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उसके हिस्से की जिंदगी

उसके हिस्से की जिंदगी

सुषमा मुनीन्द्र

सरलता नहीं सोचती थी उस चुके हुये आदमी में साहस और दृढ़ता बाकी थी। वह फैसले लेना साथ ही सुनियोजित योजनाओं पर विचार करना छोड़ चुका था। थोड़ी दूर तक टहल—डोल कर हजारी कालोनी के अपने आवास एच.आई.जी. पचास पर लौट आता था। चौंकाने वाला तथ्य है पॉंच किलो मीटर दूर कैसे चला गया। पैदल गया या रिक्शे से ? उसे अपने शहर की अल्प जानकारी थी। जिस मोहल्ले, मार्ग, मोड़ से प्रयोजन न हो वहॉं कभी नहीं गया। अब तो वहॉं भी नहीं जाता था जहॉं कभी प्रयोजन रहा होगा। सरलता सीमेन्ट फैक्टरी में ड्‌यूटी पर होती तब अक्सर नहीं लेकिन फिर भी पारकिंसन वाले थरथराते दोनों हाथों से किसी तरह घर के सदर द्वार में ताला लगा, सूती झोला ले, तरकारी—भाजी लेने जाता कि कार्य प्रयोजन में संलग्न जान पड़े। सरलता कहती —

‘‘मैं इतवार को सप्ताह भर की भाजी—तरकारी लाऊॅंगी। क्यों परेशान होते हो।''

‘‘हाथ काम नहीं करते पर मेरे मस्तिष्क की कोशिकायें क्रियाशील हैं। मैं पचास (घर) को हमेशा याद रखता हॅूं। लौट आऊॅंगा।''

‘‘मोड़ पर सब्जी का ठेला लगता है। बहुत दूर न जाना।''

फिर इतनी दूर कैसे चला गया ? एक धुन अथवा विसंगति में गया या सरलता की अनभिज्ञता में अक्सर जाता था ?

दोपहर बारह का प्रचंड धाम था जब सम्यक एकांत क्षेत्र मेंं ट्रेन की चपेट में आया। सहकर्मी सुखनंदन सारस्वत ने सरलता को सूचित किया तब पता नहीं कितना बजा था —

‘‘सम्यक रेलवे ट्रैक में ...... नहीं रहे ......।''

इतना बड़ा सच एकाएक सरलता की समझ में नहीं आया। एकाएक समझा भी नहीं जा सकता। समझ में आया तब उसने मेज पर हथेलियॉं गड़ा कर अविश्वास में दो शब्द कहे —

‘‘ओह .......नो .........।''

प्रीति के चिर आकांक्षी सारस्वत को शायद उम्मीद थी फिल्मी महिलाओं की तरह चीख कर उसे झिझोड़ेगी — यह नहीं हो सकता। पर यह तो मेज थाम कर रह गई। सारस्वत ने साथ में आये चार सहकर्मियों को संकेत प्रेषित किया — गजब का संतुलन है। विलाप क्या दिखावे को एक ऑंसू नहीं। आज इतने चिड़चिड़े — बीमार आदमी से मुक्ति पा ली। उस पर जरा ध्यान न देती थी। वह बूढ़ा लगने लगा था जबकि उससे छः माह बड़ी यह दिनों दिन ओजस्वी होती जा रही है।

सरलता ने इन कथित सामाजिक चेतना सम्पन्न लोगों के सम्मुख खुद को कमजोर नहीं पड़ने दिया। कुर्सी से सघाव के साथ उठ कर अनुशासित चाल से चल दी। सारस्वत नेतृत्व में मुब्तिला —

‘‘मैडम, गाड़ी है। आपकी स्कूटी घर पहॅुंचा दी जायेगी।''

कार में भी अपनी अन्तर्ध्वनियों को रिफलैक्ट न होने देकर सामान्य दिखने का प्रयास करती रही —

दुर्घटना है या आत्महत्या ? सम्यक इतनी दूर क्यों गया ? निष्क्रीयता उसे तोड़ती जा रही थी। बल्कि सरलता की सक्रियता तोड़ती जा रही थी। उन बातों का बुरा मान जाता था जो वस्तुतः बुरा मानने जैसी नहीं होती थी। आज कौन सी बात इतनी बुरी लगी जो .........। प्रतिदिन की भॉंति हॉंट केस डायनिंग टेबुल पर रखते हुये बोली थी —

‘‘दफ्तर जा रही हॅूं। खाना वक्त पर खा लेना।''

वह हमेशा की तरह उससे मुखातिब न होकर इधर—उधर देखने लगा था। बल्कि दो चम्मचों को वाद्य की भॉंति मेज पर बजा कर क्रीड़ा कर रहा था। वक्त बिताने के लिये अथवा सरलता का ध्यान खींचने के लिये अथवा अपनी उपस्थिति दर्शाने के लिये वह अक्सर वस्तुओं को नियत जगह से इधर—उधर करता रहता था। उसकी हरकत पर सरलता क्रोधित होना चाहती लेकिन देखती उसकी देह के बाहर—भीतर कुछ सिंहर रहा है। कुछ सोच रहा है।

आज क्या सोच रहा था ? इतनी दूर कैसे चला गया ? दुर्घटना है या आत्महत्या ?

‘‘ओह ........ नो ........।'' सम्यक के शव को देख कर सरलता ने ऑंखें मॅूंद कर दो शब्द कहे।

संकेत प्रेषित हुआ — कड़ा कलेजा है। आधे—अधूरे शव को देख कर भी एक ऑंसू नहींं।

रेल के पहिये ठीक कमर के ऊपर से गुजरे थे। पैर इधर, सिर उधर, बीच का हिस्सा पता नहीं किधर। इंजेक्शन लगने पर दारूण भंगिमा बनाने वाला सम्यक इतना दर्द कैसे सह गया ? रेल की प्रतीक्षा कितनी सख्त और दबाव भरी रही होगी। समीप आती रेल का निनाद कितना क्रूर और कर्कश रहा होगा। ऐसा साहसी अथवा जुनूनी नहीं था कि घबराया न होगा। फैसला लेता नहीं था। योजना बनाता नहीं था। फिर ........ ? सरलता को फैक्टरी की ओर से मिले लैटर हेड के पन्ने पर थरथराते हाथों से बड़े—बेडौल अक्षर कैसे लिख पाया ? ............ बेकार जीवन से ऊब गया हॅूं ............ जीना नहीं चाहता ..........।' ओह .........। एक पूरी योजना। पुलिस की पॅूंछ—तॉंछ और सामाजिक चेतना का झंडा लहराने वाले कथित लोगों के संदेह से सरलता का बचाव करने का प्रबंध। सरलता के अंतस में तेज उबाल आया। नोट लिखने, पतलून की जेब में डालने, इतनी दूर आने में क्या उसने एक बार भी अपना इरादा नहीं बदला होगा ? अंतस में उबाल है लेकिन ऑंखें शुष्क। बहुत काम है। पोस्ट मार्टम से लेकर शव प्राप्त करने तक पता नहीं कितनी औपचारिकतायें करनी होंगी। जरूरी कागजों पर दस्तखत करने होंगे। सब कुछ अकेले सम्भालना है। कहने को दो बेटे हैं। बड़ा आस्ट्रेलिया में बस गया है। छोटा विशाखापट्‌टनम में। बड़ा जहॉं तक है नहीं आयेगा। छोटा आ सकता है। शव खराब अवस्था में है। छोटा यदि आता है, जब कभी अपने पापा को याद करेगा उसके सामने कुछ टुकड़े होंगे। सरलता ने निर्णयात्मक लहजे में कहा —

‘‘बॉंडी खराब अवस्था में है। पोस्ट मार्टम के बाद विद्युत शव दाह गृह में दाह संस्कार करा देना चाहती हॅूं।''

निर्ममता पर आपत्ति लगनी ही थी। नेतृत्व कर रहे सारस्वत ने लोकाचार पर जोर दिया —

‘‘बच्चों को, सम्यक जी के भाईयों को अंतिम दर्शन कर लेने दीजिये। आप घबराई हुई हैं। पोस्ट मार्टम में वक्त लगेगा। आपको घर भिजवा देता हॅूं। जरूरत होगी तो बुलवा लॅूंगा।''

सरलता लोगों से घिरी नहीं रहना चाहती थी। घर जाना उसे सुरक्षा कवच की तरह लगा।

घर।

एच0आई0जी0 पचास।

सदियॉं बीत गईं पर आज भी समाज स्वीकृत घर वही है जहॉं पति फैसला करता है, पत्नी अनुमोदन करती है। पति कमाता है। पत्नी गृहस्थी सम्भालती है। घर को स्वर्ग, पति को सुविधाभोगी संतान को कुलशील बनाती है। यह घर संदिग्ध है। पारम्परिक नियमों को भंग करता है। सम्यक घर में रहता था। सरलता दफ्तर जाती थी। जबकि सरलता के लिये यह घर निजी एहसास की तरह है। नियमित अभ्यास की तरह है। लेकिन आज अपनी चाबी से सदर द्वार खोलते हुये हाथ शिथिल हैं। जैसे भीतर एक विभ्रम मिलेगा। द्वार खोल कर भीतर आई। सदर द्वार वाला बड़ा कक्ष ड्राइंग कम डाइनिंग रूम है। दफ्तर से लौटती थी तब सम्यक घर में होता था। आज सन्नाटा है। उसे सम्यक के न होने का गहन बोध हुआ। डायनिंग टेबुल पर रखे बंद हॉंट केस पर नजर गई। खाना खाकर वह जूठे बर्तन मेज पर छोड़ देता था। आज हॉंट केस अनूठा रखा है। अर्थात्‌ सम्यक इतनी दूर भूखा गया। हॉंट केस खोलते हुये सरलता के आमाशय में बुलबुले उठ रहे हैंं। सम्यक अपने खानदान के पुरूषों की तरह दम्भ अन्न पर उतारने लगा था। जब कभी गॉंव गई सास कीर्ति सुनाती —

‘‘सम्यक के बाबूजी को खाने में कंकड़ मिले या रोटी खर (करारी) न सिकी हो, थाली फेंकते हैं। पर तुम लव मैरिज वाली हो। सम्यक थाली फेंकने की मजाल नहीं करेगा। ''

तब सम्यक स्वस्थ—सामान्य—सानंद था —

‘‘सरलता डोंंट बॉंदर। थाली फेंकना मुझे कभी भी फेयर नहीं लगा।''

वही प्रसन्नचित्त सम्यक पारकिंसन होने पर कभी शेष न होने वाली अधीरता से भरते हुये पेंचीदा होता गया। थाली न फेंकता पर भूख हड़ताल करता। बंद हॉट केस देख कर पॅूंछती —

‘‘लंच नहीं लिया ?''

‘‘भूसा बनाती हो। दुकान में जलेबी—पोहा खा लिया।''

हाजमा बिगड़ता है।''

‘‘जो दिमाक बिगड़ने से अच्छा है।''

दिमाक ऐसा बिगड़ा कि रेलवे ट्रैक पर ......

एच0आई0जी0 उनपचास में रहने वाली नीतिका को उसके इसी सीमेन्ट फैक्टरी में कार्यरत पति पन्नलाल परिहार ने मोबाइल पर जानकारी दे दी है। नीतिका के मृत्यु पर पछाड़ खाती स्त्रियॉं असहाय कम खौफनाक अधिक लगती हैं। वैसे जानती है सरलता चीखने, कातर होने का दिखावा नहीं करेगी। विरोधाभासी स्थितियों का सामना जिस संतुलन के साथ करती आई है वह इसका स्थायी भाव बन गया है। फिर भी सरलता का सामना करने का साहस नहीं हो रहा है। शोक सूचक हल्के रंग की साड़ी पहन कर पहॅुंची। सदर द्वार आधा खुला था। सरलता दुपट्‌टे से ऑंखें मॅूंद कर सोफे पर बैठी थी। नीतिका ने आहिस्ता से पुकारा —

‘‘सरलता ...........।''

‘‘आओ नीतिका।''

नीतिक और उसका परिवार सरलता को उसी सहजता से देखता है जैसे देखता था।

शांत बैठी दो स्त्रियॉं। कहने—पॅूंछने का अर्थ नहीं। लेकिन अवसर सुख का हो अथवा दुःख का, प्रबंध करना पड़ता है।

‘‘सरलता, बैठक का फर्नीचर हटवा कर फ्लोर पर बैठने का इंतजाम करा दॅूं ?''

‘‘जो तुम्हें ठीक लगे।''

नीतिका बाहर आई। खबर कॉंलोनी में पहॅुंच चुकी है। सरलता के घर को भ्रामक मान कर उसके प्रत्येक चलन पर परम्परापोषक नजर रखने वाली स्त्रियॉं अमलतास वृक्ष की छाया में छोटे समूह में खड़ी चर्चारत हैं —

‘‘सम्यक जी ने गलत किया।''

‘‘सरलता उनकी फिक्र नहीं करती थी।''

‘‘करती थी। वे जिद्‌दी होते जा रहे थे।''

‘‘इन्होंने (पति) मुझे मोबाइल पर बताया बॉंडी देख कर नहीं रोई। अरे विद्युत शव दाह गृह में दाह संस्कार करा देना चाहती है। पति के मरने का गम नहीं।''

‘‘जो भी हो, लेडी हिम्मत वाली है।''

‘‘सारस्वत हिम्मत देते हैं।''

‘‘किसी ने देखा है ?''

‘‘ऐसे काम दिखाकर होते हैं ? सारस्वत झूठ क्यों कहेंगे ?''

‘‘फेयर आदमी नहीं है। सभी के घर में जगह बनाने की कोशिश करते हैं।''

‘‘बना तो नहीं .............

नीतिका को आते देख स्त्रियों ने रूख बदल लिया —

‘‘............ सरलता अकेले कैसे सम्भालेगी ? नीतिका, सरलता कैसी है ?''

‘‘परेशान है। इंतजाम करना है।''

‘‘हमें बताओ।''

चार—छः युवकों ने नीतिका के निर्देशन में व्यवस्था बना दी। स्त्रियॉं दीवार की टेक लेकर कतार में खामोश बैठ गईं। कहने—पॅूंछने का अर्थ नहीं। जल्दी ही सर्वेसर्वा बना सारस्वत आ गया —

‘‘मैडम कॉंन्टैक्ट नम्बर बतायें। रिलेटिव्स को इन्फॉंर्म कर दॅूं।''

सरलता के बदले नीतिका बोली ‘‘मैंने कर दिया है। बड़ा बेटा नहीं आयेगा। छोटा बेटा सरलता के दोनों जेठ, भाई वगैरह आ रहे हैंं। ............अच्छा हॉं, बॉंडी रखने के लिये फ्रीजर की जरूरत पड़ेगी।''

‘‘उसी इंतजाम में लगा हॅूं। मैडम को चाय वगैरह ...........

‘‘घर से बना लाऊॅंगी।''

सारस्वत निष्काषित सा कुछ देर ठहरा रहा फिर व्यवस्था पर नजर डाल कर चला गया।

प्रमुख रिश्तेदारों को सूचित किया जा चुका है।

सरलता को बेटों का ध्यान आया —

अपने पिता की आत्महत्या पर क्या सोच रहे होेंगे ? या कुछ भी नहीं सोच रहे होंगे ? तभी तो दोनों कहते रहे यह घर रहने के लायक नहीं है। तभी तो सम्यक को अपनी जिम्मेदारी न मान कर अपनी दुनिया में रत हैं। ऑंस्ट्रेलिया में बस गये बड़े बेटे ने ऑंस्ट्रेलियन लड़की से विवाह किया। विशाखापट्‌टनम में जॉंब कर रहे छोटे ने अपनी कोलीग से। दोनों ने विवाह की सूचना मात्र दी थी कि सम्यक कुतर्क कर ऐसी विकट स्थिति रच देगा जब आर—पार वाला फैसला लेने का मनोबल खत्म हो जायेगा। आह ............... कोई एक असामान्य स्थिति, परिस्थिति को कितना बदल देती है कि घर अलग तरीके से परिभाषित किया जाने लगता है। बड़ा बेटा अरसे से नहीं आया। छोटा दो साल पहले आया था। बड़ा नहीं आ रहा है। छोटा आ रहा है। आने में पता नहीं कितना वक्त लगेगा। .......... जब बेटे बड़े हो रहे थे सम्यक योजना बनाता था। —

‘‘स्कूलिंग के बाद दोनों दिल्ली में अपनी नानी के साथ रह कर रुचि के कोर्स करेंगे।''

दिल्ली गमन के पहले सम्यक को पारकिंसन ने परास्त कर दिया। वह घर में रहने को बाध्य था। बेटों के मित्र घर आते। समय बिताने के उपाय और तरीके ढॅूढ़ता सम्यक उनके साथ बैठ जाता। इतना बोलता कि मित्र ऊब कर लौट जाते अथवा आउटर गेट पर खड़े होकर बात करते। दफ्तर से लौटी सरलता घर में व्याप्त तनाव को परख लेती। बेटों को पुचकारती। बेटे अपनी खिन्नता बताते —

‘‘पापा को इतना कहा आराम करो पर डटे रहे। इतना बोलते हैं। फ्रेण्ड्‌स मजाक बनाते हैं। मॉं हमें नानी के पास भेज दो। यहॉं हमारा कुछ न बनेगा। तुम पापा को समझाती क्यों नहीं ............ ?''

मौका देख कर सरलता, सम्यक को समझाती —

‘‘बच्चों की अपनी बातें होती हैं। वहॉं क्यों बैठते हो ?''

‘‘समय बिताने के लिये।''

‘‘टी0वी0 देखो। अखबार पढ़ो। तुम्हारी न ऑंखें खराब हैं न दिमाक। कुछ करते नहीं हो फिर कहोगे नींद नहीं आती।''

‘‘आती है लेकिन तुम्हारी तरह नहीं। तुम मुर्दे जैसी अवस्था में सोती हो।''

‘‘सम्यक मैं दफ्तर में पूरा दिन बिताती हॅूं। मुझे नींद की जरूरत है। आजकल तुम जल्दी उठ जाते हो। कमरे की बत्ती जला देते हो। मैं सो नहीं पाती।''

‘‘तुम मेरे कारण सो नहीं पाती। लड़कों के मित्र मेरे कारण भाग जाते हैं। क्या मर जाऊॅं ?''

प्रसन्नचित्त शख्स नकारात्मक सोचते हुये मतिमंदि बूढ़े में रूपान्तरित होता जा रहा था।

‘‘इवनिंग वॉंक पर गये ?''

‘‘गया। फिर चला जाता हॅूं।''

घर से गया सम्यक देर तक न लौटता। स्कूटी पर सवार हो सरलता उसे ढॅूंढ़ने निकलती। वह हमेशा की तरह ओवर ब्रिज से शहर का विद्युत प्रकाश देखता मिलता।

‘‘यहॉं हो। खाना ठंडा हो रहा है।''

सम्यक प्रबल वाणी में विरोध करता ‘‘घर में हट्‌टे—कट्‌टे दो पूत हैं। उनके साथ खा लो। मैं नहीं खाऊॅंगा।''

सरलता को सम्यक खिन्न बल्कि क्रोधित बल्कि लाचार लगता —

‘‘वे अपने कमरे में खाते हैं। चलो।''

‘‘नहीं। जान गया हॅूं जिसकी उपयोगिता खत्म हो जाती है। अहमियत खत्म हो जाती है।''

‘‘सम्यक तुम मेरे लिये महत्वपूर्ण हो। चलो।''

सम्यक का अहम्‌ तुष्ट होता। सरलता उसकी फिक्र करती है। वह क्रॉंस लेग में स्कूटी पर बैठ जाता।

सरलता को सास का ध्यान आया —

जीवित होतीं तो आत्महत्या को सरलता से जोड़ देतीं। जैसे सम्यक की व्याधि को सरलता के दुर्भाग्य से जोड़ दिया था —

‘‘यदि कुण्डली मिलान से सादी होती, सम्यक को यह बीमारी न होती। सरलता तुम्हारा भाग्य खोटा है।''

सरलता ने समझ लिया था उसे जीवन भर परीक्षण से गुजरना होगा। अपने पक्ष में मजबूती से खड़ा होना होगा —

‘‘अम्मा मेरा दुर्भाग्य इतना प्रबल हो गया ? सम्यक का भाग्य कुछ नहीं है ? आपका ही सौभाग्य होता तो सम्यक कष्ट से बच जाते। आपके बेटे हैंं।''

‘‘जबान न लड़ाओ। सम्यक की देख—भाल करो।''

‘‘करती हॅूं।''

‘‘का करती हो ? बाबूजी अपंग ना रहे फिर भी हम दिन—रात उनकी सेवा में हाजिर रहे। खाना ठीक न बने, कपड़े ठीक न धुले, तांडव करत रहे।''

‘‘अम्मा एक इंसान, दूसरे इंसान का पूरा समय कैसे सोख लेता है ? पत्नी, पति को बनाने—मनाने में लगी रहे सोच कर मुझे घुटन होती है। सहयोग करना ठीक है। चाकरी बजाना गलत है।''

‘‘जबान न लड़ाओ। तुम आपिस जाती हो। यह बिचारू घर देखता है। हम एतना अंधेर नहीं देखे।''

सरलता चुप हो जाती। लड़ाई निदान नहीं देती है। सम्यक तब मतिमंद बूढ़े में परिवर्तित नहीं हुआ था। समझता था आपत्ति उसके कारण आई है —

‘‘अम्मा, सरलता दफ्तर जाती है। मैं घर में रहता हॅूं। कितनी आधुनिक परिभाषा है। यदि कुण्डली वाली, सरलता की तरह पढ़ी—लिखी न होती, घर कैसे चलता ?''

‘‘चलाओ घर। हम गॉंव जायेंगे।''

एक सप्ताह बिता उचट कर अम्मा चली गईं।

सम्यक की व्याधि सरलता के अनुभव वृत्त का सबसे निराशाजनक अनुभव था। सही तरीके से ठीक वक्त पर प्रत्येक काम करने वाले सम्यक को पदच्युत होकर घर में रहना था। निरर्थकता में आयु बितानी थी।

हृष्ट—पुष्ट, जहीन—जिंदादिल सम्यक को मतिमंद बूढ़े में बदलते हुये असहाय सी देख रही थी। संधि रेखा को विलुप्त होते देख रही थी। सहयोग ............. लम्बी बहस .......... चुप्पी ..........लेकिन नहीं सोचा था। रेलवे ट्रैक पर ........

नीतिका अपने घर से चाय ले आई है। कॉंफी मग में सरलता को दी। महिलाओं में भर्त्सना का भाव। सरलता को चाय देकर अजीज बनी जा रही है। सूतक वाले घर में खाना—पीना वर्जित है। हम लोगों को चाय देने की मूर्खता यह जरूर करेगी। लेकिन सरलता, नीतिका से कम मूर्ख नहीं है। चाय पी रही है। जानते हैं सम्यक के न रहने का जश्न मना रही है पर लोकाचार के लिये न पीती।

‘‘घर में काम है ........... समेट कर फिर आते हैं ...........।''

महिलायें क्रमवार चली गईं। सरलता ने चाय खत्म की —

‘‘नीतिका, मुझे चाय की जरूरत थी। चाय पीकर मैंने एक गुनाह और कर डाला।''

गुनाह।

सुसंस्कृत लोग सरलता की प्रत्येक चेष्टा को गुनाह मानने लगे हैं। जबकि वह जानती है उसने सिर्फ और सिर्फ परिवर्तनोंं की जिंदगी जी है।

सम्यक से छः माह बड़ी सरलता दिल्ली की है। मध्यप्रदेश का सम्यक एम0बी0ए0 करने दिल्ली गया था। एम0बी0ए0 फिर एक ही कम्पनी में जॉंब करते हुये दोनों ने विवाह का फैसला कर लिया। अम्मा को संदेह था लव मैरिज वाली उनके कमाऊ पूत को पूरी तरह हथिया लेगी। उन्होंने विवाह को सशर्त मंंजूरी दी — गृह नगर में इतनी बड़ी सीमेन्ट फैक्टरी है, सम्यक को यहॉं जॉंब करना होगा कि घर से सम्पर्क बना रहे।

विवाह के लिये सम्यक को एक नहीं अनेक शर्तें मंजूर थींं। सरलता ने साफ कहा —

‘‘सम्यक, मैं नौकरी नहीं छोड़ॅूगी।''

‘‘छोड़ोगी नहीं, बदलोगी। मैं प्रबंधक से तुम्हारे लिये बात कर लॅूंगा। तुमसे दूर नहीं रह सकता।''

दिल्ली से छोटे नगर आना सरलता को अवनति की तरह लग रहा था। लेकिन उसकी कामना थी सम्यक को पाना। उसने पा लिया था। उसने यहॉं रहने का अच्छा अभ्यास कर लिया। तीन साल अच्छे बीते। लगा दिल्ली में बहुत भाग—दौड़ थी। यहॉं शांति है। बड़े बेटे के जन्म ने समय सारिणी उलट दी। लम्बा प्रसूति अवकाश नहीं मिला। प्रबंधक ने दो टूक कहा —

‘‘इसीलिये हम महिलाओं को नहीं रखते आपको मिला कर कुल तीन महिलायें हैं। छुटि्‌टयॉं लेती हैं या बीच में काम छोड़ देती हैं।''

‘‘कुछ व्यवस्था करूॅंगी सर।''

सम्यक ने गॉंव से अम्मा को बुलाया ‘‘अम्मा, बाबूजी नहीं रहे हमारे साथ रहो। बच्चे की देख—रेख हो जायेगी।''

अम्मा हर किसी को निरूत्तर करने में निष्णात थी ‘‘सम्यक, हमको औरतों का नौकरी करना पसंद नहीं है। पै यह लव मैरिज वाली है सो मना न कर पाये। हमारा गॉंव में चित्त लगता है। यह गुजारा न होगा।''

सम्यक ने भार सरलता पर डाल दिया।

‘‘सरलता इसे थोड़ा बड़ा होने दो फिर ज्वॉंइन कर लेना।''

यह सम्यक की स्वार्थपरता नहीं थी। वह बच्चे को लेकर बहुत संवेदनशील और जागरूक था।

आरम्भिक खीझ और द्विविधा के बाद सरलता बच्चे के प्रति केन्द्रित होती गई। इसी बीच छोटा पुत्र हो गया। और जब गृहणी की सुविधा सम्पन्न दिनचर्या में आराम पाने लगी पारकिंसन ने सम्यक के दोनों हाथों को निहत्था कर दिया।

सरलता के जीवन का एक और परिवर्तन।

परीक्षण, परामर्श, औषधि, मसाज, एक्सरसाइज में दोनों का समय सिमट गया। आखिर सम्यक ने कहा —

‘‘सरलता, मैंने तुम्हारे लिये फैक्टरी में बात कर ली है। तुम्हारे पास वर्क एक्सपीरियेन्स है।''

‘‘तुम्हारी देख—भाल, घर, बच्चे .............

‘‘अब तक तुमने केयर की। अब मैं करूॅंगा। बिना पैसे के घर नहीं चलेगा सरलता।''

‘‘मुझसे नहीं होगा सम्यक।''

‘‘होगा। जानता हॅू तुम स्थितियों को विवेक से हैण्डिल करती हो।''

सरलता को एकाएक जॉंब करना था। घर से आठ—नौ घंंटे बाहर रहना था। शारीरिक—बौद्धिेक ऊर्जा को सिर से सक्रिय करना था। योग्यता को प्रमाणित करने के लिये नहीं घर चलाने के लिये।

दैनन्दिनी में अभूतपूर्व परिवर्तन।

सम्यक और उसकी भूमिका बदल रही थी। सम्यक को घर में रहना था। उसे दफ्तर जाना था। जीवन विन्यास, जगह, काम, समय, नींद, स्वायत्तता, अभ्यास ............. कितना कुछ बदलता चला गया। घर आम घरों से भिन्न समझा जाने लगा। परिस्थितियॉं घेर रही थीं। संघर्ष बहुत बड़े थे लेकिन सरलता को आस थी भीष्म प्रयत्न से दोहरे दायित्व पूरे कर लेगी। सब ठीक हो जायेगा।

नहीं हुआ। होता तो सम्यक रेलवे ट्रैक पर ............

बॉंडी आ गई है। सम्यक अब बॉंडी के तौर पर जाना जा रहा है। सिल कर जोड़ी गई बॉंडी सम्यक के कद से आधी लग रही है। बॉंडी फ्रीजर में रख दी गई। गले तक चादर। बंद ऑंखों वाला चेहरा। सरलता देखती रही — मैं हर परिस्थिति को स्वीकार करती रही, निराश हुई लेकिन सम्भल गई, सम्यक तुम्हारे भरोसे ही तो। तुमने मेरा भरोसा तोड़ दिया। जानती हॅूं तर्कं या आग्रह तुम्हारे लिये मायने नहीं रखते

थे पर सुन लो यही मेरी सच्चाई है। इसी सच्चाई के बल पर मैं परिस्थितियों का मुकाबला करती थी। उन लोगों को निरूत्तर करती थी जो मानते थे मैं तुम्हारा ख्याल नहीं रखती। तुमने नेक नियत से मुझे नौकरी पर भेजा फिर तुम क्यों भूलते चल गये हम कभी कितने नजदीक थे ? हमारे कुछ विश्वास थे ? मानती हॅूं खालीपन तुम्हें त्रस्त करता था। अक्षमता अधीर करती थी। कई बार तुमने खुद को आरोपी की तरह देखा। मैं बार—बार कहती थी यह एक परिस्थिति है जिसका सामना करो। तुम सामना करने से बचते रहे सम्यक। रहन—सहन, व्यवहार को लेकर लापरवाह होते गये। लेकिन मैं ......... मुझे शक्ति पुंज बनना था क्योंकि ईश्वर ने तुम्हारे हिस्से की जिम्मेदारी भी मेरे हिस्से में रोप दी थी। जिम्मेदारी ठीक तरह पूरी कर सकॅूं इसलिये मैं खुद को सजग, सक्रिय, स्वस्थ रखने का प्रयास करने लगी। खुद को मजबूत दिखाने के लिये घर—दफ्तर हर कहीं चुस्त—दुरूस्त रही कि मुझे लोगों की सहानुभूति नहीं चाहिये। सहानुभूति कमजोर बनाती है अथवा आत्ममुग्ध। स्वीकार करने में वक्त लगा लेकिन स्वीकार कर लिया। तब समझ में आया स्वीकार कर लो तो जीना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है। लेकिन तुम उपद्रव करते रहे। मैं उपद्रव से जीवन ताप पाती रही। उपद्रव को समझती रही। तुम मेरे सद्‌भाव को न समझ पाये। तुम्हें जिंदगी के अर्थ समझाती रही। तुम निरर्थक करते गये। रिश्तों की पहचान कराती रही। तुम अजनबी बनते गये। तुम्हें पकड़ती रही, तुम फिसलते गये। मेरी प्रयोजनीय बातों को अप्रयोजनीय साबित करते रहे जबकि मैं तुम्हारी वे बातें भी सुनती रही जिन्हें लोग वाग्विलास या बकवास कहते थे। समर ......... विग्रह .......... संधि के साथ आगे बढ़ती रही तुम मतिमंद बूढ़े में बदलते हुये इस बंद ठंडे बक्से में समा गये ........

नीतिका ने सरलता के कंधे पर हाथ रखा ‘‘किसे देख रही हो ? अब सम्यक जी कहीं नहीं हैं।''

पुरुष वर्ग बाहरी बरामदे में चर्चारत है — रात में दो लोगों को यहॉं रुकना चाहिये। आचार्य बना सारस्वत, सरलता को सूचित करने बैठक में आया —

‘‘बिल्कुल नहीं घबरायेंगी ........... मैं और परिहार रात में यहॉं रहेंगे ...........

सरलता ने सारस्वत की सक्रियता को विफल कर दिया ‘‘नीतिका है। आप दिन भर परेशान हुये हैं। सुबह आयें।''

‘‘पर ...........

‘‘परेशान न हों।''

सारस्वत को लगा चार लोगों के बीच फरेबी साबित हो रहा है। कूच करना श्रेयस्कर होगा।

सुखनन्दन सारस्वत।

कभी सम्यक का जिगरी हुआ करता था। सरलता ने सीमेन्ट फैक्टरी में ज्वॉंइन किया तो उसका आचार्य बनने की क्षुद्रता करने लगा। स्त्रियों में घुसपैठ करना उसकी लम्पटता है। यदि गृहणी रुचि न ले घनिष्ठता खत्म कर अन्य घर में घुसपैठ करने लगता है। सम्यक की व्याधि, सारस्वत के लिये अवसर थी। आचार्य बन सरलता को सतर्क करने लगा संस्था में कौन कितना धूर्त या धृष्ट है। इतवार को दो बड़े झोलों में सब्जी बेसाह लाया —

‘‘सप्ताह भर की ले आया करूॅंगा।''

सरलता उपकृत नहीं हुई ‘‘कितने पैसे हुये ?''

‘‘छोटी सी मदद है।''

‘‘सम्यक और मुझे यह सब पसंद नहीं है।''

‘‘इस बार रख लीजिये।''

सारस्वत झोले छोड़ गया।

सम्यक तब मतिमंद बूढ़े में परिवर्तित नहीं हुआ था। सरलता को सम्बल देता —

‘‘अब वह अफवाह तैयार करेगा।''

‘‘यह इसका मानसिक दीवालियापन है। जब तुम्हारी इससे दोस्ती थी मैंने तभी इसे जज कर लिया था। इन्ट्रेस्ट नहीं लेती थी। तुम कहते थे मैंने दोस्ती खत्म करा दी।''

‘‘मैं गलत था। औरतों को लेकर हल्की बात करता है। जैसे हर औरत इसके लिये चरित्रभ्रष्ट होने को तैयार बैठी है। हो सकता है तुम्हारा करीबी होने का हल्ला करता घूमता हो।''

‘‘मजा देखो सम्यक। यह हल्ला करता है। लोग बिना कुछ देखे — समझे हल्ले को दूसरों तक पहॅुंचा देते हैं। जिसको लेकर हल्ला है वह सफाई दे तो लोग कहते हैं छिपा रही है। झूठ इसी तरह पुख्ता होकर सच बन जाता है। सम्यक तुम ऐसे हल्ले से परेशान न हो जाना। हमारा घर दूसरे घरों से कुछ डिफरेन्ट है। कोई कहता है मैं त्याग कर रही हॅूं। कोई कहता है तुम्हें नेगलेक्ट करती हॅूं। जानती हॅूं त्याग नहीं कर रही हॅू। जानती हॅूं तुम्हें नेगलेक्ट नहीं कर रही हॅूं। मुझे तो सब कुछ पहले जैसा लगता है। तुम्हारी कुछ आदतों पर पहले की तरह कभी खुश होती हॅॅंू, कभी झॅुंझलाती हॅूं।''

‘‘समझता हॅूं।''

सरलता की बातों को यथार्थपरक मानने वाला सम्यक अक्षमता, अकर्मण्यता, अहम्‌ से जूझते हुये, छिद्रान्वेषण करने वाले लोगोें पर विश्वास करते हुये अधीर होता गया। धुनी होता गया।

बहस ........... कुतर्क ............ नकारात्मक भाव .......... फिर चुप रहते हुये मतिमंद बूढ़े में बदलता चला गया। सरलता घबरा जाती —

‘‘सम्यक तुम्हें उसी सहजता से जीना चिाहये जैसे जी रहे थे। बच्चे बाहर हैं। यहॉं हम दो। कुछ दिन में रिटायर हो जाऊॅंगी। घर में रहॅूंगी। फर्स्ट ईनिंग यॅूं ही निकल गई। सेकेण्ड ईनिंग के लिये कुछ योजना बनायेंगे।''

‘‘मुझे नहीं बनाना।''

हॉं, सम्यक ने योजना बनाना छोड़ दिया था। योजना बनाता हुआ कभी नहीं लगा। अब इतनी बड़ी योजना बना डाली। इतने सुनियोजित, गुप्त तरीके से .......... रेलवे ट्रैक पर ..........

लोग लौट गये। परिहार और एक पड़ोसी युवक रुके हैं। सरलता ने उन्हें सोने के लिये शयन कक्ष में भेज दिया है। शव वाले कक्ष में सरलता और नीतिका हैं। रात बीतने का सम्पूर्ण एकांत। सरलता ने ऑंखें मॅूंद कर सिर दीवार पर टिका लिया। नीतिका ने उसके चेहरे को ध्यान से देखा। दारुण दर्द है।

‘‘सरलता, लेट जाओ। पूरा दिन बीत गया।''

किसी मोह, किसी स्मृति, किसी भुलावे में सरलता कहने लगी —

‘‘नीतिका, सम्यक का जागना—सोना, खाना—पीना, टहलना—डोलना लगभग तय था। इतनी दूर कैसे चले गये ? जाते हुये अपना कायर इरादा क्या एक बार भी नहीं बदला होगा ? सोचती थी वे हिम्मत और मजबूती खो चुके हैं। फैसले लेना छोड़ चुके हैं। पर उनमें मरने जैसा फैसला लेने की हिम्मत और मजबूती थी। आज मेरी कोई बात अप्रिय लगी या दिनों से इरादा कर रहे थे। इन दिनों गुस्से में कहने लगे थे इस घर को मेरी जरूरत नहीं है। मैं समझा कर भी नहीं समझा पाई मेरे लिये वही सम्यक थे जो कॉंलेज में मिले थे। इसी भरोसे पर तो दफ्तर जाती रही कि लौटूॅगी तो घर खुला मिलेगा। घर में सम्यक होंगे ..........।''

गला भर गया। ऑंखें भर गईं। रो रही है सरलता। नीतिका जानती है परिस्थितियॉं इसे व्यवहारिक बल्कि साहसी बल्कि निडर बनाती गई हैं। किसी आक्षेप, आरोप का खण्डन करनेे की जरूरत नहीं समझती। सफाई नहीं देती। जानती है निदान अपने भीतर मिलते हैं। विचलित है। यह इसका स्पष्टीकरण नहीं विचलन बोल रहा है।

‘‘सरलता तुम्हें बहुत काम निपटाने हैं। धीरज खो देगी तो कैसे होगा ?''

सरलता ने ऑंसू पोंछ लिये ‘‘सहजता के साथ जीना चाहती हॅूं, जिस तरह दूसरे जीते हैं। लोगों को यह गलत क्यों लगता है नीतिका ? लोग क्यों चाहते हैं मैं हर दिन परीक्षण से गुजरूॅं ? सम्यक बीमार थे लेकिन मैं स्वस्थ हॅूं। लोग क्यों चाहते हैं मैं हॅंसना, खाना, सलीके से रहना छोड़ दॅूं ? मैं सम्यक पर कभी झुॅंझलाती थी, कभी खुश होती थी, कभी समझाती थी, कभी थक कर चुप हो जाती थी। क्या ये बहुत स्वाभाविक चेष्टायें नहीं हैं ? जो हर घर में होती हैं ? पर लोग मुझे दोषी मानते रहे। आरोप लगाते रहे। सम्यक का जाना मेरे लिये बहुत बड़ा सदमा है। सदमा इस बात का भी है कि उन लोगों की जीत हो गई जो कहते थे मैं सम्यक का ध्यान नहीं रखती। तभी तो मौत ने सम्यक को नहीं चुना, सम्यक ने मौत को चुना ..................।''

‘‘सरलता, मैं समझ सकती हॅूं तुम खुद को किस तरह अकेला महसूस कर रही हो।''

‘‘नीतिक, मैं आज अकेली नहीं हुई हॅूं। कब से अकेली हॅूं। सम्यक ने कभी नहीं पॅूंछा मेरी रिक्वायरमेन्ट्‌स क्या है ? घर—दफ्तर कैसे मैनेज करती हॅू। बेटे नहीं पॅूंछते। छोटा दो साल बाद आ रहा है। हादसा न होता तो शायद न आता।''

‘‘कुछ मत सोचो। अभी सर्विंग हो। रिटायरमेन्ट के बाद सोचना क्या करना है। बहुत अकेलापन लगे तो बेटों के पास .........

‘‘यह घर बहुत आराम देता है नीतिका। कितनी किश्तें चुका कर, तो मिला है। लेकिन इस घर में रहने का कभी पूरा वक्त नहीं मिला। परिवर्तनों की जिंदगी जीती रही ......... बच्चों की जिंदगी जीती रही ........ सम्यक की जिंदगी जीती रही .......... अपनी जिंदगी नहीं जी पाई। अब जीना चाहती हॅूं, यहीं, इसी घर में। पूरे वक्त को महसूस करते हुये। अपनी तरह से, अपनी सहूलियत से .......... अपने हिस्से की जिंदगी ...........

***

सुषमा मुनीन्द्र

द्वारा श्री एम. के. मिश्र

जीवन विहार अपार्टमेंट्‌स

द्वितीय तल, फ्लैट नं0 7

महेश्वरी स्वीट्‌स के पीछे,

रीवा रोड,, सतना (म.प्र.) — 485001

मोबाइल : 07898245549

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