शुभ सात कदम Sushma Munindra द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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शुभ सात कदम

शुभ सात कदम

सुषमा मुनीन्द्र

जैसे ही हम पहला फेरा लेते हैं, तुम मेरी आत्मा, साथी, गृहस्वामिनी और पथ प्रदर्शक बन जाती हो।

प्रजापति विवाह के ये कौल करार दिल बहलाने के लिये उम्दा हैं वरना पति, पत्नी को अपनी आत्मा या साथी तो क्या बनायेंगे स्वयं गृहस्वामी की आसंदी सम्भाल कर पत्नी का जीवन भर ऐसा पथ प्रदर्शन करते हैं कि वह भ्रमित रहती है, इस राह जाये, किस राह जाये।

पैंतालीस दिन में सब कुछ हो गया। कर्दम, अपने बाबू और तीन जीजाओं के साथ जिस दिन प्रतिष्ठा को देखने आया उसके ठीक पैंतालीसवें दिन विवाह सानंद वातावरण मेें सम्पन्न हो गया। वातावरण दूषित हो या द्वेषपूर्ण, विवाह आमतौर पर सानंद वातावरण में सम्पन्न हुआ माना जाता है। प्रतिष्ठा के मॉं, पापा हुलहुलाये हुये। प्रतिष्ठित परिवार, श्रेष्ठ विप्र, कोई मॉंग नहीं, नेट क्वालीफाइड, सहायक प्राध्यापक कर्दम। बस एक शर्त है प्रतिष्ठा को नौकरी छोड़नी पड़ेगी। यह भी कोई शतोर्ं में शर्त है लल्लू ? छोड़ देगी। टीचरों को नौकरी कहीं भी मिल जाती है।

जिस तेजी से विवाह तय हुआ, पंडित ने उसी तेजी से फेरे करा दिये। प्रतिष्ठा के जीजू ने भर्त्सना की —

‘‘पंडित जी, आपने फेरे यॅू करवाये जैसे ट्रेन छूट जायेगी।''

पंडित रिसा गया ‘‘बाबूजी (कर्दम के पिता) तहलका मचायेे हैं सुबह छः बजे विदा हो जाये। चितरंगी (गॉंव) यहॉ से काफी दूर है। वहॉं भी रस्में होनी हैं। दिन डूब जायेगा।''

चितरंगी।

दिन भर चलते विधि—विधान ने प्रतिष्ठा को व्यस्त रखा। मधुयामिनी का अवसर आया तब हृदय गति तेज हो गई। बड़ी बहन निष्ठा के विवाह को दो साल हुये हैं। विवाह सुनिश्चित होते ही निष्ठा के सेल फोन पर जीजू इस तरह अतिक्रमित कॉल करने लगे थे जैसे वक्त—बेवक्त दखल देने का सरकारी लाइसेंस पा गये हैं। दिन देख रहेे थे, न रात। निष्ठा से खाने, पीने, सोने जैसी नित्य क्रिया की रिपोर्ट नित्य लेते। निष्ठा बौराई रहती। दीवाना पति हस्तगत होने वाला है। कर्दम का व्यवहार अलहदा है। देखने आया था तब एकदम महापुरुष बना शांत बैठा रहा। एक बार भी फोन कॉंल नहीं किया। टेलीफोनिक बातें होतीं तो माहौल इस कदर अपरिचित न लगता। ..........कर्दम देर रात कमरे मेें दाखिल हुआ। देर तक महापुरुष बना बिछावन के कोने में बैठा रहा। देर बाद पॅूंछा —

‘‘किस कॉंलेज में पढा़ती हो ?''

‘‘ए.पी.एस. कॉंलेज में। वहीं से बायो टैक्नालॉंजी में एम.एस.सी. किया, वहीं पढ़ाने लगी।''

‘‘कब से पढ़ा रही हो ?''

‘‘तीन साल हुये।''

‘‘सेलरी ?''

‘‘बीस हजार।''

‘‘कम है। प्राइवेट कॉंलेज में शिक्षकों का बहुत शोषण होता है।''

‘‘अनुभव मिल रहा है। लगता है पढ़ा रही हॅूं, पढ़ भी रही हॅूं।''

‘‘नौकरी छोड़ोगी ?''

शादी के साइड इफैक्ट्‌स के लपेटे में लड़कियों की नौकरी आ ही जाती है।

‘‘जैसा आप कहें लेकिन कोर्स बाकी है। बीच में छोड़ दॅूं तो स्टूडेन्ट्‌स को लॉंस होगा।''

‘‘जिम्मेदारी पूरी करना अच्छी बात है। यह सेशन पूरा करो।''

प्रतिष्ठा ने दिलासा महसूस की। वह अच्छी व्याख्याता मानी जाती है अतः अच्छी छवि के साथ संस्थान छोड़ना चाहती हैं। कर्दम ने नौकरी जारी रखने की प्रेरणा दी जबकि अम्मा (सास) ने कर्तव्यनिष्ठ पत्नी बनने के नुस्खे समझाये —

‘‘दुलहिन, नौकरी—चाकरी छोड़ो और पुष्पराजगढ़ में कर्दम को खुस रखो। वह तीन बहनों में सबसे छोटा, अकेला लड़का है। इतना सीधा है कि तुमसे पानी न मॉंगेगा। खुद लेकर पी लेगा। तुम्हारे ये ससुर बाबा। समाने रखी चीज—बसत खुद नहीं उठाते। हमने इनका बहुत शासन सहा है। दुलहिन जग की रीत ही अइसी है।''

छोटी ननद सुंदरी लहक कर हॅंसी ‘‘अम्मा तुम्हारा जमाना बोरिंग था। बाबू ने न कभी पानी खुद लेकर पिया, न बच्चों को पुचकारा। अब पति, घर और बच्चे सम्भालने में नहीं लजाते। जानते हैं, लजायेंगे तो पत्नी चलती बनेगी। मेरी सास इनको (पति) जोरू का गुलाम कहती है। इन पर असर नहीं होता। कहते हैं बच्चों की देख—भाल करना उन्हें अच्छा लगता है। प्रतिष्ठा, कर्दम दिल का राजा है। यदि खाना अच्छा बनाओगी तो समझो एश करोगी। कर्दम खाने के लिये ऐसा ललकता है जैसे खाने के लिये पैदा हुआ है।''

आठ दिवसीय प्रवास पूर्ण कर प्रतिष्ठा चितरंगी से सूर्यपुर आ गई। कर्दम सप्ताह में सिर्फ एक बार फोन कॉंल करता। दीवाने की तरह नहीं, प्राध्यापक की तरह।

‘‘जॉंब कैसा चल रहा है ?''

‘‘कोर्स पूरा करने के लिये एक्स्ट्रा क्लास ले रही हॅूं।''

‘‘इत्मीनान से करो।''

न भूत पॅूंछता है, न भविष्य। कॉंलेज, कोर्स, किताबों की बातें। शिक्षा विभाग में हैं इसलिये शिक्षा को इतना महत्व देता है या नौकरी की इतनी फिक्र है कि पुष्पराज गढ़ आओ, न आओ, वेतन जमा करती रहो। लेकिन अर्थ लोलुप नहीं लगता। नेग के पैसे भी स्वीकार नहीं किये थे।

दूसरे फेरे में तुम मेरी ताकत बन जाती हो।

जो कि पति बनने नहीं देते।

दुरागमन पर प्रतिष्ठा को विदा कराने कर्दम नहीं, बाबू आये। चितरंगी में चार दिन रखने की औपचारिकता कर पुष्पराजगढ़ पहॅुंचा गये। कॅुंवारे के अनुसार किराये का छोटा बसेरा। नीचे वृद्ध मकान मालिक अवस्थी जी सपत्नीक रहते हैं। ऊपर के दो भाग में एक खाली पड़ा है, दूसरे में कर्दम रहता है। प्रजापति विवाह की जाने कैसी विश्वसनीयता होती है कि कर्दम के गूढ़—अबूझ व्यवहार के बावजूद प्रतिष्ठा हक के साथ रहने लगी। कर्दम ठीक दस पर घर से निकलता। सॉंय काल छः—सात पर लौटता। वस्त्र बदलकर लैपटॉंप में मुब्तिला हो जाता। यह क्रम इतना नियमित था जैसे कॉेंलेज का पूरा दायित्व एक इसी बंदे ने उठा रखा है। प्रतिष्ठा नई पत्नी वाली नजाकत को फॉंलो करते हुये कम बोलती थी। कर्दम नये पति की तरह लट्‌टू नहीं हो रहा था। संवाद दाम्पत्य को मजबूत बनाते हैं। वह इतने कम और साधारण संवाद बोलता जिसे जरूरी बातचीत या प्रयोजन कहा जा सकता है। प्रतिष्ठा संवाद बनाने की चेष्टा करती —

‘‘सादा खाना पसंद करते हैं या मसाले वाला ?''

‘‘जो बनाना चाहो, बनाओ। पति के हिसाब से पत्नी अपने तौर—तारीके बदले, यह टार्चर है।''

‘‘किचन का सामान लाना है।''

‘‘रविवार को बाजार चलो।''

लैपटॉंप में मुब्तिला कर्दम इस तरह संक्षिप्त जवाब देता, मानो प्रतिष्ठा की बात जिम्मेदारी से नहीं सुनी। सुंुदरी कहती है कर्दम खाने के लिये पैदा हुआ है। यह तो यॅूं चुपचाप निगल लेता है जैसे पाप काट रहा है। क्या करे प्रतिष्ठा ? यहॉं ऐसा कोई निकष नहीं है जिस पर खरा उतरने के लिये कवायद की जाये। सफल होने पर इठलाये। न होने पर खेद में डूबी रहे।

तीसरे फेरे में तुम मेरी लक्ष्मी बन जाती हो और समृद्धि को बढ़ाने का वायदा करती हो।

कर्दम गृह लक्ष्मी का दर्जा नहीं दे रहा है प्रतिष्ठा लक्ष्मी कैसे बनेगी ? सामान्य पत्नी की तरह जरूरी बचत कर समृद्धि बढ़ाना चाहती है यदि यह जड़ आदमी वेतन उसके हवाले करे। नौकरी मिल जाये, तो समृद्धि में इजाफा जोड़ सकती है। सूर्यपुर में पूरा दिन कॉंलेज में रहती थी। अब घर में निठल्ले बैठना अजीब बल्कि गलत लग रहा है।

‘‘खाली बैठे वक्त नहीं कटता। आपके कॉंलेज में बायोटेक है ?''

‘‘नहीं। लेकिन शासकीय कॉंलेज में ऐसे ही नौकरी नहीं मिलती। पी0एच0डी0 या नेट होना चाहिये। नेट की तैयारी करो। मैं बुक्स और मैटर का इंतजाम कर दॅूंगा।''

‘‘यह ठीक होगा।''

अच्छी सम्भावना।

मैटर डिसकस करते हुये निकटता बनेगी। नहीं बनी। प्रतिष्ठा ने अनुमान लगा लिया विवाह कर्दम की इच्छा के विरुद्ध हुआ है। न आग्रह करता है न आपत्ति। वह सूर्यपुर की तरह यहॉं भी सलवार—कुर्ता और तस्मे वाले मोटे जूते पहनती है। कर्दम नहीं कहता — बिछिया जूतों में छिप जाती है। सिंदूर तुम लगाती नहीं। बिंदी ही लगा लिया करो कि विवाहित दिखो। बल्कि उसने हरतालिका तीज जैसे व्रत — अनुष्ठान की निंदा की —

‘‘कठिन व्रत मत करो। भूखे रहना पति पारायण होने का सबूत नहीं है।''

सुबह से व्रत की तैयारी में संलग्न प्रतिष्ठा की इच्छा हुई कहे —

जानती हॅूं तुम मुझे अपना नहीं मानते पर कुछ आस्थायें प्रबल होती हैं। अमल न करने पर ग्लानि होती है, बुरे विचार अधीर करते हैं। प्रकट में बोली —

‘‘पूजा करने के लिये अवस्थी आंटी ने अपने घर बुलाया है।''

प्रतिष्ठा पूजा करने गई थी, अवस्थी आंटी ने उसके अनुमान की पुष्टि कर दी —

‘‘हर घर से शोर, झगड़ा, हॅंसी सुनाई देती है। प्रतिष्ठा तुम दोनों ऐसे संयम और सभ्यता से रहते हो कि आहट नहीं मिलती। सब ठीक है ?''

‘‘ठीक है।''

‘‘तुम्हारी सूरत बता रही है, ठीक नहीं है। ........कर्दम के साथ कभी—कभी एक लम्बी लड़की आती थी। मैंने कर्दम को आगाह किया था, जनाना आती है, लोग बातें बनाते हैं। बोला पी0एच0डी0 कर रही है। कुछ समझने आती है। ...... प्रतिष्ठा तुम जब से आई हो, वह दिखाई नहीं दी।''

प्रतिष्ठा का हृदय तेज गति से धड़क कर भीतर कहीं धॅंसने को था। इच्छा हुई पूजा तज कर तेज गति से घर जाये और कर्दम से सख्त पॅूंछ—तॉंछ करे। पर आंटी क्या प्रतिक्रिया देंगी ? कि प्रतिष्ठा तुम यही कह रही हो सब ठीक है ? कर्दम क्या प्रतिक्रिया देगा ? कि जान गई हो तो यहॉं क्या कर रही हो ? चितरंगी में रहो या सूर्यपुर में, मुझे फर्क नहीं पड़ेगा। पूजा कर घर पहॅुंची। कर्दम सो गया था। प्रतिष्ठा निःशक्त हो गई। चुपचाप बिछावन के दूसरे सिरे पर लेट गई। क्या पॅूंछे ? कैसे पॅूंछे ? अवस्थी आंटी ने पुष्टि की है लेकिन स्पष्ट नहीं है यह प्रेम है या परोपकार। संभव है पी0एच0डी0 वाली दूषित मंशा से न आती हो। अति उत्साहित किस्म के विद्यार्थी अपना काम समय सीमा से पहले कर लेने की अतिरिक्त कोशिश करते हैं। सम्भव है दूषित मंशा से आती हो। और कर्दम ने पी0एच0डी0 जैसा भ्रम दे दिया। असमंजस है, आशंका है और अनिश्चय है। दिल भरा था। ऑंखें खूब बहीं। सुबह उठी तो ऑंखें लाल और फूली हुई थीं। रोई—उदास ऑंखें यॅूं अलग दिखती हैं कि निर्मम व्यक्ति भी पॅूंछ लेता है — रोई थी क्या ? कर्दम थोड़ा ठहर कर, जिम्मेदारी से उसकी ऑंखें देखता तो संभव है रोने का कारण पॅूंछता। यह बताती तुम पर शक होने लगा है इसलिये रोती रही। प्रतिष्ठा नहीं समझ पा रही थी सच क्या है। लेकिन सच की अपनी एक ताकत होती है। एक दिन उद्‌घाटित हो जाता है। सुंदरी का फोन कॉंल था —

‘‘प्रतिष्ठा, लोलर (चचेरा भाई) की शादी में तुम और कर्दम चितरंगी आ रहे हो न ?''

‘‘कर्दम मुझे अपने कार्यक्रम नहीं बताते।''

‘‘कर्दम से मेरी बात हुई है। उसने चार दिन की छुट्‌टी ली है। तुमसे सचमुच नहीं बताया ?''

‘‘नहीं। मुझे लगता है, वे मुझसे खुश नहीं हैं।''

‘‘ऐसा क्यों लगता है ?''

‘‘कोई पी0एच0डी0 वाली है ........

प्रतिष्ठा विस्तृत ब्योरा देना चाहती थी पर संकेत ग्रहण कर सुंदरी बीच में बोल पड़ी ‘‘कर्दम ने बताया ?''

‘‘अवस्थी आंटी ने।''

‘‘अरे, प्रतिष्ठा कर्दम ललाइन (कायस्थ स्त्री) के जाल में फॅसते—फॅंसते बच गया।''

‘‘आप लोग यह बात जानती हैं ?''

‘‘तभी न बाबू दइया—दहेज तय किये बिना जल्दी में शादी किये।''

‘‘दीदी, अब अन्तर्जातीय विवाह होते हैं।''

‘‘चितरंगी में नहीं होते। हमारे टोला के लाला लड़के ने ब्राम्हण लड़की से शादी की है। लड़के का पिता छाती ठोक कर प्रचार करता बागता था हमारा लड़का ब्राम्हण की लड़की को भगा लाया। (घर से लड़का और लड़की दोनों भागते हैं लेकिन माना जाता है लड़की, लड़के के साथ भागती है और लड़का उसे भगाता है।) कर्दम की लीला सुनकर हमारे पट्‌टीदार ताव खा रहे थे, ललाइन से कर्दम की शादी करवा कर इस लाला की इज्जत दुइ कौड़ी की कर डालो। प्रतिष्ठा तुम नहीं समझोगी। जो यह शादी होती चितरंगी में पूरी राजनीति हो जाती। तुम इतनी गुणी और सुंदर हो। कर्दम को खुश रखो, सब भूल जायेगा।''

‘‘कैसे खुश रखॅूं, नहीं समझ पा रही हॅॅू।''

‘‘चितरंगी आओ। खुल कर बात करेंगे।''

सुंदरी ने प्रेम की पुष्टि कर दी।

प्रतिष्ठा का मुख कांतिहीन हो गया जो कि चितरंगी पहॅुंचकर भी कांतिहीन ही रहा। सुंदरी ने अम्मा को प्रकरण से अवगत करा दिया था अतः उन्होंने प्रतिष्ठा को फिर कर्तव्यनिष्ठ पत्नी बनने के नुस्खे दिये —

‘‘दुलहिन, लड़कईं में बेकूपी हो जाती है। कर्दम सादी के बाद किसी कुटनी की सोहबत में पड़ जाता तो का तुम उसे छोड़ देती ? जान लो मर्द—मानुस अइसय चंचल होते हैं। तुम्हारा कर्तब्ब है कर्दम को खुश रखो। एक ठो बच्चा हो जाये त सब ठीक होइ जाये पै आजकल यह का बगरा है के दुलहिनें पॉंंच बरिस से पहिले बच्चा पइदा नहीं करतीं। कर्दम एकय लड़िका है। कुल—परबार बढ़ॅंय का चाही।''

प्रतिष्ठा को आशय समझा दिया गया — तेजी से बदल रहे वक्त में पत्नियॉ पति को परमेश्वर मानने से कतराने लगी हैं लेकिन समाज की एक तरफा नियमावली सम्पूर्ण नहीं बदली है। दाम्पत्य को बचाये रखने की जिम्मेदारी आज भी पति की नहीं, पत्नी की है। कुछ अप्रत्याशित होता है तो प्रथम दृष्ट्‌या पत्नी ही दोषी मानी जाती है। उसकी समझदारी और खूबी से दाम्पत्य सफल रहता है। गलती और बेवकूफी से असफल हो जाता है।

चौथे फेरे में तुम मेरी स्वास्थ्यरक्षक बन जाती हो और मैं तुम्हारे प्यार व देखभाल में खिलॅूंगा।

पुरुष चतुर बनते हैं। पत्नी करार पूरे करते हुये दुबलाती रहे और ये छुट्‌टा घूमे।

प्रतिष्ठा जान गई है कर्दम, ललाइन के प्यार व देखभाल में खिल चुका है। मिलनसार नहीं हो रहा है अर्थात्‌ दुबारा नहीं खिलना चाहता। फिर भी इसकी स्वास्थ्य रक्षक बनने की कोशिश कर सकती है। देख रही है कर्दम तापमापी यंत्र से ताप ले रहा है। पॅूंछा —

‘‘बुखार है ?''

‘‘थोड़ा। पैरासीटामॉंल खा लॅूंगा।''

देख रही है कमीज की टूटी बटन टॉंकने की असफल चेष्टा कर रहा हे। लगता है टूटी बटन से कभी न कभी (प्रमुखतः पति—पत्नी में अनबन चल रही हो तब) प्रत्येक पुरुष को जूझना पड़ता है। जब पापा मॉं से खफा चल रहे हों तब सुई—धागे से जूझते हुये उनका तहलका देखने जैसा होता था। मॉं निर्मोही बनी रहती ‘‘सिकंदर बनते हैं। देख लो एक बटन नहीं टॉंक पा रहे हैं। मैं नहीं लगाऊॅंगी।''

दोनों के बीच स्वीकार है इसलिये मॉं बटन न टॉंकने जैसी जिद कर लेती हैं। निष्ठा से खफा हुये जीजू भी सुई—धागे से जूझते हैं ‘‘महारानी का मॅुंह फूला है। बटन को आज ही टूटना था।''

मॅुंह फुलाये हुये निष्ठा, जीजू के हाथ से सुई—धागा छीन कर बटन टॉंक देती है। दोनों के बीच अधिकार बोध है इसलिये निष्ठा ताकत का प्रयोग कर सुई—धागा छीन लेती है। यहॉं न स्वीकार है, न अधिकार लेकिन प्रतिष्ठा ने कहा —

‘‘बटन लगा देती हॅूं।''

‘‘लगा लॅूगा।''

प्रतिष्ठा न मॉं की तरह जिद कर सकी, न निष्ठा की तरह ताकत का प्रयोग। बटन टॉंकने में विफल हुआ कर्दम दूसरी कमीज पहन कर कॉंलेज चला गया। निष्ठा ने बटन टॉंक कर कमीज हैंगर में टॉंग दी। घर में जो नाम मात्र की मामूली आहटें होती हैं, कर्दम के जाने पर थम जाती हैं। आहटविहीन घर में प्रतिष्ठा पर संवादों का हमला हो जाता है। कभी मौन भाव में, कभी मद्धिम स्वर में, कभी मुखर होकर वह खुद से संवाद करती है — कुछ लोग विवाह को सुंदर सामाजिक संरचना कहते हैं, कुछ लोग बंधन कहते हैं, कुछ लोग जुआ कहते हैं, कुछ लोग अंधा खेल कहते हैं। लेकिन कैसा असर है इस गठबंधन का कि हर कोई एक बार जरूर बॅधना चाहता है। कम ही दम्पति खुश रहते हैं फिर भी दाम्पत्य अपनी चाल से चलता रहता है। शादियॉं टूट रही हैं पर अधिकतर नहीं टूट रही हैं। सामाजिक विश्वास ऐसा प्रबल होता है कि परस्पर अपरिचित पति, पत्नी को एकदम अचानक एक साथ रहने में न भय होता ह,ै न झिझक। कर्दम सौहार्द्र नहीं दिखा रहा है फिर भी वह निःशंक रह रही है। कर्दम उसे व्यतिक्रम की तरह देख रहा है फिर भी दो टूक कह कर बेदखल नहीं कर पा रहा है। लेकिन ऐसे गठबंधन का उद्‌देश्य भी तो कुछ नहीं। यह सजायाफ्ता सी रह रही है, वह दबाव में रह रहा है। यह अपने—आप से जूझ रही है, वह अपनी लड़ाई अकेले लड़ रहा है। यह नहीं जानती पति की समीपता की सुरक्षा या घुटन क्या होती है। शायद डे वन से वह सुरक्षित दूरी बना कर चला है। इसे दुबारा खिलाने की भरसक कोशिश की। अब व्यर्थ है।

पॉंचवें फेरे में तुम वायदा करती हो हर परिस्थिति में मेरा साथ दोगी।

संबंध में भागीदारी नही ंतो साथ देने का मतलब नहीं। तलाकशुदा या छोड़ी हुई औरत कही जायेगी पर कर्दम अपना मकसद पा लेगा। जानती है कर्दम उसकी बात जिम्मेदारी से नहीं सुनता। जो कहने जा रही है उसे कहना सरल भी नहीं है। दृढ़ प्रतिज्ञ होना होगा —

‘‘आप मुझे अपनाना नहीं चाहते ?''

‘‘किसने कहा ?''

‘‘जिसने भी कहा, वही कहा जो आप नहीं कहना चाहते। मैं सोचती थी घर वाले लड़कियों की नहीं सुनते। मजबूर कर दी जाती हैं। आपकी क्या मजबूरी रही ?''

कर्दम, उसकी बात जिम्मेदारी से नहीं सुनता है पर आज ऐसा भेद सामने आ गया है कि उत्तर देना होगा।

‘‘कुछ मसलों में लड़के—लड़कियॉं समान रूप से मजबूर किये जाते हैं। इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक आधा बीत गया है फिर भी कुछ धारणायें नहीं बदलीं। जाति, धर्म आज भी ऐसा संवेदनशील मामला है कि किसी एक परिवार की घटना पूरे समाज का अपमान मान ली जाती है। ऑंनर किलिंग इसका प्रमाण है।''

‘‘आपने प्रेम किया गुनाह नहीं है। प्रेम में धोखा दिया, गुनाह है।''

‘‘अब इन बातों का मतलब नहीं। ऐसी बातें करोगी तो परेशान रहोगी।''

‘‘परेशान आप हैं। आपने न साहस दिखाया न निष्ठा। साहस कर लेते। परिवार वाले विरोध करते हैं फिर जैसे—जैसे इन्टेन्सिटी कम होती जाती है, परिवार वाले स्वीकार कर लेते हैं।''

‘‘तुम चितरंगी वालों को अच्छी तरह नहीं समझ पाई हो।''

‘‘वे समाजभीरू सरल ग्रामीण लोग हैं पर आप शहर में रहते हैं। शादी से पहले मुझे स्थिति बता देते तो शायद हल मिल जाता। शादी तय होते ही लोग टेलीफोनिक बातें करने लगते हैं, आपने कभी कॉंल नहीं किया। जो हुआ जाने दें। अब भी फैसला कर सकते हैं।''

‘‘तब नहीं कर सका अब क्या करूॅंगा।''

‘‘आपने फैसला किया था। अपने विरुद्ध। मैं आपकी जिंदगी में आई। ग्लानि होती है।''

‘‘तुम्हारा दोष नहीं है।''

‘‘कारण तो हॅूं। स्त्रियों की भावनायें नाजुक होती हैं। जिसके साथ जुड़ जायें फिर पूरी तरह टूटना नामुमकिन है। मैं उसका नाम नहीं जानती। अम्मा उसे ललाइन कहती हैं। उसको अपना लीजिये।''

‘‘मैं वह नहीं रहा, जो था।''

‘‘प्रेम नहीं देखता आप क्या थे और क्या हैं। किससे शादी की, किसके साथ रहे, कब अलग हुये जैसी सूचनाओं से अब न लोगों को फर्क पड़ता है, न उनके दायरे को।''

‘‘क्या चाहती हो ?''

‘‘मेरा बिलीव सिस्टम है, जिंदगी एक बार मिलती है। यॅूं नहीं बिताना चाहिये कि लगे बर्बाद हो गई। मैं नहीं मानती जोड़े ऊपर से बन कर आते हैं। आते तो तलाक, अलगाव, धोखा, छल, कपट न होता।''

‘‘तुम कहॉ जाओगी ?''

‘‘सूर्यपुर। ए0पी0एस0 में जॉंब कन्टीन्यू कर लॅूंगी।''

‘‘स्थिति आसान नहीं है। हम दिल से सोचते हैं तो दिमाक से भी सोचना पड़ता है।''

‘‘सोच लिया है। संयोग देखें। इधर ललाइन तो उधर लाला। पापा ने साफ कह दिया था ऐसा करती हो तो हमें मॅुंुह न दिखाना।''

अप्रत्याशित प्रतिघात।

कर्दम ने इतना स्थिर होकर, इतनी वेधक नजर से प्रतिष्ठा को पहली बार देखा। वह खुद को गुनाहगार मान रहा है। मजा देखो यह खुद गुनाह कर के आई है। स्थिति के लिये यह जिम्मेदार नहीं है सोच कर इसे सुविधा दे रहा है, यह बपौती समझ कर लिये जा रही है। अपने प्रेम प्रसंग को इसके समक्ष घोषित करने में हिचक रहा है, यह लाला की कद्रदान बनी जा रही है।

‘‘विश्वास है लाला तुम्हारे लिये बैठा होगा ?''

‘‘हम विश्वास करना चाहते हैं, करने नहीं दिया जाता। नहीं करना चाहते, करना पड़ता है। धारा 13 (बी) में आपसी सहमति से तलाक मिल जाता है। आप सूर्यपुर तलाक का नोटिस भेज देंगे।''

छठे फेरे में तुम मेरे जीवन की चारों ऋतुओं को खुशियों से भर दोगी।

कर्दम के जीवन की चारों ऋतुओं को खुशियों से भरने के लिये प्रतिष्ठा, पुष्पराज गढ़ छोड़ रही है।

कर्दम के भीतर अहम्‌—असंतोष, अवसाद—आनंद, क्रोध—क्षोभ, नफरत—निराशा ...... क्या चल रहा है, प्रतिष्ठा कभी नहीं समझ पाई लेकिन लगता है उसके जाने से प्रफुल्ल है। तभी इतनी जिम्मेदारी दिखा रहा है —

‘‘टिकिट रख लिया है न ?''

‘‘हॉं। आपने ए0सी0 टू में रिजर्वेेशन करा कर पैसे बर्बाद किये।''

‘‘ओवर नाइट जर्नी है। आराम रहेगा। इस कैरी बैग में खाने का सामान है।''

कभी नहीं पॅूंछा खा लिया है या भूखी हो। अब बाजार से झोला भर पैकेट खरीद लाया है।

‘‘खाना खा लिया है। इतने सबकी जरूरत नहीं है।''

‘‘यात्रा में नींद न आये तो भूख लगती है। कुछ पैसे हैं।''

एक छदाम न दी, अब मोटा सफेद लिफाफा पकड़ रहा है।

‘‘मेरा एकाउण्ट है।''

‘‘रखो।''

इसरार, इकरार अब तक नहीं हुआ। चलते—चलते इन्कार क्या करना। प्रतिष्ठा ने लिफाफा पर्स में रख लिया।

‘‘सूर्यपुर पहॅुंच कर कॉंल कर देना।''

‘‘अच्छा।''

‘‘अपना ख्याल रखना।''

‘‘आप भी।''

गमन के क्षण विलक्षण होते हैं। वह इस घर में तटस्थ हो कर रही फिर भी यहॉं रहने का अभ्यास हो गया है। लगाव पनप न सका फिर भी कर्दम की उपस्थिति की आदत हो गई है। स्टेशन के लिये निकलते हुये उसने मुख्य द्वार पर ताला लगा कर, साथ चल रहे कर्दम को चाबी दी। खुद को खूब साधा फिर भी दिल भर ही आया।

सातवें फेरे के बाद हम जीवन भर के लिये एक हो जाते हैं।

आगे—आगे देखिये होता है क्या ?

प्रतिष्ठा ने नहीं सोचा था ऐसी वापसी होगी। क्या बताये घर में और कॉंलेज मेें। मॉं बेलाग कहेंगी — प्रतिष्ठा तुमसे निभाते न बना। जल्दबाजी कर दी। धीरे—धीरे सब ठीक हो जाता। कॉंलेज वाले पॅूंछेंगे — नौकरी चाहिये ? अब पुष्पराजगढ़ नहीं जाओगी क्या ?

अब ?

तलाक के नोटिस की प्रतीक्षा करनी है। नोटिस बतायेगा वह नीर भरी दुःख की बदली बन गई है। तलाक का नोटिस नहीं आया। प्रतिष्ठा के सेलफोन पर चमत्कार की तरह कर्दम का कॉंल आ गया —

‘‘क्या कर रही हो ?''

‘‘तलाक के नोटिस का इंतजार।''

‘‘नहीं भेजा।''

‘‘क्यों ?''

‘‘तुम क्या गई घर भूत का डेरा लग रहा है। तुम्हें स्टेशन पहॅुंचा कर लौटा तो घर इतना खाली लगा जो पहले कभी नहीं लगा था। खूब महसूस कर रहा हॅूं तुम दोषी नहीं थी लेकिन अपनी निराशा तुम पर प्रकट कर मैं दूसरी बार कायर बन गया हॅूं।''

ऐसी तमीज, ऐेसी तसल्ली से कभी बात नहीं की। लगता है ललाइन ने लतिया दिया है।

‘‘ललाइन .........सॉंरी मैं उसका नाम नहीं जानती तो ......... ''

‘‘उसकी शादी को डेढ़ साल हो गये।''

‘‘धोखा दे गई ?''

‘‘धोखा मैंने दिया। वह पलायन कर गई।''

‘‘आपको कब पता चला उसकी शादी हो गई ?''

‘‘जब हुई तभी जान गया था।''

‘‘मुझे नहीं बताया।''

‘‘झिझक रहा था। तुम कहोगी वह पलायन कर गई इसलिये मेरी सुध ले रहे हैं। मैंने तुम्हारे साथ जो व्यवहार किया उस झिझक से भी निकल नहीं पा रहा था। तुम रोना—धोना, दंगा—उपद्रव, मिन्नत—आरजू जैसा कुछ करती तो शायद मैं सही होता या गलत लेकिन किसी नतीजे का मन बनाता। तुमने मुझे न दखल दिया, न कैफियत मॉंगी। एक दिन अचानक कह दिया आपसी रजामंदी से तलाक ले लेना चाहिये।''

‘‘मैं आपको बंधन से आजाद कर देना चाहती हॅूं।''

‘‘पता नहीं क्या है इस बंधन में। बॅंधने की इच्छा न हो, तोड़ने की नहीं होती। कॉंलेज ज्वाइन कर लिया ?''

‘‘कुछ दिन सुस्ताना चाहती हॅूं।''

‘‘ब्यॉंय फ्रेण्ड से मुलाकात हुई ?''

‘‘कौन ब्यॉंय फ्रेण्ड ?''

‘‘लाला। तुमने उसका नाम नहीं बताया या मैं भूल गया हॅूं।''

‘‘एम0एस—सी0 फाइनल में था। कोर्स करके कहीं चला गया होगा।''

‘‘मतलब ?''

‘‘प्रद्युमन शास्त्री भावुक छात्र था। मुझे बेस्ट टीचर मानते—मानते एकतरफा इश्क कर बैठा। मेरी शादी में बैच के साथ आया था। जब मैं और आप स्टेज पर बैठे थे वह अचानक स्टेज पर आ गया था और मेरे साथ सेल्फी ली थी। आप शादी की सी0डी0 देखना। वह दृश्य बड़ा मजेदार लग रहा है।''

‘‘क्या बुद्धि पाई है। शास्त्री को लाला बना दिया।''

‘‘आपकी ललाइन, मेरा लाला।''

‘‘मुझझे बहुत नफरत न हुई हो तो तुम्हें लेने आ जाऊॅं।''

‘‘इंतजार करूॅंगी।''

सातवें फेरे में दम है।

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सुषमा मुनीन्द्र

द्वारा श्री एम. के. मिश्र

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