शनिवार का दिन DHIRENDRA BISHT DHiR द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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शनिवार का दिन

कहानी का सारांश :
इस कहानी में केवल एक शनिवार के दिन का वर्णन किया है। कहानी में मुख्य भूमिका एक नन्हे बालक की है। जो अपने बालपन के कारण अपनी पढ़ाई के प्रति थोड़ा लापरवाह है, किन्तु बालक के मन में पिता के प्रति उनकी आज्ञा का पालन और उनके अनुशासन का डर है, उन सब का वर्णन लेखक ने कहानी में किया है।

दूसरी भूमिका पथ-प्रदर्शन के तौर पर बालक के पिता भानु प्रताप की है। भानु प्रताप अपने बेटे को बहुत प्रेम करते हैं, किन्तु वह अपने पुत्र को ज्यादा लाड़ नहीं लड़ाते, वह इस बात से भली भाँति परिचित है ज्यादा लाड़ लड़ाने से उनका बेटा बिगड़ सकता है। इसीलिये बेटे के प्रति मन में प्रेम की भावना और मुँख पर एक कड़ा अनुशासन रख वह अपना किरदार निभा रहे हैं / जिससे उनका बेटा आगे चल कर एक अच्छे पथ पर अपनी पहचान कायम करता है।

शनिवार का दिन है। हल्की सी शीत लहर बह रही है। आसमान साफ है और पक्षी रोज की तरह अपने समूह में अपने भोजन की तलाश में निकल रहे हैं।

मैं एक टक गर्दन ऊपर किये उनको देख रहा हूँ। और गर्दन घुमा कर मुस्कुरा कर उनको देखता हूँ, यह बात सोच कर मन ही मन निराश भी हो रहा हूँ, ”रोज की तरह आज भी स्कूल जाना है” जो मुझे बिकुल अच्छा नहीं लगता|


माँ ने स्कूल के लिये तैयार किया। किन्तु मेरा मन स्कूल जाने का नहीं था। तभी मैने बुखार का बहाना बना लिया, पर मेरा झूठ पापा के सामने कहाँ चलने वाला था।


पापा ने गुस्से से कहा- ”स्कूल जाता है या मैं ले जाऊ।”


मेरे लिये इतना ही सुनना काफी था, माँ ने स्कूल बैग और मेरा टिफिन दिया और मैं स्कूल के लिये चल दिया। ये समय बहुत मासूमियत और सबसे बेहतर होता है जीवन में, न ज्यादा सोचना बस अपने में मस्त रहना.

आगे जा कर रास्ते में मेरे स्कूल के और भी दोस्त मिले, और उनमें से दीपक मेरा बहुत प्रिय मित्र था।


दीपक-”मास्टर जी ने होम वर्क दिया था, कविता याद की या फिर भूल गया।”
तभी मैं अचानक दीपक की बात सुनकर और ज्यादा डर गया और मन ही मन सोचने लगा, ”आज फिर से स्कूल में टीचर द्वारा मुझे फिर से मुर्गा बनना पड़ेगा।"
इतने में दीपक बोला, ”क्या सोच रहा है? कुछ पूछा था, उसका जवाब दिये बिना कहा खो गया।
रोज की तरह आज भी मेरा जवाब नहीं था। पढ़ने में मैं बहुत आलसी था.
इतने में दीपक-”जल्दी चल, स्कूल के लिये देर हो रही है।”
मेरा मन स्कूल जाने का बिल्कुल नहीं था, और मैं दीपक से बोला, ”क्यों ना आज पास के तालाब में मछलियाँ पकड़ने चलें।”
दीपक- ”अरे नहीं नहीं मास्टर जी के हाथ मुझे नहीं पिटना है, तू जा मुझे स्कूल जाना है।”
दीपक के बात सुनकर मैं बोला, ”अरे कल रविवार है, मास्टर जी सोमवार तक भूल जाएँगे।”
पहले तो दीपक मेरी बात को नकारता रहा, फिर किसी तरह मैने उसे मना लिया।आखिर वो मेरा सबसे प्रिय दोस्त जो था। तालाब के पास पुरे दिन खेलते रहे। जैसे-जैसे दिन ढलने लगा अचानक फिर घर की याद आई।
”चल अब घर चल शाम होने को है” ऐसा मैं दीपक से बोला।
आज में मन ही मन खुश था, मुर्गा बनने से बच गया।

पर ये मेरी ख़ुशी तो सिर्फ सपनों के जैसी थी, जो सोचने में बहुत आसान होते हैं, पर उनकी हकीकत कुछ और ही होती है, जब घर पहुँचा तो मास्टर जी और आस पड़ोस के दो-चार लोगों को घर में पाया देख, मेरे पैरों तले जमींन खिसक गई।

ऐसा लग रहा था पता नहीं क्या हो गया और क्यों ये सब किया इससे तो मुर्गा बनना ही अच्छा था, बचपना और बचकानी हरकत सही और गलत का फरक कहाँ तय कर पाती है...,

(उस दिन को मैं आज भी आज तक नहीं भुला, जब भी किसी स्कूल के बच्चे को देखता हूँ, तो एक पल के लिये अपने बीते दिनों में खो जाता हूँ।) क्या लाइफ थी और मैंने कैसे जिया अपने अतीत को, और बहुत से ऐसे दिन हैं, जो मैं आपको अगली कहानियों में सुनाऊंगा, पर एक शर्त है कहानी जैसी भी लगे दिल से अपनी प्रतिकिया जरूर देना.

आगे....,

मास्टर जी- ” बेटा कहाँ थे, आप और दीपक पुरे दिन?” मैं चुप्पी साध के अपने जूते को देख रहा था।
तभी पापा गुस्से में, ”मोहित बताओगे या फिर छड़ी निकालूँ”। पापा के डर के कारण मैने सारी बात सच-सच बता दी।

एक उनका ही तो खौफ था मन में, बस आखों से बात करते थे, पापा का गुस्सा आज सोच कर हंसी भी आती मन ही में, पर माँ- बाप का तरीका बच्चों को बचपन में कहाँ समझ आता है.

फिर क्या था, मास्टर जी ने दो-चार ज्ञान की बात बताई और समझाया। फिर सभी लोग अपने अपने घर को चले गये। और मैंने भी सोचा अब तो सब ठीक है, मैं भी, बिकुल मस्त हो गया, जैसे कबूतर बिल्ली को देख कर आखें बंद कर लेता है, और सोचता है, बिल्ली मुझे अनदेखा कर रही, मैं कबूतर के जैसे ही मुर्ख निकला।

इधर पापा को मेरी हरकतों से बहुत गुस्सा आया था। पापा ने मेरी बहुत पिटाई की। अभी तक याद करने वाली मार है, आज जैसे नहीं,

मैं बहुत शांत था, पापा भी और ऐसे प्यार से बात करने लगे शायद मानो उनको मुझे पीट कर बहुत बुरा लगा हो।

और क्यों नहीं लगता माँ- बाप बच्चों का अनहित थोड़ी चाहते हैं, बच्चों को कम समझ होती है इसलिए ये तरीका माँ-बाप अपनाते हैं, फिर क्या था पापा ने बहुत सारी बातें समझाने लगे।
उस दिन से मैने स्कूल का कोई भी दिन गोल नहीं किया। फिर मन भी नहीं हुआ, और मुर्गा भी शायद ही बना फिर,

समझ की कमी होने से तब मुझे स्कूल जाना और घर पर पढ़ना गन्दा लगता था। तब मुझे ना ही समय का अहसास था और ना ही मेरी पढ़ाई का। किन्तु आज सोचता हूँ, कि मम्मी-पापा ने जो भी किया वो मेरे आज और आने वाले भविष्य के लिये किया।

”समय कभी भी इंसान को वर्तमान का अहसास नहीं कराता,
किन्तु भविष्य, भूतकाल की बातों पर हमें जरूर पश्चाताप कराता है।”(धीर)


पापा का अनुशासन मेरे लिये एक पथ-प्रदर्शक साबित हुआ। मेरे साथ पढ़े बच्चे उनके मम्मी पापा, मेरे मम्मी पापा का हमारे प्रति प्यार अनुशासन को आज बखूभी मानते हैं....,
© धीरेन्द्र सिंह बिष्ट