The Author DHIRENDRA BISHT DHiR फॉलो Current Read कर्मो का फल By DHIRENDRA BISHT DHiR हिंदी प्रेरक कथा Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books Revenge Love - Part 2 वो एक दुकान के सामने जा कर खड़ी हो जाति है .. वो पूरी दुकान... शुभम - कहीं दीप जले कहीं दिल - पार्ट 20 "शुभम - कहीं दीप जले कहीं दिल"(पार्ट -२०)इंसान के स्वभाव को... बैरी पिया.... - 52 अब तक: शिविका ने अपनी साड़ी संभाली और वह भी उनके पीछे जाने ल... तेरी मेरी यारी - 7 (7)अगले ही दिन सब इंस्पेक्टर राशिद एक हवलदार के साथ... इश्क दा मारा - 23 बंटी की बाते सुन कर यूवी बोलता है, "मुझे क्या पता कि इसने मु... श्रेणी लघुकथा आध्यात्मिक कथा फिक्शन कहानी प्रेरक कथा क्लासिक कहानियां बाल कथाएँ हास्य कथाएं पत्रिका कविता यात्रा विशेष महिला विशेष नाटक प्रेम कथाएँ जासूसी कहानी सामाजिक कहानियां रोमांचक कहानियाँ मानवीय विज्ञान मनोविज्ञान स्वास्थ्य जीवनी पकाने की विधि पत्र डरावनी कहानी फिल्म समीक्षा पौराणिक कथा पुस्तक समीक्षाएं थ्रिलर कल्पित-विज्ञान व्यापार खेल जानवरों ज्योतिष शास्त्र विज्ञान कुछ भी क्राइम कहानी शेयर करे कर्मो का फल (18) 438 2.7k 3 कहानी का सारांश:- इस कहानी में मुख्य भूमिका पिता के रूप में दीनानाथ की है। अपने आदर्शो के लिये दीनानाथ प्रसिद्ध हैं। दीनानाथ के बाद एक और अहम भूमिका उनके छोटे पुत्र हरिनाथ की है। हरिनाथ अपने पिता के आदर्शो और उनके द्वारा दिये संस्कारों में अपना जीवन व्यतित करते है। और अंत में अपने कर्मोे के अनुरूप अपने जीवन का सुख भोगते है। सबक के तौर पर कहानी में एक और भूमिका दीनानाथ के बडे पूत्र बंशीनाथ की है। बंशीनाथ पिता के आदर्शों को ठुकरा कर धन दौलत के मोह में वशीभूत हो कर अपने कर्माे का फल भोगते हैं।हरिपुर नामक एक गाॅव है। गाँव में दीनानाथ नाम का एक वरिष्ट किसान है। दीनानाथ बहुत दयालू और इमानदार प्रवृति के व्यक्ति है। दीनानाथ के दो पूत्र है पूत्रों को जन्म देने के बाद उनकी पत्नि निर्जला चल बसी। पूत्रों का लालन पालन दीनानाथ ने स्वयं किया।दीनानाथ अपनी बुद्धिमत्ता व उदारता के लिये अपने गाँव के साथ अन्य गाँवों में जाने जाते थे। इसीलिये गाँव वालों ने उन्हें गाँव का मुख्या नियुक्त किया। कुछ समय बाद बंशीनाथ व हरिनाथ की शिक्षा समाप्त हुई। बंशीनाथ अपने पिता के साथ उनके व्यवसाय में लेखा पढ़ी के कार्य में रूचि लेेने लगा, किन्तु दीनानाथ के छोटे बेटे का मन उनके व्यवसाय में नही लगा। वो कई बार उनके दफ्तर से भाग जाता और घूमने निकल जाता। घूमते-घूमते वो लोगों से मिलते और उनकी समस्याओं को सुनते और उनका हल निकालने की कोशिश करते। जैसे-जैसे समय बीतता गया बंशीनाथ ने अपने पिता का सारा कारोबार अपने हाथों मे सम्भांल लिया। उनका कारोबार अच्छा चलने लगा। किन्तु दीनानाथ के मन में फिर भी एक चिन्ता थी। जो उनके चहरे पर साफ-साफ झलकती थी।प्रातः काल का समय है, चिड़ियाँ चँह चँहा रही है और हवाओं में थोड़ा नमी है। सूरज अपनी लालीमा से नन्हे-नन्हे पौधों में पड़ी ओंस की बुंदों को अपनी लाली से ऐसे सुशोभित कर रहा है मानों पौधों में प्रकर्ति ने मोतियां बिखेर दी हैं। रोज की तरह दीनानाथ अपने बाग में शाल लपेटे हुए टहल रहे हैं। तभी इतने में उनके एक मुनिम (मुलचंद) उनके पास आयें। मालिक को चिन्ता में देख कर बोले ‘‘क्या बात है, मालिक आज आप बड़े परेशान लग रहे हो? ‘‘मुलचंद की बात सुनकर दीनानाथ पहले कुछ देर के लिये खामोश रहे और आखों से चश्मा उतारा फिर बोले। ‘‘सब ठीक है मुलचंद।‘‘मुलचन्द- ‘‘ सब ठीक है पर आपके चहरे की खामेाशी कुछ दर्शा रही है कुछ ऐसा है जो ठीक नही है मालिक। ‘‘मुलचन्द की बाते सुनकर दीनानाथ मुस्कुराये और बोले ‘‘आप ने सत्य कहा मुलचंद।‘‘दीनानाथ – ‘‘मैं हरिनाथ की हरकतों से चिन्तित हूँ, इस लडके को अपने भविष्य के प्रति कोई सुध-बुध नही है न जाने अपना जीवन कैसे व्यतीत करेगा।मुलचन्द –‘‘ मालिक, छोटे मालिक के बारे में आपका सोचना व्यर्थ नही है। आपकी इस चिन्ता का मेरे पास एक हल है।‘‘दीनानाथ- ‘‘ बोलो मुलचंद क्या हल है?‘‘मुलचंद – ‘‘ मालिक आपके दोनो पुत्र अब बड़े हो गये हैं और अपनी सारी जिम्मेदारियों से परिचित हैं। आप दोनों पुत्रों का विवाह करवा दीजिये।‘‘इतना कह कर मुलचन्द ने इज़ाजत ली।मुलचन्द की बातें दीनानाथ रात भर सोचते रहे, अगले दिन प्रातः उन्होने दोनों पुत्रों का विवाह करने का निर्णय लिया। कुछ समय पश्चात दीनानाथ ने एक अच्छा सा मर्हुत देख कर दोनों पुत्रों का विवाह बड़ी धुम-धाम से किया। सब अच्छा चल रहा था, लोगों के प्रति मन में उदार भावना व परिवार के प्रति जिम्मेदारियां निभानें में दीनानाथ ऐसे व्यस्त रहतें कि छोटी मोटी बिमारियों को नज़र अंदाज करते रहे। धीरे-धीरे दीनानाथ को बिमारियों ने ऐसे जकड़ लिया कि अचानक उनका देहांत हो गया। उनका सारा कारोबार अब बंशीनाथ देखने लगें। बडें भाई के प्रति हरिनाथ के मन में एक सम्मान भावना थी। जैसा बंशीनाथ कहते हरिनाथ उनकी आज्ञा का पालन करते।एक दिन छल कपट कर बंशीनाथ ने झूठी वशीयत बना कर अपने छोटे भाई को घर से निकाल दिया। यह सब देखकर बंशीनाथ की पत्नी को बहुत दुख हुआ वह बंशीनाथ से बोली ‘‘आप कैसे भाई हो! दौलत के लालच में आकर आपने अपने ही भाई को घर से निकाल दिया। कुछ सीखो अपने छोटे भाई से, आपकी खुशी के लिये उन्होनें घर त्याग दिया। बंशीधर की आंखों में दौलत का ऐसा चश्मा लगा की वह अपने रिश्ते नाते सब भुल गया। इधर हरिनाथ अपनी पत्नी के साथ अपना सब कुछ त्याग कर, दूर शहर में एक मंदिर में पहुँचे। मंदिर में पुजारी ने दोनों को देखा और मन में उन दोनों कें विषय में विचार किया ‘‘वेश भुषा में तो ये किसी बड़े घरानें के लोंग जान पड़ते हैं। फिर कोशिश कर के दोनों (पति-पत्नी) से पूछा ‘‘आप लोग कौन हैं?”क्या मैं इतनी रात को मन्दिर आने का कारण जान सकता हूँ?हरिनाथ ने अपनी व्यथा पुजारी को सुनाई। हरिनाथ की बाते सुनकर पुजारी का मन भर आया और उसने हरिनाथ और उसकी पत्नी को मंदिर के धर्मशाला में शरण दी और कहा बदले में आप दोनों को मंदिर परिसर की सेवा करनी होगीं। हरिनाथ मुस्कुरायें और सहमत हो गयें। हरिनाथ मंदिर में रहने लगें और मंदिर परिसर के अनुसार कार्य करने लगें उनकी पत्नी भी फुलों की माला व मंदिर के दीये बना कर दोनों अपना जीवन-यापन करने लगे।प्रातः काल का समय है मंदिर में पुजा अर्चना चल रही है, भक्तों का आवागमन जारी है पूजा समापन होने के बाद हरिनाथ ने सभी भक्तों में प्रसाद वितरण किया। भक्तगण अपने घरों को वापस जाने लगें तभी हरिनाथ को मंदिर में एक बडा संदूक दिखाई दिया, हरिनाथ ने संदूक उठाया और देखा संदूक में एक बड़ा ताला लगा था। हरिनाथ ने उसे मंदिर परिसर को सौप दिया अगले दिन रोज की तरह पूजा अर्चना हुई, सभी भक्तगण आयें और प्रसाद ग्रहण कर चले गये। किन्तु उस दिन संदूक लेेने कोई नही आया तभी हरिनाथ ने मंदिर परिसर के सभी लोगों को अज्ञात संदूक के बारें में अवगत कराया। यह सब सुनकर पुजारी को हरिनाथ पर हर्ष हुआ और पुजारी ने सभी के सामने हरिनाथ को मंदिर परिसर का प्रबन्धक नियुक्त किया।सांय काल का समय है मंदिर मे संधा पूजन का समय शुरू हुआ, पूजा सम्पन्न हुई प्रसाद वितरण कर हरिनाथ अपने कक्ष में आतें हैं।कक्ष में बैठ कर हरिनाथ सोच में डुबे हुये हैं। तभी उनकी पत्नी मंगला उनके पास आती है, और उनसे पुछती है ‘‘अब तो प्रभु की कृपा से सब कुछ ठीक हो गया है, आप किस विषय को लेकर चिन्तित हैं?मंगला की बात सुनकर हरिनाथ बोले ‘‘प्रभु की कृपा से पहले भी जीवन व्यतीत कर रहे थे, अभी भी कर रहे हैं, किन्तु चिन्ता का विषय यह संदूक है। जिस किसी का भी यह होगा, ना जाने वह कैसी दशा में होगा।‘‘अगले दिन प्रातः हरिनाथ ने मंदिर परिसर में बैठक बुलाई और संदूक के विषय में चर्चा की। ‘‘जिस किसी का यह संदूक है, हमें उस व्यक्ति तक हर परिस्थिति में संदूक को उसके पास पहुँचाना है।‘‘ सभा में बैठे सभी के सम्मुख हरिनाथ ने अपनी बात रखी। संदूक के विषय में मंदिर की दीवारों में पोस्टर लगायें गयें, जगह-जगह संदेश भेजा गया।दोपहर का समय है तभी संदूक वाला साहुकार मंदिर में आया और माँ के चरणों में रोने लगा। साहुकार को देखकर हरिनाथ उसके पास गयें और उसको पानी पिलाया और विनम्र भाव से पुछा ‘‘आप कौन हैं ? आप क्यों दुखी हैं?‘‘साहुकार ने दुःखी मन से अपनी व्यथा सुनाई, ‘‘श्रीमान मैें एक साहुकार हूँ। लोगों का धन व आभुषण मेंरे पास जमा रहता हैं। उसी जमा किये हुये कुछ आभुषण और धन का एक संदूक न जाने मेैं कहाँ भुल गया।‘‘ धीरज बधाते हुए हरिनाथ ने साहुकार से संदूक की पहचान पूछी।साहुकार -‘‘मेरे पास संदूक की चाबी है और संदूक में एक मेरे पत्नी का हीरों का हार भी है। जिसमें 12 मोती और 3 हीरे जड़ें हैं। ‘‘साहुकार की बात सुनकर हरिनाथ ने संदूक मंगवाया और मंदिर परिसर के सभी लोगों के सम्मुख संदूक को खुलवाया। वह संदूक साहूकार का ही था उसमें 12 मोती और 3 हीरों से जड़ा हार भी था। हरिनाथ ने संदूक साहुकार का सौंपा।संदूक पाकर साहुकार की खुशी का ठिकाना नही रहा। साहुकार ने संदूक से कुछ आभुषण व गहने इनाम के रूप में हरिनाथ को भेंट करना चाहा किन्तु हरिनाथ ने उन्हें स्वीकार करने से इनकार कर दिया। तभी हरिनाथ ने उन आभूषणों में से एक सोने का सिक्का उठाया और मंदिर में माता रानी के चरणों में रख कर बोले ‘‘यदि मुझे इनाम की आवश्यकता होती तो, मैं पूरा संदूक ही अपने पास रख लेता। ये जिसकी अमानत है कृप्या आप उन्हें लौटा दीजिये। इसी में मेरी व मंदिर परिसर की खुशी है। यह सब सुनकर मंदिर मे मौजूद सभी लोग हरिनाथ की जय जय कार करने लगें।साहुकार ख़ुशी-ख़ुशी से अपने नगर लौट गया।फिर क्या था, हरिनाथ और मंगला अपना जीवन ख़ुशी-ख़ुशी यापन करने लगे। हरिनाथ ने अपने शब्दों व् अपने व्यवहार से लोगों का मन मोह लिया। कुछ समय बाद उन्हें शहर वाशियों ने नगर प्रमुख नियुक्त कर दिया।उधर धन के मोह में वशीभूत बंशीनाथ का कारोबार धीरे-धीरे डूबने लगा। व्यापार के लिये महाजनों से लिया ऋण समय पर वापस न करने पर बंशीनाथ कर्ज में डूब गया। धीरे-धीरे वह धन हीन हो गया।अब क्या था, बंशीनाथ के परिवार की स्थिति भूखों मरने वाली हो गई। बच्चे भूख से बिलबिलाने व तड़पने लगे। अपने परिवार के ऐसी स्थिति बंशीनाथ से देखी नहीं गई। और बंशीनाथ ने अपना गाँव छोड़ दिया। वह अपने परिवार के साथ शहर की तरफ आ गया।किस्मत का लेखा कोई नहीं बदलता। तभी चलते-चलते बंशीनाथ अपने परिवार के साथ उसी मन्दिर में पहुँचा, जहाँ कभी हरिनाथ रहा करते थे। संजोग वश उस दिन हरिनाथ के बेटे का जन्मदिन था, इस उपलक्ष्य में हरिनाथ ने मन्दिर में गरीबों के लिये भण्डारे का आयोजन किया था। भूख के लालच में बंशीनाथ अपने परिवार के साथ उस भण्डारे में भोजन ग्रहण करने के लिये बैठा। भोजन वित्रण शुरू हुआ। तभी बंशीनाथ के पास भोजन परोशने के लिये हरिनाथ पहुँचे। छोटे भाई को अपने पास आता देखकर बंशीनाथ ने अपना मुँह छिपाने की कोशिश कर ही रहे थे कि हरिनाथ ने अपने बड़े भाई को पहचान लिया और उनके चरण-स्पर्श किये। बंशीनाथ अपने किये पर बहुत शर्मिन्दा थे, वो खड़े होकर रोने लगे पर हरिनाथ ने अपने बड़े भाई को गले से लगा लिया। दोनों भाइयों ने भंडारा अपने हाथों से गरीबों को खिलाया। फिर हरिनाथ ने अपने हाथों से अपने बड़े भाई को भोजन कराया।“जीवन में प्रतिष्ठा पैसे से नहीं,इंसान के आचरण से होती है।”हरिनाथ अपने आचरण के लिये जाने जाते थे। दुःखों का भी उन्होंने अपने जीवन में संयम से सामना किया ।इसलिए कर्म कोई भी करो फल की प्राप्ति इंसान के कर्म के अनुरूप होती है। © धीरेन्द्र सिंह बिष्ट Download Our App