यह आषाढ़ का आकाश नहीं है Sushma Munindra द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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यह आषाढ़ का आकाश नहीं है

यह आषाढ़ का आकाश नहीं है

सुषमा मुनीन्द्र

रोज एक घर खाली हो रहा है।

गॉंव जवार में एक ही खबर सुनाई पड़ती है। चौपाल से ले कर सीवान तक। आज फला अपने परिवार को लेकर अपने लड़के के पास शहर चला गया। आज फला अपने भाई के पास, आज फला अपने चाचा के पास ......... आज .........। ये सब लोग जब तक गॉंव में पानी की समस्या हल नहीं हो जाती, नहीं बहुरेंगे। यद्यपि यह भी हुआ है कि न बहुरने की प्रतिज्ञा करके गए कई परिवार दो—चार दिन में लौट आये हैं क्योकि शहरों का पानी भी चुक गया है। शहर की ऑंखों का पानी तो बहुत पहले चुक गया था। अब आकाश, धरती, नलकूप, तालाब, चॉंपाकल का पानी चुक गया है।

रामसुजान को उसकी मेहरिया रात—दिन सुनाती है, ‘‘काहे हो, सब को लेकर बुद्ध गनेस के पास शहर काहे नहीं चलते ? काहे बाल—बच्चा को पियासा मारे डालते हो ? काहे ..........।''

रामसुजान का जेष्ठ पुत्र बुद्ध गनेस कलेक्टर कार्यालय में चपरासी है। कलेक्टर साहब के यहॉं बॅंगला ड्‌यूटी करता है। अइसी—अइसी सब्जी—तरकारी उगाता है कि साहब को परसन्न किये रहता है। खेतिहर का बेटा है तो क्या एतनौ ना जानेगा ? रामसुजान कलेक्टर साहब की बगिया देख आया है। एकदम चकाचक है। फूल—पत्ती, दस तरह की तरकारी, मॅूंग, उड़द, ककड़ी, भुट्‌टा। खूब हरिआया लॉंन। लॉंन जैसी लहलहाती सुर्ख हरी घास गॉंव में हो तो सारे गोरू हृष्ट—पुष्ट हो जायें। कैसे हड़िल्ले—हड़िल्ले हो गये हैं। गॉंव, कछार, पहाड़, वन न कहीं हरियरी है न पानी। आकाश आग बरसाता है और जलती धरती भाप छोड़ती है। ढोर—डॉंगर बिलबिला रहे हैं। न ढीलो तो खॅूंटों में बॅंधे—बॅंधे दिन—भर माछी खाती हैं और चरवाहा ढील ले जाता है तो पशुओं की छॉह भी जाती है। सूखी—दरकी धरती और तपते पहाड़ और वन। चरवाहा इधर—उधर भटक कर दुपहरी तक पशुओं को लौटा लाता है। खॅॅंूटे में बॅंधे रॅंभाते पशु जैसे शिकायत करते हैं, उन्हें चारा और पानी क्यों नहीं मिल रहा है ?

रामसुजान की ऑंखें भर आती हैं। जैसे आकाश का पानी उसकी ऑंखों में उतर आया हो। किरपा करो इंद्र देवता। इस गॉंव को हमने आज तक नहीं छोड़ा, अब बुढ़ाईदार गॉंव छोड़ना होगा ? रामसुजान की पनियाई ऑंखें आकाश में बिंध जाती हैं। आषाढ़ अंत के आकाश में बादल का छोटा—सा टुकड़ा तक नहीं। गॉंव के पास से बहने वाली नदी सूखी पड़ी है। इंदारे सूखे पड़े हैं। बस बिहारी की कुॅंइया में पानी है। उसकी मेहरिया ऐसी लड़ाकी है कि पहले चार कुबोल सुनाती है, फिर दो गगरी पानी भरने देती है।

आज भिनसारे राजसुजान की छोटी पुत्री बाला जो ससुराल से पूरे डेढ़ साल बाद आई है, खाली गगरी लिये लौट आई कि बिहारी की मेहरी ने पानी नहीं भरने दिया। तब ही से रामसुजान की मेहरिया रट लगाये है, ‘‘पानी न भा, अमरित होइगा। जब तलक भर पानी के बिवस्था (व्यवस्था) नहीं होय, हम बुद्ध गनेस के पास रहब।''

‘‘देखते हैं, कुछ सोचते हैं।'' बहुत दिन से इसी तरह टालता आ रहा है रामसुजान।

वह पत्नी को तो टाल देता है पर स्वयं को कैसे टाले ? भीतर दिन—रात अदहन—सा कुछ सनसनाता रहता है। छाती दुःखों से भरी रहती है। घर में रहा नहीं जाता तो वह नदी को ओर निकल जाता है। तट पर घंटों बैठा रहता है। लगता है, जैसे नदी उससे बातें करती है या फिर वह नदी से बातें करता है। कुछ ऐसा है जो उसके और नदी के बीच संवाद बना रहता है। जन्म से देख रहा है इस नदी को। पुरखे बताते थे गॉंव के बसावट की कहानी। इस नदी के कारण ही यहॉं गॉंव बसा। ऐसा घना जंगल था कि कब चीता—बाघ मनई को खसेल (घसीट) ले जायेंगे, कुछ पता नहीं था। रामसुजान चीते—बाघ की कहानी—किस्से सुन कर ही बड़ हुआ है। पहले जंगल बहुत थे, इसलिये बनैले पशु बहुत थे और उनके कहानी—किस्से भी बहुत थे। अब जंगल नहीं हैं, शायद इसलिये पशु—पक्षियों के किस्से भी झूठे लगने लगे हैं।

रामसुजान को अच्छी तरह याद है इस नदी के पाट बहुत चौडे़—चौड़े थे। पहाड़ियॉं बहुत हरी—भरी थीं। महुआ बहुत टपकता था और झरबेरियों में बेर बहुत लगते थे। शीशम, पीपल, नीम, कीकर, मदार ........ पता नहीं कौन लील गया सब कुछ। रामसुजान नदी को लक्ष्य कर अधरों में बुदबुदाने लगता है, ‘‘तुम, माई पिछले आषाढ़—सावन में ऐसी बढ़ी थीं कि लगा था हमारा पूरा गॉंव बहा ले जाओगी। इस साल का हुआ ? कहॉं गया तुम्हारा पानी ? अब तो बस तुम्हारे भीतर रेत, पत्थर और चट्‌टानें रह गई हैं।''

नदी चुप। इस नदी के कारण ही वह जब बहुत छोटा था, तभी तैरना सीख गया था। उसका चाचा जो उस से सात—आठ साल बड़ा था, उसे नदी के पास लाया था। उसकी कमर में रस्सी बॉंधी थी, ‘‘ले, रामसुजान बजरंग बली का नाम ले कर कूद जा पानी में। अपने आप हाथ—पैर चलने लगेंगे। इसी तरह तैरना सीखा जाता है। यदि तुम डूबने लगोगे तो मैं रस्सी खींच कर बाहर निकाल लॅूंगा।''

उसके मना करने पर भी चाचा ने उसे धक्का दे दिया था। वह डूबता चला गया था नदी की रहस्यमय गहराइयों में और तलहटी के कीचड़ में धॅंस गया था। हाथ—पैर चलाने का चेत न था। चाचा ने कुछ क्षणों बाद ही रस्सी ऊपर खींच ली थी, पर उसे लगा था, वह एक वर्ष बाद पानी से बाहर आया है। उस पर मूर्छा छा रही थी। चाचा ने खूब समझाया था, ‘‘घर में किसी को नहीं बताना है, समझा। तैरना इसी तरह सीखा जाता है, समझा। बताया तो हाथ—पैर तोड़ दॅूंगा, समझा।'' समझ गया था रामसुजान और जल्दी ही तैराकी भी सीख गया था।

सूखी, मुरझाई नदी कैसी उदास और उजाड़ लगती है। कहॉं गया इस का पानी ? बुद्ध गनेस का बेटा जब गॉंव आया था, तब रामसुजान उसे नदी दिखाने लाया था। वह पॅूंछने लगा था, ‘‘बब्बा, बताओ तो इतना पानी कहॉं से आता है और कहॉं चला जाता है ?''

‘‘भगवान इंद्र जब परसन्न होते हैं पानी बरसाते हैं और फिर वह पानी खतों, नदी—तालाबों में चला जाता है।''

‘‘एकदम गलत। बब्बा तुम कुछ नहीं समझते। पानी बादल बरसाते हैं, तुम्हारे इंद्र देवता नहीं। फिर धीरे—धीरे धरती, नदी, तालाबों का पानी भाप बन कर उड़ जाता है और ये भाप फिर से पानी बन जाती है।''

रामसुजान पलकें झपका कर फेफड़े फाड़ कर हॅंस दिया था, ‘‘हमें बनाते हो बेटा!''

‘‘नहीं बब्बा, सच। मैंने साइंस में पढ़ा है।''

‘‘तो का मइया तुम्हारा पानी भाप बन कर उड़ गया ?''

‘‘हॉं, उड़ गया।'' नदी बोलती है या उसके कान बजते हैं, ‘‘मेरा सारा पानी भाप बन कर उड़ गया। देखो मैं कैसी कुरूप हो गई हॅूं। तुम्हें नहीं मालूम, मैं कितनी प्यासी हॅूं। पानी नहीं बरसेगा तो एक दिन मैं खतम हो जाऊॅंगी और लोग बतायेंगे, कभी यहॉं पर एक नदी बहती थी जो अब नहीं है।''

रामसुजान का मन कैसा तो हो जाता है। लगता है बाहर की सारी उमस उसकी देह और हडि्‌डयों में भर गई है। वह ऊपर आकाश ताकता है। पूरी शिद्‌दत से आकाश तप रहा है। सूखी—दरकी धरती चमड़े सी सिकुड़ गई है। खेत बंजर पड़े हैं। वह स्वयं तो हलवाही के अलावा कुछ काम जानता नहीं। पानी नहीं बरस रहा तो हल जोतने का क्या अर्थ ? धरती इतनी भूखी—प्यासी है कि बीज डालेंगे तो बीज खा जाएगी।

गॉंव को सूखाग्रस्त घोषित किया जा चुका है। अभी दो—तीन दिन पहले जॉंच—पड़ताल करने के लिये बाबू साहबों का एक दल आया हुआ था। इनके भोजन—पानी की व्यवस्था सरपंच के घर में हुई थी। उन लोगों ने भोजन सरपंच के घर का खाया पर पानी अपने साथ लाये थे। एक तो गॉंव में पीने का पानी नहीं है, और है भी तो वह साहबों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालेगा। एक्वागार्ड मशीन द्वारा छाना गया पानी उन बोतलों में भर कर लाये थे जो पानी को ठंडा रखती है। गॉंव के लोग चकित थे, ‘‘हम लोग मनई नहीं हैं जो चाहे जैसा पानी पी लेते हैं।'' ‘‘मनई हो पर हाकिम—अफसर नहीं हो।'' एक रिटायर्ड फौजी जो अब गॉंव में बस गया है, समझाने लगा था, ‘‘और प्रधानमंत्री जानते हो, कैसा पानी पीते हैं ?''

‘‘कइसा गुरुदेव ?''

‘‘उनके पानी की वाटर टेस्टिंग होती है कि कोई विषाक्त पदार्थ तो नहीं मिला हुआ है। उस पानी को पहले कोई और पी कर देखता है, उसे यदि कोई नुकसान नहीं होता तो फिर प्रधानमंत्री को पीने को दिया जाता है।''

‘‘यहॉं पीने को एक बॅूंद पानी नहीं और परधान मंतरी के इतने नाज—नखरे।'' रामसुजान का अचरज बढ़ता जाता था।

‘‘यही तो भइया राजा और प्रजा में फर्क है।''

हाकिम—अफसरों ने बहुत भाषण झाड़ा था, ‘‘देखिये, आप लोग शांत रहिये। आप लोगों को पूरी—पूरी सहायता दी जायेगी। राहत कार्य चलाया जायेगा। देश में इतने अनाज का भंडारण है कि कोई भूखा नहीं मरेगा।''

‘‘अउर पानी ? पानी कहॉं से मिलेगा हुजूर। ढोर—डॉंगर, लड़िका—बच्चा पियासे मर रहे हैं।'' कोई वयोवृद्ध, हाथ जोड़ कर पूरा जबड़ा फाड़ पूछने लगा था।

‘‘मिलेगा पानी। मौसम विभाग ने सूचना दी है एक सप्ताह के भीतर पानी गिरेगा। आप लोग जानते हैं कभी बाढ़, कभी सूखे की स्थिति क्यों उत्पन्न हो रही है ? मानसून समय पर क्यों नहीं आया ? क्योंकि प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है। जंगल काटे जा रहे हैं। हमें फल—फूल, औषधि, लकड़ी, हवा, पानी सब कुछ जंगलों से मिलता है। पेड़—पौधों से मिलता है। पर आप लोग न जाने कितनी लकड़ी रोज चूल्हे में फॅूंक देते हैं। ये धरती हमें बहुत—कुछ देती है और बदले में चाहती है उस की वनस्पति को कोई नुकसान न पहॅुंचाये। टी0वी0 में रोज दिखाया जाता है पानी की एक—एक बॅूंद बहुत कीमती है। पानी उतना ही खर्च करो जितना आवश्यक है। पर तुम लोग जहॉं एक बाल्टी पानी की आवश्यकता होती है, वहॉं चार बाल्टी पानी फेंकते हो। प्रशासन पूरी—पूरी सहायता करेगा। पर आप लोगों का भी कर्तव्य है कि पेड़—पौधे न काटें। पानी का दुरुपयोग न करें।''

रामसुजान भाषण में कही गई बातों को दिन भर सोचता—विचारता रहा। फिर शाम को फौजी के घर टी0वी0 देखने पहॅुंच गया। फौजी मस्त आदमी है। हॅंसता है तो लगता है उस के ब्रिगेडियरी ठहाके से छत गिर पड़ेगी। टी0वी0 में दिखाया जा रहा था, नल से बॅूंद—बॅूंद पानी रिस रहा है और खाली बाल्टी और कलसों की लंबी लाइन लगी हुई है। रामसुजान कहने लगा, ‘‘ये तो हुजूर वैसी ही लाइन है, जैसे आजकल बिहारी की कॅुंइयॉं में लगती है।''

फौजी ने गहरी सॉंस छोड़ी, ‘‘हॉं, अभी तो देखो और क्या—क्या होता है। ये हाकिम—अफसर तो कह कर चलते बने कि तुम लोग पानी बहुत बेकार करते हो। पेड़—पौधों को नुकसान पहॅुंचाते हो। अरे ये जंगल गरीब नहीं काटता। ये बड़े लोग काटते हैं। नदी किनारे के जंगल किसने साफ किये ? इन बड़े लोगों ने। रात भर ट्रक घरघराते थे और लकड़ी लादी जाती थी। मुझे खूब याद है यह नदी खूब उछालें मारती थी और जंगल खूब घना था। इस ओर रात—बिरात आने में डर लगता थ। इन अफसरों को कौन समझाये पानी का दुरुपयोग आप शहर वाले कर रहे हैं। हम एक बाल्टी पानी में नहा लेते हैं और ये बाथ टब में नहाते हैं। ये लोग कपड़े धोने की मशीन, बर्तन धोने की मशीन, कूलर का प्रयोग करते हैं और पानी की खपत बढ़ जाती है। तमाम फैक्टरियों, कोलियरी, कपड़ा मिलों का गंदा पानी नदी—तालाबों में यह शहर वाले बहाते हैं और नदियों का पानी प्रदूषित करते हैं। फिर शहर के ये बड़े लोग पानी साफ करने वाली मशीनों से पानी साफ कर पीते हैं और हम गॉंव के लोग गंदा पानी पीते हैं और कभी पीलिया तो कभी दूसरी पेट की बीमारियों से पीड़ित होते हैं। राष्ट्रीय जल आयोग ने पानी की गॉंव की आवश्यकता को 40 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन और नगर की आवश्यकता को एक सौ साठ लीटर प्रति व्यक्ति के हिसाब से प्रतिदिन माना है। पर शहर के लोग एक हजार लीटर प्रति व्यक्ति के हिसाब से पानी बहाते हैं। कोई कहे इन से, भाषण से हमारी प्यास नहीं बुझेगी, हमें पानी चाहिये। हमें कर्तव्य सिखाने से पहले तुम अपना कर्तव्य सीखो।'' फौजी की पूरी बात रामसुजान की समझ में नहीं आई। उसे तो इतना पता है, इस साल अकाल पड़ा है।

अकाल उस की याद में एक बार पहले भी पड़ा था। तब अमेरिका से माइलो आया था। गॉंव—गॉंव बॉंटा गया था। जिस माइलो को अमेरिका के पशु नहीं खाते थे, उसे इस देश के लोग खा रहे थे। दुर्भिक्ष, आदमी से बहुत कुछ करा लेता है। उसी वर्ष गॉंव के बड़े—बुजुर्गों ने सलाह की थी कि कोदौ में वर्षों तक कीड़े नहीं लगत हैं इसलिये आपातकाल के लिये कोदौ का भंडारण करना चाहिये। उसके घर में कोदौ रखी है पर वह तभी पकेगी—फदकेगी, जब हांडी में कोदौ के साथ पानी भी डाला जाएगा।

सारी सोच पानी पर आकर ठहर जाती हैैै। सारी दृढ़ता, योजनायें पानी पर आकर ढह जाती हैं। गॉंव की चहल—पहल, कामकाज ठप्प पड़ा है। खेतों में काम नहीं है। हल नहीं चल रहे हैं। सूखी—दरकी—झुलसी धरती में बड़ी—बड़ी दरारें पड़ गई हैं। आसमान आग उगलता है। हवा ऐसी ठहरी हुई है, जैसे किसी ने कहीं कैद करके रखा हो। लोग बैठे—बैठे या तो आकाश ताकते हैं या चिलम फूॅंकते हैं या रोते—बिलखते बच्चों को पुचकारते हैं या रॅंभाते गोरुओं की पीठ थपथपाते हैं। किशोर लड़के—लड़कियॉं खेलकूद कर स्वयं को भरमा रहे हैं —

हरा समंदर, गोपी चंदर,

बोल मेरी मछली कित्ता—कित्ता पानी।

गोल वृत्त के बीच में खड़ी लड़की छाती तक की ऊॅंचाई बताती है, ‘‘इत्ता—इत्ता पानी।''

ढीली पड़ गई मॅूंज की खाट की रस्सी कसते हुये रामसुजान मन में हॅंसता है। कितने भोले हैं ये बच्चे। इत्ता—इत्ता पानी होता तो आज गॉंव इस तरह सायॅं—सायॅं न कर रहा होता। घर ऐसा उदास न लगता, जैसे किसी की मौत पर लगने लगता है। सरकार कहती है देश में र्प्याप्त अनाज है पर पानी का क्या करें ? कोई उसे वह जगह बता दे, जहॉं पानी का अक्षय घट रखा हो तो वह पूरे गॉंव की प्यास बुझा दे। कितना अच्छा होता जो उसके भीतर भगीरथ की सी क्षमता होती तो आज वह एक और गंगा इस प्यासी धरती पर उतार लाता। या कि उसे अर्जुन का वह बाण मिल जाता, जिससे भूमि में छेद कर उसने सरशैया पर मृत्यु की प्रतीक्षा में पड़े भीष्म पितामह की प्यास बुझााई थी। जाने कहॉं गये रामचंद्रजी के युग के वे बादल जो मॉंगते ही पानी बरसा देते थे। अब तो कोई जुगत, कोई जतन काम नहीं आता।

गॉंव में इस समय एक महाराज पधारे हुये हैं। इतनी सुंदर बात कहते हैं कि कुछ समय को आदमी भूख—प्यास भूल जाता है। खाली बैठे मर्द, औरतें सॉंझ से ही जुहाने लगते हैं।

‘‘पानी कब बरसी महाराज ?'' कोई पूछ लेता है।

‘‘पानी कैसे बरसे समय पर ? कलियुग लगा है भाइयो। तुलसी बाबा कह गये हैं कलियुग में बार—बार दुकाल पड़ेगा, बिना अन्न के लोग मरेंगे। पाप, अन्याय, लोभ, अत्याचार, भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है। जंगल काटे जा रहे हैंं, ऊर्जा की खपत बढ़ गई है। प्रदूषण बहुत बढ़ गया है और वायुमंडल को स्वच्छ करने वाले पेड़ काटे जा रहे हैं। प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है इसीलिये समय पर पानी नहीं बरसता और सूखा पड़ता है। पहले जिसके पास पैसा होता था, वह बाग—बगीचा लगवाता था, कुयें खुदवाता था। आज लोग इमारतें बनवा रहे हैं। वायु के बाद पानी ही वह आवश्यक तत्व है, जिसके बिना मनुष्य और पशु—पक्षी जीवित नहीं रह सकते। मॉंगे बारिद देहि जल रामचंद्र के राज ...........सुने हो न। यह कोई चमत्कार जैसी घटना नहीं थी। उस समय लोग जंगलों के महत्व को समझते रहे होंगे। प्रकृति के संतुलन से खिलवाड़ नहीं करते रहे होंगे। रामचंद्रजी के राज में बादल उतना ही पानी बरसाते थे, जितनी आवश्यकता होती थी। न सूखा पड़ता था, न बाढ़ आती थी। इसको हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि लोग उतना ही पानी उपयोग में लाते थे, जितनी आवश्यकता होती थी। पानी को बेकार नहीं फेंका जाता था और पानी की कमी नहीं होने पाती थी। पानी न रहेगा तो कितनी ही मछलियों, पशु—पक्षियों की प्रजातियॉं खतम हो जायेंगी। पृथ्वी का तापमान बढ़ता जायेगा और जल—स्तर नीचे गिरता जायेगा। बार—बार सूखा पड़ेगा। बार—बार अकाल पड़ेगा।''

रामसुजान की कनपटियों में तपसी महाराज की बातें देर रात तक प्रतिध्वनित होती रहती थीं। पेड़ इतने आवश्यक हैं तो लोग क्यों काटते हैं ? पढ़े—लिखे लोग जब इतने समझदार होते हैं तो उनकी समझ में एक ये बात क्यों नहीं आती ? पानी नहीं बरस रहा है और लोग गॉंव छोड़ कर जा रहे हैं। रोज कोई एक घर खाली होता है। घरवाली ने स्पष्ट कह दिया है, ‘‘आज की रात काट लो, कल यहॉं से चलना है। बाल—बच्चों का कष्ट नहीं देखा जाता। बुद्ध गनेस के पास चले जायेंगे। जब कुॅंइया—इंदारा भर जायेंगे, तभी लौटेंगे।''

‘‘जाओ, तुम सब जाओ। मैं ढोर—डॉंगर को छोड़ कर नहीं जाऊॅंगा।'' रामसुजान को कदाचित अब भी आशा है पानी के बरसने की।

‘‘न जाओ हम तो जायेंगे।''

तो कल उसके घर के खाली होने की बारी। रामसुजान की छाती दुःखों से भरी है। रात गहरा रही है। ऑंखें कड़ुआ रही हैं। नींद नहीं आ रही है। रामसुजान चारपाई डाले घर के बाहर खुले आसमान के नीचे सोया है। सहसा लगा, उसकी उघाड़—पसिनियाई छाती पर पानी की दो बॅूंदें टपकी हैं। कहीं भ्रम तो नहीं ? उसने बॅूंदों को छुआ। पानी ही है। तो क्या इंद्रदेव कृपा करेंगे ? उसने हुलस कर आसमान ताका। आसमान बिल्कुल साफ है। तारों भरा आसमान। अब तो ये तारे भी अच्छे नहीं लगते। बुझ गया रामसुजान। कोई चिरैया—चुरुगुन उड़ती हुई गुजरी होगी और उसी ने मूत्र विसर्जन कर दिया होगा। पानी यहॉं कहॉं ? पानी तो न आकाश में है, न धरती में। न जाने कहॉं बिला गया पानी। भिनसार हुआ। तैयारी हुई। घर खाली होगा अब। बाला जो किसी काम से पड़ोस में गई थी, टेरती हुई आई।

‘‘बुद्ध गनेस भइया आये हैं। लड़िका—बच्चा, भउजी सब साथ में हैं।''

अगले ही क्षण गनेस पत्नी, दो लड़कियों और एक लड़के के साथ ओसारी में खड़ा था।

‘‘कइसे आये भई ?'' रामसुजान का मुॅंह फटा—का—फटा रह गया।

‘‘बाबू, वहॉं तो पनियै नहीं है। नल, हैंडपंप सब छॅूंछे पड़े हैं। क्या हम पियें और क्या लड़का—बच्चा को पियायें। हमें तो ड्‌यूटी करना है पै ये लोग कुछ दिन यहीं रहेंगे। पानी—ओनी तो है न।'' बुद्ध गनेस ने अपना आना स्पष्ट किया।

‘‘हॉं, हियॉ ंतो कॅुंइया—इंदारा भरे पड़े हैं। नदी उछल रही है। अपनी अम्मा की तैयारी नहीं देख रहे। पानी का अइसा कष्ट है कि सब तुम्हारे पास जाने की तैयारी किये बैठे हैं।'' रामसुजान हक्का—बक्का है।

‘‘वहॉं पानी कहॉं है अम्मा ? तीन दिन में एक बार टेम—कुटेम नल में पानी आता है। कुछ मोहल्ले में वह भी नहीं।''

‘‘तब तो तुम्हारे कलट्‌टर साहेब की बगिया सुखाय गय होगी ?''

‘‘नहीं बाबू, बड़े अफसरों की बगिया नहीं सूखती। उनके लिये दिन में बोर का पानी और रात में पी0एच0ई0 का पानी खोला जाता है। हमीं सींचते हैं रात को। पानी का ऐसा संकट है कि पूछो मत।'' कह कर बुद्ध गनेस ऐसे चुप खड़ा रहा, जैसे अपराधी हो।

पूरा घर ठगा—सा खड़ा है। रामसुजान की समझ में नहीं आता क्या कहें ? वह विमूढ़—सा कभी बुद्ध गनेस को और कभी ड्‌योढ़ी बर बैठी, बाल—बच्चे समेटे जाने को उद्धत घरवाली का मॅुंह ताकता है। फिर जैसे उसे चेत आता है, ‘‘आओ, सब जने भीतर आओ। जो होगा, सब साथ मिल कर सहेेंगे। इस गॉंव ने, इस धरती ने हमें खूब अन्न—पानी दिया है, अब भूखा—प्यासा मारेगी तो वही सही।''

बुद्ध गनेस घर के भीतर चला गया, पर रामसुजान को लगा, घर में ठहरना एकाएक बहुत कठिन हो गया है। इतना कि उसका दम घुट जायेगा। उसे खुली वायु चाहिये। उसने कॉंधे पर ॲंगौछा डाला और नदी की ओर चल दिया। रास्ते भर परिकल्पना में डूबा रहा — रातों रात कोई चमत्कार हो गया है। नदी भर गई है। जो लोग गॉंव छोड़ कर गये थे, वापस लौट आये हैं। बच्चे उत्साह में खेल रहे हैं।

हरा समंदर, गोपी चंदर बोल मेरी मछली कित्ता—कित्ता पानी।

इत्ता—इत्ता पानी।

वृत्त के बीच में खड़ी लड़की सिर के ऊपर दोनों हाथ रख कर बताती है।

..... और जब वह नदी तट पर पहॅुंचा, नदी सूखी पड़ी थी, जैसे सदियों से सूखी पड़ी हो। उसने अकुला कर आकाश ताका। आषाढ़ अंत का आकाश ऐसा स्वच्छ और आसमानी था कि लगता न था, वह आषाढ़ अंत का आकाश है।

***

सुषमा मुनीन्द्र

द्वारा श्री एम. के. मिश्र एडवोकेट

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