दहलीज़ के पार - 4 Dr kavita Tyagi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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दहलीज़ के पार - 4

दहलीज़ के पार

डॉ. कविता त्यागी

(4)

गरिमा बारहवी कक्षा उत्तीर्ण कर चुकी थी और स्नातक मे प्रवेश लेने की तैयारी कर रही थी। जिन दिनो उसकी बहन प्रिया की हत्या हुई थी, वह नौवी कक्षा मे पढ़ती थी। तब समाज के कई वरिष्ठ लोगो ने उसके पिता से उसका स्कूल छुड़वाने का परामर्श दिया था। उसका अपना भाई भी यही चाहता था कि वह स्कूल न जाए, किन्तु गरिमा के पिता ने अपना निर्णय नही बदला। गरिमा के पिता ने अपने परिवार और समाज को स्पष्ट शब्दो मे कह दिया था कि वे न तो समाज की टिप्पणियो से डरने वाले है, और न ही प्रिया के अविवेकपूर्ण कार्य—व्यवहारो का दड अपनी छोटी बेटी गरिमा को देने वाले है। वे अपनी बेटी को उन्नति के अवसर देने मे अपनी सामर्थ्यानुसार कोई कमी नही छोड़ेगे।

अपने पिता के सकारात्मक विचारो का लाभ उठाती हुई गरिमा बारहवी कक्षा मे प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण हुई थी और अपने स्कूल मे उसने प्रथम स्थान प्राप्त किया था। बेटी की इस उपलब्धि से गरिमा के पिता भी काफी उत्साहित थे, फलस्वरूप वे समाज और परिवार के विरोध के बावजूद गरिमा को कॉलेज भेजने की तैयारी कर रहे थे।

अध्ययन मे स्वय की रुचि और लगन के साथ—साथ अपने पिता का प्रोत्साहन पाकर गरिमा अत्यन्त प्रसन्न थी। उसे कॉलेज मे दाखिला मिल गया था। जब उसने कॉलेज मे जाना आरम्भ किया, तो उसने महसूस किया कॅालेज का वातावरण स्कूल के वातावरण से बहुत भिन्न है, जहाँ पर अध्ययन करते हुए स्वय को सुरक्षित रखना एक बहुत बड़ी चुनौती है। इस चुनौती का उसके पिता को तथा स्वय उसको थोडा—सा अनुमान दाखिले से पहले भी था, इसलिए उसके पिता ने महिला महाविद्यालय मे पढ़ाने का विकल्प चुना था। परन्तु गरिमा विज्ञान विषय के साथ स्नातक करना चाहती थी और उसके आस—पास ऐसा कोई महिला महाविद्यालय नही था, जिसमे विज्ञान से स्नातक करने की सुविधा हो। महिला महाविद्यालय से विज्ञान मे स्नातक करने की सुविधा न मिलने पर गरिमा के पिता चाहते थे कि वह कला वर्ग के किसी विषय से आगे की पढ़ाई करे अथवा घर रहकर दूरस्थ—शिक्षा—व्यवस्था के अन्तर्गत पढ़ाई करे ताकि सहशिक्षा वाले महाविद्यालयो की समस्याओ से बचा जा सके। उन्होने इस सन्दर्भ मे गरिमा को समझाने का प्रयास भी किया था, परन्तु गरिमा विज्ञान विषय मे नियमित कक्षाएँ पढ़कर उन्नति के पथ पर आगे बढ़ना चाहती थी। उसकी हठ के समक्ष उसके पिता झुक गये और उसका कॉलेज मे दाखिला करा दिया।

गरिमा कॉलेज जाने लगी और नित्य ही नयी—नयी समस्याओ से उसका साक्षात्कार होने लगा, जिनमे से अध्ययन—सम्बन्धी समस्याओ से सघर्ष करने मे गरिमा को विशेष कठिनाई नही होती थी, परन्तु कुछ समस्याएँ ऐसी थी, जिनमे साक्षात्कार करना उसको बहुत कठिन प्रतीत होता था। ये ऐसी समस्याऍ थी, जो कॉलेज मे सभी लड़कियो के साथ प्रायः होती थी, परन्तु कुछ लड़कियाँ उसी धारा मे बहकर उन समस्याओ को स्वतन्त्रता के अवसर के रूप मे देखती थी, तो कुछ अपनी बदनामी के भय से चुपचाप सहन करती रहती थी। इन समस्याओ को कॉलेज के लड़के उत्पन्न करते थे, जिनका सहयोग करने के लिए कॉलेज की ही कुछ लड़कियाँ तत्पर रहती थी।

कॉलेज की अधिकतर लड़कियाँ ऐसी थी, जिनके अपने—अपने बॉय फ्रैन्डस थे। उच्च शिक्षा प्राप्त करने का सस्थान, जिसका मुख्य उद्‌देश्य देश के नवयुवको का चरित्र—निर्माण होता है, नयी और कथित प्रगतिशील सस्कृति के विकास का केन्द्र बनकर उभर रहा था। उस कथित प्रगतिशीलता मे उन छात्र—छात्राओ को पिछड़ेपन का प्रतीक मानकर हेय दृष्टि से देखा जा रहा था, जो लैगिक मित्रता का आनन्द भोगने मे सकोच करते थे। अतः अधिकाँश छात्र—छात्राएँ स्वय को पिछड़ेपन के प्रश्नचिह्न से बचने के लिए तथा प्रगतिशीलता का तमगा हासिल करने के उद्‌देश्य से लैगिक मित्रता का आनन्द भोगने का विकल्प चुन रहे थे। ऐसे छात्र—छात्राओ मे से अधिकाँश अपने परिवार से अपनी मित्रता का दुराव—छिपाव करते थे, क्योकि मध्यमवर्गीय परिवार अपनी सस्कृति को इतनी सहजता से छोड़ना स्वीकार नही करता है। इसके विपरीत कॉलेज मे दाखिला होते ही मध्यवर्गीय परिवार से आये हुए छात्र—छात्राएँ ‘रील लाइफ' मे अपनी ‘रीयल लाइफ' को परिवर्तित करने के अवसर को चूकना नही चाहते थे, इसलिए कॉलेज की सहशिक्षा—व्यवस्था मे विपरीत लैगिक मित्रता का लाभ उठाकर भरपूर आनन्द भोग करने के अवसर को छोड़ने की मूर्खता भला कैसे कर सकते थे।

गरिमा की प्रवृति उन छात्र—छात्राओ से नितान्त भिन्न थी, जो अपनी सस्कृति को छोड़कर उससे दूर होते जा रहे थे और स्वय को प्रगतिशील कहलाने मे गौरव का अनुभव करते थे। गरिमा को अपने पिता से मिले हुए निर्देश, माता से मिले हुए सस्कार तथा अपने परिवेश मे घटित अनेक घटनाओ को अति निकट से देखकर अपने अनुभव के परिणामस्वरूप निर्मित उसका जीवन अति सबल तथा उस कथित प्रगतिशीलता के अनुकरण की अनुमति नही देते थे, जिससे युवा पीढ़ी अपने चारित्रक पतन के मार्ग पर चल रही थी। उसके पारिवारिक परिवेश व समाज और सस्कृति से कॉलेज का परिवेश एक दम भिन्न था, जहाँ वह अपने जीवन के लिए शिक्षा के रूप मे विचार—शक्ति का सचयन करने के लिए एक दिन—रात का कम—से—कम चातुर्याश व्यतीत करती थी। गरिमा के जीवन और परिवेश का यह अन्तर्विरोध उसके जीवन की राह को कठिनतर बनाता जा रहा था, जिसके कारण वह अपने जीवन का लक्ष्य नही बना पा रही थी। अपने जिस लक्ष्य का निर्धारण करके उसने विज्ञान विषय से स्नातक करने का निश्चय किया था, अब उसको वह लक्ष्य प्राप्त करना असभव लगता था, क्योकि कॉलेज मे अपने साथ घटने वाली नित्य प्रति की घटनाओ से उसका मनोबल गिरता जा रहा था तथा वह अपना साहस खोती जा रही थी। उन घटनाओ के विषय मे वह अपने परिवार को भी अवगत नही कराना चाहती थी। उसे भय था कि यदि परिवार के किसी भी सदस्य को यह भनक लग गयी कि उनकी बेटी किन्ही अप्रिय घटनाओ शिकार हो रही है, तो वे उसका कॉलेज छुड़वा देगे, जिससे उसके सारे लक्ष्य ; सारे सपने धराशायी हो जाएँगे। अपने साथ कॉलेज मे घटने वाली सारी घटनाओ से अपने परिवार को अवगत कराये, तो भी, न कराये, तो भी, गरिमा के लक्ष्य मे बाधाएँ ही बाधाएँ थी। उन बाधाओ से मुक्ति पाने का कोई उपाय उसको सूझ नही रहा था।

गरिमा की सबसे बड़ी बाधा थी, उसके जीवन और परिवेश का अन्तर्विरोध। वह विज्ञान विषय मे उच्च शिक्षा प्राप्त करके अपना जीवन सँवारना चाहती थी। इसके लिए वह अपने रूढ़िवादी समाज से सघर्ष करके कॉलिज तक आयी थी, परन्तु वहाँ प्रतिदिन बिगड़ैल लड़को की छेड़छाड़ से वह कुछ ही दिनो मे तग आ गयी। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए स्वय की सुरक्षा को महत्व देने के उद्‌देश्य से गरिमा अपना बचाव करना ही उचित समझती थी, इसलिए किसी निरर्थक बात पर ध्यान दिये बिना अपने अध्ययन कार्य मे व्यस्त रहने का प्रयास करती थी। परन्तु उसके साथ वाली उसके कॉलिज की कुछ प्रगतिशील लड़कियो को गरिमा का यह व्यवहार रास नही आता था, वे उस पर अक्सर छीटाकशी करते हुए अपमानजनक टिप्पणियाँ करने लगी थी। गरिमा बहुत प्रयास करती थी कि उन टिप्पणियो पर ध्यान न दे और अपने अध्ययन को जारी रखे, परन्तु यह कठिन होता जा रहा था। धीरे—धीरे एक सत्र मे ही गरिमा की छवि कॉलिज मे ऐसी बन गयी, जो अपने सिद्धान्तो और लक्ष्य के प्रति दृढ़ थी। जिसके अपने कुछ सिद्धान्त थे, जो निरर्थक और हल्के नही थे और जो अपनी सस्कृति के पोषक होने के साथ—साथ प्रासगिक थे। अपने सिद्धान्तो के अनुरूप कार्य—व्यवहारो से गरिमा का व्यक्तित्व ऐसा प्रभावशाली हो गया था कि कथित प्रगतिशील छात्र—छात्राओे के व्यक्तित्व और टिप्पणियो का प्रभाव नगण्य हो गया था।

जिस प्रकार सहज सुलभ वस्तु की अपेक्षा दुर्लभ वस्तु का मूल्य सदैव अधिक होता है, उसी प्रकार छात्र समाज मे गरिमा का प्रभाव बढ़ रहा था, जो लड़कियाँ अपने बॉय—फ्रैन्डस के साथ घूमने—फिरने और खाने—पीने के लिए सदैव तत्पर रहती थी, वही बॉय—फ्रैन्डस उन लड़कियो की उपेक्षा करके गरिमा के साथ एक मिनट बाते करने के लिए तरसते थे। गरिमा की जो प्रकृति उसकी उपेक्षा का कारण बनी थी, वही प्रकृति उसके व्यक्तित्व को प्रभावशाली और कान्तिमय बनाने मे सहायक बन गयी थी। परन्तु, जो व्यक्तित्व पूरे कॉलिज के छात्रो के लिए आकर्षण का केन्द्र बन चुका था और छात्राओ के लिए ईर्ष्या का विषय बनकर उन्हे अपनी प्राथमिकताआे को बदलने के लिए प्रेरित कर रहा था, गरिमा का वही व्यक्तित्व उसके जीवन की त्रासदी बनकर प्रस्तुत हुआ, जिसने उसके जीवन की दिशा और दशा बदल दी।

गरिमा स्नातक द्वितीय वर्ष की पढ़ाई कर रही थी, उसी वर्ष उसके कॉलिज का उसी की कक्षा मे पढ़ने वाले आनन्द नाम के एक लड़के ने उसके समक्ष ‘वैलेन्टाइन डे' के अवसर पर अपना प्रेम प्रस्ताव रख दिया। गरिमा ने उस समय उसके प्रस्ताव को अस्वीकार करके उसके प्रति उदासीनता प्रकट करना उचित समझा और उसके बाद उससे बचकर रहने का हर सम्भव प्रयास करने लगी। यहाँ तक कि यदि कभी सयोगवश उसके सामने आ भी जाती थी, तो दृष्टि बचाकर दूरी बनाने का प्रयास करने लगती थी। परन्तु आनन्द नाम के उस लड़के के मनःमस्तिष्क पर गरिमा के नाम का नशा जुनून की हद तक चढ़ा हुआ था। उसी जुनून मे वह प्रतिक्षण गरिमा का पीछा करने लगा। गरिमा जितनी उससे दूर भागती, वह उतना ही उसकी ओर आकर्िर्षत होता जाता। गरिमा उसके प्रति जितनी उदासीनता दिखाती, वह उतनी ही दीवानगी का प्रदर्शन करके गरिमा को अपना प्रेम स्वीकारने के लिए विवश करने का प्रयत्न करता। किन्तु, आनन्द के सभी प्रयत्न गरिमा के हृदय मे प्रेम उत्पन्न करने के लिए अपर्याप्त थे।

गरिमा की रुचि प्रेम करने मे नही थी। वह उस समय प्रेम—प्रलाप की अपेक्षा अध्ययन को अधिक महत्वपूर्ण मानती थी, इसलिए उसका सम्पूर्ण समय अध्ययन के लिए ही समर्पित था। वह इधर—उधर की निरर्थक बातो मे अपने समय का अपव्यय करना बुद्धिमानी नही समझती थी, इसलिए अपना ध्यान सदैव अपने लक्ष्य पर केन्द्रित रखती थी। आनन्द को गरिमा का अपने अध्ययन के प्रति इतनी लगन रखना रास नही आता था। वह अपने प्रति गरिमा की उपेक्षा की सीमा तक उदासीनता से इतना आहत हो जाता था कि उसका प्रेम अपनी मूल भावना का त्याग करके क्रोध का रूप धारण कर लेता था। किन्तु बहुत कठिनता से वह अपने क्रोध का दमन करके अपने वास्तविक प्रेम से अधिक प्रेम का प्रदर्शन गरिमा के समक्ष करने लगता था। आनन्द के उस प्रेम प्रदर्शन की अति को देखकर कोई भी व्यक्ति कह सकता था कि वह प्रेम नही, बल्कि प्रेम का झूठा आडम्बर कर रहा है। आनन्द के उस आडम्बरयुक्त आचरण से प्रेम तो उत्पन्न नही हो सका, प्रेम के स्थान पर आनन्द के प्रति उसके हृदय मे दिन—प्रतिदिन घृणा बढ़ती जा रही थी। आनन्द को यह सहन नही था, इसलिए वह गरिमा पर प्रेम का दबाब बढाने लगा था। अनेक बार वह गरिमा को ऐसे सकेत दे चुका था कि यदि गरिमा ने अब उसक प्रेम को सहज स्वीकार नही किया, तो वह अपनी शक्ति का प्रयोग करने के लिए विवश हो जायेगा। एक दिन उसने गरिमा से स्पष्ट शब्दो मे चेतावनी देते हुए कहा भी था कि वह उससे प्रेम करता है और प्रेम के बदले प्रेम चाहता है, नफरत नही। यदि वह नफरत करेगी, तो उसका परिणाम अच्छा नही होगा।

आनन्द की चेतावनी उसके प्रति गरिमा अपने हृदय मे प्रेम उत्पन्न नही कर सकती थी, परन्तु उसने अपने अन्दर की घणा को प्रकट करना बन्द कर दिया और अपना बचाव करने के लिए कॉलिज आना कम कर दिया। धीरे—धीरे उसने कॉलिज आना इतना कम कर दिया कि बहुत ही आवश्यक या प्रयोगात्मक कक्षाएँ आदि होने पर ही आती थी, अन्यथा अनुपस्थित रहती थी। गरिमा का यह व्यवहार देखकर आनन्द ने यह अनुमान लगा लिया कि वह उससे बचना चाहती है, इसीलिए कॉलिज आना लगभग बन्द—सा कर दिया है। गरिमा के इस व्यवहार के प्रतिकार स्वरूप उसने गरिमा के घर के आस—पास चक्कर लगाना आरम्भ कर दिया।

एक दिन सवेरे—सवेरे गरिमा को उसी के पड़ोस के रहने वाले एक छः—सात वर्षीय बच्चे ने कई तहो मे मुड़ा हुआ एक कागज लाकर दिया और बाहर की ओर इस आशय से सकेत करके कि उस कागज को देने वाला घर के बाहर खड़ा है तथा तुरन्त बाहर चला गया। उस बच्चे के चले जाने के बाद गरिमा ने उस कागज की तहे खोलकर सीधा किया। गरिमा ने कागज खोलकर देखा। कागज कोई सामान्य कागज का टुकड़ा नही था, आनन्द का भेजा हुआ पत्र था, जिसमे उसने लिखा था कि यदि वह बदनामी से बचना चाहती है, तो पत्र पढ़ते ही तैयार होकर कॉलिज आ जाए ! पत्र पढ़कर गरिमा को उस पत्र को लाने वाले बच्चे की उस मुद्रा का स्मरण हो आया, जिससे उसने सकेत किया था कि पत्र देने वाला व्यक्ति बाहर खड़ा है। अतः गरिमा ने उत्तेजित होकर खिड़की से बाहर की ओर झाँका, तो देखा कि उसके घर के दरवाजे पर आनन्द खड़ा है और वह एकटक उसके घर की ओर ही देख रहा है।

गरिमा अभी तक प्रेम—प्रसग की कुछ वर्ष पूर्व घटित उस दुर्घटना को भूल नही पायी थी, जिसमे उसके परिवार को न केवल अपने समाज मे बदनामी झेलनी पड़ी थी, बल्कि अपनी बेटी को भी सदा के लिए खोना पड़ा था। एक क्षण के लिए गरिमा की आँखो मे वह अतीत का सारा घटनाक्रम जीवन्त होकर उतर आया। अगले ही क्षण जैसे उसकी चेतना लौट आयी थी, वह मन ही मन मे कह उठी— उस घटना की पुनरावृत्ति नही होनी चाहिए ! मुझे अपने परिवार के साथ स्वय को बचाने के लिए आनन्द से बातचीत करनी ही पड़ेगी और इस उद्‌देश्य को पूरा करने के लिए मुझे कॉलिज जाना चाहिए ; मुझे कॉलिज जाना ही पड़ेगा, वरना उसका क्या विश्वास कि वह कब क्या कर बैठे, जो मेरा पीछा करते—करते मेरे घर तक आ गया!

गरिमा ने तुरन्त कॉलिज जाने का निश्चय किया और तैयार होकर माँ से अनुमति माँगी। माँ ने आश्चर्यसहित पहले तो उससे अचानक कॉलिज जाने का कारण पूछा, क्योकि गरिमा कभी भी इस प्रकार कॉलिज नही गयी थी कि जाने के तुरन्त पहले माँ को सूचना दी हो कि वह कॉलिज जा रही है। वह सदैव रात मे ही माँ को बता देती थी कि सुबह वह कॉलिज जायेगी। गरिमा ने माँ से बहाना किया कि वह रात मे माँ से बताना भूल गयी थी, और शीघ्रतापूर्वक घर से निकल गयी। घर से निकलकर गरिमा ने देखा कि घर से कुछ ही दूरी पर आनन्द मोटरसाइकिल लेकर खड़ा हुआ उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। उसको देखकर गरिमा थोड़ी सी भयभीत हुई, परन्तु फिर साहस के साथ आगे बढ़ने लगी। जब गरिमा उसके निकट से गुजरने लगी, उसके कानो मे आनन्द का स्वर पड़ा— रुको ?

आनन्द के स्वर से गरिमा अब तक परिचित हो चुकी थी। वैसे भी उस समय तो गरिमा के मनःमस्तिष्क पर आनन्द के भय का भूत हावी था। वह यन्त्रवत्‌ आगे बढ़ती जा रही थी और आनन्द को लेकर विभिन्न भयावह कल्पनाएँ अनायास ही एक—एक करके उसके चित्‌ पर अपना अधिकार करती जा रही थी। अचानक उसके स्वर को सुनकर वह काँप उठी और रुक गयी। भय से काँपते हुए उसने आनन्द की ओर अपनी दृष्टि उठाकर देखा, तो आनन्द ने सकेत करते हुए अपनी बाइक पर बैठकर चलने का प्रस्ताव गरिमा के समक्ष प्रस्तुत किया। गरिमा एक क्षण के लिए असमजस मे पड़कर यथावत्‌ खड़ी रही। तत्पश्चात्‌ वह आनन्द को धन्यवाद कहती हुई आगे बढ़ गयी। कुछ ही समय मे वह पैदल चलकर गाँव से बाहर सड़क पर पहुँच गयी। वहाँ पर आनन्द ने पुनः एक बार गरिमा को अपनी बाइक पर बैठने के लिए कहा। गरिमा ने इस बार भी दृढ़तापूर्वक उसका प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और ऑटो—रिक्शा मे बैठ गयी।

गरिमा के गाँव से आने वाले ऑटो—रिक्शा कॉलिज से लगभग पाँच सौ मीटर दूर से गुजरते हुए आगे बढ़ जाते थे। अतः वह उस ऑटो—रिक्शा कॉलिज के सामने उतरकर तेज कदमो से चलती हुई कॉलिज मे पहुँच गयी और पीछे मुड़कर देखे बिना अपनी कक्षा की ओर बढ़ गयी। जब तक वह कक्षा मे पहुँची, तब तक प्राध्यापक ने कक्षा मे पहुँचकर अध्यापन कार्य आरम्भ कर दिया था। कक्षा मे प्राध्यापक को व्याख्यान देते हुए देखकर गरिमा ने राहत की साँस ली और शान्तिपूर्वक कक्षा मे बैठ गयी। कक्षा मे बैठी हुई गरिमा बाह्य दृष्टि से पूर्णरूपेण शान्त दिखायी दे रही थी, किन्तु उसका चित्‌ अत्यन्त अशान्त था। वह सोच रही थी— इस समय तो मै आनन्द से बच गयी हूँ, परन्तु इस प्रकार अधिक समय तक उससे बचना सभव नही है। आखिर, उससे छुटकारा पाने के लिए मै क्या करूँ ? कॉलिज प्रशासन से आनन्द की शिकायत कर दूँ ? क्या कॉलिज मेरी सहायता कर सकता है ? लेकिन कॉलिज प्रशासन क्या सहायता करेगा ? अधिक—से—अधिक कॉलिज कैम्पस मे आनन्द की हरकतो पर नियत्रण रख सकता है! कॉलिज के बाहर तो वह कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र रहेगा ! कॉलिज कैम्पस मे तो वह अब भी कुछ नही करता है। कॉलिज से बाहर निकलकर ही तो वह अपनी दीवानगी का प्रदर्शन करता है ! तो क्या अपने परिवार को मै आनन्द की हरकतो से अवगत करा दूँ ? नही, नही ! मुझे स्वय ही इस समस्या का समाधान करना चाहिए। परिवार को इस विषय मे कुछ बताया, तो छोटी—सी बात का तमाशा बन जायेगा ! समाज मे यह बात थोड़ी—सी भी लीक हुई, तो राई का पर्वत बनने मे समय नही लगेगा। जिस बदनामी से बचने के लिए मैने पहले कॉलिज आना बन्द किया था और आज कॉलिज आयी हूँ, उसी मे मै और मेरा परिवार दोनो फँस जाएँगे !

प्रध्यापक का व्याख्यान चल रहा था और गरिमा किसी अन्य विषय पर विचाररत थी। प्रध्यापक ने गरिमा का ध्यान व्याख्यान से विरत देखकर उसकी ओर दृष्टि करके पूछा—

ध्यान कहाँ गया हुआ है तुम्हारा, गरिमा ! प्रश्न सुनकर गरिमा खड़ी हो गयी।

स्‌ स्‌ सर, कही नही ! बस, यूँ ही कुछ सोचने लगी थी ! सॉरी सर !

ऐनी प्राब्लम, गरिमा ?

न्‌ नो सर, कोई प्रॉब्लम नही है !

ठीक है ! बैठ जाओ और लैक्चर पर ध्यान दो !

यस सर ! प्राध्यापक का आदेश पाकर गरिमा बैठ गयी। गरिमा प्राध्यापक का आदेश पाकर अपनी सीट पर बैठी ही थी कि उसे अपनी सीट के पास गेद की तरह गुड़मुड़ हुआ एक कागज दिखाई दिया। गरिमा को याद आया कि जब वह सीट पर आकर बैठी थी, तब वहाँ कोई कागज नही था। उस कागज को देखते ही एक अज्ञात—सा भय उसके अन्दर व्याप्त हो गया। भय से काँपते हुए उसने अपना हाथ नीचे की ओर बढ़ाकर वह कागज उठाया और धीरे—धीरे खोलकर पढ़ने लगी। कागज मे ‘माई डियर गरिमा' का सम्बोधन करके चेतावनी भरे शब्दो मे लिखा था कि उसे कॉलेज इसलिए नही बुलाया गया है कि आते ही कक्षा मे घुसकर बैठ जाए। उसे यह भी याद रखना चाहिए कि वह कॉलेज अपनी इच्छा से नही आयी है, बल्कि लायी गयी है, इसलिए कक्षा समाप्त होते ही कॉलेज के बाहर आकर मिले।

उस पत्र को पढ़कर गरिमा ने एक बार पीछे मुड़कर देखा, उसकी सीट के ठीक पीछे वाली सीट पर आनन्द बैठा था। गरिमा द्वारा पीछे की ओर दृष्टि ड़ालते ही वह गरिमा की ओर मुस्कुराने लगा। उस समय आनद के चेहरे पर धूर्तता स्पष्ट झलक रही थी। उसको वहाँ देखकर गरिमा की आँखो मे घृणा, को्रध और भय को एक साथ देखा जा सकता था, जिसमे से भय क्रोध और घृणा से अधिक सशक्त था। वह आनन्द की शक्ल की कल्पना करते ही भयभीत हो जाती थी, अब तो वह साक्षात्‌ उसके सामने उपस्थित था और घृणा न करने का चेतावनी भरा सुझाव वह गरिमा को बहुत पहले ही दे चुका था, जो गरिमा को अब भी याद था। अतः वह अपनी घृणा तथा क्रोध को सायास दबाने मे सफल भी हो गयी थी, परन्तु भय अभी भी उस पर पूरी तरह हावी था।

पत्र मे दिए गए आनद के निर्देशानुसार कक्षा समाप्त होते ही गरिमा कॉलेज के बाहर उस स्थान पर पहुँच गयी, जहाँ पहले से ही आनन्द उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। कॉलेज मे प्रवेश करने के पश्चात्‌ आज प्रथम अवसर था, जबकि गरिमा सड़क पर खड़ी होकर किसी लड़के के साथ बाते कर रही थी। गरिमा की इस समस्या को तथा उसके सकोचपूर्ण व्यवहार को देखकर आनन्द ने उससे कहा था— मै जानता हूँ कि तुम्हे यहाँ खड़े होकर बाते करने मे बिल्कुल भी रुचि नही है। तुम चाहो तो हम निकट ही किसी रेस्टोरेट मे चलकर बाते कर सकते है ? वहाँ पर बैठकर मेरे साथ बाते करते हुए तुम्हे कोई नही देख पायेगा और हम एक साथ एक कप चाय पीने का आनन्द भी ले सकेगे !

मेरी रुचि तुम्हारे साथ बाते करने मे नही है ! और न ही रेस्टोरेट मे बैठकर तुम्हारे साथ चाय पीने मे ! तुमने मुझे यहाँ क्याे बुलाया है ? गरिमा ने साहस बटोरकर कहा।

तुमने कॉलेज आना क्यो बन्द कर दिया है ? परीक्षाएँ सिर पर है, और तुम हो कि अपनी कक्षाएँ छोड़कर घर बैठी हो ! यह ठीक नही है !

मेरे लिए क्या ठीक है और क्या ठीक नही है, इसकी चिन्ता करने की तुम्हे कोई आवश्यकता नही है ! तुम केवल अपने बारे मे सोचो ! हाँ, एक बात और ध्यान रखना, मुझे परेशान करने की कोशिश की, तो वह तुम्हारे लिए ठीक नही होगा। गरिमा ने बचाव की मुद्रा मे कहा, परन्तु आनन्द पर उसके शब्दो का कोई प्रभाव नही पड़ा। वह गरिमा की अशक्तता और विवशता का उपहास करते हुए अहभाव से परिपूर्ण वाणी मे बोला—

तुम लड़कियो की यही समस्या है। अपने आपको ज्यादा बलिष्ठ समझती है और हम जैसे बेचारे प्यार करने वालो के बारे मे बिलकुल भी नही सोचती है। गरिमा ! हम तुम्हे प्यार करते है। जब तुम कॉलिज मे नही आती हो, तो सारा कॉलिज सूना—सूना—सा लगता है !

गरिमा आनन्द को कुछ उत्तर देती, इससे पहले ही वहाँ पर उसका एक अन्य सहपाठी विनय आ पहुँचा और गरिमा को लक्ष्य करके बोला— तुम यहाँ पर हो, मै तुम्हे पूरे कॉलिज मे ढूँढ—ढूँढ कर परेशान हो रहा था। यदि तुम्हे लेट नही हो रहा हो, तो दस मिनट के लिए कॉलिज मे चल सकती हो ? एक इम्पोर्टेन्ट टॉपिक पर डिस्कस करना था !

हाँ, लेट तो हो जायेगा, किन्तु कोई बात नही ! चलो ! गरिमा उस समय आनन्द से पीछा छुड़ाना चाहती थी। विनय के प्रस्ताव से उसे एक सहारा मिल गया था। वह मन ही मन प्रभु का धन्यवाद करने लगी कि उचित समय पर उसकी रक्षा के लिए प्रभु ने वहाँ पर विनय को भेज दिया। अतः एक क्षण भी व्यर्थ गँवाये बिना वह विनय के साथ कॉलिज की ओर बढ़ चली। आनन्द के लिए वह क्षण अति कष्टप्रद था, जब गरिमा ने उसकी उपेक्षा करके उसके प्रस्ताव को अस्वीकार करके विनय का प्रस्ताव सहज स्वीकार कर लिया और उसको छोड़कर विनय के साथ चली गयी। उसके इस व्यवहार से वह स्वय को अपमानित अनुभव करके क्षोभ से भर उठा, परन्तु अपने क्षोभ को प्रकट करने के लिए उसने उस समय कोई प्रतिक्रिया नही की, न शब्दो से और न ही किसी प्रकार के व्यवहार से।

कॉलिज मे पहुँचने के पश्चात्‌ विनय ने गरिमा को बताया कि वह और उसके साथी गरिमा की उस समस्या के विषय मे भली—भाँति जानते है कि आनन्द उसे कॉलिज मे तथा कॉलिज के बाहर तग करता है, इसीलिए उसने कॉलिज आना लगभग बन्द कर दिया है। विनय ने गरिमा को आश्वस्त भी किया कि यदि वह चाहे तो नियमित रूप से कॉलिज आ सकती है, वे उसकी सुरक्षा का दायित्व वहन कर सकते है, ताकि उनकी कक्षा की एक मेधावी छात्रा को अपने लक्ष्य प्राप्ति मे कोई कठिनाई न आए। परन्तु, गरिमा नही चाहती थी कि वह एक समस्या से मुक्त होकर किसी दूसरी समस्या मे फँस जाए और उसकी एक भूल के कारण स्वय उसकी या उसके परिवार की बदनामी हो। उसने निरपेक्ष—भाव से विनम्र शब्दो मे विनय से कहा—

नही—नही, ऐसी कोई बात नही है। घर पर कुछ काम था, इसलिए...!

नही, गरिमा, तुम झूठ बोल रही हो ! पिछले पाँच वर्षो से मै तुम्हारा क्लास—फैलो रहा हूँ, मै तुम्हारी नेचर जानता हूँ। इसलिए पिछले कुछ दिनो से तुम्हारी समस्या को जानते हुए भी मैने तुम्हारी सहायता करने का साहस नही किया था। मुझे लगता था कि तुम स्वय उस समस्या का समाधान कर सकती हो। लेकिन तुम इस समस्या का समाधान कॉलिज छोड़कर करोगी, यह मैने नही सोचा था।

विनय ! तुम मेरी प्रकृति से परिचित हो, मै अपनी समस्या के समाधान के लिए किसी की सहायता लेने मे विश्वास नही रखती हूँ ! हाँ, मै सब कुछ जानता हूँ। पर मै सहायता नही कर रहा हूँ। मै और मेरे साथी अपना कर्तव्य—निर्वाह कर रहे है। क्या तुम्हे नही लगता कि एक अच्छे सहपाठी को अपने किसी सहपाठी की मुसीबत के समय मे उसका साथ देना चाहिए। यदि हम किसी मुसीबत मे फँस जाएँ, तो क्या तुम हमारी सहायता नही करती। गरिमा! मुझे याद है कि जब हम ग्यारहवी मे पढ़ रहे थे, हमारी कक्षा के एक लड़के को एक मोटरसाइकिल—सवार टक्कर मारकर भाग गया था। वह गम्भीर रूप से घायल होकर अचेत गया था। तब तुमने और तुम्हारी—साथी लड़कियो ने उसे अस्पताल पहुँचाया था। अपने साथियो की सहायता करना, मैने उस दिन तुम्ही से सीखा था और आज जब तुम समस्या से घिरी हुई हो, तो हमारा कर्तव्य है कि...!

ठीक है, मै कॉलिज आना बन्द नही करूँगी ! लेकिन, मुझसे दूर ही रहना, मेरे आस—पास भी मत फटकना ! समझ गये न ? हाँ, समझ गया ! तुम्हारे समझाने से पहले ही इतना समझदार तो मै था कि तुम्हारे आस—पास फटकना मेरी सेहत के लिए ठीक नही है !

विनय ने गरिमा की चेतावनी का सकारात्मक उत्तर दिया, तो गरिमा भी उसके उत्तर की स्वीकृति के रूप मे मुस्करा दी और लौटने का उपक्रम करते हुए बोली— अच्छा, अब मै चलती हूँ ! माँ मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी, मै समय पर नही लौटी, तो वे चिन्तित हो जाएँगी !

कॉलिज से लौटकर गरिमा इसी विषय पर विचार करती रही कि आनन्द से छुटकारा पाने के लिए उसे क्या करना चाहिए— कॉलिज जाना बन्द कर देना चाहिए या कॉलिज मे जाते रहना ही उचित होगा ? इसी ऊहापोह मे वह रात—भर सो नही सकी। अन्त मे वह इस निष्कर्ष पर पहुँची कि कॉलिज न जाने पर आनन्द उसके घर तक पीछा कर सकता है, जिससे उसके परिवार तथा स्वय उसे समाज मे बदनामी का शिकार होना पड़ सकता है। इसके विपरीत प्रतिदिन कॉलिज मे जाने से वह घर तक नही आयेगा। साथ ही विनय तथा उसके साथियो का सहारा पाकर भी वह आश्वस्त थी कि वे अब आनन्द को उसका पीछा नही करने देगे, न ही अन्य किसी प्रकार की ऐसी कोई हरकत करने देगे जो कभी उसकी बदनामी का कारण बने। अनेक प्रकार से अनुकूल—प्रतिकूल परिणामो के विषय मे पर्याप्त विचार—मथन करने के पश्चात्‌ गरिमा नियत समय पर कॉलिज जाने के लिए तैयार हो गयी। तैयार होकर उसने अपनी माँ को बताया कि परीक्षा निकट आ गयी है, इसलिए उसे प्रतिदिन कॉलिज जाना चाहिए। यदि वह नही जायेगी, तो पढ़ाई पर नकारात्मक प्रभाव पडे़गा। माँ को गरिमा के प्रत्येक निर्णय पर पूर्ण विश्वास था, इसलिए किसी प्रकार का कोई प्रश्न किये बिना उसको कॉलिज जाने की अनुमति प्रदान कर दी। माँ की अनुमति पाकर गरिमा शका और भय से ग्रस्त विभिन्न प्रकार की कल्पनाएँ करती हुई कॉलिज के लिए चल दी।

परीक्षा निकट थी और कॉलिज से अनुपस्थित रहने के कारण पहले ही गरिमा की कई प्रयोगात्मक कक्षाएँ छूट चुकी थी। और अब वह एक भी कक्षा छोड़ना नही चाहती थी। परीक्षा की अच्छी तैयारी के लिए वह प्रतिदिन कॉलेज आने लगी थी। जब तक वह कॉलिज मे रहती थी, तब तक विनय और उसके साथी इस प्रकार एक सुरक्षा कवच का—सा वतावरण गरिमा के आस—पास बनाये रखते थे कि गरिमा को किसी प्रकार की आपत्ति न हो और आनन्द वहाँ तक आने का साहस न कर सके। कॉलिज से छूटने के बाद भी वे प्रायः उसी के रास्ते से जाने लगे थे, जिस रास्ते से गरिमा जाती थी। यद्यपि उन्हे उस रास्ते से जाने मे लम्बी दूरी तय करनी पड़ती थी, तथापि अपनी सहपाठी की सहायता करके वे सभी प्रसन्न थे।

गरिमा के प्रतिदिन कॉलिज आने और विनय तथा उसके साथियो से उसको मिलने वाली सुरक्षा—सहायता से आनन्द का क्षोभ निरन्तर बढ़ता ही जा रहा था। वह घटो तक ऐसी किसी युक्ति के विषय मे विचार करते हुए कॉलिज के अन्दर—बाहर प्रतीक्षा करता रहता था कि कब और कैसे विनय के सुरक्षा—घेरे को तोड़कर गरिमा तक पहुँचे, किन्तु अपने प्रयास मे विफल होना ही उसकी नियति थी। अपने प्रयास मे बार—बार मिलने वाली असफलता उसके क्षोभ को और बढ़ा रही थी। धीरे—धीरे उसका क्षोभ बढ़कर विनाशकारी क्रोध का रूप धारण करने लगा, जिसका आभास न तो गरिमा को था, न विनय तथा उसके साथियो को। अपने इसी विनाशकारी क्रोध के चलते आनन्द ने गरिमा की प्रतीक्षा करना बन्द कर दिया था। अब तक जो लड़का हर उस जगह पर ताक—झाँक करता पाया जाता था, जिस जगह गरिमा की उपस्थिति का उसे अनुमान होता था, अब वह लड़का कॉलिज के अन्दर—बाहर कही दिखायी नही देता था। आनन्द के इस व्यवहार परिवर्तन को गरिमा, विनय तथा उसके साथी अपनी विजय मान रहे थे। परन्तु, उन्हे यह अनुमान भी नही था कि आनन्द के जिस शान्त व्यवहार को वे अपनी विजय मान रह है, वही व्यवहार उसकी क्रोधाग्नि को अधिक प्रज्ज्वलित करने के लिए घी का काम रहा है, जो गरिमा के जीवन का सुख—चैन नष्ट करके उसके जीवन को लक्ष्यहीन—दिशाहीन बना देगा।

गरिमा की परीक्षाएँ आरम्भ हो गयी थी। उस दिन उसकी परीक्षा का प्रथम दिन था। पूर्ण तैयारी के साथ परीक्षा—कक्ष मे पहुँची गरिमा प्रश्न—पत्र को देखते ही प्रसन्नता से खिल उठी। सभी प्रश्न उसकी आशानुरूप थे। अतः निश्चित समय के अन्तर्गत ही उसने सम्पूर्ण प्रश्न—पत्र हल कर दिया। उसको आशा थी कि नब्बे प्रतिशत अक प्राप्त करना उसके लिए कठिन नही होगा। अपनी इसी आशानुरूप वह प्रसन्नचित्‌ मुद्रा मे परीक्षा—कक्ष से निकली। परीक्षा—कक्ष से निकलते ही उसको सहपाठी लड़कियो ने घेर लिया और सभी ने कॉलिज से बाहर आते हुए आइसक्रीम खाने की योजना बना डाली। गरिमा ने पहले तो उनकी योजना को अपनी सहमति नही दी, किन्तु अत्यधिक आग्रह देखकर वह सहमत हो गयी और उन सभी लड़कियो के साथ आइसक्रीम खाने लगी।

गरिमा ने आइसक्रीम खाने के लिए अपना हाथ मुँह की ओर बढ़ाया ही था, तभी सयोगवश वह मुड़कर आइसक्रीम बेचने वाले की ओर देखने लगी, जो सड़क से कुछ मीटर दूर एक इमारत की दीवार के पास खड़ा था, और तभी अचानक अपनी कमर के ऊपरी भाग पर तथा गर्दन पर किसी ज्वलनशील पदार्थ के गिरने का अनुभव करते हुए उसकी चीख निकल पड़ी। उसकी जलन बढ़ती जा रही थी, वह जोर—जोर से चिल्लाने लगी। जब तक आस—पास खड़े सभी लोग तथा उसकी सहपाठी लड़कियाँ गरिमा के रोने—चिल्लाने का कारण समझ पाते कि उनके पास से गुजरने वाली मोटरसाइकिल पर सवार युवक ने उसके ऊपर एसिड डाला है, तब तक वह मोटरसाइकिल आँखो से ओझल हो चुकी थी। घटनास्थल पर उपस्थित भीड़, जो अब तक बढ़ती जा रही थी, उसमे केवल एक ही चर्चा रह गयी थी कि दो नकाबपोश युवक एक मोटरसाइकिल पर आये थे और लड़की के ऊपर एसिड डालकर तेज गति से चले गये। किसी ने दुर्घटना के उत्तरदायी युवको का चेहरा नही देखा था, न ही उस बाइक का नम्बर किसी ने देखा, जिस पर सवार होकर उन्होने दुर्घटना को मूर्तरूप दिया था। भीड़ मे से कुछ सज्जन लोगो ने पुलिस को सूचना दी, किन्तु जीवन की भागदौड़ और व्यस्तता के कारण किसी के पास इतना समय नही था कि घायल लड़की के लिए खर्च किया जा सके। किसी ने यह भी आवश्यक नही समझा कि पुलिस के आने से पहले गरिमा को अस्पताल पहुँचाया जाए। गरिमा भीड़ की सवेदनहीनता तथा अपनी पीड़ा का अनुभव करके कराह रही थी और उसे अनुभव हो रहा था कि धीरे—धीरे उसकी चेतना—शक्ति उसका साथ छोड़ रही है। उसी समय उसने देखा, भीड़ को चीरता हुआ विनय उसकी ओर बढ़ा आ रहा है। गरिमा को विनय की छवि धुँधली दिखायी दे रही थी, परन्तु उसको विश्वास था कि अब उसको सहायता अवश्य मिल जायेगी। अपने इसी विश्वास के साथ वह अचेत हो गयी। विनय ने गरिमा की अचेतावस्था को देखते ही भीड़ को धिक्कारा और गरिमा को अस्पताल ले जाने लगा। पुलिस अभी तक नही पहुँची थी किन्तु विनय की पहल पर भीड़ के कई लोग पुलिस की लापरवाही पर टिप्पणी करते हुए उसकी सहायता करने के लिए तैयार हो गये थे। अस्पताल मे उचित समय पर गरिमा का यथोचित देखभाल होने से शीघ्र ही उसकी चेतना लौट आयी, किन्तु उसका भय कम नही हो रहा था। अपने भय के वशीभूत उसने निश्चय किया कि अब वह कॉलिज नही जायेगी।

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