के साथ एक गहरी सांस भर के छोड़ते हुए संजना ने अपना सामान सहेजा और साथ ही साथ मन भी।

अपने कॉलेज और घर की व्यस्त दिनचर्या में जल्द ही संजना सब भूल भी जाती कि अकस्मात लाइब्रेरी के बाहर फिर उस से भेंट हो गई। सामान्य अभिवादन के बाद संजना के साथ ही वह भी लाइब्रेरी तक चला आया तो संजना पूछ ही बैठी “आपको भी कोई बुक चाहिए क्या?”

“नहीं तो...”

“फिर? आपकी क्लास नहीं है?”

“नहीं, मैं रिसर्च कर रहा हूँ... हमारी क्लास नहीं होती.” उसने मुस्कुरा कर कहा तो संजना झेंप गई।
“ओह ! अच्छा किस विषय में ?’

“तुमको बुक चाहिए ?”

संजना को उसका यूँ तुम पुकारना अच्छा नहीं लगा, इतना भी परिचय नहीं हुआ था कि सीधे तुम पर आ जाएँ।

उसकी चुप्पी देख दुबारा पूछा, “अरे लंच करने जा रहा था कोई किताब लेनी हो तो बोलो नहीं तो ताला मार दूँ ?”

“आप?” आगे शब्द उलझ कर मुँह में ही रह गए संजना के उसको यूँ उलझा देख वो हँस पड़ा।

“मैं पार्ट टाइम लाइब्रेरी का भी काम देखता हूँ, मेरा खर्चा भी निकल जाता है और किताबों के लिए इधर उधर नहीं भटकना पड़ता है। ”

“ओह, अच्छा तो है। ” संजना ने सहज होते हुए कहा।

“आपका हाथ अब कैसा है सर” संजना ने शालीन स्वर में पूछा।

“अरे मेरा नाम विशाल है,सर वर ना पुकारो! हाँ हाथ ठीक है।" उसने कलाई मसलते हुए कहा।

“आपने डॉक्टर को दिखाया था?”

‘हाँ पर डॉक्टर को भी समझ नहीं आया क्या था।”

“स्किन वाले डॉक्टर को दिखाते, तो शायद पकड़ आती प्रॉब्लम।” संजना को पूरा यकीन था कि उसने डॉक्टर को नहीं दिखाया है बस उसे टरकाने के लिए बोल रहा है।

“स्किन एक्सपर्ट को भी दिखाया, पर दुबारा कोई दिक्कत हुई ही नहीं।”

संजना को अपनी किताबें मिल चुकी थी सो वहाँ और रुकने की वजह भी नहीं थी।

संजना ज़रा सा ही हटी थी, कि कलाई पर फिर से सुर्खी उभरी, उसने पलट कर विशाल की तरफ़ देखा, वह खड़ा मुस्कुरा रहा था। .. संजना ने विपरीत दिशा में ऐसे दौड़ लगाई जैसे भूत देख लिया हो.. सर से पाँव तक पसीने में लथपथ, सांस ऐसी चल रही थी जैसे धौंकनी जैसी, उसको यूँ बदहवास देख अदिति ने झिंझोड़ते हुए पूछा, “क्या हुआ संजना कोई प्रोब्लम है क्या?”

संजना ने अपना हाथ आगे बढ़ा अदिति को दिखाया जहाँ लाल महीन लकीरों से अजीब सी आकृति उभरी हुई थी एक बारगी तो अदिति भी घबरा गई मगर अगले ही पल उसने अपनी घबराहट पर काबू कर संजना को तसल्ली देते हुए उसकी कलाई सहलाई

“चल डिस्पेंसरी चलते है।”

“नहीं दर्द नहीं हैं कोई इरीटेशन भी नहीं हैं। पर सुन तुझे कुछ बताना हैं समझ नहीं पा रही हूँ ये जो हो रहा है वो क्या है?” संजना ने अपनी उलझन अदिति पर उड़ेल डाली। पिछले आठ-दस दिन से वो जिस दौर से गुजर रही थी, बस में विशाल से मिलने से लेकर, आज लाइब्रेरी तक का पूरा घटना क्रम सुना डाला।

“मुझे लगता है अदिति वो कोई जादू टोना कर रहा है मेरे ऊपर। ” संजना ने डरे हुए स्वर में कहा। अदिति ने उसे झिडक दिया, “क्या पागलों जैसी बात करती है। वो तुझे नहीं जानता, तू उसको नहीं जानती कोई स्किन प्रॉब्लम उसको हुई वही तुझे हो गई तो ये जादू टोना हो गया! कमऑन यार हम साइंस स्टूडेंट हैं तू ऐसी बात सोच भी कैसे सकती है। ”

“नहीं अदिति ये सिर्फ स्किन की परेशानी नहीं हैं। संजना की आवाज़ जैसे गहरे सागर की तलहटी में से आ रही थी।

“अरे ! तेरा वहम है यार और कुछ भी नहीं। ” चल घर चलें ये बस छूट गई तो अगली साढ़े चार से पहले नहीं मिलेगी। ” अदिति ने संजना को लगभग धकेलते हुए कहा। दोनों तेज़ चाल से गेट से बाहर निकल रोड पर बस स्टॉप की ओर बढ़ गईं।

घर आकर भी संजना को चैन नही आ रहा था वो बार बार अपनी कलाई रगड़ कर देखती, कभी छूती, कभी पोछती, माँ का जैसे ही ध्यान गया उन्होंने पूछ लिया, संजना ने भी पल भर की देर नही की मां को पूरा ब्यौरा देने में।

अब संजना के साथ साथ माँ भी उसकी कलाई पर उभरती गायब होती आकृति को लेकर चिंतित थी। घरेलू नीम हकीमी से लेकर शहर के जाने माने त्वचा रोग विशेषज्ञ तक हो आईं बेटी को लेकर पर, कोई आराम नही। इस सबकी वजह से संजना भीतर भीतर परेशान रहने लगी । पूरी आस्तीन के कपड़े पहनती और विशाल से दूर ही रहती। पर अब अजीब सा बदलाव खुद में पा रही थी संजना जो अपने आगे भी स्वीकार नहीं कर रही थी।

माँ की भी इलाज़ की प्रक्रिया उसे भूलने नही देती, माँ कभी नज़र उतारती कभी हींग बाँधती तो कभी राई बाँध देती। संजना को इन सब टोटकों से बड़ी खीज आती पर माँ का मन रखने को चुप रह जाती।

पर उस दिन तो हद हो गई माँ न जाने किस किस की बातों में आ जाती है, घर में बर्तन साफ करने वाली रामदेई की बातोंमें आकर किसी बाबा जी का धागा बनवा कर ले आई।

अब सब कुछ संजना की समझ से बाहर हुआ जा रहा था। आखिर उसने निश्चय किया एकबार विशाल से मिलने का।

जाने अनजाने वो ही उसको इस स्थिति में लाने की वजह है। बस यही सोच संजना कॉलेज लाइब्रेरी की ओर बढ़ गई, विशाल अपने काम में व्यस्त था, कुछ लोग किताबें इश्यू करा रहे थे कुछ वापस कर रहे थे, विशाल बड़ी मुस्तैदी से सबकी एंट्री कर कार्ड लगा किताब अपने काउंटर पर रखता जा रहा था। अचानक संजना पर नज़र गई तो सिर हिला कर अभिवादन किया। संजना भी मुस्कुरा कर रह गई। सबको निपटा कर विशाल किताबों का चट्टा उठाकर रैक तक ले आया एक एक किताब को करीने से उसकी जगह वापस जमा संजना के पास आ खड़ा हुआ, "सॉरी तुमको वेट करना पड़ा, हाँ कहो कोई काम है।"

"आपको कैसे पता चला मुझे काम है आपसे?" संजना ने उल्टा उसी पर सवाल दाग दिया।

“अरे कमाल है, कबसे मेरे ख़ाली होने का वेट कर रही हो! बिना काम के, कहो! क्या बात है?”

“समझ नहीं आ रहा कहाँ से शुरू करूँ क्या पूछूँ आपसे सर! मेरा मतलब विशाल जी” संजना के शब्द ऐसे खोए जा रहे थे,जैसे अचानक से टूटी लम्बी माला के मोती हों पकड़ते पकड़ते भी दो चार गिर ही जाते हैं।

"अरे, इतना संकोच क्यों कर रही हो ! खुल कर पूछो, बुरा नहीं मानूँगा।"

विशाल ने संजना को आश्वस्त करते हुए कहा, तो संजना ने धीरे से पूछा "हम कहीं बाहर बैठ कर बात कर सकतें है क्या?"

"हाँ हाँ श्योर, पास ही कॉफीशॉप है वहां चलें?" विशाल ने पूछा तो संजना ने स्वीकृति में सिर हिलाया।

विशाल की बाइक से दोनो कॉफीशॉप तक आए।

गहरे ब्रॉउन और सफ़ेद के कॉम्बिनेशन से बना कॉफ़ी शॉप भीतर से बहुत बड़ा नही था पर इतना स्पेस अवश्य था कि वे अपनी टेबल पर बैठ कर आराम से बात कर सकते थे विशाल दो कपाचीनो ऑर्डर कर कोने की उस मेज तक आया जो बिल्कुल किनारे थी जहाँ कोई विशेष रूप से जाना चाहे तभी पहुँचे।

कुर्सी खींच बैठते ही विशाल ने कहा,

“हाँ संजना अब कहो क्या बात है?"

"विशाल जी, मैंने आपको पहली बार उस बस में देखा था, जब आपके हाथ में प्रॉब्लम हुई थी। मैं उस बस से रोज़ जाती भी नही मेरी डेली वाली बस छूट गई थी तब उस से जाना पड़ा था" संजना ने बातों के सिरे खोलते हुए कहना शुरू किया।

"आप यकीन नही करेंगे मैं तबसे किस उलझन से गुज़र रहीं हूँ।" कहते-कहते संजना की आवाज़ रुंध गई, टप-टप दो मोती आँखों की सीमाएं लांघ मेज पर रखे संजना के अपने ही हाथ पर गिर कर बिखर गए।

विशाल संजना को देख द्रवित हो उठा, उसके चेहरे से साफ़ नज़र आ रहा था कि उसे समझ नही आ रहा, आखिर माज़रा क्या है! उसने ऐसा क्या कर दिया जो संजना की ऐसी हालत हो गई।

"सॉरी" संजना ने झट से आँखे पोछ विशाल की ओर देखते हुए कहा।

“प्लीज़ बताओ तो सही, बात क्या है?" विशाल ने अधीरता से पूछा।

तब तक कॉफी भी रेडी हो गई थी वेटर टेबल पर कप रखने आया तो दोनों चुप हो गए, धीरे धीरे कॉफी सिप करते हुए संजना मन ही मन अपनी कमजोरी पर काबू पाने का प्रयास कर रही थी।

कॉफी पी कर सहज महसूस कर रही थी, उसने घूंट भर विशाल की ओर देखा जो उत्सुकता से उसी को देखे जा रहा था चेहरा शांत था पर आँखों में अनगिनत सवाल पंक्तिबद्ध खड़े थे।

संजना ने आधी कॉफी पी कप एक ओर खिसका दिया, और अपने शर्ट नुमा टॉप की बाईँ आस्तीन का बटन खोल अपनी बाँह उघाड़ दी... जहाँ लाल रंग की बारीक़ रेखाएं किसी ज्यामितीय आकृति की तरह एक दूसरे को छू कर गुज़र रहीं थीं। ऊपर से त्वचा साफ,चमकीली, स्निग्ध पर अंदर जैसे हल्की सी रौशनी निकल रही थी। जिससे वो आकृति और उभर कर दिख रही थी।

“ओ माय गॉड, अनबिलीवेबल!!" आश्चर्य से आँखे फ़टी रह गई विशाल की, कुर्सी से उठ कर खड़ा हुआ झुककर संजना का हाथ देखा और धम से वापस कुर्सी में धंस गया।

संजना ने आस्तीन नीचे कर बटन बन्द कर लिया था। दोनों चुपचाप बैठे थे, कप में बची हुई कॉफी कब की ठंडी हो चुकी थी। उनके साथ के कई जोड़े उठकर जा चुके थे उनकी जगह नए लोग आकर बैठ चुके थे।

विशाल ने अपना हाथ बढ़ा कर संजना के दोनों हाथों को छुआ संजना हिल गई पर उसने न अपने हाथ खींचें, न विशाल का हाथ हटाने का प्रयास किया।

"तुम ईश्वर में विश्वास करती हो संजना?" विशाल के स्वर में निरा अपनापन था।

"हाँ, मैं भगवान को मानती हूँ।" संजना ने धीरे से बोला।

“और आत्मा को?"

"हाँ"”

“माइथोलॉजी?”

"काफी हद तक"

"पर इन सबका मेरी प्रॉब्लम से क्या लेना देना।"

"संजना ! ये विश्वास और अविश्वास के बीच तैरता सच है। अगर विश्वास करोगी तो सच लगेगा और विश्वास नही होगा तो बकवास कह कर निकल जाओगी।" विशाल ने संजना के हाथ अपने दोनों हाथों से थाम लिए थे।

संजना भी विशाल का स्पर्श अपरिचित नहीं पा रही थी।

"मैं तुम्हे एक किताब देता हूँ उसको पढ़ो शायद फिर किसी नतीजे पर पहुँच सको," विशाल ने कहा।

“पर ये है क्या? बीमारी तो नही है।"

संजना के स्वर में छटपटाहट साफ झलक रही थी।

"नही, बीमारी नही है, तुम परेशान मत हो, तुम्हारे हर सवाल का जवाब उस बुक में है संजना!" विशाल संजना को स्नेहिल स्वर में समझा रहा था।

"अब चलें!" बात बदलने की गरज से विशाल ने पूछा और संजना की स्वीकारोक्ति के साथ ही दोनों कॉफीशॉप से बाहर निकल आए।

घर पहुँचकर संजना विशाल की दी हुई किताब लेकर अपने कमरे में आ गई। उसके मन में उमड़ते घुमड़ते सवालों के जवाब इसी में थे।

प्लेटो की अंग्रेजी किताब, "सिम्पोसियम" पर आधारित हिंदी पुस्तक थी,

"सोलमेट्स"

संजना ने पढ़ना शुरू किया,

"ग्रीक पौराणिक कथाओं के अनुसार, मनुष्य मूल रूप से चार हाथ, चार पैर और एक सिर के दो चेहरों के साथ बनाया गया था। उनकी शक्ति से डर के 'ज़िऊस'( आसमान और बिजली के देवता) ने उन्हें दो अलग-अलग भागों में विभाजित कर दिया था, और श्रापित कर दिया था उनके दूसरे हिस्सों की खोज में अपना जीवन बिताने के लिए।"

संजना पढ़ कर भी समझ नही पा रही थी। उसने आगे पढ़ना आरम्भ किया। धीरे धीरे संजना के सामने वो कहानी आ रही थी जिस पर न तो वो विश्वास कर पा रही थी और न सिरे से नकार पा रही थी।

"दो हिस्सों में बंटे दोनों भाग सोलमेट्स कहलाए। इन सोलमेट्स में कभी कभी कुछ ऐसी विशेषता होती है, जो उन्हें एक दूसरे को खोजने में मदद करती है। ये एक से दिखने वाले या एक दूसरे को पूरा करते जन्मचिन्ह या फिर टैटू होते हैं, जिनको कभी कभी 'सोलमार्क' कहते हैं। ये निशान जन्म से भी मौजूद हो सकता है, या फिर ऐसा भी हो सकता है कि ये अचानक अपने सोलमेट्स से टकराने पर उभर आएं।"

अब संजना समझ चुकी थी कि विशाल ने उसके चिन्ह के बारे में खुद क्यों नही बताया। अगर ये सब विशाल बताता तो वह कभी विश्वास न करती। पूरी तरह तो अब भी यकीन नही आ रहा था संजना को, उसे प्रेम-व्रेम, जन्मजन्मान्तर के रिश्तों पर यकीन नही था। पर बरसों पुरानी पौराणिक कथा और उसके हाथ पर उभरे चिन्ह की समानता उसकी उलझन बढ़ाती जा रही थी।

उसने विशाल को फोन मिला दिया,फोन भी ऐसे उठाया कि जैसे इंतज़ार में ही बैठा हो।

“बुक पढ़ ली?"

"हाँ"

"तुमने उन दिन मेरे रिसर्च का टॉपिक पूछा था न, ‘मिथ और फैक्ट्स’ यही है मेरा टॉपिक।"

"ओह, मुझे लगा शायद मेरा सवाल सुना नही इस लिए नही बताया होगा।" संजना स्वयं को सामान्य दिखाने का प्रयत्न कर रही थी

"चलो कल मिलना, तुम्हे बहुत कुछ बताना है। ओके गुड नाईट"

फोन कट चुका था। संजना समझ नही पा रही थी ये जो कुछ हो रहा है, उस पर कैसे रिएक्ट करे।

आज सुबह संजना रोज़ से बहुत पहले तैयार थी, मन में ढेर सी उथलपुथल लिए पर ऊपर से शांत।

आज बस समय से पकड़ ली थी पिछले स्टॉप से उसके लिए सीट रोककर बैठी अदिति अपनी बातें किये जा रही थी पर संजना तो जैसे होकर भी वहां नहीं थी।

यूनिवर्सिटी पहुँच अदिति को छोड़ संजना सीधे विशाल की ओर बढ़ गई जो बाइक पर बैठा उसकी ही राह देख रहा था।

दोनों कॉफीशॉप की उसी टेबल पर जा बैठे।

संजना का चेहरा निखरा हुआ था कल शाम जैसी उदासी और परेशानी न थी।

विशाल दो कॉफी आर्डर कर आ गया।

“क्या ये सच है?" उसके बैठते ही संजना ने पूछा।

"मैंने कल ही कहा था, ये विश्वास और अविश्वास के बीच तैरता सच है, बिल्कुल भगवान की तरह मानना चाहो तो पूजा करो न मानना चाहो तो पत्थर कह कर आगे बढ़ जाओ।" विशाल ने सरल शब्दों में बात कही।

“पर क्या सम्भव है आत्मा को दो हिस्सों में बांटा जा सके?"

"नही कह सकता, पर इतना जानता हूँ कि इतना जबरदस्त इत्तफ़ाक़ भी बेवजह नही हो सकता संजना। तुम उस बस से नही जाती हो और मैं तो किसी भी बस से नही जाता, उस दिन मेरा दोस्त मेरी बाइक ले गया था, तब मुझे आना पड़ा था। तुम्हारा बस में चढ़ना, मेरे टैटू का उभरना, साथ ही तुम्हारे भी सेम टैटू आना। इतने सारे इत्तफ़ाक़ वो भी एक ही दिन एक ही जगह, कोई तो वजह होगी। कुदरत इस से ज्यादा क्या कर सकती थी हमें मिलाने के लिए।"

कॉफी के घूंट भरते हुए संजना मुस्कुरा रही थी।

“अपना टैटू तो दिखाओ, ज़रा?" विशाल ने अपनी दाईं आस्तीन ऊपर चढ़ा अपने हाथ का निशान दिखाते हुए कहा।

संजना ने भी अपनी बाईँ बाँह खोल कर विशाल की बांह से सटा कर मेज पर रख दी दोनों की कलाई पर बनी ज्यामितीय आकृति साथ मिल कर पूरा स्टार बना चुकी थी।

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