मुखिया काका Seema Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मुखिया काका

मुखिया काका

“मुखिया चाचा नहीं रहे, विमला...” फोन का रिसीवर रख, अरविंद ने पत्नी के निकट आकर कहा, तो एक बार को तो वह लड़खड़ा गई।

पर दूसरे ही पल स्वयं को सम्भालती हुई बोली, “हमें जाना होगा... आप चल सकेंगे?”

“हाँ, हाँ! बिल्कुल चलूंगा। बस एक बार हॉस्पिटल जाना होगा। फ्लाइट भी वहीं से बुक करवा दूंगा हूँ।”

“कितनी बार सोचा मिल आऊँ जाकर... पर निकल ही नहीं पाई,” कहते-कहते, आँख से आँसू बह कर गालों पर आ गए थे विमला के।

“बीमार चल रहे थे,” अरविंद ने कहा।

“कितनी बार बुलाया था... यहाँ आ जाइए, आपके दामाद डॉक्टर है सब सम्भाल लेंगे... पर नहीं आए! कहते थे बिटिया के घर का पानी भी पिया तो सीधे नर्क को जाऊँगा," कहते हुए, विमला फूट-फूट कर रो पड़ी।

“माँ, बाबा की तो सूरत भी याद नहीं है मुझे! मुखिया काका ने अपनी औलाद की तरह पाला। कभी किसी चीज़ की कमी नहीं होने दी... माँ-बाबा की भी नहीं।”

विमला याद कर कर बिलख रही थी।

“विमला, सम्भालो अपने आपको! मैं तुम्हारा दुख समझता हूं,” अरविंद ने ढांढस बंधाते हुए कहा।

मुखिया काका और उनकी पत्नी बस इतना सा ही तो था, विमला का सम्पूर्ण मायका। काका भी सगे काका नहीं थे। पर स्नेह इतना करते थे, कि विमला और अरविंद के विवाह को दस वर्ष होने आए थे पर सारे रीति-रिवाज अब भी उसी तरह निभाए जाते थे उनके यहाँ जैसे नवविवाहित जोड़े के लिए किए जाते हैं।

बचपन से ही बाग से आया फसल का पहला फल विमला के हाथ पर रख देते। काकी कहती भी कि पहला फल भगवान के आगे रखा जाता है, पर काका हमेशा कहते, “हमारे देवी-देवता यही है, इसकी मुस्कान ईश्वर का वरदान।”

जब तक अरविंद की पोस्टिंग लखनऊ में थी, विमला के लिए फसल पर दालें, चावल, गेहूं, काकी सब साफ करवा कर भिजवा देती। उसके अलावा, कभी तिल के लड्डू, कभी अरविंद की पसंद की बड़ियाँ, तो कभी बच्चों के लिए तरह-तरह के अचार और पापड़। हर नए मौसम के साथ बोरो में भरे समान की सूरत बदल जाती, पर भार में कोई अंतर नहीं पड़ता। मौसमी फल से लेकर सब्जियां तक सब भिजवाती रहती थी काकी।

अरविंद मज़ाक़ भी बनाते कभी-कभी, “तुमको देखकर लगता तो नहीं कि तुम इतना सब खाती हो! तुम्हारे काका जी को तुम्हारे खाने की बहुत चिंता रहती है।”

विमला कभी मना भी करती तो काकी हमेशा कहती, “बिटिया, जब तक तुम्हारा अग्रासन नहीं निकाल दिया जाए, तब तक तुम्हारे काका नई फसल का कुछ चखते तक नहीं हैं।”

पर लखनऊ छूटा तो ये क्रम भी छूट गया। फिर भी, हर साल ट्रेन से जितना सम्भव हो सकता था उतना सामान―आम की पेटी, घर का बना देशी घी, मेवे के लड्डू―काकी नौकर के हाथ भिजवा देती। जितने का सामान होता, उससे ज्यादा किराया भाड़ा खर्च हो जाता। पर काकी से मना करती, तो रटा रटाया उत्तर मिलता, “देवी का अग्रासन निकाले बिना काका कुछ न चखेंगे।”

गाँव में, घर के युवा नौकर आपस मे मारने-काटने पर उतर आते कि दीदी का फ़सलाना लेकर वे जाएंगे।

काका के जाने से अकेली रह गई काकी का सोच मन भर-भर आता विमला का। आँखों के सामने बार-बार हल्के रंग की छींट की सूती धोती में, सफेद रुई की गुड़िया सी काकी आ खड़ी हो जाती। सिंगार के नाम पर उंगली से रगड़-रगड़ कर लगाई, बड़ी सी गोल बिंदी, जो कभी किसी ने फीकी नहीं देखी होगी, और पान खाकर रचे लाल होंठ जिनकी कोरों में भी कत्थे की रंगत ने अपनी छाप छोड़ रखी थी।

सुबह से तैयार हो, आंगन के बीचों-बीच रखी उनकी मचिया मौसम के अनुरूप, धूप के साथ खिसकती जाती। वहीं से एक नज़र बाहर की दुआरी से आने वालों पर, दूसरी घर मे लगे कामवालों पर रखती और गोद मे थाली रखकर सरौते से सुपारी कतरती जाती। तेजी से कतरती सुपारी में उंगलियां चलाते हर एक पर पैनी निगाह रखती।

अपने माँ बाबा के बारे में सुना भर था विमला ने, कि तीन बरस की भी ना थी जब खलिहान में आग लग गई और हादसे में उसके माँ बापू दोनों बुरी तरह जल गए लेकर भागे भी पर दोनों को ही बचाया ना जा सका।

विमला पूरे दो साल बाद गांव जा रही थी। फ्लाईट दिल्ली तक की थी, उस से आगे टैक्सी से जाना था।

एयर पोर्ट से निकलते ही विमला अपने बचपन में पहुँच गई। जैसे-जैसे टैक्सी आगे बढ़ रही थी, यादें घेरती चली आ रही हैं।

“माँ बापू की तो सूरत भी याद नहीं है मुझे, अरविंद," भरी-भरी आँखों से, उसने पति की ओर देखते हुए कहना शुरू किया। “मैं छोटी थी तो काका कंधे पर बैठा कर गाँव के स्कूल लेकर जाते थे। थोड़ी बड़ी हुई, तो मुझे शर्म आती थी। संगी-साथी मजाक उड़ाते थे, कि छोटी बच्ची है, गोद में आती है... काका को बड़ा चाव था मैं पढ़ूँ। मैं देर रात तक जागकर पढ़ती, तो वो भी जागते रहते।"

अरविंद ये सब किस्से बीसियों बार सुन चुके थे। कोई और समय होता, तो उसे चुप भी करा देते। पर इस समय विमला सिर्फ एक छोटी बच्ची लग रही थी, जिसके हाथ से उसके पिता का हाथ छूट गया है और वो बेचैन हो उठी है।

“मैं जानता हूँ, विमला, तुम काका जी से बहुत स्नेह करती हो। पर क्या किया जा सकता है? जो आया है वो जाएगा भी। तुमको तो मजबूत होना चाहिए, घर जाकर काकी जी को भी सम्भालना है।” अरविंद ने विमला के दोनों कंधे पकड़ कर, सांत्वना भरे स्वर में समझाया।

"अरविंद, प्रॉब्लम ये नहीं है कि मैं काका जी से प्यार करती हूँ। मेरी प्रॉब्लम ये है कि वो मुझसे बेहद प्यार करते थे।" विमला ने आंखे पोछ ली, पर दुःख तो जैसे नयनों को अक्षय पात्र बना देता है। एक पल संभलती दूसरे ही पल हिचकियाँ भरने लगती।

खेत-खलियान नापती-जोखती उनकी गाड़ी, गाँव के ऊँचे नीचे रास्तों पर गुजरती, मंजिल तक पहुँच चुकी थी।

सामने के बड़े गेट के दोनों फाटक खुले थे। पूरा गाँव 'बिटिया दीदी' और 'जमाई बाबू' की राह ही देख रहा था। उनके आते ही ले जाने की तैयारी में तेज़ी आ गई। काका जी के दोनों बेटे घर मे उपस्थित थे। करुण-क्रंदन के बीच सारा काज निपट गया।

जो हवेली मुखिया जी के सामने गुलज़ार रहती थी, उनके चले जाने से बेहद उदास थी।

अरविंद को बामुश्किल दो दिन की छुट्टी मिल सकी थी, तो उनका रुक पाना सम्भव न था। शाम को ही टैक्सी बुलवा ली थी। टैक्सी आई तब विमला काकी के पास बैठी थी।

काकी से आज्ञा मांगी तो वह रो पड़ी। "शुद्धि तक रुक जाती, बिटिया!"

विमला ने पति की ओर देखा। उन्हें भी विमला की मनःस्थिति देखकर यही ठीक लगा कि वह कुछ दिन अपने परिवार के साथ गुजारे।

विमला रह गई।

वह काकी के साथ सोती, उनके ही साथ खाती पीती। दोनों एक दूसरे की पीड़ा गहरे से महसूस कर रही थीं। वैसे भी, दुख बहुत करीब ला देता है। जाने वाले से दोनों ही बहुत करीब से जुड़ी थीं। उनकी बातें, किस्से याद करती रहती।

विमला ने अचानक याद करके पूछा, "काकी जी, एक बात तो बताइए! जब मैं छोटी थी, काका जी कहीं भी जाने से पहले मेरे पाँव क्यों छूते थे?"

एकदम तो काकी से कुछ बोलते न बना। फिर बोली, "तुझमे देवी का रूप देखते थे। जानती है, जाने से पहले तेरे चरण छूने की चाह थी। कहते थे, 'अपनी देवी की चरण रज ले लूँ तो परलोक भी सुधर जाएगा'।"

"अरे, काकी! काका जी तो साक्षात देवता थे! उनका परलोक तो आप ही सुधरा हुआ है।"

"देवता क्या, बिटिया? आदमी इंसान भर बना रह जाए, यही बहुत है।"

शुद्धि वाले दिन दूर-दूर के रिश्तेदार-नातेदार, सब घर में जमा थे। ऐसे-ऐसे लोग आए थे, कि उनमें से बहुतों को तो काकी ने भी पहले न देखा होगा।

उन्ही में से एक थीं मुखिया जी की दूर के रिश्ते की बुआ, जो विमला के माता-पिता को भी भली भांति जानती थीं।

उन्होंने विमला को पुकारा, "ये मुरारी की बिटिया है?"

"जी, बुआ जी।" काकी ने संक्षिप्त सा उत्तर दे, विमला से मिलवा दिया।

विमला के लिए ये सम्बोधन एकदम नया था। उसने तो कभी अपने माता-पिता का नाम तक जानने का प्रयास नहीं किया था। पर आज न जाने क्यों उत्सुकता जाग गई, और वह बुआ के पास बैठ गई।

बड़े स्नेह से उन्होंने सिर पर हाथ फिराया और कहा, "बिल्कुल विमला की सी सूरत पाई है तुमने, बिटिया।"

"अरे, अम्मा! मैं खुद ही विमला हूँ।" उसने हौले से, मुस्कुराते हुए कहा।

"तुझे पता नहीं, री बिटिया! तेरी माँ का भी नाम विमला था।"

"नहीं... आज पहली बार आपसे सुन रही हूं, अम्मा।"

विमला उखड़ सी गई। अपना वजूद ही डगमगाता हुआ लगा। बरसों से जमे विश्वास की जड़ें हिल गईं।

जिस परिवार को अपना समझती थी, जिन काका ने उसे इतना स्नेह दिया, उन्होंने उससे ये बात क्यों छुपाई?

अपने ऊपर भी क्रोध आ रहा था। काका जी के स्नेह में इतनी अंधी बन बैठी, कि अपने जन्मदाता का नाम तक जानने का प्रयास नहीं किया कभी।

दिन भर सिर दर्द का बहाना कर, भीतर के कमरे में लेटी पुरानी बातें याद करती, दोहराती रही। सोच-सोच जी पगलाने लगा, पर समझ नहीं आया कि काका-काकी ने उसको ये बात बताई क्यों नहीं कभी।

शाम तक सब मेहमान चले गए, पर विमला कमरे से बाहर न निकली।

सब कामों से फुर्सत होकर, रात को, जब काकी उसके पास कमरें में आईं, विमला का सब्र जाता रहा। उसने काकी से पूछ ही लिया, "आप लोगों ने मेरा नाम विमला ही क्यों रखा?"

"तेरी मां के नाम पर हमने तेरा नाम विमला रखा था, जिससे उसे कभी भूल न जाएं।"

"तो बाबा को भूल गए आप लोग?"

"नहीं, बिटिया, हम एक पल को भी उन दोनों को नहीं भूले। जब-जब तुझे देखते, उनकी याद और गहरी हो जाती।" काकी ने अपने चेहरे का पसीना पोछा और विमला के बगल में आकर बैठ गईं। "अब न तेरे अम्मा बापू हैं, और न ही काका... तो इन सब बातों का भी कोई मतलब नहीं है, बिटिया।"

"पर मैं तो हूँ न, काकी! मैं जानना चाहती हूं कि मुझे मेरी माँ का नाम क्यों दिया, और... काका जी ने किस बात का प्रायश्चित पूरा कर दिया? वो बुआ अम्मा क्या कह रहीं थीं, जो मेरे जाते ही चुप हो गईं?" विमला ने दिनभर की उलझन काकी के आगे पलट दी।

"पुरानी बातें ज़ख्मों के जैसी होती हैं, बिटिया। कुरेदो तो दर्द ही होता है।" काकी ने विमला को बहलाना चाहा।

"मुझे तो ऐसे भी बहुत तकलीफ हो रही है, काकी! शायद सच जानकर मेरी पीड़ा कम हो जाए... बताओ तो सही!"

"तेरे काका खुद, अपने मुंह से तुझे बताना चाहते थे... पर कभी हिम्मत न जुटा पाए। बात तब की है जब तू दो बरस की पूरी ही हुई थी। मेरे मोहन होने को था, सो मैं जचकी के लिए मायके गई थी। तेरे काका और तेरे माँ-बापू और छोटी सी तू, यहीं थी। एक रात, तेरे काका अपने दोस्तों के साथ शराब के नशे में घर देर से आए..."

"क्या कह रही हो, काकी? काका और शराब!"

"वो मनहूस दिन था, बिटिया, जो ये अपने संगी-साथियों के साथ पीने बैठ गए। न उससे पहले कभी पी न उसके बाद।"

"अच्छा, फिर क्या हुआ?"

"तेरे बापू सो गए थे, पर माँ इनको खाना खिलाने के लिए जाग रही थी। इनके आने पर खाना गरम कर इनको देने गई।" काकी का गोरा चेहरा म्लान पड़ गया था। डबडबाई नज़रों से विमला की तरफ देखा तो वह लाखों सवाल आंखों में भरे एकटक उनको ही देख रही थी।

"फिर?"

"नशा इंसान को जानवर बना देता है। अच्छे बुरे की तमीज़ नहीं रहती... इन्होंने लपक कर उसको पकड़ लिया। बेचारी ने भरसक कोशिश की खुद को बचाने की। चीखी चिल्लाई, तो कमरे में सोते हुए मुरारी तक आवाज़ पहुंची। वो आया तो देखकर भौंचक्का रह गया। भाई पर झपट पड़ा। पत्नी को चंगुल से छुड़ाया, दोनों भाई आपस में भिड़ गए। उन्होंने देखा भी नहीं तेरी माँ को।

"वो तो जब बाहर शोर मचा की खलिहान में आग लग गई है, तो आगे-आगे मुरारी और पीछे-पीछे तेरे काका वहां पहुंचे... देखा तो धूं-धूं करते खलिहान में तेरी माँ खड़ी है। उसे बचाने मुरारी आग में कूद पड़ा... उसे तो क्या बचा पाता, अपनी जान भी गवाँ बैठा। गाँव वालों ने आग बुझाने की बहुत कोशिश की, पर... दोनों जल कर स्वाह हो गए।"

काकी बोलकर चुप हो गईं।

विमला सन्न थी। जिस इंसान की वह इतनी इज़्ज़त करती थी, उसका एक रूप ऐसा भी हो सकता है। उसका दम घुटने लगा।

इस घर में एक पल भी गुज़ारना सज़ा था उसके लिए।

भोर होते ही, सबके जगने से पहले, टैक्सी मंगवा कर दिल्ली के लिए निकल गई। अकेली ही वापस मुंबई पहुँच गई।

विमला को अचानक आया देख अरविंद भी चौंक पड़े, "तुम अचानक? मैं तो कल आ ही रहा था, कम से कम बताया होता तो एयर-पोर्ट आ जाता!" विमला को अचानक वापस आया देखके वह कुछ कह नहीं पा रहे थे। "मुझे लगा अभी और रुकोगी अपने घर।"

"वो मेरा घर नहीं है, अरविंद!"

"अरे, ऐसे क्यों बोल रही हो? काका जी के न रहने से बाकी सबसे रिश्ता तो नहीं टूट गयाा।"

"आप सोच भी नहीं सकते, अरविंद, मेरा किस सच्चाई से सामना हुआ है! दिल दिमाग में द्वंद चल रहा है," विमला ने गम्भीर स्वर में कहा। "मैं काका जी की सच्चाई जानती ही नहीं थी। वो कातिल थे!"

अरविंद को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। आज तक जिन काका जी के गुण गाते थकती न थी, आज उनके ही विरुद्ध क्या-क्या बोले चली जा रही थी विमला!

"हम बाद में बात करेंगे। अभी तुम थकी हुई हो, आराम करो।"

"अरविंद, आप नहीं जानते मैं किन हालात से गुज़र रही हूँ। जिनको भगवान समझती रही, असलियत में कितने गिरे हुए निकले! आपको काका जी की असलियत बताऊँगी, तो आपको तो यकीन नहीं होगा... मैं क्या समझती थी, वो क्या निकले!" विमला बेकाबू हो कर बोलती चली जा रही थी।

"कौन सी असलियत की बात कर रही हो, विमला? वो नशे की हालत में की हुई एक भूल जिसका उन्होंने सोचा भी न था कि परिणाम इतना भयानक होगा?" अरविंद ने विमला से कहा तो वह स्तब्ध रह गई।

"आप कैसे जानते हो ये सब?"

"मैं हमेशा से जानता था, विमला। जब तुम्हारा रिश्ता लेकर काकाजी हमारे घर आए थे, तो सब तुम्हारे माता-पिता के बारे में जानना चाहते थे।" अरविंद बोलते चले जा रहे थे।

विमला भौंचक्की से उन्हें देखती जा रही थी।

"तब उन्होंने सब कुछ खुद बताया था। और फैसला हम पर छोड़ा था। सहमति होने पर उनका आग्रह था कि तुमसे कभी कोई इस बात का ज़िक्र न करे," अरविंद ने कहा।

"वे तुमसे बहुत स्नेह करते थे, विमला। और तुमने उनके बारे ज़रा सा सुनकर सब कुछ पलभर में भुला दिया?" अरविंद का स्वर शिकायती हो चला था।

"पर मेरी माँ का क्या दोष था? और बापू का भी? उन्हीं की वजह से मेरे माँ-बापू की जान गई थी। उन्होंने गुनाह किया था।" विमला का आक्रोश थम ही नहीं रहा था।

"उनसे गलती हुई थी, पर उन्होंने सारी उम्र उसका प्रायश्चित भी किया, विमला। जानती हो उन्होंने तुम्हे विमला नाम क्यो दिया?" अरविंद ने पूछा।

"वही समझ नहीं आया मुझे भी।"

"मैं बताता हूँ। सच तो ये है कि वे जीवन भर स्वयं को अपराधमुक्त कर ही नहीं पाए। तुम्हे तुम्हारी माँ का नाम देकर जीवन भर तुम्हारे पाँव छूकर, तुमसे नहीं तुम्हारी स्वर्गवासी माँ से क्षमा मांगते रहे। न्याय की नज़र से देखो तो सही, विमला! एक पल की भूल का उन्होंने जीवन भर प्रायश्चित किया," अरविंद ने विमला को समझाते हुए कहा तो वह अब शांत हो गहरी सोच में डूब गई थी।

अरविंद ने समझाया, "दरसल ये मानव मन की वृत्ति है। जिसे हम पसंद करते हैं, उसे महान बना देते हैं, और जब उसकी छवि के विरुद्ध कोई काम होता है, तो यही सम्मान उसको इंसान भी नहीं रहने देता। आज काकाजी का दोष सामने आया, तो पल भर में वे मनुष्य भी न रहे। ये गलत है, विमला। इंसान गलतियों का पुतला है। सच्चा इंसान वही है जो अपनी गलतियों से सबक लेकर सीखे, और जीवन में उन्हें न दोहराए। जैसा कि तुम्हारे काका जी ने किया।"

"पर, अरविंद..."

"क्या पर, विमला? काका जी ने हमेशा इंसान का आचरण रखा। गलती भी इंसान से होती है, और उसकी भरपाई भी इंसान ही करता है। ये हम लोग हैं जो उसे देवता और दानव बना देते हैं।" आगे बढ़ कर अरविंद ने विमला का हाथ थपथपाते हुए कहा। "मैं तुम पर फैसला छोड़ता हूँ कि उनकी एक पल की भूल को उनके जीवन भर के व्रत से बड़ा बना दोगी, या उनके जीवन भर के स्नेह के आगे उस भूल को भुला दोगी जो उनसे एक कमज़ोर पल में अनजाने में हो गई..."

अरविंद ने विमला की आंखों में झांककर देखा, तो वहाँ आंसुओं का सैलाब तो था पर थोड़ी देर पहले तक धधकती लपट की अब चिंगारी भी शेष न थी।

***