प्रेम — रंग, अफवाह, खुशबू Sushma Munindra द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम — रंग, अफवाह, खुशबू

प्रेम — रंग, अफवाह, खुशबू

सुषमा मुनीन्द्र

उन्नति ने नहीं सोचा था फेस बुक पर रक्षा मिलेगी।

उन्नति का मन यॅूं भी भटका सा रहता है। जब से बेटी की शादी हुई, बेटा आई.आई.टी. करने खड़गपुर गया वह मानो लैप टॉंप पर अपने मन को भटकने के लिये आजाद हो गई है।

लेकिन नहीं सोचा था फेस बुक पर रक्षा मिलेगी।

दोनों में खास दोस्ताना नहीं था पर बरसों बाद ....... अचानक, कोई अल्प परिचित भी मिल जाये तो अजीज सा लगता है। उन्नति ऐसी आल्हादित हुई जैसे कब की बिछुड़ी रक्षा आज मिली है। लगा समय बहुत बीत गया है पर उसके भीतर दो चोटी वाली कालेज छात्रा आज भी मौजूद हैं। पॅूंछा —

‘‘पहचाना ?''

‘‘तुमने ?''

‘‘क्लास की पहली और आखिरी लैला को कैसे भूल सकती हॅूं।''

‘‘जबकि तुम लड़कों से ऐसे दूर भागती थी जैसे वे सड़े हुये टमाटर थे।''

‘‘मुझे प्रेम शब्द अनैतिक सा लगता था।''

‘‘तभी लड़के तुम्हें छेड़ने के काबिल नहीं समझते थे।''

यह वो दौरा था जब नैतिकता ऊॅंचे स्तर को छूती थी। अधिकांश पिता, जवान बेटियों को स्पर्श न करते थे। लड़कियों को एक अदृश्य लक्ष्मण रेखा के भीतर रहने की सलाह दी जाती थी। धता बताने का अर्थ था घर वापसी के मौके खो देना। छोटे शहरों में कुछ हो न हो एक कन्या विद्यालय जरूर होता था। महाविद्यालय एक होता था या नहीं भी होता था। अधिकांश लड़कियों को कन्या पाठशाला के बाद नहीं पढ़ाया जाता था कि महाविद्यालय एक ही है, जो कि को एड है तो वहॉं फुसलाने वाले लड़के मिलेंगे। जबकि ‘प्यार किया नहीं जाता हो जाता है' जैसे फलसफे से दूर रह कर अधिकांश लड़कियॉं ब्लैक बोर्ड पर ध्यान केन्द्रित किये रहती थीं। जो ऐसा नहीं कर पाती थीं विचारों में इश्क कर लेती थीं। प्रेम इशारों में बरामद होता था या प्रेम पत्र में। खुल्लम खुल्ला न होने के कारण गलफत हो जाया करती थी। जब पड़ोसी लड़की डोली में सवार हो पिया जी के देश चल देती पड़ोसी लड़के की प्रज्ञा जागती थी दरअसल वह इस लड़की से प्रेम करता है।

प्रेम।

इस शब्द में तब जो आकर्षण था अब नहीं रह गया है। प्रेम सहज ही सुलभ होने लगे तो उसका आकर्षण कम हो जाता है। तब आधे—अधूरे प्रेम पर भी दस्तानें बन जाती थीं। जलजला आ जाता था। जो प्रेम करते थे उन्हें तो थ्रिल मिलता ही था, जो नहीं करते थे प्रेमियों के थ्रिल को देखकर बाग—बाग हो लेते थे। तब प्रेम करना अत्यन्त लज्जाजनक माना जाता था। प्रेम करने की सम्भावना वैसे तो क्षीण होती थी फिर भी पड़ोस और सह शिक्षा वाले शैक्षणिक संस्थान में इक्का—दुक्का केस मिल जाते थे।

उन्नति और रक्षा कन्या उच्च्तर माध्यमिक पाठशाला से खिसक कर कस्बेनुमा शहर के जिस इकलौते महाविद्यालय में दाखिल हुई थीं वह बस्ती से दूर एकांत में था। परिसर के पीछे गन्ने के सघन खेत थे ओर शरारती टाइप विद्यार्थी गन्ने चुराते थे। विज्ञान प्रथम वर्ष में कुल जमा तीन प्रेम प्रसंग हुये थे। पहला प्रेम प्रसंग रंंग की तरह था, दूसरा अफवाह की तरह, तीसरा खुशबू की तरह।

प्रेम — रंग की तरह —

प्रेम रंग की तरह दृश्य पर आये तो उसे प्रामाणिक मान लेना चाहिये।

रक्षा ने इस जल्दबाजी में इश्क किया जैसे इश्क करने के लिये ही कालेज ज्वाइन किया था। वह छोटे शहर के हिसाब से खुुद को काफी स्मार्ट मानती थी। स्कूल यूनीफार्म से मुक्ति मिलते ही अच्छे परिधानों से अपनी स्मार्टनेस को प्रखर करने लगी। तब बेल बाटम का आकर्षण कम करते हुये सलवार—कुर्ते चलन में आ गये थे पर वह बेल बाटम और टॉंप ही पहनती थी। इसका एक बड़ा कारण यह था, उसे दुपट्‌टे से बैर था। कक्षा में छात्र और छात्राओं का अनुपात अस्सी और बीस जैसा था। लड़कियॉं एक ओर बैठती थीं, लड़के दूसरी ओर। अल्प संख्यक लड़कियॉं शुरूआती तीन बेंच में आसीन हो जाती थीं। लड़कों की बहुतायत थी। दूसरी ओर वाली बेंचों में न समा पाने के कारण वे लड़कियों के बाद वाली चौथी बेंच से लेकर अंतिम बेंच को टिड्‌डी दल की तरह घेर लेते थे। जिस दिन सौ प्रतिशत उपस्थिति होती बेंच कम पड़ जाती। कुछ लड़के पीछे खड़े रह कर अध्ययन करते। इतनी तादाद में अंदाज न मिलता था कौन किससे इश्क फरमा रहा है। वह तो रक्षा में जॉंबाजी थी और उसने खुलासा कर दिया — डगर चलते—चलते निहाल उस पर डोरे डाल रहा है।

कालेज पहॅुंचने के दो मार्ग थे। आज की तरह लड़कियॉं स्कूटी पर फर्राटा नहीं चलती थीं। कम ही थीं जो साइकिल से कालेज आती थीं। कस्बेनुमा शहरों की अपनी व्याख्या—परिभाषा होती है। साइकिल चलाने वाली लड़कियॉं पहॅुंची हुई न भी मानी जायें तेज किस्म की मानी जाती थींं। निहाल और रक्षा अपनी—अपनी साइकिल पर एक ही रास्ते से कालेज आते थे। कालेज आने का तय वक्त होता है अतः लाजिमी था वे कहीं न कहीं रास्ते में मिलेंगे। रक्षा में अदा थी और वह साइकिल बड़ा लहरा कर चलाती थीं। वह लहरा रही थी कि अपनी मॉं का हाथ थामे रोड क्रास कर रहा पॉंच साल का बालक उसकी साइकिल की जद में आकर भूलुण्ठित हो गया। रक्षा भी साइकिल लिये दिये गिरी। लड़के के घुटने में चोट आई। रक्षा की साइकिल का हैण्डिल टेढ़ा हो गया। बच्चे की मॉ कोप को प्राप्त हुई —

‘‘तुम हमारे जिन्नी का गोड़ तोड़ोगी, हम तुम्हारी साइकिल तोड़ेगे। जिन्नी के घुटना से रकत (रक्त) बह रहा है।''

रक्षा की अदा रफूचक्कर। वह तो फिल्मी दृश्य की तरह ठीक मौके पर निहाल आ गया और तेज व्यवहार दिखाते हुये महिला को हुरपेटने लगा —

‘‘बच्चे के साथ सड़क पर छुट्‌टा न घूमा करो। आज बच गया, कल नहीे बचेगा। चलो रक्षा।''

‘‘हैण्डिल टेढ़ा हो गया है।''

निहाल ने हैण्डिल सीधा कर दिया ‘‘चलो।''

साइकिल पर पैडिल मारते हुये रक्षा ने पॅूंछा ‘‘तुम मेरा नाम जानते हो ?''

‘‘हॉं। तुम ?''

‘‘नहीं।''

‘‘निहाल।''

रक्षा की ऑंखों में चौंक और चमक ‘‘सत्तर प्रतिशत ?''

भौतिकी के प्राध्यापक ने हाजिरी लेते हुये पॅूंछा था ‘‘हायर सेकण्डरी में सबसे अधिक प्रतिशत किसका था ?'' निहाल ने बताया था ‘‘सर, मेरा। सत्तर प्रतिशत।''

तब आज की तरह शत—प्रतिशत अंक नहीं मिलते थे। गुड सेकण्ड भी एक डिवीजन होता था जो पचपन और साठ प्रतिशत के बीच होता था। सत्तर प्रतिशत वाले को अखिल भारतीय सेवा में जाने योग्य माना जाता था। कहा नहीं जा सकता रक्षा, निहाल द्वारा दी गई तात्कालिक मदद से प्रेरित हुई अथवा सत्तर प्रतिशत से किंतु सबने देखा वह पहली बेंच से तीसरी बेंच और निहाल पहली बेंच से लड़कियों के पीछे वाली चौथी बेंच में रक्षा के ठीक पीछे स्थापित हो गया है। तीसरे बेंच की लड़कियॉं अपनी जगह रक्षा को देकर पहली बेंच में नहीं जाना चाहती थीं। पहली बेंच के विद्यार्थी चॅूंकि अध्यापकों की दृष्टि में रहते थे, सर लोग अक्सर उन्हें प्रश्न का उत्तर देने के लिये खड़ा कर देते थे। उन्नति ने रक्षा की रक्षा की —

‘‘रक्षा, तुम मेरी जगह में आ जाओ। पर देखो यहॉं क्या लिखा है ? ये न समझ लेना मैंने लिखा है।''

रक्षा ने देखा बेंच के आगे लगी सॅंकरी—लम्बी काठ की मेज पर किसी गुणी ने प्रकार जैसे नुकीले उपकरण से अच्छी लिखावट में उरेह दिया था — दिल वह कब्रिस्तान है, जहॉं हमारे अरमान दफनाये जाते हैं।

उन्नति को लज्जित देख रक्षा मुस्कुराई ‘‘उन्नति, मुझे तुम्हारी सीट पसंद आई। मैं अच्छा महसूस करूॅंगी।''

रक्षा और निहाल एक—दूसरे की समीपता में सम्पूर्णता पा रहे थे। उन दिनों प्रेम जैसा प्रेम करने के लिये स्थल की कमी रहती थी। हमारे देश के पार्क तब वेलेन्टाइन डे नहीं मनाते थे। लिव इन रिलेशनशिप की तो किसी ने कल्पना तक न की थी कि एक दिन ऐसा आयेगा जब सुजान लड़के—लड़कियॉं कुछ साल के करार पर साथ रहते हुये एक—दूसरे की परख—पड़ताल कर शादी के लिये सोचेंगे या नहीं भी सोचेंगे।

प्रेम — अफवाह की तरह —

इस प्रेम को विद्यार्थी जाली कहते थे लेकिन भरपूर आनंद उठाते थे। अंशुमान तीन वर्ष ग्यारहवीं कक्षा में निवेश कर ‘बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा' जैसा ध्येय लेकर कालेज में भर्ती हुआ था। आयु में बाकी लड़कों से बड़ा था। खूब विकसित डील—डौल के कारण अधिक बड़ा लगता था। विद्यार्थियों से जुदा दिखने के लिये शर्ट—पैंट की जगह खादी का कलफ चढ़ा सफेद कुर्ता—पैजामा पहन कर आता था इसलिये और बड़ा लगता था। बाइक से आता था इसलिये सचमुच बड़ा लगता था। इतना बड़ा लगता था कि छात्रायें उसे आदमी कहती थीं। आदमी दावा करता था, एडहॉंक में जीव विज्ञान पढ़ाने आई कुमारी कानूनगो मैडम को लाइन मारता था। कानूनगो मैडम छोटे से चुटके में काफी मैटर लिख लाती थीं और छात्राओं की ओर देखते हुये एक पीरियड में दो—तीन चैप्टर पढ़ा डालती थीं। छात्रों की ओर से उनकी कुॅंवारी ऑंखें ऐसी निस्पृह बनी रहतीं जैसे क्लास में छात्र हैं ही नहींं। लड़के कहते —

‘‘क्या पढ़ाती हैं समझ में नहीं आता।''

‘‘हम लोगों की तरफ फूटी नजर नहीं डालतीं। जैसे देख लेंगी तो कैरेक्टर खराब हो जायेगा।''

आदमी से उनकी निंदा सुनी न गई ‘‘तुम्हारी ऑंखों में ऑंखें डालकर पढ़ायें ?''

‘‘मैडम से तुम्हें बड़ी हमदर्दी है अंशुमान।''

‘‘वे बेचारी बस में लटक कर पढ़ाने आती हैं और तुम लोग ऐसे बेअकल कि उनका पढ़ाया समझ नहीं पाते।''

कानूनगो मैडम बीस किलोमीटर दूर कस्बे से आती थींं। कस्बे से होकर गुजरने वाली रामनगर बस ठीक समय पर कालेज पहॅुंचा देती थी। ओवर लोड बस में अक्सर उन्हें दरवाजे के पास खड़े होकर यात्रा करनी पड़ती थी। मैडम को कालेज के सामने ड्राप कर बस, बस स्टैण्ड की ओर चली जाती थी।

आदमी ने उन्हें कई बार बस में लटकी हुई अवस्था में देखा था।

‘‘मैडम को बस में लटकते देख तुम्हें दर्द होता है तो बाइक से ले आया करो।''

‘‘सोचता हॅूं उनके कस्बे में एक कमरा किराये पर ले लूॅं। बाइक पर साथ—साथ आना—जाना होगा। मेरी बाइक पवित्र हो जायेगी। मैं भी।''

सी.आर. (क्लास रिप्रेजेन्टेटिव) ने दोनों हाथ ऊपर उठाकर बहस को विराम दिया ‘‘अंशुमान तुम इश्क में निकम्मे न बनो ........और सुनो ....... सब सुनो कल मैडम की क्लास अटैण्ड नहीं करनी है। ठीक से नहीं पढ़ाती हैं।''

अंशुमान, मैडम का वफादार सिपाही ‘‘पढ़ाती ठीक हैं, बस तुम्हारी ऑंखों में ऑंखें नहीं डालतीं।''

बहिष्कार के दूसरे दिन कानूनगो मैडम क्लास लेने आई। क्लास में पीछे तक नजर दौड़ाई ‘‘अंशुमान .......

आदमी को लगा ध्येय पूरा हुआ। उसने क्लास अटैण्ड ही इसलिये की थी कि क्लास में एक मात्र उसे उपस्थित देख वे नाम अवश्य पॅूंछेंगी। उन्होंने पॅूंछा और उन्हें नाम याद भी रहा। आदमी खड़ा हो गया ‘‘यस मैडम।''

‘‘कल कोई नहीं आया तो तुम क्यों आये ?''

‘‘मुझे किसी ने नहीं बताया था बंक मारना है। ऐसे बेकार लड़़के ये।''

‘‘खाली क्लास देख कर चले जाते।''

‘‘मैं क्या जाता मैडम, मुझे देख आप ही चली गईं।''

आदमी ने ऐसा ह्यूमर बिखेरा कि छात्र—छात्राओं के साथ मैडम भी हॅंसने लगीं।

पीरियड ओवर होने पर सी.आर. ने आदमी को तलब किया —

‘‘कल क्यों आये ?''

‘‘मैडम इतनी दूर से बस में लटक कर जान देने आती हैं। मैं ज्ञान लेने आया था।''

‘‘तुमने यूनिटी नहीं दिखाई। तुम्हारी जेब को चूना लगाना है। पूरी क्लास को दो—दो आलूबण्डे खिलाओगे।''

‘‘तुम लोग अस्सी से कम क्या होगे। एक सौ साठ आलूबण्डे। दिवालिया हो जाऊॅंगा।''

‘‘सेठानी को आर्डर दे आओ। लास्ट पीरियड के बाद यहीं क्लास में खायेंगे।''

उन दिनों कालेज में कण्टीन नहीं होती थी। न ही विद्यार्थी रेस्टोरेन्ट में अपना जन्म दिवस सेलीबे्रट करते पाये जाते। एक मोटी औरत जिसके मोटे चेहरे में मोटा उभरा हुआ काला मस्सा था, परिसर में टपरा डालकर आलू बण्डे बनाती थी।

आलू बण्डे खिलाकर वह चर्चित हो गया। चर्चा में बने रहने के लिये वह छोटी—छोटी वारदात करता रहता था। जूलोजी लैब में लैब अटैेण्डेन्ट को पैसे देकर कुछ केंचुये कबाड़ लेता। छात्राओं के समीप जाकर कहता ‘‘अर्थवर्म खराब हो जाये तो बताना। मेरे पास एक्स्ट्रा है।''

कुछ विद्यार्थियों को अथवर्म खराब अवस्था में मिलते थे। डिसेक्ट करते हुये टूट जाते थे। लैब अटैण्डेन्ट दूसरा नहीं देता था। ठीक तभी आदमी, कुर्ते की जेब से अखबार के टुकड़े में लपेट कर रखे केंचुये निकाल लेता —

‘‘लो।''

‘‘कहॉं से लाये ?''

‘‘कानूनगो मैडम ने दिये। मुझे अपना खास मानती हैं।''

कानूनगो मैडम उसे खास मानने लगी थीं या नहीं इसका प्रमाण नहीं मिलता पर आदमी क्लास में ही नहीं कालेज में भी चर्चित होता जा रहा था। महाविद्यालय के वार्षिकोत्सव में उसने ‘‘हम—तुम एक कमरे में बंद हों और चाबी खो जाये ......।'' का बघेली संस्करण ‘‘हम—तुम एक कोठरी मा बिंड़रे (बंद) होइ अउर चाबी हेरा जाये, सोचा कबहॅूं अइसन होय त का होय, सोचा कबहॅूं अइसन होय त का होय .....

''गाकर ऐसी प्रसिद्वि पा ली कि परिसर में छात्र—छात्रायें उसे देखते ही संकेत करते ‘‘यही ...........यही है ........ इसने इतना हॅंसाया .........अरे कानूनगो मैडम को देखते हुये गा रहा था .......... बेचारी सिर नीचा किये सुनती रहीं ......

प्रेम — खुशबू की तरह —

इस तरह का प्रेम प्रसंग विचित्र होता है। चूॅंकि यह रंग की तरह दृश्य पर न आकर खुशबू की तरह होता है, इसलिये प्रेम करने वालों को भरोसा नहीं होता यह जो है प्रेम है। आजकल इसे प्लेटोनिक लव जैसा कुछ कहते हैं।

साधारण छींट का कुर्ता, सलवार और अनुशासित प्रहरी सा आधे बदन को ढॉंपता दुपट्‌टा पहनने वाली उन्नति चेहरे से ही ऐसी सच्चरित्र लगती थी कि सहपाठी लड़कों ने मान लिया था इसमें रूचि लेना, इसे देख कर सीटी बजाना अतिरंजना होगी। लेकिन अतिरंजना देखो। प्रयोगशाला में प्रयोग करने के लिये उसे संकर्षण की पार्टनरशिप मिली। उस छोटे कालेज की प्रयोगशालायें छोटी थीं जिनमें उपकरणों की भारी कमी थी। जीव विज्ञान प्रयोगशाला में विच्छेदन के लिये जंतु भी ठीक से उपलब्ध नहीं कराये जाते थे। दो विद्यार्थियों के बीच में एक मेढ़क, बिच्छू या केंचुआ दिया जाता इस धमकी के साथ कि डिसेक्शन सही तरह से करना। एनीमल खराब कर दोगे तो दूसरा नहीं मिलेगा।''

प्रयोगशालायें छोटी थीं। विद्यार्थी तादाद में थे। प्रैक्टिकल करने के लिये अल्फाबेट्‌स के अनुसार तीन बैच बना दिये गये। रक्षा और उन्नति तीसरे बैच में थीं। उपकरणों की कमी को देखते हुये दो विद्यार्थियों का समूह बना दिया गया। समूह में दो छात्र अथवा दो छात्रायें थीं। लेकिन अतिरंजना देखो। समूह बन जाने के बाद संकर्षण और उन्नति शेष बचे। उन्नति को एक छात्र और एक छात्रा वाला समूह अनैतिक लगा। वह बाहर की आबोहवा की पुख्ता खबर रखने वाले पिता के क्रिटिकल कंडीशन जैसे अनुशासन में रहती थी। जमाना ऐसा चौपट नहीं हो गया था कि हर शख्स पर शक किया जाये पर पिताजी को लगता था उनकी तीनों बेटियॉं किसी के साथ भागने की युक्ति लगा रही हैं। कालेज दूर होने के कारण उन्होंने उन्नति को साइकिल से जाने की छूट दे रखी थी पर डरे रहते थे साइकिल से कालेज जाते—जाते किसी फुसलाने वाले के साथ दूर न निकल जाये। पिताजी इस पार्टनरशिप का सूराग यदि पा लेंगे, शतिया तौर पर कालेज जाना खारिज कर हाथ पीले करने की जुगत में लग जायेंगे कि तुम कालेज प्रयोग करने नहीं प्रेम करने जाती हो। बोली —

‘‘सर, में शांति के ग्रुप में चली जाती हॅूं।''

सर को प्रस्ताव अच्छा लगा ‘‘ठीक है। संकर्षण तुम समय के ग्रुप में चले जाओ।''

संकर्षण अलग प्रथा चला रहा था ‘‘तीन के साथ असुविधा होगी सर। उन्नति तुम्हें क्या प्राब्लम है ? प्रैक्टिल ही तो करना है।''

सर को यह प्रस्ताव भी अच्छा लगा ‘‘ठीक है।''

रक्षा की ऑंखों में सावन उतरा रहता था। उसे हरा ही हरा नजर आता था। उन्नति को विरोधाभास में देख बोली —

‘‘उन्नति मजे कर। थोड़ी मौज मस्ती हो तो पढ़ाई में खूब मन लगता है।''

‘‘रक्षा मैं इस कीट भक्षी के कारण ठीक से प्रैक्टिल नहीं कर पाती हॅूं। ये डिसेक्शन करने लगता है मैं एक ओर खड़ी टापती हॅूं। जैसे इसे ही पास होना है, मुझे नहीं।''

‘‘काश मुझे निहाल के साथ प्रैक्टिल करने का चांस मिलता। सुन उन्नति। संकर्षण से इश्क कर। फिर तुझे यह कीट भक्षी नहीं राजकुमार लगेगा।''

‘‘मैं बेवकूफी नहीं करूॅंगी।''

‘‘बेवकूफी नहीं इश्क कर। इस उम्र में प्यार नहीं किया तो समझ ले भारी मिस्टेक की। टीन एज में जो उमंग, जो तरंग होती है वह फिर कभी नहीं होगी।''

‘‘मैं बेवकूफी नहीं करूॅंगी।''

कुलीन उन्नति संकर्षण को वक्र दृष्टि से न देखती। जबकि संकर्षण उसे जज्बे से देखता। उसके जज्बे को महसूस कर विद्यार्थी मशवरा देते —

‘‘निहाल ने रास्ते में रक्षा को पटा लिया तुम उन्नति को पटा लो।''

संकर्षण का चेहरा जज्बाती हो जाता ‘‘उन्नति अलग रास्ते से आती है।''

‘‘कालेज तो एक है। तुम थोड़ा चक्कर लगा कर उसके रास्ते से आओ। निहाल और रक्षा को देखो क्या ठाट से आते—जाते हैं। अभी किसी दिन रक्षा की साइकिन खराब हो गई थी। निहाल के साथ साइकिल में पीछे बैठ कर आई थी।''

‘‘लेकिन उन्नति उपकरणों को इतना देखती है कि मुझे देखती ही नहीं।''

‘‘उपकरण छूने के बहाने उसे टच करो।''

‘‘चिल्ला पड़ेगी, बिच्छू ने डंक मारा। बिच्छू का डिसेक्शन करने में बहुत डरती है।''

‘‘कोशिश करो। क्या पता वह भी तुम्हें पसंद करती हो। क्लास में दो—चार लव स्टोरी चलती रहे तो माहौल बनता है।''

हौसले में संकर्षण।

केेमिस्ट्री लैब में उन्नति ब्यूरेट, पिपेट, अम्ल, क्षार के प्रयोग में दत्त थी यह चाक से मेज पर उसका नाम लिख रहा था। जान पड़ता है बदनाम करेगा। उन्नति धीमे लेकिन आपत्ति व्यक्त करते स्वर में बोली —

‘‘यह क्या है ?''

संकर्षण ने जेब से रूमाल निकाल बड़ी कोमलता से नाम मिटा दिया ‘‘कुछ नहीं।''

‘‘मेरा नाम क्यों लिख रहे हो ?''

संकर्षण ने बिना तारतम्य जैसी बात की ‘‘उन्नति, सिंघल सर अपने नाटक में तुम्हें अनारकली का रोल करने को कह रहे हैं न ........ तुम मना कर देना। सिंघल सर की इमेज अच्छी नहीं है। एक्टिंग सिखाते—सिखाते लड़कियों के साथ टाइम पास करने लगते हैं ....... समझ रही हो न ........।''

कालेज का वार्षिकोत्सव होना था। सांस्कृतिक गतिविधियों में रुचि रखने वाले सिंघले सर वार्षिकोत्सव की रूपरेखा बनाते थे। उन्हें लम्बी, पतली, गोरी, सुंदर उन्नति अनारकली के लिये उपयुक्त लग रही थी। संकर्षण न बनने की सलाह दे रहा था। उन्नति का चेहरा इस तरह लाल हो गया जैसे संकर्षण जलील कर रहा है। इच्छा हुई कहे मेज पर मेरा नाम लिख कर तुम टाइम पास नहीं कर रहे ? ........ पर ऐसा कुछ कह कर उसे बात करने का मौका नहीं देना चाहती थी। चुपचाप अम्ल और क्षार का प्रयोग करती रही। घर में जरूर अनारकली की चर्चा की। पिता जी को कड़क होना ही था —

‘‘...........उन्नति को एड में हूटिंग वाला माहौल रहता है। अनारकली बनोगी तो उदण्ड लड़के अनारकली ही समझने लगेंगे .............सुनो अनारकली बनने तो क्या प्रोग्राम देखने भी नहीं जाने दॅूंगा ........... रात को उतनी दूर जाना भली बात नहीं ............।''

द्वितीय वर्ष।

तब फर्स्ट ईयर को रेस्ट ईयर कहा जाता था। आदमी सहित कई छात्र—छात्राओं के पूरक आने या अनुत्तीर्ण होने से काफी छॅटनी हो गई। कक्षा भीड़—भाड़ वाले हाट बाजार की तरह न लग कुछ शालीन लगने लगी थी। उन्नति को द्वितीय वर्ष में पढ़ते हुये एक माह हुआ था तभी उसके पिताजी का तबादला हो गया। तबादले पर जाने से पहले संकर्षण देा बार मिला। उन्नति, मॉं और बहनों के साथ व्यंकट टाकीज (थियेटर को तब टाकीज या सिनेमा हाल कहा जाता था) में फिल्म (मूवी को तब फिल्म या पिक्चर या सिनेमा कहा जाता था) देखने गई। इंटरवल में संकर्षण ससपेन्स की तरह सामने आया। उसकी ओर मॅूंगफली का लिफाफा बढ़ाया —

‘‘लो, गरम मॅूंगफली।''

उन्नति उसकी बेवकूफी या साहस देखकर दंग रह गई। कुछ सूझ न पड़ा तो मॉं से बोली ‘‘मॉं, ये संकर्षण है। मेरा क्लास फेलो।''

मिडिल पास मॉं ने न प्रेमी बनाया था न पति से प्रेम पाया। प्रेम जैसे मुद्‌दे में उनकी बुद्धि इतनी बारीकी से काम नहीं करती थी जितनी पिताजी की बुद्धि। बिना संदेह के पॅूंछा —

‘‘कितने पैसे हुये बेटा ?''

‘‘खाइये न।'' संकर्षण ने लिफाफा मॉं को पकड़ा दिया और अपनी सीट पर चला गया। छोटी बहन प्रगति ने उन्नति की कनपटी पर रहस्य कहा ‘‘दीदी इस लड़के को मैंने घर के आस—पास कई बार देखा है।''

‘‘किसी और को देखा होगा।''

‘‘यही है दीदी। तुम्हारा पीछा तो नहीं करता ?''

उन्नति ने नहीं सोचा था संकर्षण उसे चेज करेगा। वह साइकिल से सहेली के घर जा रही थी। पीछे से तेज साइकिल चलाता हुआ संकर्षण आ गया —

‘‘उन्नति कालेज क्यों नहीं आती ?''

‘‘तबादला हो गया है।''

यदि वह संकर्षण का चेहरा देखती तो पाती वहॉं एक दुनिया मिट रही है।

‘‘बताया नहीं ?''

‘‘पर्सों जा रही हॅूं।''

आगे जो भी गली दिखी, संकर्षण को चकमा देते हुये उन्नति उसमें मुड़ गई। फिर सहेली के घर पहॅुंचते हुये बहुत भटकी।

हम अपने जीवन में जितनी बार सॉंस लेते हैं उससे कहीं अधिक बार सोचते हैं। जैसा सोचते हैं आगे बहुत अलग सोचते हैं। इतना अलग कि उस सोचने का पहले जैसा सोचने से मैच नहीं बैठता। यह करुण बल्कि दारुण स्थिति होती है। लगता है हमारे साथ धोखा हुआ है और यह धोखा खुद हमने अपने साथ किया है। नये शहर में आकर उन्नति ने खुद को अनिर्वचनीय स्थिति में पाया। लगा अपने अनाड़ीपन या पिताजी की सख्ती के कारण उसने नहीं सोचा संकर्षण कुछ कहना चाहता था। लगा ही नहीं कुछ सोचना चाहिये ........... इस तरह सोचना चाहिये ......... लेकिन वह कुछ कहना चाहता था। मेज पर नाम लिखने के, चेज करने के कुछ मायने होते हैं। वह क्या सोच रहा होगा ? उसे सिरफिरी, अहंकारी, बेवकूफ, दगाबाज ऐसा कुछ मान रहा होगा। पता नहीं क्यों लग रहा है वह वो नहीं रही जो अब तक थी। बदल रही है ...........। बदल गई है। संकर्षण एक एहसास की तरह साथ चला आया है। एक विचार, एक सपना ........ एक जादू ........... अभीष्ठ बनता जा रहा है। वह यहॉं नहीं है फिर भी है। दिल में है, दिमाक में है, नींद में है, दर्द में हैं, उदासियों में है ............। इतने समीप है जितना प्रयोशाला में प्रयोग करते हुये नहीं था।

अनिर्वचनीय स्थिति।

अब उन्नति उदास है .......... अब कोरे बह रही हैं ........... रो रही है ........... खुद पर गुस्सा आ रहा है ........... करुणा हो रही है .........। रुलाई, क्षोभ, बेचैनी ............। रात है ......... शांति है ......... नींद नहीं आ रही है .......... आई तो सपने .............सपने में संकर्षण ..........। मेज पर उसका नाम लिख रहा है ......... मॅूंगफली दे रहा है ........... चेज कर रहा है .......... और अब बुरा सपना ........... यहॉं चला आया है। पिताजी उसे पीट रहे हैं — हम उच्च कुलीन बघेल ठाकुर, तुम ताम्रकार। उन्नति से प्रेम करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ...........। वह आकुल हो गई ......... जाग गई ............ माथे पर पसीना ..........गहरी सॉंसें ......... दहलता दिल ...........। इच्छा हुई रक्षा को अन्तर्देशीय पोस्ट कर पॅूंछें — रक्षा मुझे ऐसा क्यों लग रहा है मैं खो गई हॅूं ? भटक गई हॅूं। किसी ने मुझे झॉंसा दिया है। संकर्षण इतना याद आ रहा है .........। बता सकती हो वह कैसा है ? उदास ......... बेचैन ......... नर्वस ? ........ पर रक्षा का पोस्टल एड्रेस लेना कहॉं याद रहा ? किस पते पर पत्र भेजेगी ? तब सबके घरों में टेलीफोन नहीं होते थे वरना फोन से कुछ जानकारी मिलती। टेलीफोन न उन्नति के घर में था न रक्षा के। उन दिनों ट्रंक कॉंल लगाने में पूरा दिन बीत जाता था। कल्पना नहीं थी एक दिन ऐसा आयेगा जब हर हाथ में सेल फोन सुशोभित होगा। वाया सेल फोन प्रेम की गंगा बहेगी और घर वालों को सूराग न मिलेगा।

अनिर्वचनीय स्थिति में उन्नति।

अब किसी से प्रीत नहीं जोडे़गी।

संकर्षण की जगह किसी को नहीं देगी।

वह किसी से क्या पति से प्रीत नहीं जोड़ पाई। आज भी उनसे उस तरह प्रेम नहीं करती जिस तरह कर लेना चाहिये। पति ने संकर्षण की जगह नहीं ली बल्कि अपने लिये अलग जगह बना ली। कोई किसी का स्थानापन्न नहीं बनता है, बल्कि अपने लिये अलग जगह बनाता है। नायब तहसीलदार से प्रोन्नत होते हुये डेप्यूटी कलेक्टर के पद पर पहॅुंचे उसके पति माणिक अच्छे स्वभाव के हैं। अधिक पॅूंछ—तॉंछ नहीं करते। उन्हें चेहरा पढ़ना बिल्कुल नहीं आता। प्रारंभ में उन्हें असुविधा हुई थी। वे नये विवाह का रोमांच चाहते थे। यह पूरी तरह अभिव्यक्ति नहीं देती थी। फिर वे अपने राजस्व विभाग में व्यस्त होते गये। ये अपने एकांत में तसल्ली पाने लगीं। दिनचर्या निर्धारित और तयशुदा होती गई। आम पति—पत्नी की तरह ये भी एक—दूसरे की उपस्थिति के अभ्यस्त हो गये। एक बार ट्रेन से मुम्बई जाते फिर लौटते हुये वह उस शहर से क्रास हुई जहॉं अपनी आत्मा छोड़ आई थी। दस मिनिट के स्टापेज में प्लेटफार्म को इस तरह अन्वेशी नजर से देखती रही मानो संकर्षण उसके इंतजार में खड़ा मिलेगा। .......संयोग कहें या उसकी प्रबल इच्छा शक्ति या कामना — प्रार्थना कि माणिक का तबादला उस शहर के लिये हुआ। माणिक की भलमनसाहत —

‘‘उन्नति, यहॉ तुम पढ़ी हो न। चलो, तुम्हारा कालेज देखें।''

बड़े दिनों बाद तबियत से तैयार हुई। सज—धज कर इस तरह चली मानो संकर्षण प्रयोगशाला में मिलेगा। पहली बार उसे लगा उसने अपने भीतर की कालेज छात्रा की उम्र को भले ही बढ़ने नहीं दिया है पर समय बहुत बदल गया है। वही शहर, वही रास्ता, वही कालेज ......... फिर भी कितना कुछ बदल गया है। आबादी बढ़ गई है। शहर उन जगहों पर फैलता गया है जो खाली थीं। रास्ते के दोनों ओर दुकानें, शोरूम। कालेज परिसर के पीछे वाले गन्ने के खेत ऊॅंचे भवनों में बदल गये हैं। परिसर में एक और भवन नजर आ रहा है। वहॉं भी क्लासेस चलती होगी। उन्नति को रुलाई आने लगी। माणिक अपनी धुन में —

‘‘अंदर चलें ?''

‘‘नहीं। तब से कितने बैच पढ़ कर निकल गये होंगे। मुझे कोई नहीं पहचानेगा।''

उसे लगा यहॉं रुकी रही तो खुद को जब्त नहीं कर पायेगी। कामना करती यहॉं से तबादला कभी न हो। यहॉं संकर्षण का एहसास है। लेकिन शासकीय नियम किसी के लिये नहीं बदलते।

वक्त किसी के लिये नहीं रुकता। तबादला होना ही था। वक्त को बीतना ही था। बीतता गया। बेटी का ब्याह हो गया। बेटा खड़गपुर चला गया। अपना पुराना लैप टॉंप उसे दे गया —

‘‘मॉं, तुम्हारे पुराने फ्रेण्ड्‌स मिलेंंगे। इंटरनेट ऐसी दुनिया है जहॉं सब कुछ मिलता है।''

पुराने फ्रेण्ड्‌स ?

संकर्षण ?

संकर्षण को ढॅूंढ़ रही थी और रक्षा मिल गई। मानो रक्षा नहीं मिली है, एक खोज पूरी हुई है। लगा दीवानों की तरह पॅूंछें ........ संकर्षण का कुछ अता—पता है ? पर रक्षा कैसा रियेक्ट करेगी ? उन्नति ने सभ्यता भरा सिलसिला बनाया —

‘‘आज कल क्या कर रही हो रक्षा ?''

‘‘डॉंक्टरी। तुम तो जानती हो निहाल के नोट्‌स पढ़—पढ़ मैं भी उसकी तरह ब्रिलियेन्ट बन गई थी। निहाल ने पहले अटैम्प्ट में पी0एम0टी0 क्लियर कर लिया था। मैं दूसरे अटैम्प्ट में कर पाई।''

‘‘पैरेन्ट्‌स कैसे हैं ?''

‘‘तब इंटर कास्ट मैरिज का मतलब था आग का दरिया है और डूब कर जाना है। मैंने निहाल से शादी की उन्होंने मुझे किक आउट कर दिया।''

‘‘ओह ........ नो ...........।''

‘‘मम्मी—पापा को मैं समझा लेती पर भैया .......... उन्नति तुम्हारे भाई है ?''

‘‘नहीं। हम तीन बहनें हैं।''

‘‘भाई नहीं हैं इसलिये नहीं जानोगी बड़े भाई, बाप से अधिक खतरनाक होते हैं। बहन प्रेम करे, न करे, ये शक करते हैं करती होगी। मैं तो करती ही थी। मैं और निहाल ठीक वक्त पर शहर न छोड़ते तो भैया, निहाल के अस्थी—पंजर ढीले कर देते। तब प्रेम करने वाले इतना जलील किये जाते थे और अब देख लो लड़के—लड़कियॉं लिव इन रिलेशनशिप में रहते हैं। इनके अस्थि पंजर न मॉं—बाप ढीले कर पाते हैं न भाई ........अच्छा पेशेन्ट आने लगे हैं ......... उन्नति अपना कान्टैक्ट नम्बर बताओ .........।''

टेलीफोनिक बातें करते हुये उन्नति को लगता पुराने दिन लौट आये हैं। वह एक बार फिर कालेज छात्रा बन गई है। बहुत हौसला किया संकर्षण के बारे में पॅूंछे। पॅूंछ न पाती। आखिर रक्षा ने पॅूंछा —

‘‘.............उन्नति तुम्हें कीट भक्षी की याद है ?''

‘‘कीट भक्षी ?''

‘‘तुम दोनों एक साथ प्रैक्टिकल करते थे।''

‘‘हॉं, हॉं। संकर्षण।''

‘‘बड़ा बेवकूफ था।''

‘‘क्या हुआ ?''

‘‘लड़के कहते थे तुम चेहरे से सोलहवीं सदी की लगती हो इसलिये छेड़ने की इच्छा नहीं होती है ............ पर वह बेवकूफ तुमसे मुहब्बत करने लगा था।''

‘‘रक्षा, मैं रो दॅूंगी।''

‘‘मुझे लग रहा था घबरा जाओगी। जाने दो।''

‘‘बताओ न। मैं सोचती रह जाऊॅंगी पूरी बात क्या थी।''

‘‘पहले तो लड़के खूब हॅंसे कि इसे इश्क करने के लिये तुम मिली थी। किसी ने कहा झूठ बोल रहा है। किसी ने कहा लम्बी फेंक रहा है। किसी ने कहा तुम्हें बदनाम कर रहा है। किसी ने कहा उन्नति चली गई, अब फरहाद बनने का मतलब नहीं है। बड़ा बेवकूफ था।''

उन्नति कैसे कहे — रक्षा तुमने ऐसा प्यार न देखा होगा न सुना होगा। मैंने प्यार नहीं किया फिर भी किया। प्रेम की न पुष्टि हुई है न एक—दूसरे की स्वीकृति मिली है लेकिन मैं अपने इस अबूझ से प्रेम को आज भी भरपूर जी रही हॅूं। आज भी उसी उम्र, उसी प्रयोगशाला में ठहरी हुई हॅूं जब संकर्षण के साथ प्रयोग करती थी। एक कोमल एहसास मेरे भीतर हरदम रहता है जो मुझे तनाव और दबाव से दूर रखता है। शायद इसीलिये उम्र अपनी खरोंचों के निशान न मेरे मन पर छोड़ पाई है न चेहरे पर। लोग कहते हैं मैं अपनी वास्तविक उम्र से कम लगती हॅूं। उन्नति को खामोश पाकर रक्षा को लगा उसने गलत प्रसंग उठा लिया है।

‘‘हलो .......... उन्नति .........।''

‘‘हॉं।''

‘‘सॉंरी। मैं जानती हॅूं तुम संकर्षण को कितना नापसंद करती थी। रियली सॉंरी।''

‘‘संकर्षण आजकल कहॉं है ?''

‘‘जहॉं भी होगा पछता रहा होगा।''

‘‘क्यों ?''

‘‘प्रेम करने वाले पछताते हैं।''

‘‘तुम पछता रही हो ?''

‘‘प्रेम बहुत बड़ी बेवकूफी है उन्नति। जो प्रेमी, शादी नहीं कर पाते वे पछताते हैं कि शादी नहीं कर पाये, जो कर लेते हैं वे पछताते हैं कि शादी क्यों की।''

‘‘तुम निहाल से शादी करके पछता रही हो ?''

‘‘बहुत। जिससे प्रेम करो उससे शादी नहीं करनी चाहिये।''

‘‘मतलब ?''

‘‘प्रेमी, पति बन जाये तो न प्यार बचता है न खुमार।''

‘‘लाइफ बोगस ?''

‘‘ठीक कहा। निहाल को लेकर मैं कितनी बेचैन रहती थी। उससे शादी क्या हुई मेरी तो बेचैनी खत्म हो गई। लगा अब सोचने को कुछ बचा ही नहीं। बेचैनी में रहना बहुत अच्छा लगता था।''

‘‘रक्षा तुम्हारा फलसफा मेरी समझ में नहीं आयेगा।''

‘‘क्योंकि तुमने न प्रेम किया है, न प्रेमी से शादी की है। उन दिनों एक मीठा सा एहसास बना रहता था, शादी करके मैंने वह एहसास खो दिया है।''

‘‘निहाल ने क्या दिल तोड़ने जैसी वारदात कर दी ?''

‘‘मैं निहाल को उसके परिवार के साथ जोड़ कर देखने की आदत आज भी नहीं डाल पाई हॅूं।''

‘‘उसके पैरेन्ट्‌स ने उसे किक आउट नहीं किया ?''

‘‘नहीं। उन्हें दखल देने का बड़ा शौक है। चाहे जब चले आते हैं और लीच (जोंक) की तरह निहाल से चिपट जाते हैं।''

‘‘तुम खफा हो जाती हो।''

‘‘हॉं, मैं उसे उसकी फेमिली से कनेक्ट करके देखती हॅूं तो लगता है यह वो निहाल नहीं है जिसे मैं जानती थी। तब वह सिर्फ और सिर्फ मुझ पर केन्द्रित रहता था। वही बात करता था जो मुझे अच्छी लगती थी। बड़ा मॅुंह फाड़ कर कहता था रक्षा तुम मिल जाओ फिर मुझे कुछ नहीं चाहिये। मैं मिल गई तो कहता है मैंने अपने माता—पिता के खिलाफ जाकर तुमसे शादी की है, तुम उनका खास ख्याल रखो। निहाल की तीन छोटी बहनों को ब्याहने में मेरी कमाई लुट गई।''

तुम प्रेम करके नहीं, कमाई लुट जाने के कारण पछता रही हो।''

‘‘प्रेमी से शादी करके पछता रही हॅूं। शादी के बाद प्रेमी, प्रेमी नहीं रहता। पति बन जाता है।''

‘‘पति को पति की तरह देखो। प्रेमी की तरह क्यों देखती हो ?''

‘‘तुम समझ नहीं रही हो। मुझे निहाल को बेस्ट रूप में देखने की आदत रही है।''

‘‘अब वह बेस्ट नहीं रहा ?''

‘‘बेस्ट को कैसे डिफाइन करूॅं ? उन्नति तुम मुझे बेवकूफ कहोगी, लेकिन मैंने उसे बनियान—पैजामे में देखा तो लगा इसी पर फिदा हुई थी ? वह कितने अच्छे कपड़े पहन कर कालेज आता था। कपड़ों का कितना प्रभाव पड़ता है।''

‘‘तब तुम दोनों थोड़े समय के लिये मिलते थे। अब एक साथ रहते हो। निहाल चौबीसों घंटे सजा—धजा, राजा बाबू बन कर नहीं रहेगा।''

‘‘और भी दिक्कते हैं।''

‘‘निहाल भी तुम्हारी कमियॉं ढॅूंढ़ता होगा।''

‘‘मास्टर है। मैं जो भी करती हॅूं उसे गलत लगता है।''

‘‘अब कैसा चल रहा है ?''

‘‘हम एक—दूसरे की इमेज गिरा रहे हैं।''

‘‘मतलब ?''

‘‘हम दोनों सब कुछ करते हैं, बस प्रेम नहीं करते।''

‘‘रक्षा, तुम मुझे शॉंक दे रही हो।''

‘‘उन्नति तुम भली रही जो प्रेम नहीं किया। नहीं किया इसलिये तुम्हें माणिक के साथ सामन्जस्य बनाने में दिक्कत न आई होगी। जो मिला, जैसा मिला तुमने एक्सेप्ट कर लिया होगा। माणिक ने भी।''

अनिर्वचनीय स्थिति में उन्नति।

ठीक अभी तिलिस्म टूटा है।

अब तक भुलावे में थी, फरेब में, संशय में, झॉंसे में, विरोधाभास में। किसे धन्यवाद दे ? उस सरकार को जिसने ठीक वक्त पर पिताजी का तबादला कर दिया था या बाहरी आबोहवा की खबर रखने वाले सख्त मिजाज पिता जी को या माणिक को जिसने उसकी असहजता को लेकर पॅूंछ—तॉंछ नहीं की या अपनी उस अपरिपक्वता को कि संकर्षण को देख कर गलत गली पकड़ ली थी या रक्षा को जिसने ठीक चौराहे पर बता दिया इस राह नहीं, उस राह जाओ वरना भूल—भुलैया से नहीं निकल पाओगी।

अनिर्वचनीय स्थिति में उन्नति।

शर्म आई। ग्लानि हुई। हैरानी हुई। जिस प्रेम का पुख्ता आधार नहीं, प्रमाण नहीं, वजूद नहीं उस प्रेम में इतने बरस अख्तियार बना कर रखना बेवकूफी नहीं लगी। वक्त बदल गया .........कच्ची उम्र का कच्चापन चल गया लेकिन उस कच्चेपन में जीना ....... अरसा बिता देना, असल जिंदगी को खारिज करने की तरह नहीं लगा। नहीं सोचा ...... कभी नहीं सोचा खुशबू को महसूस किया जा सकता है लेकिन खुशबू में खूबसूरती नहीं होती। खूबसूरती रंगों में होती है ...........

दौरे से लौटे माणिक को उसने पहली बार इस तरह देखा जिसे देखने जैसा देखना कहते हैं। आदर से देखा .............. आभार से देखा ........ हॉं प्यार से देखा। यह जो प्यार था खुशबू की तरह नहीं, रंग की तरह था।

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सुषमा मुनीन्द्र

द्वारा श्री एम. के. मिश्र

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