Dahleez Ke Paar - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

दहलीज़ के पार - 7

दहलीज़ के पार

डॉ. कविता त्यागी

(7)

दो—तीन महीने तक गरिमा के पिता सुयोग्य वर की तलाश मे भटकते रहे। अन्त मे पर्याप्त भाग—दौड़ करने के उपरान्त ऐसा वर मिल ही गया, जो सुशिक्षित होने के साथ—साथ सम्पन्न घराने का रोजगाररत भी था। लड़का सरकारी नौकर है और गाँव मे इतनी जमीन—जायदाद भी इतनी है कि आज भी उसके दादा—परदादा की नम्बरदारी का डका बजता है। एक लड़की को सुखी रहने के लिए और क्या चाहिए ! गरिमा के पिता ने प्रफुल्लित मुद्रा मे विजयी मुस्कान बिखेरते हुए कहा, परन्तु गरिमा की माँ की भाव—भगिमा कह रही थी कि वे किसी गम्भीर चिन्ता मे डूबी हुई है। अपनी सूचना की अनुकूल प्रतिक्रिया न पाकर गरिमा के पिता ने पुनः कहा— कहाँ भटक रहा है आज तेरा ध्यान ? मै कब से बोले जा रहा हूँ, और एक तू है कि...!

गरिमा की चिन्ता हो रही है। मेरी भोली—भाली बेटी को पता नही कैसी ससुराल मिलेगी ! माँ—बाप अपनी बेटी को कितना भी लाड़—प्यार कर ले, अन्त मे तो उसे दूसरो के अधीन ही रहना है। ससुराल वाले जैसे चाहेगे वैसे ही रहना पड़ेगा !

तू चिन्ता मत कर ! ऐसा लड़का ढूँढा है तेरी बेटी के लिए कि पास—पड़ोस वाले दाँतो तले उँगली दबा लेगे। देखने—दिखाने लायक है और मालूम है किस खानदान का है ?... चौधरी सज्जन सिह का पोता है ! तू नही जानती, सज्जन सिह के साथ सम्बन्ध जोड़ने के नाम से ही लोगो की छाती चौड़ी हो जाती है और सिर ऊँचा, समझी ! अब बता और क्या चाहिए तुझे तेरी बेटी के लिए ?

माँ—बाप तो सभी सोचते है कि उनकी बेटी सुखी रहे, पर उसके भाग्य मे क्या लिखा है, किसको पता है ? उसका भाग्य तो नही पढ़ सकते हम—तुम ! वैसे भी तुमने उनकी धन—सम्पत्ति ही तो देखी है, वे हमारी बेटी के साथ कैसा बर्ताव करेगे ? इसका जवाब अभी कोई नही दे सकता ! अपनी चिन्ता प्रकट करके गरिमा की माँ ने एक लम्बी—सी साँस ली और चुप हो गयी।

गरिमा की माँ, भविष्य तो अधकारमय है। मनुष्य का धर्म है कर्मरत रहना, फल देना ईश्वर का काम है। हम अपनी बेटी के लिए जितना भला कर सकते है, करेगे, आगे ईश्वर सबकुछ भला ही करेगा ! अब तुम चिन्ता करना छोड़कर विवाह के कार्य करने मे मन लगाओ !

ठीक कह रहे हो तुम, चिन्ता करने से कुछ भला नही होने वाला !

विवाह का दिन निश्चित होते ही सारा परिवार विवाह सम्बन्धी कायोर् मे तन—मन से जुट गया। सबको बस यही चिन्ता थी कि बिना किसी विघ्न के गरिमा का विवाह सम्पन्न हो जाए। सभी मे एक उत्साह था, एक उमग थी घर की बिटिया की डोली विदा करने की। जब भी गरिमा का कन्यादान करके डोली विदा करने की बात होती थी, तभी प्रिया की बाते आरम्भ होकर वातावरण को बोझिल बना देती थी— कन्यादान करने का सुअवसर बड़े भाग्य वालो को मिलता है। भगवान ने गरिमा को हमारे घर मे जन्म देकर हमे भी भाग्यशाली बना दिया। ऐसे ही किसी सवाद के प्रत्युत्तर मे तुरन्त कोई न कोई दूसरा सवाद प्रस्तुत करके प्रिया की यादे ताजा कर देता और सौभाग्य की प्रसन्नता को दुर्भाग्य की पीड़ा मे बदलते देर न लगती थी— प्रिया को लेकर कितने सपने थे सारे परिवार की आँखो मे— हमारी प्रिया ऐसी है, हमारी प्रिया वैसी है ; प्रिया के विवाह मे ऐसा करेगे—वैसा करेगे पर सारे सपने चकनाचूर कर दिये उस लड़की ने !

प्रिया की स्मृति के बादल सबकी आँखो को नम कर देते थे, किन्तु विवाह के कार्य यथावत्‌ चलते रहते थे। अतीत की पीड़ा को वर्तमान से दूर रखने मे ही हित होता है, यह सोचकर कोई भी नही चाहता था कि गरिमा के विवाह के मगलमय शुभ अवसर पर ऐसी कोई भी चर्चा हो जो पीड़ादायक हो। इस प्रकार की चर्चा से और पीड़ा से बचने के लिए परिवार के सभी सदस्य वैवाहिक कार्य मे व्यस्त रहते हुए सार्थक—सकारात्मक विषयो पर बाते करने का प्रयास करते थे। उस समय वे अपने परिवार के बाहर के अन्य व्यक्तियो से बाते करने से बचाव की मुद्रा मे रहने का प्रयास करने लगे थे, ताकि निरर्थक और नकारात्मक चर्चाओ से मुक्त रहकर वैवाहिक—कार्यो को सम्पन्न किया जा सके।

गरिमा के व्यवहार से अभी तक उसका लड़कपन झलकता था, किन्तु उसका मस्तिष्क परिपक्वता की दिशा मे कदम बढ़ा चुका था। उसके मस्तिष्क की परिपक्वता तथा चिन्तन—मनन का ही परिणाम था कि उसने अपने विवाह के सम्बन्ध मे न तो अपना कोई मत प्रकट किया था और न ही किसी बात का विरोध किया था। वह पूर्णतः तटस्थ होकर अपने परिवार के विषय मे तथा अपने भविष्य के विषय मे चिन्तन करती रहती थी।

अपने विवाह के विषय मे न तो उसके अन्तःकरण मे किसी प्रकार का क्षोभ या तनाव था, न किसी प्रकार का उत्साह था। गरिमा की माँ उसकी ऐसी दशा देखकर कष्ट का अनुभव करती थी। वे उससे एक दिन मे कई—कई बार पूछती थी— क्या हो गया है तुझे ? सारा दिन इसी तरह बैठकर ही पढ़ती रहती है !

मम्मी जी ! काम तो करने नही देती हो आप, फिर क्या करूँ ?

लाड़ो अब तुम्हारे कॉलिज की परीक्षा नही होने वाली है, जिसकी तैयारी किताबे पढ़—पढ़कर करोगी ! अब ससुराल की परीक्षा का समय आ गया है और इसकी तैयारी तुम अपनी सग—सहेलियो के साथ बतिया कर ही भली प्रकार कर सकोगी ! वरना...! गरिमा की भाभी ने चुटकी लेते हुए कहा।

वरना क्या ?

“वरना सास के घर परीक्षा मे फेल होकर अपनी पहली कक्षा मे ही रह जाओगी ! पहली कक्षा का मतलब समझ रही हो ? भाभी ने विचित्र सी मुद्रा बनाकर प्रश्न किया और तुरन्त ही अपने प्रश्न का उत्तर देते हुए व्यगात्मक शैली मे कहा— मतलब भाई के घर मे ! सास के घर रहकर उसके बेटे और उसके परिवार वालो को प्रसन्न रखने के लिए किताबी ज्ञान काम नही आता है। उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए हमसे—अपनी भाभी से और अपनी सहेलियो से दीक्षा लेनी पड़ेगी तुम्हे ! वरना...। एक लम्बी साँस लेकर भाभी कुछ क्षण के लिए रुकी और पुनः बोलना आरम्भ किया— सास का जाया इतना सीधा नही होता है, जो सीधी—सादी पत्नी को प्यार से रख ले। और सास ? ... वह तो तिल का ताड़ बनाने मे माहिर होती है। वह ऐसे मौके के तलाश मे रहती है, जब बहू—बेटे मे तकरार हो और उसे बहू को खरी—खोटी सुनाने का सुअवसर मिले !

बहू, तू अपनी सास के बारे मे ऐसा सोचती है ? गरिमा की माँ ने कुढ़ते हुए आर्द्र स्वर मे कहा।

नही, मम्मी जी ! मै आपके बारे नही कह रही हूँ ! पर मम्मी जी आपके जैसी सास सबको नही मिलती है। मेरा सौभाग्य था कि आप मेरी सास है !

गरिमा की माँ की प्रवृत्ति बहू के साथ उलझने की नही थी। वैसे भी, उन दिनो वे अपनी बेटी की चिन्ता से, उसकी विदाई के पश्चात्‌ जीवन मे और घर मे रिक्तता की कल्पना—भर से ही हृदय मे उठने वाली भय मिश्रित आशका से असहज—सी रहती थी। अतः वे वहाँ से हटकर किसी—न—किसी महत्वपूर्ण कार्य मे व्यस्त हो जाती थी। उस समय कार्य मे व्यस्त रहते हुए भी उनका मस्तिष्क गरिमा के विषय मे ही चिन्तन करता रहता था कि उनकी बेटी सामान्य लड़कियो के समान अपने विवाह मे उत्साह और उमग मे भरी हुई क्यो नही रहती है ? यह चिन्ता उन्होने एक—दो बार गरिमा के पिता के समक्ष प्रकट करते हुए कहा था— पता नही, गरिमा को क्या हो गया है ? इस उम्र मे लड़कियाँ अपने विवाह की सूचना से ही लजाने लगती है ; झूमने लगती है ; अपनी सखी—सहेलियो से अपने ससुराल के विषय मे और होने वाले पति के विषय मे हँसती है, बतियाती है, पर हमारी गरिमा मे तो अपने विवाह को लेकर कोई उत्साह—उमग है ही नही !

तू उसकी माँ है, तुझे पूछना चाहिए, उसकी क्या समस्या है ? क्या चाहती है ? मेरा पूछना ठीक नही रहेगा, हो सकता है कि ऐसी कोई बात हो जिसे वह मुझसे न कह सके। इसलिय तू ही... !

मैने पूछा है, कई बार पूछा है, पर वह कहती कि कोई भी समस्या नही है और जो जैसा हो रहा है उससे वह सतुष्ट है।

ठीक है तो फिर चिन्ता क्यो कर रही है ? देख, जो लड़कियाँ अपने विवाह के समय हँसती—बतियाती फिरती है वे हमारी बेटी जैसी नही होती है।

“तो कैसी है आपकी बेटी?

हमारी बेटी चिन्तनशील है। नये घर की नयी और बड़ी जिम्मेदारी उसके कधो पर आने वाली है, उसे कैसे पूरा करना है, इस विषय मे हर लड़की नही सोचती, हमारी बेटी सोचती है, ठीक अपनी माँ की तरह। गरिमा के पिता हल्के—फुल्के अन्दाज मे बात समाप्त करके अपने कार्य मे तल्लीन हो गये। परन्तु गरिमा की माँ अपनी चिन्ता से मुक्त नही हो सकी।

गरिमा के चित्त को पुस्तको से हटाने के लिए उसकी माँ ने एक और प्रयास करने का निश्चय किया। अपने इस प्रयास मे उन्होने गरिमा के वस्त्रो की एक सूची बनायी और उससे आग्रह किया कि वह अपने वस्त्रो और गहनो का चुनाव स्वय करे। ऐसा आग्रह वे पहले भी कर चुकी थी, किन्तु गरिमा उनके आग्रह को टाल जाती थी और सदैव की भाँति इस बार भी उसने अपने लिए सामान की खरीददारी स्वय करने का माँ का आग्रह अस्वीकार करते हुए कहा—

मम्मी जी, आप मेरे लिए जो सामान कपड़े—गहने, जैसे भी लाओगी, मुझे सब—कुछ बहुत—बहुत अच्छा लगेगा, आप भाभी को अपने साथ लेकर चली जाओ।

गरिमा, बेटी, तू हमारे साथ क्यो नही चलना चाहती ? माँ, आप जानती हो न, मुझे कपड़ो मे, गहनो मे रुचि नही है। मुझे कपड़ो—गहनो से कोई फर्क नही पड़ता है कि वे कैसे है ! मुझे पढ़ने मे रुचि है, इसलिए मुझे इस बात से फर्क पड़ता है कि मेरा अध्ययन... ! कहते—कहते गरिमा उदास हो गयी और फिर तुरन्त ही समय की सवेदनशीलता को भाँप कर हँसते हुए बोली— कपड़ो—गहनो के रग—डिजाइन के चुनाव मे मेरी प्रतिभा बिलकुल शून्य है। हाथ के सकेत से पुनः समझाते हुए हँसती बोली— बिलकुल जीरो ! जबकि भाभी और आप अच्छे रग और डिजाइन चुन सकती हो ! इसलिए आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप व्यर्थ मे मुझे परेशान न करे, स्वय सामान खरीद कर ले आये ! अपना अन्तिम निर्णय सुनाते हुए गरिमा ने अपनी माँ से कहा।

गरिमा की माँ अपनी बेटी के स्वभाव से भली—भाँति परिचित थी। वे जानती थी कि उनकी बेटी अपने निश्चय पर अटल रहती है, इसलिए उन्होने गरिमा पर किसी प्रकार का दबाव बनाना उचित नही समझा। गरिमा ने अपने गहना—वस्त्रो पर उसने किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नही दी। यहाँ तक कि उसने अपने किसी भी सामान को ध्यानपूर्वक देखना भी आवश्यक नही समझा। उसकी दृष्टि मे देह को सुसज्जित करने वाले उन उपकरणो का कोई महत्व नही था। उसके विचारो के केन्द्र मे सौन्दर्य—उपकरणाे के स्थान पर अपने भावी—जीवन की रूपरेखा तथा उसको सार्थक करने वाले उपायो की कुछ स्पष्ट—सी तथा कुछ अस्पष्ट—सी एक लम्बी सूची थी। अपने भावी जीवन के लिए एक योजना थी, जिसकी सफलता—असफलता भविष्य के अन्धकारमय गर्भ मे थी। अपनी इसी योजना को केन्द्र बिन्दु बनाकर गरिमा भाँति—भाँति की कल्पनाएँ करती हुई अनुकूल समय की प्रतीक्षा कर रही थी, जैसे एक बगुला शान्त चित्‌ होकर अपने शिकार की प्रतीक्षा करता है, कब शिकार आये और कब वह उसे पकड़े। प्रतीक्षा तो परिवार के अन्य सदस्य भी कर रहे थे, परन्तु शेष सभी सदस्य गरिमा के विवाह के लिए निश्चित शुभ दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे। शीघ्र ही वह दिन भी आ गया, जब गरिमा आशुतोष के साथ परिणय—सूत्र मे बँध गयी और देखते—ही—देखते परिवार की शुभकामनाएँ लेकर अपनी कल्पनाओ के साथ डोली मे बैठकर पिता के घर से पति के घर जाने के लिए विदा हो गयी। पिता के घर से विदा होते समय गरिमा के चित्‌ मे न अपना परिवार छोड़कर जाने का दुख था, न पति के घर जाने की प्रसन्नता थी। उसकी दृष्टि मे दोनो परिवार उसके आश्रय—स्थल थे, जहाँ रहते हुए उसको अपने दायित्वो का निर्वाह करने के साथ अपने जीवन को ऐसी ऊँचाई पर पहुँचाना है, जहाँ पर वह अपने व्यक्तित्व को प्रकाशित कर सके ; अपनी स्वतन्त्र पहचान बना सके। वह नही चाहती थी कि ससार मे उसका आना निरर्थक हो। मनुष्य योनि मे जन्म लेकर निरर्थक—निरुद्‌देश्य जीवन जीना उसे असह्य था।

ससुराल मे आकर गरिमा को एक नये वातावरण मे स्वय को समायोजित करना था। जब वह ससुराल पहुँची, उसे ऐसा अनुभव हुआ जैसे शान्त—शीतल वातावरण से उष्ण और उग्र वातावरण मे आ पहुँची है। घर—परिवार की महिलाएँ जब हास—परिहास करती थी, तो लगता था कि सब—कुछ ठीक है, किन्तु कुछ ही समय मे वह परिहास व्यग—बाणो की वर्षा मे परिवर्तित होकर गरिमा की पीड़ा का कारण बन जाता था। परिपक्व वयः की कुछ स्त्रियाँ, जो सम्भवतः आशुतोष के पास—पड़ोस से अथवा अन्य किसी सम्बन्ध से वैवाहिक समारोह मे आयी थी, वात्सल्यपूर्ण मुद्रा मे बाते करते—करते उपहास और ताने की मुद्रा ग्रहण कर लेती थी। उनके तानो के तरकस मे चार—छः घिसे—पिटे तीर थे, यथा— तेरी माँ ने यह नही सिखाया—वह नही सिखाया। हास—उपहास और तानो से पगी हुई वैवाहिक रस्मो को सम्पन्न करते—करते रात हो गयी। इधर पिछली रात जागने से और फिर यात्रा करने से गरिमा पूरी तरह थक चुकी थी तथा ससुराल की महिलाओ की रस—विहीन बातो से पक चुकी थी। अतः शीघ्र ही गरिमा ने बिस्तर की माँग कर डाली और बिस्तर पर जाते ही गरिमा तुरन्त नीद के आगोश मे समा गयी। हाँ, यह बात अलग है कि जब उसने अपने सोने की इच्छा व्यक्त की थी, तब भी उसे उन महिलाओ के परिहास मिश्रित उपहास का पात्र बनना पड़ा था।

प्रातः काल गरिमा की नीद उस समय टूटी, जब परिवार की एक अधेड़ स्त्री उसके ऊपर व्यग—बाण बरसा रही थी। वह शीघ्रता से उठी और आँखे मलते हुए घड़ी पर दृष्टि डाली। ठीक चार बजे थे। अपने निकट खड़ी हुई स्त्री के शब्दो को सुनकर गरिमा आश्चर्य मे पड़ गयी। सभी शब्द दोहरे अर्थ को धारण करने वाले थे, इसलिए उसको झुझलाहट आने लगी। वह मन ही मन सोचने लगी— कैसा वतावरण है यहाँ का ? प्रातः काल के चार बजे कुछ लोग ब्रह्म मुहुर्त मे पूजा—अर्चना करते है या नीद मे डूबकर मधुर स्वप्नो का आनन्द लेते है, लेकिन यहाँ कुछ नया ही प्रचलन है ! अपनी झुझलाहट—भरी सोच को गरिमा व्यक्त कर पाती, उससे पहले ही उसे अपने माता—पिता द्वारा दिया गया वह निर्देश याद आ गया जिसमे उन्होने कहा था कि वे अपनी बेटी से यह आशा करते है कि उनकी बेटी ऐसा कोई कार्य नही करेगी, जिससे उसके ससुराल वाले अप्रसन्न हो जाएँ और उनका सिर झुक जाए ! उस समय माता—पिता की आशा—भरी दृष्टि के स्मरण ने गरिमा की झुझलाहट को पवन की भाँति उड़ा दिया, परन्तु अपनी नीद मे व्यवधान उसको सहन नही हो रहा था। उसने सयत भाषा मे विनम्रतापूर्वक कहा—

अभी तो चार बजे है, आप इतना परेशान क्यो हो रही है ? चार बजे है ! तेरी माँ ने तुजै इतना बी नी समझा कै भेज्जा, बहुएँ जल्दी उठकै चार बजे तक नहा—धोकै पूजा—पाठ कर लेवै है ! उस स्त्री ने गरिमा को डाँटते हुए ताना कसा, तो गरिमा निरुत्तर हो गयी। तभी गरिमा को अपनी सास का स्वर सुनायी पड़ा— कोई बात ना है जिज्जी, बालक है अभी, सैज—सैज के सीक जावेगी। जैसी तेरी मरजी ! तेरी बऊ है ! तू चाहवै तो दिन—रात सुवाये राख ! पर एक बात बताऊँ, बऊ एक बार हात्तो से लिकड़गी, तो फेर सारे कुणबे की नाक मे नकेल कसण लगेगी। समझ ले ! अपनी बात पूरी करके वह स्त्री वहाँ से चली गयी। उसके पीछे—पीछे गरिमा की सास उसको क्रोध शान्त करने के लिए चली गयी और स्थिति को भाँप कर गरिमा ने भी बिस्तर छोड़ दिया। स्थिति को नियत्रण मे रखने के लिए गरिमा को यह आवश्यक अनुभव हुआ कि फिलहाल उसे वे सभी कार्य सास के निर्देशन मे सम्पन्न करने चाहिए, जिनकी उस समाज मे एक बहू से अपेक्षा की जाती है।

उस दिन सुबह से शाम तक अधिकाश समय गरिमा ने बैठकर व्यतीत किया। सारा दिन मुहँ—दिखाई की रस्म होती रही और रस्म मे सम्मिलित होने वाली महिलाएँ बहू की शक्ल—सूरत, शिक्षा—सस्कारो तथा दान—दहेज पर अपनी—अपनी टिप्पणी करती रही। अधिकाश महिलाएँ कड़वी—चुभती अप्रिय टिप्पणी करने मे ही गौरव का अनुभव कर रही थी, परन्तु अपवाद स्वरूप कुछ महिलाएँ ऐसी भी थी, जो स्नेहपूर्ण शब्दो मे प्रिय लगने वाली टिप्पणी करके यह आभास करा देती थी कि ससुराल और मायके मे बहुत अधिक अन्तर नही होता है। गरिमा को ऐसा लग रहा था कि दिन अपेक्षाकृत लम्बा हो गया है।

खैर, देर से ही सही, दिन बीत गया और रात आ गयी। उस रात आशुतोष के साथ गरिमा की प्रथम भेट थी। आधी रात तक पति—पत्नी एक—दूसरे के विषय मे जानते—पूछते रहे और पे्रमालाप करते रहे। उसी समय गरिमा को प्यास लगी। उसका गला सूखने लगा, किन्तु इधर—उधर दृष्टि ड़ालने पर ज्ञात हुआ कि कमरे मे पानी की व्यवस्था नही है। पानी पीना है, तो रसोईघर तक जाने का कष्ट उठाना पड़ेगा। गरिमा ने पति से निवेदन किया, किन्तु पति ने रसोईघर मे जाने का मार्ग बताकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली। दो दिन तक परिवार मे उपस्थित महिलाओ के परिहास भरे उपहास और ताने सुन—सुनकर गरिमा मे इतना साहस नही बचा था कि वह अपनी प्यास बुझाने के लिए रात मे अपने शयन—कक्ष से बाहर निकलकर रसोईघर मे प्रवेश कर सके। सम्भवतः उसके पति मे भी इतना साहस नही था कि परिवार मे उपस्थित स्त्रियो की दृष्टि के सामने से गुजरते हुए पत्नी के लिए रसोईघर से पानी ला सके या यह भी हो सकता है कि अपने स्थानीय समाज और सस्कृति के अनुरूप वह पत्नी को सिर पर चढ़ने का अवसर न देने की सावधानी बरत रहा हो। जो भी हो सारी रात गरिमा प्यास से व्याकुल रही।

तीन दिन तक ससुराल मे रहने के पश्चात्‌ चौथे दिन गरिमा को लौट—फेर की रस्म के लिए पिता के घर लाया गया और अगले दिन पुनः ससुराल के लिए विदा कर दिया गया। इस बार पिता का घर छोड़ते समय गरिमा का हृदय अत्यन्त क्षुब्ध था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उसकी आत्मा पीछे छूटती जा रह है और शरीर आगे बढ़ता जा रहा था। परन्तु शरीर और आत्मा साथ—साथ रह सके, ऐसा कोई उपाय नही सूझ रहा था उसको। निरुपाय होकर उसने एक लम्बी गहरी साँस भरी और आँखे बन्द कर ली। सब कुछ समय के अधीन छोड़कर स्वय को सयत रखने का प्रयास करने लगी और अपने सकल्प पर अपना ध्यान केन्द्रित करने लगी। वह मन नही मन उच्चारने लगी— इतना छोटा नही है हमारा लक्ष्य, जिसे आसानी से प्राप्त किया जा सके ! हमे दृढ़ बनकर बाधाओ को पार करना है ! उच्च लक्ष्य की प्राप्ति उच्च कोटि के साहस, धैर्य और सदगुणो से ही सम्भव है।

अपने विचारो मे खोई हुई गरिमा को पता ही न चला कि कब वह पति के घर की दहलीज पर आ पहुँची। उसकी विचार—शृखला तब टूटी, जब वह कार मे बैठी हुई महिलाओ के समूह से घिरी हुई थी और उसके कानो मे विभिन्न प्रकार के हास—परिहास मे डूबे हुए स्वर गूँज रहे थे। आज उन महिलाओ द्वारा किया जा रहा उपहास की सीमा तक पहुँचा परिहास गरिमा को इतना विचित्र नही लगा, जितना अब से पहले लगा था। अब वह उस समाज की सस्कृति से थोड़ा—बहुत परिचित हो चुकी थी और प्रत्यक्ष—अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार कर चुकी थी कि वह स्वय भी अब उसी समाज का एक अग है। ऐसा अग जिसको उस समाज मे अभी अपनी महत्ता सिद्ध करना शेष है।

इस बार ससुराल मे आकर गरिमा को ज्ञात हुआ कि विवाह के पश्चात्‌ ससुराल मे व्यतीत किये गये प्रथम तीन दिन उस परिवेश की मात्र झाँकी प्रस्तुत कर रहे थे, वास्तिविक रूप तो धीरे—धीरे आँखो के समक्ष आयेगा। उसने अनुभव किया कि विवाह के पूर्व का जीवन जितना बाधा रहित था, वैवाहिक जीवन उतना ही कटकाकीर्ण है। इस जीवन मे सघर्ष है, दायित्व है, असफलताएँ है और इसके साथ—साथ परिवार के प्रत्येक सदस्य से मिलने वाली उपेक्षा है। स्वय को इसी समाज मे समायोजित करना यद्यपि किसी चुनौती से कम नही है, तथापि स्वय को सिद्ध करने के लिए चुनौतियाँ स्वीकार करना आवश्यक है। गरिमा ने यह भी अनुभव किया कि उसका कार्य—क्षेत्र छोटा है ; वह किसी प्रकार की आर्थिक, सामाजिक शक्ति की स्वामिनी नही है, किन्तु उसका आत्म—विश्वास बड़ा है। छोटे से कार्य—क्षेत्र मे त्याग, तपस्या और धैर्य से पूरे परिवार के मनोमस्तिष्क अपने अनुकूल ढालने की सामर्थ्य की स्वामिनी है वह।

आत्मविश्वास से परिपूर्ण गरिमा प्रातः काल बिस्तर से उठने के समय से देर रात मे सोने के समय तक अनेकानेक छोटी—बड़ी बाधाओ को पार करके आगे बढ़ने लगी। कदम—कदम पर उसके मार्ग मे बाधाएँ उपस्थित होकर उसे आगे बढ़ने से रोकने का प्रयास कर रही थी। सबसे बड़ी बाधा गरिमा और उसकी सास के बीच का पीढ़ी अन्तराल था। घर मे होने वाला प्रत्येक कार्य सास—बहू के बीच विचारो की दूरियो का विषय बन जाता था। गरिमा चाहती थी कि उसकी सास समय के अनुरूप थोड़ा—सा आगे बढ़े और अपने विचारो को गति देते हुए तार्किक ढग से सोचे। परन्तु उसकी सास को अपने बेटे का पूर्ण समर्थन प्राप्त था, इसलिए अपनी रूढ़ परम्पराओ से आगे बढ़ने की आवश्यकता का अनुभव नही होता था या यह भी हो सकता है कि अपनी रूढ़ परम्पराएँ जिन पर उनकी मजबूत पकड़ थी, उन्हे छोड़कर आगे बढ़ने मे सास को अपनी सत्ता के खिसकने का भय सताता हो। गरिमा को इस दशा से बड़ी मानसिक पीड़ा होती थी, जब उसका पति उचित—अनुचित का सज्ञान लिए बिना घोषणा करता था कि उसकी माँ जो कुछ करती है और कहती है, वह उचित होता है, अनुचित हो ही नही सकता है। आशुतोष का इस प्रकार पत्नी के प्रति उपेक्षा पूर्ण—व्यवहार परिवार के अन्य सदस्यो को भी गरिमा के प्रति उपेक्षा पूर्ण और अनुचित व्यवहार के लिए प्रेरित करता है। इस बात का आशुतोष को एहसास ही नही था। पति के इस अज्ञानतापूर्ण व्यवहार से अनेक बार गरिमा खिन्न हो उठती थी। कई बार उसे ऐसा प्रतीत होता था कि स्त्री पर शासन करने के लिए पुरुष जाति की यह सोची—समझी रणनीति है, जिसमे वह उचित—अनुचित किये बिना एक स्त्री को प्रत्यक्षतः कुछ अधिक शक्ति प्रदान करता है, ताकि भ्रमित होकर वह अन्य स्त्रियो पर नियत्रण रख सके, जबकि वास्तिविक शक्तियो का स्वामी उस समय भी पुरुष स्वय होता है, चाहे वे शक्तियाँ आर्थिक हो, सामाजिक हो अथवा राजनीतिक हो।

अपनी चिन्तनशील प्रकृति के फलस्वरूप रूढियो के प्रति विद्रोह—भाव रखने बावजूद गरिमा का तत्कालीन उद्‌देश्य अपने स्वतन्त्र विचारो की अभिव्यक्ति की अपेक्षा घर मे सुख—शान्ति बनाये रखना था। वह इसके लिए पर्याप्त प्रयत्नशील भी रहती थी। परन्तु, सास—ससुर, ननद तथा तीन देवरो को प्रसन्न रख पाना उसके लिए टेढ़ी—खीर साबित हो रहा था। इसके अतिरिक्त पति के चाचा—ताऊ, जिनका अपनी पृथक पारिवारिक व्यवस्था थी, समय—समय पर गरिमा के प्रति उनकी भी उपेक्षापूर्ण—व्यगात्मक टिप्पणियाँ होती रहती थी। उदाहरण के लिए कुछ प्रसग प्रस्तुत है—

गरिमा अपने देवरो अर्थात्‌ आशुतोष के भाइयो को भइया कहकर पुकारती थी। एक दिन आशुतोष की चाची घर पर आयी। आँगन मे बैठकर बातो का सिलसिला आरम्भ हुआ, तो महिलाओ का एक बहुत बड़ा समूह वहाँ पर बन गया। सेवा—सत्कार करने के लिए तथा घर के अन्य कार्यो का दायित्व—भार वहन करने के लिए घर मे बहू तो थी ही, फिर सास—ननद के लिए भी महिलाओ के समूह मे बैठकर हँसने—ठठियाने के अतिरिक्त काम ही क्या बचता है। चूँकि घर मे बहू आ जाने के पश्चात्‌ घर का सारा कार्य—भार यथा— खाना बनाना, झाड़ू लगाना, बर्तन साफ करना, घर—आँगन की लिपाई—पुताई करना, परिवार के सभी सदस्यो के कपड़े धोना अपनो से बड़ो के पैर दबाना, सिर की मालिश करना और बाल सँवारना आदि सेवाएँ बहू के कार्यक्षेत्र मे सुनिश्चित कर देना उस स्थानीय समाज की प्रमुख विशेषता थी, इसलिए उन महिलाओ को दोष देना व्यर्थ है।

घर मे बहू आने के पश्चात्‌ सास—ननद के कार्यक्षेत्र मे घर की प्रशानिक व्यवस्था सँभालना सुनिश्चित हो जाता है। लेकिन प्रमुख आर्थिक—सामाजिक—राजनीतिक शक्तियो के क्रियान्वयन मे वास्तव मे उस समय भी उनकी किसी प्रकार की मुख्य भूमिका नही होती थी। फिर भी, नयी बहू का दमन करके उस पर शासन करने मे वे अपनी शक्ति का सामर्थ्य—भर प्रदर्शन करती है। अस्तु, नयी बहू होने के अपने दायित्व को समझते हुए गरिमा सत्कार—स्वरूप पानी का जग तथा गिलास लेकर महिलाओ के सम्मुख उपस्थित हो गयी। जग से गिलास मे पानी उड़ेलते हुए गरिमा के कानो मे एक विचित्र हँसी का ठहाका गूँज उठा। एक महिला हँसी का ठहाका मारते हुए कह रही थी— आज आसू के चाच्चा रोट्‌टी खाणै बैट्‌ठे, तो हँसतो—हँसतो सबका पेट दुक्खण लगा। उस महिला के ठहाके से और बात कहने के ढग से अन्य महिलाएँ भी हँसने लगी। और एक महिला ने बात को आगे बढ़ाने के उद्‌देश्य से कहा—

का कैरे हे ?

प्रत्युत्तर मे वह महिला पुनः हँसने लगी, जैसे कि वह अपनी हँसने की क्रिया को रोक पाने मे असमर्थ होने के कारण उस बात को न बता पा रही हो जिससे उसे हँसी आ रही है। उसको हँसते देखकर अन्य महिलाएँ भी हँसती रही, परन्तु उनकी हँसी धीमी हो गयी थी। बात का रस कम होते हुए देखकर गरिमा की ननद ने उलाहने की मुद्रा बनाते हुए कहा—

चाच्ची जी अब बता भी द्‌यो, का कैरे हे चाच्चा जी ? गरिमा चुपचाप महिलाओ को पानी के गिलास देती रही।

उसको उन सबके साथ हँसने—बतियाने की न अनुमति थी, न उसकी रुचि थी उन बातो मे, जो स्त्री द्वारा स्त्री की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगाती थी। अब पानी का गिलास पकड़ाती हुई गरिमा की ओर उस महिला ने विचित्र—व्यगात्मक दृष्टि से देखा और हँसते हुए उपहास की मुद्रा मे बताना आरम्भ किया—

सबेरी आसू के चाच्चा ने मेरे सै बुज्झी, आसू की बहू परसान्त, निशान्त कु भैया कहवै ?

फेर ? गरिमा की ननद ने बात को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया।

मैन्ने कह दी, नये जमाने की पढ़ी—लिक्खी बऊ है, अपने आसू की बऊ। अरी पढ़ी—लिक्खी बऊ, बऊ बणकै नी आत्ती, सास्सु बणके आवै। कुछ क्षणो के चुप रहकर महिला को पुनः हँसी आने लगी और उसने हँसते हुए पुनः बताना आरम्भ किया—

आस्सू के चाच्चा बोल्ले, तो आस्सू कू बी भैया इ कहण लगै, जैसे परसान्त—निसान्त, वैसा इ आसू।

गरिमा को यह व्यग सहन नही हुआ। उसने तुरन्त प्रत्युत्तर मे अपना तर्क प्रस्तुत करने के लिए कठोर मुद्रा धारण कर ली और विनय का त्याग करते हुए बोली— आपके लिए प्रशान्त भैया ओर निशान्त भैया जैसा होना अलग बात है। आप इनकी माँ के समान है। परन्तु आशुतोष मेरे लिए विशेष है, मेरे पति है ये। प्रशान्त ओर निशान्त से मेरा सम्बन्ध मात्र इसलिए है, क्योकि वे मेरे पति के भाई है। मेरे पति के भाई है, इसलिए मै उन्हे अपना भाई मानती हूँ। समझ गयी आप! और घर जाकर चाचा जी को भी समझा दीजियेगा कि आशुतोष के साथ मेरा क्या सम्बन्ध है और प्रशान्त—निशान्त के साथ क्या सम्बन्ध है ? गरिमा की प्रभावशाली वक्तृता तथा वक्तव्य से सभी महिलाएँ स्तब्ध रह गयी। उनकी हँसी रुक गयी। गरिमा अपनी बात पूरी करके पानी के खाली गिलास और जग उठाकर वापिस चल दी। वापिस चलने के लिए वह मुड़ी ही थी कि तभी उसकी ननद श्रुति ने उसको रोकते हुए कहा—

भाभ्भी, वैसे तो तम पढ़ी—लिक्खी हो, पर तमो ने बड़े—छोट्‌टे सै कैसे बात करणी चैये, यूँ नही सिखाया ? जिणसे तम मुँजोरी कर्‌री हो, वै म्हारी चाच्ची है। समझ मे आया ? ना आया हो, तो भैया आकै समझावेगा, जब बढ़िया सै समझ मे आ जावेगा। थारा भला तो इसी मे है। अभी तम म्हारी बात कुछ समझ ल्यो ! आग्गै थारी राज्जी है !

श्रुति की फटकार सुनकर गरिमा ने चुप रहना ही उचित समझा। वह नही चाहती थी कि छोटी—सी बात को लेकर घर की सुख—शान्ति भग हो जाए। अतः वह चुपचाप चल दी। जाते—जाते उसने अपने पीछे श्रुति को कहते हुए सुना—

आज इसके ऊप्पर सनीच्चर की गिरह है, भैया आत्तो इ सूत्तेगा इसै!

आशुतोष सप्ताह के अन्तिम दिन शनिवार को ही घर पर आता था। गाँव के पास कोई भी मुख्य सड़क न होने के कारण यातायात की ऐसी सुविधा सुलभ नही थी कि वह प्रतिदिन निश्चित समय पर कार्यालय मे पहुँच सके। इसलिए वह शनिवार को घर आ जाता था और सोमवार को प्रातः तीन बजे उठता था, तत्पश्चात्‌ तैयारी करके कार्यालय के लिए प्रस्थान करता था। आज शनिवार था। आशुतोष के घर लौटने का दिन था। गरिमा छः दिन तक निरन्तर पति की मधुर याद मे तड़पते हुए इस दिन की प्रतीक्षा करती थी। परन्तु, पति के घर लौटने के पश्चात्‌ भी वह उससे भेट नही कर सकती थी, क्योकि जैसे गरिमा प्रतीक्षा करती थी, वैसे ही परिवार के सभी सदस्य आशुतोष के लौटने की प्रतीक्षा करते थे। और आशुतोष ? उसके़ लिए गरिमा की अपेक्षा परिवार के अन्य सदस्य अधिक महत्वपूर्ण थे। अपने सस्कारो के अनुरूप आशुतोष को लगता था कि वह अपने समाज का आदर्श सदस्य तथा परिवार का आदर्श बेटा तभी बन सकता है, जब अपनी पत्नी के न्यायोचित अधिकारो का हनन करे ओर उसको यह अनुभव कराये कि पत्नी का महत्व परिवार के अन्य सदस्यो की अपेक्षा उसके जीवन मे नगन्य है। अपने इसी प्रयास मे वह घर लौटकर गरिमा से भेट करने मे सकोच करता था। आशुतोष के इसी दृष्टिकोण का खामियाजा गरिमा को भुगतना पड़ता था।

उस दिन भी ऐसा ही हुआ था। आशुतोष ने अपने कार्यालय से लौटकर कुछ समय अपने पिता तथा भाईयो के साथ व्यतीत किया।

तत्पश्चात्‌ नहा—धोकर कपड़े बदल कर माँ के पास बैठ गया। गरिमा ने खाना बना दिया था, परन्तु पति के लिए खाना परोसना उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर था। माँ ने अपनी बेटी श्रुति से कहा कि वह भैया के लिए खाना परोस दे। माँ का आदेश पाकर उसने खाना परोस दिया। खाना खाने पश्चात्‌ भी आशुतोष को पत्नी की सुध नही आयी। वह घटो तक वही पर बैठा हुआ माँ के साथ बतियाता रहा, जैसे आज से पहले बतियाता था। दूसरी ओर, आज दोपहर की घटना से गरिमा अत्यन्त व्यथित हो गयी थी और अब अपनी विवशता पर उसकी व्यथा और भी बढ़ रही थी। कुछ समय तक वह अपने कमरे मे प्रतीक्षा करती रही, लेकिन कुछ ही समय मे उसके धैर्य ने उसका साथ छोड़ दिया। वह उठी और उसी स्थान पर पहुँच गयी, जहाँ पर आशुतोष अपनी माँ से बाते कर रहा था। वहाँ जाकर गरिमा ने देखा कि सदैव की तरह आशुतोष और माँ के चारो ओर प्रशान्त, निशान्त, सौरभ और श्रुति घेरा बनाकर बैठे थे। गरिमा भी वही पर बैठ गयी। माँ को शायद यह अच्छा नही लगा, परन्तु उन्होने इस विषय मे कुछ भी नही कहा।

गरिमा के बैठने के पश्चात्‌ कुछ क्षणो तक वातावरण मे निःशब्दता भर गयी। कुछ क्षणो पश्चात्‌ श्रुति ने शिकायत के लहजे मे कहा— भैया मै तो आज सै गरिमा कू कुछ बी कहूँगी नी, चायै कुछ बी हो जाए !

क्यो ? क्या बात है ? आशुतोष ने गरिमा को कठोरतापूर्वक घूरते हुए माँ से पूछा।

का बात है, इस्सैइ बूझ ले।

माँ, साफ—साफ बताओ, क्या हुआ है ? आशुतोष ने माँ से पुनः पूछा।

देख बेट्‌टा, इससै किसी काम कू कहवे है तो यू हमे उल्टा जबाब देवे है। अर आज तौ इसने हद्‌द इ कर दी। तेरी चाच्ची आकै यहाँ घड़ी—भर बैठ जावै, आज उसकी साथ इसनै ऐसी मँजोरी करी है, आग्गै सै फेर कधी इस घर मे आणे कू उसके पाँव ना पड़ सकै। गरिमा की शिकायत तो सदैव ही होती रहती थी, परन्तु आमने—सामने आज पहली बार हो रही थी। आज से पहले उसकी शिकायत उस समय होती थी, जब गरिमा अपने कमरे मे होती थी और आशुतोष माँ के साथ होता था। तब शिकायतो के रूप मे बेटे के लिए निर्देश होता था कि बहू को आरम्भ से ही नियत्रण मे नही रखा गया, तो बाद मे पछताना पड़ेगा। अपनी शिकायत अपने समक्ष होते देखकर गरिमा के लिए अपने पक्ष मे सफाई देना आवश्यक लगा। अतः उसने स्वय को निर्दोष सिद्ध करने के लिए कहा— चाची जी को मैने कुछ अनुचित नही कहा था। उस समय उनकी बात का उपयुक्त उत्तर देना आवश्यक था। ... और रही काम की बात, तो, मै घर का सारा काम अकेले करती हूँ। जितनी मेरी सामर्थ्य है, उससे अधिक करती हूँ ! अपना पक्ष पति के सम्मुख प्रस्तुत करके गरिमा का तनाव कुछ कम हुआ, किन्तु पूरे परिवार के सामने पत्नी प्रतिवाद करे, यह व्यवहार आशुतोष को सहन नही था। उसने क्रोध से गरिमा की ओर दृष्टि डाली ओर कठोर वाणी मे कहा—

तुम्हे अपनी सामर्थ्य के अनुसार नही हमारी जरुरत के अनुसार कार्य करना है ! समझी तुम ! तुम्हे इतनी तमीज नही है कि बड़ो के साथ किस तरह बात की जाती है, कैसे मान दिया जाता है, तो मुँह को बन्द रखा करो !

गरिमा के पास अब चुप रहने के अतिरिक्त अब कोई रास्ता नही था। व्यथित होकर वह वहाँ से खड़ी हो गयी और कमरे मे जाकर बिस्तर पर लेट गयी। कुछ समय तक वह अपने व्यवहारो ओर विषमताओ पर सोचती रही। सोचते—सोचते उसकी आँखो मे आँसू भर आये। अपनी व्यथा को वह आँसुओ मे बहा देना चाहती थी। रोते—रोते कब उसको नीद आ गयी, उसको पता ही नही चला। दिन—भर के काम की थकान से वह इतनी गहरी नीद मे सोयी कि प्रातः चार बजे उसकी आँखे खुली, जबकि आशुतोष बिस्तर छोड़ चुका था। गरिमा की व्यथा अब यह सोचकर और अधिक बढ़ गयी कि उसका पति पूरी रात उसके साथ होकर भी उसके साथ नही था। सप्ताह मे एक बार घर आता है, तब भी पत्नी के सुख—दुख को नही सुन सकता। पूरे परिवार के प्रति उसके कर्तव्य है, लेकिन पत्नी के प्रति उसके अन्तःकरण मे कोई कर्तव्य—भाव नही है। इन्ही पस्थितियो पर सोचती हुई गरिमा उठी और अपने दैनिक कार्या मे व्यस्त हो गयी।

दिन—भर घर के कार्यो की व्यस्तता के बावजूद गरिमा ऐसे अवसर की खोज मे रही, जबकि वह आशुतोष से भेट कर सके। ऐसा अवसर उसे कई बार मिला भी था, परन्तु पति महाशय का अहभाव बाधा के रूप मे उन दोनो के बीच उपस्थित हो गया। अपने अह के चलते आशुतोष अपनी पत्नी गरिमा से दूरी बनाता रहा। गरिमा जितना निकट आने प्रयास कर रही थी, आशुतोष उतना ही दूर जाने का मिथ्याडम्बर कर रहा था। अपने विचारो मे वह ऐसा करके गरिमा को उसके उस व्यवहार के लिए दडित कर रहा था, जो उसकी माँ की दृष्टि मे अनुचित था, पर वास्तव मे तो गरिमा के उस व्यवहार को गलत नही कहा जा सकता था, क्योकि गरिमा ने किसी के प्रति अभद्र व्यवहार नही किया था, केवल अपना पक्ष प्रस्तुत किया था— विनम्र ढग से सयत भाषा मे। किन्तु, घर मे कोई भी व्यक्ति गरिमा के इस दृष्टिकोण को समझने—सुनने के लिए तैयार नही था। दिन—भर वह प्रयास करती रही कि उसका पति उसके प्रति अपने कर्तव्य—बोध से अनुप्राणित होकर मैत्रीपूर्ण व्यवहार करे, पर उसको सफलता नही मिली। रात मे भी अत्यधिक प्रतीक्षा कराने के पश्चात्‌ आशुतोष विलम्ब से गरिमा के पास पहुँचा। प्रतीक्षारत और उपेक्षित गरिमा पति द्वारा एक दिन पूर्व की गयी टिप्पणी से सहमत नही थी और आज वह उसी विषय पर पुनः विस्तार से चर्चा करना चाहती थी। अतः वह चाची और श्रुति के व्यग्य की चर्चा आरम्भ करके अपना पक्ष प्रस्तुत करने लगी। आशुतोष को सब कुछ सहन हो सकता था, किन्तु अपनी माँ की अवज्ञा वह कदापि सहन नही कर सकता था। उसने कठोर मुद्रा मे दो टूक कहा—

माँ ने जो कह दिया, सो कह दिया। मेरे लिए माँ का एक—एक शब्द वेदवाक्य है और तुम्हे भी यही नियम मानना पड़ेगा, यदि यहाँ पर रहना है तो ! ध्यान रखना, आगे से माँ के खिलाफ करना तो दूर, सोचना भी मत !

पर मैने माँ के विरुद्ध कब क्या ?

बस ! अब और एक शब्द नही ! गरिमा का वाक्य बीच मे काटकर आशुतोष ने डाँटकर कहा और मुँह फेरकर लेट गया।

पति के उत्तर से अपनी उपेक्षा का अनुभव करके गरिमा की व्यथा कम होने की अपेक्षा अधिक हो गयी। उसे आशा थी कि वह अपने सयत—मधुर व्यवहार से पति के दृष्टिकोण को परिवर्तित करने मे सफल हो जाएगी, परन्तु ऐसा नही हो सका। अब उसको ऐसा कोई उपाय नही सूझ रहा था जिससे उसके पति के चित्‌ मे उसके प्रति कर्तव्य—बोध जाग्रत हो सके और वह स्वय परिवार के उपेक्षापूर्ण व्यवहार से मुक्त हो सके। अपनी इसी ऊहापोह मे वह सारी रात नही सो सकी थी, परन्तु निराशा अब भी उसके चित्‌ को स्पर्श तक नही कर पायी थी। असफलताओ को वह अपने लक्ष्य तक पहुँचने के मार्ग मे पड़ाव के रूप मे ग्रहण करती, निराशा उत्पन्न करने वाले कारण भूत तत्व के रूप मे नही, इसलिए वह सकारात्मक दिशा मे सोचने लगी। धीरे—धीरे वह सकारात्मक विचारो के साथ प्रकृतिस्थ हो गयी, परन्तु तब तक अपने चिन्तन—मनन के परिणामस्वरूप वह अपनी जीवन—शैली को बदलने का सकल्प ले चुकी थी।

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