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परिवार

पूरे मोहल्ले के लिए पहेली था ये परिवार।

परिवार भी क्या―एक करीब साठ-पैंसठ साल के वृद्ध, और एक सुदर्शन युवक। सब उनको ‘विनोद बाबू’ के नाम से जानते। और युवक...उसका नाम नहीं पता। घर बनाने मे जिस मुख्य तत्व की आवश्यकता होती है उसका पूर्ण अभाव था।

“स्त्री” जैसी कोई वस्तु न थी। यहाँ तक कि खाना पकाने के लिए भी एक मर्द ही था, “मदन।” वो भी अपने मालिकों से ज्यादा अकड़बाज़। किसी से बात न करता, और कोई जबरन रोक ले तो बहाने बना कर झट से निकल जाता।

मानव स्वभाव की  विशेषता ही यही है―जहाँ रहस्य होता है, वहीं ज़्यादा रूचि लेता है। जो सामने दिखता है, उसको अनदेखा कर के जो नहीं दिख रहा, उसकी खोज में लगा रहता है। बस यही कारण था कि विनोद बाबू का परिवार चर्चा के केंद्र में था।

अभी तीन माह पहले ही आकर बसे थे ये लोग। तीन माह की अल्प अवधि में ही पूरे मोहल्ले को एक सूत्र में बांध दिया था इन लोगों ने।  इतनी एकता तो होली मिलन में भी न दिखती थी, जितनी इन लोगों के आने के बाद हो गई ।ये एक परिवार एक ओर, बाक़ी का पूरा मोहल्ला दूसरी ओर।

“मेरी पत्नी ने चाय भिजवा कर अपनापन दिखाया, तो रुखाई तो देखिए! नौकर से कहला दिया कि हमारे यहाँ कोई चाय नही पीता, धन्यवाद!” मिश्रा जी ने कड़वा सा मुँह बनाते हुए कहा।

“अच्छा!” अपनी गोल-गोल आँखों को पूरा खोलकर गुप्ता जी नें अपनी आवाज़ में आश्चर्य घोलते हुए कहा।

“पवन जी भी कह रहे थे कि उनके पोते के जन्मदिन का आमंत्रण भी ठुकरा दिया।” तब तक पार्क मे साथ टहलनें वाले बाकी सदस्य भी आ चुके थे। उनमें से ही एक सदस्य की आवाज़ थी।

ये हॉट टॉपिक महिलाओं के समूह से निकल कर पुरुषों के मध्य आ चुका था। सारांश इतना, कि अब सब जानने को बेहाल थे कि ये परिवार अचानक कहाँ से प्रकट हो गया, ओर इतना छोटा क्यूँ हैं!

सारे दाँव-पेंच फेल हो गए थे उनके बीच घुसने के। वो लोग ना कहीं जाते, ना कोई उनके पास आता। महीने का सामान मदन बंधवा कर ले आता, और युवक सुबह अपने काम पर… हाँ, शायद काम पर जाता होगा, क्योंकि पढ़ने की तो उसकी उम्र लगती नहीं थी। ठीक नौ बजे गाड़ी आ जाती। गेट पर रुकते ही, ना बाएँ देखना ना दांए, बस अपनी गाड़ी में सवार, और फुर्र! शाम, ठीक सात पर उसी गाड़ी से वापस।

इसके अलावा कहीं छुट-पुट जाते भी हों, तो किसी को पता नहीं। कभी-कभी विनोद बाबू अपने लॉन में टहलते नज़र आ भी जाते थे। दो-एक लोग नें बाहर सड़क से ही नमस्कार करने का प्रयास किया, तो अनदेखा-अनसुना करके या तो अपनी कुर्सी पर बैठ जाते, या वापस घर के भीतर हो जाते। धीरे-धीरे लोगों नें भी उनकी ओर ध्यान देना कम  कर दिया। मगर मन में प्रश्न अब भी सिर उठाये खड़े थे।

उनी दिनों, विनोद बाबू की ठीक बगल वाली कोठी के मालिक, अवस्थी जी, की बिटिया अपनी पढ़ाई पूरी करके घर वापस आई। मेडिकल की पढ़ाई करने के बाद सरकारी अस्पताल में नौकरी लग गई थी। बस बीच में दो सप्ताह का अवकाश मिला था, सो घर आ गई।

शाम को पिता के साथ पार्क से वापस आते हुए निकिता ने अचानक पूछा, “अरे, पापा, ये घर कब बिका?”

“तीन महीने पहले ही।” अवस्थी जी ने संक्षिप्त उत्तर दिया।

“कौन लोग हैं?” निकिता ने जिज्ञासा से पूछा।

“पता नहीं, बेटा। बड़े अजीब लोग हैं। ना किसी से मिलना – ना जुलना, ना आना – ना जाना।” अवस्थी जी ने बताया।

तब तक घर भी आ गया। दोनों घर के भीतर पहुँच गए। निकिता ने माँ के पास जाकर चुटकी लेते हुए कहा, “माँ, आपकी जासूस मण्डली तो घुस गई होगी इनके घर में? आप लोगों की दोस्ती बड़ी जल्दी होती है...”

“कोई औरत होगी, तब ना! तीन जमा मर्द हैं। दो मालिक, और एक नौकर।” श्रीमती अवस्थी ने बड़ी मायूसी के साथ उत्तर दिया।

निकिता घूम कर खाने की मेज पर पहुँच गई और बोली, “माँ, क्या बनाया है? बहुत भूख लग रही है...”

श्रीमती अवस्थी भी खाना लगाने लग गई। अब वो भी अपने पड़ोसी को भूल कर, पूरी तरह से खाने में डूब चुकी थी।

खाना खाकर निकिता अपने कमरे चली गई।

सब अपने-अपने में व्यस्त हो गए थे। विनोद बाबू की चर्चा भी अब कम होने लगी थी। फिर भी, यदा-कदा उनका विषय उठ ही जाता।

निकिता के वापस जाने के दो दिन ही शेष थे, जब अचानक छत पर घूमते हुए उसकी नज़र विनोद बाबू के मकान से निकलते युवक पर पड़ी। वह भी उसके सुदर्शन व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना ना रह सकी। मन में सोचा भी, ‘अच्छे-खासे लोग हैं, फिर क्यों सब से दूरी बनाये हुए हैं?’

युवक के पीछे-पीछे ही नौकर भी निकला। विनोद बाबू बाहर ही टहल रहे थे। हाथ हिला कर नौकर को विदा करके, जैसे ही भीतर जाने को मुड़े, क्यारी में सिंचाई के लिए डाले हुए पाइप में पैर उलझा, और बुरी तरह से गिर पड़े।

ये देख छत पर घूमती निकिता की चीख सी निकल पड़ी। झट-पट दौड़ती हुई नीचे आई, और माँ को बिना कुछ बोले भागती हुई  विनोद बाबू के पास पहुँच गई। “आप ठीक तो हैं, अंकल?”

विनोद बाबू ने कातर दृष्टि से निकिता की ओर देखा, और अपने घुटने की ओर इशारा किया।

निकिता ने देखा घुटने से खून बह रहा था।

तब तक अवस्थी जी भी वहाँ पहुँच चुके थे। पिता-पुत्री ने सहारा दे कर उनको कुर्सी पर बैठाया। निकिता दौड़ कर घर से दवाइयां ले आई, और मरहम पट्टी कर दी।

तब तक मदन भी वापस आ गया था। उसने विनोद बाबू को सहारा देकर उनके कमरे तक पंहुचा दिया, और वापस आकर उन दोनों को धन्यवाद के साथ विदा किया।

उस शाम को निकिता बड़े अधिकार के साथ विनोद बाबू के पास फिर से पहुँच गई।

“अब आप कैसे हैं, अंकल?” उसने विनोद बाबू से पूछा।

परन्तु उत्तर मदन ने दिया, “अब तो ठीक ही हैं... आपका बहुत धनवाद, दीदी जी।”

निकिता ने फिर से पूछा, “दर्द ज्यादा तो नहीं हैं, अंकल? कोई दर्दनाशक दवा दूँ, क्या?”

विनोद बाबू वैसे ही निर्विकार भाव से लेटे रहे चुप-चाप शांत।

“बुखार तो नहीं हुआ?” कह कर जैसे ही निकिता नें उनकी कलाई पकड़ी, विनोद बाबू बुरी तरह से चौंक पड़े।

उनके चौंकते ही निकिता एक पल में जैसे सब समझ गई।

उसने मदन से पूछा, “क्या अंकल सुन नहीं सकते?”

“दीदी जी, बाबू जी भी और भैया जी भी ना बोल सकत है ना ही सुन सकत हैं। ये ही कारण तो अपना पुरान घर बेच-बाच कर इहाँ अनजान लोगन के बीच आ बसे हैं।”

बस आगे और कुछ सुन पाने की सामर्थ्य निकिता में न थी। भारी क़दमों से वापस घर आ गई। घर आ कर पिता को पूरा हाल कह सुनाया। अवस्थी जी और उनकी पत्नी स्तब्ध थे। विनोद बाबू के व्यवहार का ये पक्ष भी हो सकता है, उन्होंने सोचा भी न था।

ये सूचना आग की तरह पूरे मोहल्ले में फ़ैल गई। वरिष्ठ लोग खुद को ज्यादा ही शर्मिंदा महसूस कर रहे थे, क्योंकि जाने-अनजाने उन लोगों ने इस प्रसंग को ज्यादा हवा दी थी।

“क्या किया जाए, अब?” गुप्ता जी नें चिंतित मुद्रा में बैठे अवस्थी जी की ओर देखते हुए पूछा।

मिश्रा जी का सुझाव था एक बार मिल कर उनके घर चला जाए।

पार्क से वापसी के समय, सब लोग एकत्रित हो कर विनोद बाबू के घर पहुँच गए। गेट हमेशा की तरह मदन नें ही खोला। इतने सारे लोगों को एक साथ घर आया देख कर, वो भी आश्चर्यचकित था।

अवस्थी जी ने कहा, “हम सब विनोद बाबू से मिलने आए हैं।”

विनोद बाबू कमरे से बाहर निकल ही रहे थे, कि सबने उनको वहीं घेर लिया। सब अपने-अपने नाम की चिट हाथ में लिए थे। विनोद बाबू अविभूत हो उठे। भले ही कुछ कह न सके, पर उनके जुड़े हुए हाथ और सजल नेत्र सब कुछ कह गए।

व्यक्तियों को जुड़ने के जिस तत्व की आवश्यकता थी, वह वाणी तो ना थी पर मन जुड़ चुके थे। कभी-कभी मौन, वाणी से अधिक मुखर होता है।

आज भी मोहल्ले में विनोद बाबू का परिवार चर्चा का केन्द्र था। मगर अपने अलग होने कारण नहीं, अतिथि सत्कार और अपनेपन के कारण।

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