दहलीज़ के पार - 2 Dr kavita Tyagi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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दहलीज़ के पार - 2

दहलीज़ के पार

डॉ. कविता त्यागी

(2)

पुष्पा दलित जाति की लड़की थी। गरिमा की समवयस्क होते हुए भी वह कक्षा एक मे पढ़ती थी, जबकि गरिमा कक्षा तीन मे पढ़ती थी। उसकी पढ़ाई के पीछे भी एक रोचक कहानी थी, जो गरिमा ने रची थी। लगभग डेढ़—दो वर्ष पूर्व सयोगवश पुष्पा की मित्रता गरिमा साथ हुई थी। पूजा की माँ गरिमा के घर पर अनाज आदि साफ करने के लिए तथा घर की अन्य सफाई करने के लिए आया करती थी। एक दिन वह भी अपनी माँ के साथ गरिमा के घर आ गयी। जिस समय पुष्पा वहाँ आयी थी, उस समय गरिमा अपने विद्यालय से मिला हुआ गृहकार्य कर रही थी। अपनी समवयस्क गरिमा को पुस्तको मे मग्न देखकर पुष्पा भी उसके पास आने लगी, परन्तु उसकी माँ ने उसको रोक दिया। माँ द्वारा रोके जाने पर पुष्पा उस समय तो रुक गयी, किन्तु उसके हृदय मे एक उत्कठा जाग्रत हो चुकी थी कि वह गरिमा से मिले और देखे कि पुस्तको मे क्या होता है। अपनी उत्कठा के चलते अब वह प्रतिदिन अपनी माँ के साथ गरिमा के घर पर आने लगी। प्रतिदिन जिस समय पुष्पा अपनी माँ के साथ वहाँ पर आती थी, गरिमा अपनी पुस्तको मे ही मग्न रहती थी। एक दिन अवसर पाकर पुष्पा ने अपनी माँ के साथ काम मे हाथ बँटाने के बहाने ही गरिमा से भेट की और उससे निवेदन किया कि वह उसको अपनी पुस्तके दिखाये कि उनमे क्या—कैसा होता है ? गरिमा अभी तक उस दुनियाँ से भली—भाँति परिचित नही थी, जिसमे बच्चो के पढ़ने लिखने की सुविधा नही होती है। वह पुष्पा के निवेदन को सुनकर आश्चर्य से बोली— तू स्कूल नही जाती है ?

नही! मै कभी स्कूल नही गयी !

तेरे पास किताबे भी नही है ?

नही ! तुम मुझे अपनी किताब दिखाओगी ना ?

हाँ !

पर मेरी माँ मुझे तुम्हारे पास आने ही नही देती है ! तुम यहाँ पर बाहर बैठकर ही मुझे अपनी किताब दिखा देना ! मै तुम्हारे कमरे मै नही जाऊँगी, तो माँ डाँटेगी भी नही। मेरी माँ तुम्हे कुछ नही कहेगी !

तुम्हे तो पढ़ना भी नही आता होगा ? गरिमा ने अपनी शका व्यक्त की।

पढ़ना कैसे आयेगा, जब मेरे पास किताबे ही नही है ! तुम मुझे पढ़ना सिखा सकती हो ? तुम मुझे पढ़ना सिखाओगी, तो मै तुम्हारा सारा काम करुँगी ! मेरा मन होता है, मै भी पढ़ना सीखकर मोटी—मोटी किताबे पढ़ूँ !

हाँ, मै तुझे पढ़ना सिखा दूँगी, पर तुझे स्कूल मे दाखिला लेना पड़ेगा ! जब तुझे स्कूल मे काम मिलेगा, तभी तू मोटी—मोटी किताबे पढ़ सकती है। मै तेरा सारा काम करवा दूँगी, तू चिन्ता मत कर ! मेरी माँ स्कूल मे दाखिला नही करायेगी, जो कुछ तू कहेगी, मै सारा काम कर दूँगी ! बस, तुम मुझे पढ़ना सिखा देना ! पुष्पा ने प्रार्थना की मुद्रा मे कहा!

तेरी माँ स्कूल मे दाखिला क्यो नही करायेगी? गरिमा ने असमजस भाव से पूछा। उसने ऐसी कल्पना भी नही की थी कि कोई बच्चा पढ़ना चाहता है और उसके माता—पिता उसे स्कूल मे दाखिला न दिलाये। गरिमा के प्रश्न को सुनकर पुष्पा ने बहुत ही भोलेपन से उसके समक्ष अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए कहा— माँ कहती है कि मै बड़ी हो गयी हूँ, इसलिए घर का काम सीखकर उनके काम मे सहायता करूँ!

ऐसे तो मेरी माँ भी कहती है ! सभी की माँ कहती होगी ! पर मेरी माँ मुझे पढ़ने के लिए स्कूल नही भेजेगी!

ठीक है, जब तू अपनी माँ के साथ हमारे घर आया करेगी, तब मै तुझे यहाँ बैठकर या छत पर बैठकर पढ़ना सिखा दूँगी। मै अपनी माँ से तथा पिताजी कहूँगी कि वे तेरी माँ से कहकर स्कूल मे तेरा दाखिला करा दे।

देख लेना, माँ तब भी नही करायेगी!

तेरी माँ, मेरे माँ और पिताजी की बात को नही टाल पायेगी। यदि एक बार माँ—पिताजी ने मेरी बात मान ली, तो समझ ले, तेरा दाखिला हो गया !

गरिमा की बात सुनकर पुष्पा प्रसन्नचित्‌ होकर अपनी माँ के साथ काम मे व्यस्त हो गयी और अपनी इच्छाओ की रेखाओ मे मधुर—मधुर कल्पनाओ के रग भरने लगी। गरिमा के सकारात्मक व्यवहार ने उसे आज ऐसी प्रसन्नता प्रदान की थी, जिसकी उसको आशा भी नही थी। उसने निश्चय किया कि वह काम करने के बहाने सदैव माँ से पहले आया करेगी और पहले आकर गरिमा से पढ़ना सीखेगी। अपने निश्चय के अनरूप वह माँ से पहले आकर काम भी करती थी और कुछ समय पढ़ना भी सीखती थी। जब माँ आती थी, तब माँ के साथ काम मे हाथ बँटाती थी। माँ से अनुमति लेकर काम समाप्त करने के पश्चात्‌ भी वह कुछ समय तक पढ़ने के लिए रुक जाती थी। आरम्भ मे पुष्पा की माँ ने उसका विरोध किया था, लेकिन गरिमा के आग्रह पर उसकी माँ ने पुष्पा की माँ को समझाया कि पढ़ने मे कोई हानि नही है, लाभ ही है। काम करते—करते वह पढ़ना सीख जायेगी, जो उसके जीवन मे काम आयेगा, तो वह मान गयी। अपनी बेटी को पढ़ना सीखते हुए देखकर पुष्पा की माँ प्रफुल्लित हो जाती थी, इसलिए जब तक वह गरिमा से पढ़ना सीखती थी, तब तक उसकी माँ भी वही पर रुकने लगी थी।

गरिमा के परिश्रम से तथा अपनी लगन से पुष्पा अप्रत्याशित गति से पढ़ना सीख रही थी। तीव्र गति से पुष्पा द्वारा सीखने का श्रेय उसके परिवार वाले और गरिमा के परिवार वाले पुष्पा को न देकर गरिमा को दे रहे थे। छोटी सी आयु मे निर्धन और अशिक्षित परिवार की लड़की को शिक्षित करने का श्रेय पाकर गरिमा का उत्साह उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त कर रहा था। एक दिन उसने पुष्पा की माँ को तथा अपनी माँ को साथ लेकर अपने पिता से आग्रह किया कि वे पुष्पा का दाखिला स्कूल मे करा दे। गरिमा का आग्रह और पुष्पा की पढ़ाई मे रुचि देखकर गरिमा के पिता ने आश्वासन दिया कि वे स्कूल के हैडमास्टर जी से मिलकर पुपा के दाखिले के लिए कह देगे और उसका शुल्क भी माफ करा देगे।

गरिमा के प्रयास से पुष्पा की लगन को सहारा मिल गया था। दाखिले के कुछ समय पश्चात्‌ ही उसका अक्षर—ज्ञान और अक—ज्ञान देखकर अध्यापक ने उसको अगली कक्षा मे भेज दिया। अपने दाखिले तथा शिक्षा मे उन्नति को लेकर पुष्पा अपनी लगन की अपेक्षा गरिमा का आभार अधिक मानती थी। छोटी आयु तथा औपचारिक व्यवहार करने की अभ्यस्त न होने के कारण उसने कभी शब्दो मे गरिमा का आभार व्यक्त नही किया, परन्तु अपने व्यवहार से वह कदम—कदम पर गरिमा को आभास कराती थी कि वह उसकी सच्ची मित्र ही नही, मित्र से बढ़कर है। वह प्रायः विद्यालय से मिला हुआ गृह कार्य गरिमा के घर पर आकर ही करती थी और घर मे तथा विद्यालय मे सदैव गरिमा के एक आदेश पर कुछ भी करने के लिए तैयार रहती थी। गरिमा भी सच्ची—मित्रता का निर्वाह करने के लिए सदैव तैयार रहती थी। अपनी छोटी—सी आयु मे वह पुष्पा की समवयस्क होते हुए भी वह उसकी मार्गदर्शक भी थी, सह—अध्यापक भी थी और अधिवक्ता भी थी।

गरिमा और पुष्पा दोनो मित्रता के नये प्रतिमान स्थापित कर रही थी। वे दोनो अपनी छोटी—सी आयु मे बड़ो—बड़ो के लिए उदाहरण बनकर प्रस्तुत थी, तो कुछ लोगो के विरोध का केन्द्र भी बनी हुई थी। कुछ लोग एक सवर्ण जाति की लड़की द्वारा दलित जाति की लड़की को इतना मुँह लगाने के पक्ष मे नही थे, जितना गरिमा और उसका परिवार पुष्पा को लगाते थे। परन्तु गरिमा का परिवार इन सब बातो पर ध्यान न देकर केवल औचित्य—अनौचित्य का विचार करके अपने कार्य—व्यवहारो को अजाम देता था, इसलिए गरिमा और पुष्पा की मित्रता दिनो दिन उनकी आयु के अनुरूप प्रगाढ़ होती जा रही थी। परन्तु ईश्वर को उनकी मित्रता का लम्बे समय तक चलना स्वीकार नही था। विधि ने ऐसा विधान बनाया कि पुष्पा का चमकता हुआ भाग्य दुर्भाग्य मे परिणत गया। गरिमा ने सोचा भी नही था कि ईश्वर पुष्पा के भाग्य को इस प्रकार दुर्भाग्य मे बदल देगा कि उसके पिता बेटी को लेकर गाँव छोड़कर जाने के लिए विवश हो जाएँगे।

परन्तु आवश्यक तो नही है कि मनुष्य जो कुछ सोचता है, वह हो जाए और जो न सोचता हो, वह नही हो! ठीक इसी प्रकार पुष्पा एक ऐसे दुष्कृत्य का शिकार हो गयी, जिसके विषय मे किसी ने सोचा भी नही था। शाम के लगभग पाँच बजे थे। उस दिन गरिमा विद्यालय नही गयी थी। उसका स्वास्थ्य ठीक नही था, परन्तु उसमे अपनी पढ़ाई के प्रति इतनी लगन थी कि चार बजते ही पुष्पा की प्रतीक्षा करने लगी थी कि वह आकर उसको विद्यालय से मिले हुए गृहकार्य के विषय मे बतायेगी। पहले भी अनेक बार ऐसा हो चुका था कि यदि गरिमा किसी कारणवश विद्यालय नही जाती थी, तो पुष्पा उसकी सहपाठी और मित्र—सखी से सम्पूर्ण गृहकार्य—विवरण लिखवाकर ले आती थी और विद्यालय लौटते समय अपने घर जाने से पहले गरिमा के घर आकर उसको दे आती थी। अतः उस दिन भी चार बजते ही गरिमा घर के द्वार पर खड़ी होकर पुष्पा की प्रतीक्षा करने लगी थी। प्रतीक्षा करते—करते पाँच बज गये थे, किन्तु न तो उस दिन पुष्पा आयी थी और न काम करने के लिए उसकी माँ आयी थी। शाम के समय प्रतिदिन पुष्पा की माँ गरिमा के घर पर खाना लेने के लिए अवश्य ही आती थी और सूर्य शीघ्र छिप जाने के कारण सर्दियो मे सदैव पाँच बजे के लगभग आ जाती थी, परन्तु उस दिन नही आयी। इन सभी बाताे को सोचकर गरिमा की बेचैनी बढ़ती जा रही थी।

पुष्पा के न आने से गरिमा व्याकुल थी ही, उसकी माँ के न आने से और भी अधिक व्याकुल थी कि क्या कारण हो सकता है उसके न आने का ? वह बार—बार सोच रही थी कि यदि पुष्पा की माँ आयी होती, तो उनसे पुष्पा के न आने का कारण पूछ सकती थी।

तभी दरवाजे पर प्रतीक्षारत गरिमा ने देखा कि पुष्पा की जाति के चार—पाँच स्त्री—पुरुष चिन्तित—सी मुद्रा मे तेज कदमो से बातचीत करते जा रहे थे। गरिमा उनकी बातो को स्पष्ट तो नही सुन सकी थी, लेकिन उसने इतना अवश्य सुना था कि वे पुष्पा के पिता पूरनमल का नाम लेकर बाते कर रहे थे। उनकी मुखमुद्रा से चिन्ता और पीड़ा के मिले—जुले भाव प्रकट हो रहे थे, इसलिए गरिमा ने स्वतः ही अनुमान लगाया कि अवश्य ही पुष्पा के परिवार साथ कोई अनहोनी हो गयी है।

पुष्पा का परिवार किस अनहोनी का शिकार हुआ है ? यह जानने के लिए गरिमा अपने घर के दरवाजे पर ही खड़ी रही। वहाँ खड़े—खड़े उसको एक घटा से अधिक हो चुका था, इसलिए बार—बार माँ का आदेश आता था कि घर के अन्दर आकर बैठे और अपना काम करे। माँ का आदेश पाकर वह बार—बार घर के अन्दर जाती थी और बार—बार पुनः बाहर लौट आती थी। थोड़ी देर पश्चात्‌ गरिमा ने देखा कि जिस दिशा मे पुष्पा की जाति के वे स्त्री—पुरुष गये थे, उसी दिशा से कुछ अन्य स्त्रियाँ आ रह थी। वे स्त्रियाँ कारुणिक मुद्रा मे कह रही थी— अब तो उसका भगवान ही मालिक है कि जान भी बच जाए और पूरी तरह से ठीक भी हो जाए !

एक स्त्री के पश्चात्‌ दूसरी ने कहा—

और क्या ! देखा नही था, कैसी खून से लथपथ बेहोश पड़ी थी ! जहाँ पड़ी थी, धरती भी लाल—लाल हो गयी थी !

इन स्त्रियो की बातचीत सुनकर गरिमा का हृदय बैठने लगा। उसने शीघ्र ही उनकी ओर मुखातिब होकर पूछा— काकी, क्या हो गया ? किसकी बात कर रही है आप ?

वही, पूरनमल की बेटी, जो तुम्हारे घर काम करने आती है। उनमे से एक स्त्री ने चलते—चलते गरिमा की बात का उत्तर दिया। कहाँ है पुष्पा ? क्या हुआ है उसके साथ ? गरिमा ने उनसे पूछा। गरिमा के प्रश्न का उनमे से किसी उत्तर नही दिया। वे आगे

निकल गयी थी और गरिमा अपने प्रश्न के साथ वही पर एक क्षण के लिए खड़ी रह गयी। अगले क्षण वह कुछ सोचे—समझे बिना चिल्लाकर माँ से बोली—

माँ मै अभी आ रही हूँ !

कहाँ जा रही है ?

कही नही, बस दुकान तक ! माँ कोई दूसरा प्रश्न पूछे, इससे पहले ही गरिमा घर से निकलकर उस दिशा मे चली गयी, जिधर से वे स्त्रियाँ आयी थी। कुछ दूर चलने के पश्चात्‌ गरिमा ने देखा कि उस दिशा से बहुत से स्त्रियो—पुरुषो और बच्चो का आवागमन हो रहा है। वह भी उन्ही के साथ चल दी। घटना—स्थल पर पहुँचकर गरिमा ने देखा कि वहाँ से भीड़ छँट चुकी थी। दो—चार लोग अभी तक वहाँ खड़े हुए दुर्घटनाग्रस्त पुष्पा की घायलावस्था के विषय मे परस्पर सवेदना व्यक्त करके करुणास्पद बाते कर रहे थे। वहाँ पर उस समय गरिमा ने घायल पुष्पा को तो नही पाया था, परन्तु उसको वहाँ इतना ज्ञात अवश्य ज्ञात हुआ था कि पुष्पा की दुर्दशा करने वाला किशोर नाम का किशोरवयः लड़का है। गरिमा ने वहाँ सुना था कि इतनी छोटी—सी बच्ची के साथ दुष्कर्म करने वाले किशोर को क्षमा नही किया जा सकता, उसको कठोर दड मिलना चाहिए।

गरिमा अपनी माँ से शीघ्र लौटने के लिए कहकर गयी थी इसलिए वह बहुत—सी बातो का आशय समझे बिना ही लौट आयी, परन्तु वह इतना अवश्य समझ चुकी थी कि पुष्पा के साथ कुछ अनुचित—अकरणीय घटित हुआ है, जिसका उत्तरदायी किशोर है, अतः अति स्नेह—भाव होने के कारण गरिमा के हृदय मे किशोर के प्रति घृणा उत्पन्न हो रही थी और बार—बार पुष्पा के स्वस्थ होने की ईश्वर से प्रार्थना करते हुए उसके मुख से ये शब्द निसृत हो रहे थे— भगवान किशोर को ऐसी सजा देना कि वह कभी किसी को तग न करे! गरिमा की असामान्य दशा को देखकर उसकी माँ ने कहा—

कहाँ गयी थी तू ? बताके भी नही गयी, कहाँ जा रही है ? और थोड़ी देर मे आने के लिए कहके इतनी देर कर दी आने मे ! गरिमा को अपने घर से इतनी दूर जाने की अनुमति नही थी, जितनी दूर आज वह घटना—स्थल पर पुष्पा के विषय मे सुनकर चली गयी थी। अतः उसने अपने स्वय के घटना—स्थल पर जाने की बात को छिपाकर वह सारी सूचना माँ को दे दी, जो उसने अब तक सुनी—समझी थी। गरिमा की बाते सुनकर उसकी माँ घर के बाहर दरवाजे पर आयी और वहाँ से गुजरती हुई एक स्त्री से बातचीत करके यह ज्ञात करने का प्रयास किया कि गरिमा की सूचना मे कितना सत्य है ? अपनी माँ और उस स्त्री के बीच परस्पर होने वाली बाते गरिमा ने भी सुनी थी, परन्तु जितनी बाते उस स्त्री ने बतायी थी, इतनी तो वह पहले ही सुन चुकी थी। हाँ, इस बार उसने इस बात पर अवश्य ध्यान दिया कि माँ ने अब उसको अपनी बाते सुनने से नही रोका था। शायद इसलिए कि पुष्पा गरिमा की सखी थी, या शायद इसलिए कि इस दुर्घटना की सूचना आज माँ को स्वय गरिमा ने ही दी थी। जो भी हो, आज गरिमा को उसकी माँ ने बाते सुनने से नही रोका था, पर आज बातो मे उसे पहले के समान रुचि नही थी। उसके अन्तःकरण मे एक प्रकार की व्याकुलता भर गयी थी।

गरिमा का मन—पछी उड़कर बार—बार पुष्पा के पास जा रहा था, किन्तु हृदय और आँखे पुष्पा को देखने के लिए और सात्वना देने के लिए तड़प रहे थे। अपनी तड़प मे उसने माँ से आग्रह किया कि पुष्पा को देखने के लिए उसके घर चले, किन्तु माँ ने नकारात्मक उत्तर देते हुए कहा कि न तो उन्हे पुष्पा के घर पर जाने की अनुमति है और न ही पुष्पा इस समय अपने घर पर हो सकती है, क्योकि उसको घायलावस्था मे घर न रखकर उपचार कराने के लिए अस्पताल ले जाया गया होगा ! माँ का तर्क पूर्णतः सही था, इसलिए गरिमा ने अपना आग्रह वापिस ले लिया और उसके शीघ्र स्वस्थ होने की प्रार्थना करने लगी।

गरिमा को पुष्पा के पास जाकर सवेदना व्यक्त करने का अवसर नही मिल सका था, परन्तु उसके पिता प्रतिदिन पुष्पा के पिता से मिलते थे और यथासभव उनकी सहायता कर रहे थे। गरिमा को भी वे प्रतिदिन पुष्पा के स्वास्थ के विषय मे बताते रहते थे। पहले दिन तो उसको यही पता लगा था कि उसके स्वास्थ मे सुधार नही है, लेकिन दो दिन पश्चात्‌ पुष्पा का स्वास्थ्य तीव्र गति से सुधरने लगा था। पुश्पा के स्वस्थ होने की सूचना से गरिमा का चेहरा खिल जाता था। वह कल्पना करने लगती थी कि पुष्पा स्वस्थ होते ही उसके साथ भेट करने के लिए दौड़ी चली आयेगी। गरिमा को विश्वास था कि जिस प्रकार वह स्वय पुष्पा के लिए व्याकुल है, उसी प्रकार पुष्पा भी उससे मिलने के लिए बेचैन हो रही होगी। डॉक्टर से अनुमति मिलते ही पुष्पा उसके पास आने से नही रुकेगी।

गरिमा का यह सुखद—स्वप्न वास्तविकता का रूप नही ले सका। लगभग दस दिन पश्चात्‌ गरिमा को ज्ञात हुआ कि पुष्पा पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गयी है, किन्तु उसका परिवार गाँव छोड़कर चला गया है। प्रत्येक विषय पर प्रश्न पूछने की प्रकृति वाली गरिमा ने इस विषय मे कोई प्रश्न नही पूछा कि पुष्पा के परिवार ने गाँव क्यो छोड़ दिया और वे कब लौटेगे ? कोई भी प्रश्न पूछना उस दिन गरिमा को निरर्थक प्रतीत हो रहा था। बस, एक ही बात उसके चित्‌ पर अपना आधिपत्य बनाये हुए थी— अब पुष्पा मुझसे कभी नही मिल पायेगी! पुष्पा उसकी ऐसी मित्र थी, जिसके साथ वह अपनी प्रत्येक बात साझा कर सकती थी। उसके जाने के पश्चात्‌ गरिमा के जीवन मे उसकी कमी को कौन पूरा करेगा ? यह प्रश्न गरिमा को विचलित कर रहा था। उसको पुष्पा की भी चिन्ता सता रही थी। उसके मस्तिष्क बार—बार पुष्पा को लेकर नये—नये विचार आ रहे थे। उन्ही विचारो के क्रम मे उसके मुँह से बार—बार निराशाजनक शब्द निकल रहे थे— मुझे पुष्पा जैसी—सहेली कभी नही मिलेगी ! पुष्पा को भी मुझ—सी सहेली नही मिलेगी ! अब उसकी पढ़ाई भी छूट जायेगी! पता नही, उसकी माँ दूसरी जगह जाकर उसका दाखिला करायेगी या नही ? यदि उसका दाखिला भी हो गया तो उसका गृहकार्य कौन करायेगा ? उसके माँ—बाबा तो पढ़ना—लिखना जानते ही नही है। पुष्पा के परिवार सहित गाँव छोड़कर चले जाने की सूचना से कई दिन तक गरिमा अन्यमनस्क—सी रही। उसका मन न तो पढ़ने मे रमता था, न खेलने मे रमता था। उसके माता—पिता, भाई—बहिन और भाभी सभी उसको समझाने का प्रयास करते थे, किन्तु वह अपनी व्याकुलता से मुक्त नही हो पा रही थी। अनेक बार उसकी बहन तथा भाभी उसका उपहास भी करने लगती थी— ऐसा चिन्तन—मनन तो बड़े—बड़े लोग भी नही करते है, जैसा गरिमा करती है। यह तो दार्शनिक हो गयी है ! परन्तु गरिमा पर उनके उपहास का कोई प्रभाव नही पड़ता था।

पुष्पा के वियोग मे गरिमा ने खेलने के लिए घर के बाहर जाना बिलकुल बन्द कर दिया था। इस बात की सूचना पास—पड़ोस के सभी बच्चो को मिल चुकी थी। चिकी घर के बाहर खेलने के लिए नही आती थी, किन्तु गरिमा के बारे मे उसको हर बात की जानकारी रहती थी। यह जानकारी मिलने पर कि जब से पुष्पा दुष्कर्म की शिकार हुई है, गरिमा स्वस्थचित्‌ नही है, चिकी कुछ बेचैन—सी रहने लगी थी। वह दिन—भर बार—बार अपने दरवाजे पर आकर गरिमा के घर की ओर देखती रहती थी। उसकी आँखे गरिमा को खोजती रहती थी और हृदय गरिमा से मिलने के लिए आतुर रहता था। तीन—चार दिन के पश्चात्‌ चिकी को अपने उद्‌देश्य मे सफलता मिल गयी।

गरिमा अपने किसी कार्य हेतु घर के दरवाजे से बाहर निकली ही थी, तभी उसने देखा कि चिकी उसकी ओर आ रही है। चिकी को अपनी ओर आते हुए देखकर गरिमा के चेहरे पर प्रसन्नता छा गयी। चिकी कुछ कहती, उससे पहले ही गरिमा ने उससे पूछा—

चिकी, अब तू स्कूल क्यो नही जाती है ?

मेरे पिताजी ने मेरी पढ़ाई छुड़वा दी है !

अब तू कभी स्कूल नही जा पायेगी ?

नही !

तेरे पिताजी ने तेरी पढ़ाई क्यो छुड़वायी है ?

वे कहते है ,पढ़ने की कोई जरूरत नही है। लड़कियो को घर का काम सीखना चाहिए, हमे लड़की से नौकरी थोड़े—ही करानी है पढ़ाके !

तेरा पढ़ने के लिए मन नही करता है ?

मन तो करता है ! पढ़ने के लिए भी और स्कूल जाने के लिए भी !

फिर तू अपनी माँ से क्यो नही कहती है अपनी बात ! तेरी माँ तुझे स्कूल भेज सकती है ! गरिमा ने आत्मविश्वास मे भरकर चिकी को परामर्श दिया, किन्तु चिकी पर उसके परामर्श का प्रभाव नगन्य था।

तू नही जानती है मेरे पिताजी कितने क्रूर है ! मेरी माँ कुछ कहेगी, तो वे उन्हे भी मारेगे !

मै जानती हूँ ! मैने एक दिन तेरी माँ के शरीर पर चोट के निशान देखे थे, जब वे अपनी चोट मेरी माँ को दिखा रही थी। बेचारी बहुत रो रही थी !

गरिमा ! तू जितना जानती—समझती है, मेरे पिताजी उससे भी ज्यादा गन्दे है। बहुत गन्दे आदमी है मेरे पिताजी, किशोर की तरह गन्दे ! अन्तिम वाक्य कहते—कहते चिकी की आँखो से आँसुओ की धारा बहने लगी और गला रुँध गया। अपने अन्तिम वाक्य को कहने के पश्चात्‌ चिकी मे जैसे— आगे कुछ भी कहने की सामर्थ्य नही रह गयी थी, इसलिए तुरन्त घूमकर अपने घर की ओर चल दी। वापिस जाते—जाते एक बार पीछे मुड़कर उसने पुनः गरिमा की ओर देखा। गरिमा अभी भी मूर्तिवत्‌ चिकी की ओर देख रही थी, मानो वह चिकी के द्वारा कहे गये शब्दो का अर्थ समझने का प्रयास कर रही हो। चिकी के जाने के पश्चात्‌ गरिमा घर वापिस लौट आयी और रसोईघर की ओर जाने लगी, जहाँ पर उसकी माँ काम कर रही थी। वह यन्त्रवत्‌ चली जा रही थी। अचानक माँ के शब्द कानो मे पड़ते ही वह एक झटके के साथ पीछे हट गयी जैसेकि उसका पैर आग पर पड़ गया हो। रसोईघर मे माँ के साथ उसकी बड़ी बहन और भाभी काम मे हाथ बँटा रही थी तथा तीनो परस्पर बाते कर रही थी। माँ कह रही थी— बेचारी पुष्पा का भाग्य तो उस दुष्कर्मी किशोर की आग मे झुलस गया ! दरिदो को तो मौत भी नही आती !

माँ की बात सुनकर गरिमा के मुँह से अचानक ही निकल गया— आग ! आग ! आग ! मै जहाँ जाती हूँ, सभी आग की बात करते रहते है। मै पूछती हूँ, तो कोई नही बताता ! उस दिन चिकी के पापा ने जब चिकी की माँ को मारा था, तब वे भी आग के विषय मे बाते कर रही थी। जब किशोर ने पुष्पा को मारा था, तब भी ऐसी ही बाते कर रही थी। आखिर ये सब सीधी और स्पष्ट बाते क्यो नही करती है ? अपने मन—मस्तिष्क मे विद्रोह—भाव भरकर गरिमा आवेशपूर्ण मुद्रा मे रसोईघर मे घुस गयी। सप्ताह—भर से अत्यन्त शान्त—गम्भीर और चुप—चुप—सी रहने वाली गरिमा को आज अचानक आवेशपूर्ण मुद्रा मे देखकर माँ आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगी और स्नेह से बोली—

क्या बात है, गरिमा ! तबियत तो ठीक है ?

किस आग की बात कर रही थी आप अभी—अभी ?

आग की बात ? हम तो किसी आग की बात नही कर रही थी! गरिमा की माँ ने उत्तर दिया। गरिमा की भाभी ने भी हँसकर माँ की बात का समर्थन करते हुए कहा— हाँ, हाँ हम लोग आग की बात नही, आइसक्रीम की बात कर रहे थे ! मै सच कह रही हूँ ! तुम माँ से पूछ लो !

मुझे किसी से पूछने की जरूरत नही है ! मैने अपने कानो से सुना था कि माँ पुष्पा की बात कर रही थी और आग की बात कर रही थी। गरिमा का आवेश देखकर माँ ने उसको शान्त करने की चेष्टा की—

बेटी, क्या बात है ? क्यो परेशान है तू ? मुझे बता, आ बैठ! माँ के वात्सल्य व्यवहार से गरिमा का चित्‌ कुछ शान्त हो गया, तो उसने अपने और चिकी के बीच होने वाली बातो का वर्णन माँ के समक्ष कर दिया। गरिमा ने अपने मन मे सचित सारे प्रश्नो और सारी जिज्ञासाओ को खोलकर प्रस्तुत करते हुए आग्रह किया कि माँ उसके सारे प्रश्नो का उत्तर देकर उसकी जिज्ञासाओ को शान्त करे! किन्तु माँ के लिए यह कार्य इतना आसान नही था, जितना आसान इस कार्य को गरिमा समझती थी। अतः माँ ने गरिमा को समझाते हुए केवल इतना ही कहा—

बेटी, तू अभी बहुत छोटी है, इसलिए बड़ी—बड़ी बातो मे तेरा उलझना ठीक नही है। अभी तुझे अपना ध्यान अपनी पढ़ाई मे लगाना चाहिए। जब तू बड़ी हो जायेगी ,तब सारी बातो का उत्तर तू स्वय ढूँढ सकेगी। तब तुझे हमारी सहायता की जरूरत नही पड़ेगी !

माँ का उत्तर सुनकर गरिमा को थोड़ा—सा दुख और निराशा तो हुई थी, परन्तु कुछ क्षण पश्चात्‌ ही वह अपनी माँ के उत्तर से सहमत और सतुष्ट हो गयी। वह सोचने लगी— माँ ठीक ही कहती है। जब मै बड़ी हो जाऊँगी, तब स्वय ही सब बातो आशय समझ जाऊँगी, जैसे सभी बड़े लोग समझते है। वैसे भी मुझे अपनी पढ़ाई मे ध्यान लगाना चाहिए। जब मै कुछ कर ही नही सकती, तो किसी भी बात का आशय समझने का क्या आशय है ?

अपनी माँ के तर्क से सहमत और सतुष्ट होने का गरिमा ने प्रयास तो किया, परन्तु उसकी अपनी प्रकृति इस प्रयास की सफलता मे बाधा बन रही थी। फिर भी उसने निश्चय किया कि जब उसे अपने प्रश्नो का उत्तर मिलता ही नही है, तो बार—बार पूछने से क्या लाभ है ? बेहतर है कि अपने प्रश्नो के उत्तर का दायित्व समय पर छोड़ दिया जाए !

***