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हिमाद्रि - 1

                  
                     हिमाद्रि(1)


उमेश परेशान सा बंगले के हॉल में बैठा था। वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या बात है। दो दिन पहले ही तो अपनी पत्नी कुमुद को ठीक ठाक छोड़ कर गया था। कल शाम उससे बात हुई थी तब भी वह ठीक थी। पर आज दोपहर को दुर्गा बुआ ने उसे फोन कर बताया कि कुमुद को ना जाने क्या हो गया है। पहले तो दोपहर तक अपने कमरे का ही दरवाज़ा नहीं खोल रही थी। बहुत कहने पर उसने दरवाज़ा खोला। पूछा कि क्या बात है तो कुछ बोली नहीं। बस गुमसुम सी बैठी है। सुबह से ना नहाई ना धोई, ना खाया ना पिया। भैया कुछ ठीक नहीं लग रहा। तुम फौरन लौट आओ। उमेश फौरन ही घर के लिए निकल पड़ा। 
लौटते ही उमेश कुमुद के पास गया। उसकी हालत देख कर समझ गया कि मामला बहुत अधिक गंभीर है। कुमुद के शरीर पर जो निशान थे वह उसके साथ दुष्कर्म होने की गवाही दे रहे थे। उमेश ने कुमुद को गले से लगा लिया। कुमुद वैसे ही गुमसुम बैठी रही।
"कुमुद प्लीज़ बताओ तुम्हारे साथ क्या हुआ। किसने किया। तुम बताओ मैं उसे छोड़ूँगा नहीं। जेल भिजवा कर रहूँगा।"
कुमुद ने उसकी तरफ देखा। उमेश को उसकी आँखों में खौफ की झलक दिखाई पड़ी। 
"कुमुद मुझ पर यकीन करो। वो जो कोई भी हो। कितना भी बड़ा हो। मैं उसे उसके किए की सजा दिलवा कर रहूँगा।"
कुमुद फिर भी कुछ नहीं बोली। पर इस बार उमेश की छाती में मुंह छिपा कर ज़ोर ज़ोर से रोने लगी। उमेश उसकी पीठ सहलाते हुए सांत्वना दे रहा था।
"कुमुद तुम बिल्कुल भी मत डरो। मैंने कहा ना वो जो कोई भी हो उसे छोड़ूँगा नहीं। बस तुम एक बार उसका नाम बता दो। तुम जानती हो ना कि मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूँ। तुम्हें इस हालत में नहीं देख सकता हूँ। बस तुम मुझे उसका नाम बता दो।"
उसके तसल्ली देने के बावजूद भी कुमुद कुछ नहीं बता रही थी। बस रोए जा रही थी। उसका इस तरह से रोना उमेश को बहुत तकलीफ दे रहा था। उसका दिमाग कुछ भी सोंच सकने की स्थिति में नहीं था। लेकिन कुमुद जिस हालत में थी उस पर दबाव डालना भी ठीक नहीं था। उसने बड़ी मुश्किल से कुमुद को चुप कराया। जब वह चुप होकर सो गई तो वह बाहर हॉल में आ गया। दुर्गा बुआ ने लाकर उसे पानी दिया।
"भैया चाय बना लाऊँ।"
"नहीं कुछ नहीं चाहिए।"
दुर्गा बुआ वहीं खड़ी हो गईं। 
दुर्गा बुआ ने ही उमेश की माँ की मृत्यु के बाद उसे पाला था। वह उसके पिता की बहन नहीं थीं। पिता की लॉ फर्म में काम करने वाले उनके एक कर्मचारी भोला प्रसाद की विधवा थीं। भोला प्रसाद उसके पिता के पर्सनल सेक्रेटरी की तरह थे। उन पर वह सबसे अधिक विश्वास करते थे। दुर्गा बुआ उसके पिता के गांव की थीं। अपने पति के साथ कभी कभी उमेश के घर आती थीं। तब से ही वह उन्हें बुआ कहता था। उनके पति की मृत्यु के बाद उनकी देखभाल की सारी ज़िम्मेदारी पिता ने उठा ली थी। अतः जब उमेश की माँ भी अचानक चल बसीं तो बुआ ने पेशकश की कि वह उसे पालेंगी। वह उन लोगों के साथ आकर ही रहने लगीं। तब से अब तक दुर्गा बुआ उसके साथ थीं। 
उमेश ने बुआ की तरफ देखा। 
"बुआ कुमुद की हालत ठीक नहीं है। उसके साथ जो हुआ है उसके कारण डर गई है। बहुत पूँछने पर भी कुछ नहीं बोली। मैंने आपसे कहा था ना कि जब तक मैं ना लौटूँ आप यहीं कुमुद के पास सोइएगा। अपने क्वार्टर में मत जाइएगा। फिर आप क्यों कल रात अपने क्वार्टर में थीं ?"
दुर्गा बुआ अपराधी की तरह खड़ी थीं। उमेश का सवाल सुन कर उनकी भी आँखें छलक आईं। 
"भैया सफाई नहीं दे रही। तुम्हारी बात ना मान कर गलती तो की है। पर भैया कल बहूजी के कहने पर ही अपने क्वार्टर गई थी। उस दिन जब तुम गए तब हम उनके साथ ही रहे। लेकिन कल ना जाने क्यों पीछे पड़ गईं कि अपने क्वार्टर में जाकर सो। हमने समझाया कि तुम कह गए हो कि उन्हें अकेला ना छोड़ें। इस पर बोलीं कि हम क्या बच्ची हैं जो आप हमारी रखवाली करोगी। इस पर भी हम नहीं माने तो गुस्सा हो गईं। बोलीं हमारी बात का कोई मोल नहीं समझती हो। अपने मन की करती हो।"
बुआ ने आँचल के छोर से आँखें पोंछीं। फिर बात आगे बढ़ाई।
"बताओ भैया हम क्या करते। कल ना जाने क्या हुआ था बहूजी को। पहले तो कभी ऐसे पेश नहीं आई थीं। उन्हें खाना खिला कर हम चले गए। जाते समय हमने कहा कि मेन डोर बंद कर लो तो बोलीं कि हम कर लेंगे। आप जाओ।"
उमेश ने बुआ को समझाते हुए कहा। 
"बुआ मैं कोई शिकायत नहीं कर रहा था। पर कुमुद की हालत देख कर दिल फटा जा रहा है। इसलिए तुमसे पूँछा।"
"भैया कलेजा तो हमारा भी फट गया था बहूजी की हालत देख कर। तभी तो तुरंत तुमको फोन किया।"
"बुआ सुबह जब तुम लौट कर आईं तो क्या देखा तुमने।"
"भैया हम सुबह जल्दी ही क्वार्टर से लौट आए। देखा तो मेन डोर खुला था। हमें लगा बहूजी भी जाग कर लॉन में टहल रही होंगी। हम वहाँ उन्हें देखने लगे। जब नहीं दिखीं तो हम भीतर चले गए। उनके कमरे में गए तो दरवाज़ा बंद था। हमने खटखटाया पर उन्होंने खोला नहीं। हमें लगा कि अभी भी सोई हुई हैं। हम किचन में नाश्ते की तैयारी करने लगे। कोई पौन घंटे बाद हमने फिर दरवाज़ा खटखटाया। इस बार भीतर से बोलीं कि हमें शांति से रहने दो। परेशान मत करो। उसके बाद बीच बीच में हम दस्तक देते रहे। वह वही बात दोहराती रहीं।"
बुआ कुछ ठहर कर बोलीं। 
"भैया तुम्हारी शादी को एक बरस हो गया। बहूजी कभी भी हमें बहुत पसंद नहीं करती थीं। पर कभी इतनी रुखाई से भी पेश नहीं आई थीं। दोपहर होने को आई थी। पर वह कमरा बंद किए बैठी थीं। हमें कुछ ठीक नहीं लगा। तो हमने भी ज़िद पकड़ ली कि दरवाज़ा खोलो। बताओ क्या बात है। उन्होंने दरवाज़ा खोल दिया। हम भीतर गए तो उन्हें देख कर परेशान हो गए। उनसे जानना चाहा कि क्या बात है। पर वह कुछ नहीं बोलीं। हमने तुरंत तुम्हें फोन कर दिया।"
कुमुद बुआ को बहुत पसंद नहीं करती थी इस बात को उमेश भी समझाता था। कुमुद कई बार कह चुकी थी कि बुआ की इज़जत करना तो ठीक है। पर उन्हें घर के मामलों में दखल देने की छूट नहीं मिलनी चाहिए। हलांकि बुआ ने सब समझते हुए खुद ही खुद को पीछे खींच लिया। यही कारण था कि जब वह उन लोगों के साथ इस बंगले में रहने आईं तो उन्होंने कह दिया कि वह बंगले के पिछले हिस्से में बने क्वार्टर में रहेंगी। उमेश ने भी कोई विरोध नहीं किया। उसने क्वार्टर में साफ सफाई करा कर ज़रूरी सुविधाओं की व्यवस्था कर दी। 
बंगला बहुत बड़ा था। पीछे की तरफ कई पेड़ लगे थे। उनके बीच से ही एक पगडंडी बुआ के क्वार्टर की तरफ जाती थी। अतः बंगले में जो हुआ बुआ के लिए जानना कठिन था। 
उमेश को परेशान देख कर बुआ को तकलीफ हो रही थी। कई सालों से वह उसके साथ थीं।
"भैया बहुत रात हो रही है। तुम जबसे आए हो पानी भी नहीं पिया। बहूजी ने भी पूरे दिन कुछ खाया पिया नहीं। हम खाना लगा देते हैं। तुम भी खा लो और बहूजी को भी खिला दो।"
उमेश की इच्छा कुछ भी खाने की नहीं थी। लेकिन कुमुद को वह भूखा नहीं रखना चाहता था। 
"बुआ मुझे भूख नहीं है। पर तुम कुमुद के लिए प्लेट लगा दो। मैं उसे खिला देता हूँ।"
बुआ कुमुद के लिए खाना ले आईं। उमेश प्लेट लेकर कुमुद के पास पहुँचा। कुमुद जागी हुई थी। 
"चलो थोड़ा खाना खा लो। बुआ बता रहीं थीं कि तुमने कुछ नहीं खाया।"
उमेश ने रोटी का एक कौर उसकी तरफ बढ़ा दिया। पर कुमुद ने खाने से इंकार कर दिया। उमेश ने फिर कोशिश की पर वह नहीं मानी। 
"कुमुद प्लीज़ ऐसा मत करो। ना कुछ बताने को तैयार हो। ना ही खा पी रही हो। मेरे दिल पर क्या बीत रही है क्या तुम नहीं समझ पा रही हो। क्या मुझ पर यकीन नहीं रहा तुम्हें ?"
कुमुद ने एक बार फिर उमेश की तरफ देखा। इस बार उसकी आँखों में पीड़ा साफ दिख रही थी।
"उमेश....तुम पर मुझे पूरा यकीन है। पर मैं जो कहूँगी उस पर तुम यकीन नहीं कर पाओगे।"
"क्यों नहीं करूँगा यकीन ? मैंने पहले ही कहा है कि वह जो भी हो मैं उसे छोड़ूँगा नहीं। तुम बिना डर के बताओ कि वह कौन है।"
कुमुद कुछ रुक कर बोली।
"वह कोई इंसान नहीं है। वह एक प्रेत है।"
कुमुद की बात सुन कर उमेश चौंक गया। उसे सचमुच उसकी कही बात पर यकीन नहीं हुआ।
"क्या कह रही हो कुमुद ?"
"मैंने कहा था ना कि तुम यकीन नहीं करोगे। पर जो मैंने कहा वही सच है।"
उमेश समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहे। उसे भूत प्रेत जैसी चीज़ों पर यकीन नहीं था। कुमुद को भले ही रहस्य और रोमांच से भरी कहानियां पढ़ने व फिल्में देखने का शौक था। पर उसने भी पहले कभी ऐसी बातें नहीं की थीं। ज़रूर उसके साथ जो घटा यह उसका ही असर होगा। यह सोंच कर उसने कुमुद को गले लगा लिया। 
"तुम परेशान ना हो। हम कल सुबह ही पुलिस स्टेशन जाकर रिपोर्ट दर्ज़ कराएंगे।"
"किसके खिलाफ रिपोर्ट लिखाओगे। प्रेत के खिलाफ।"
"तुम परेशान मत हो। अब मैं तुम्हारी एक नहीं सुनूँगा। तुम्हें खाना खाना पड़ेगा।"
उमेश ने फिर एक कौर कुमुद की तरफ बढ़ाया। कुमुद ने भी बिना किसी विरोध के खा लिया।

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