दहलीज़ के पार - 11 Dr kavita Tyagi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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दहलीज़ के पार - 11

दहलीज़ के पार

डॉ. कविता त्यागी

(11)

‘पुरुषार्थी प्राणी की सहायता स्वय ईश्वर करता है' और ‘वह कभी किसी का पारिश्रमिक नही रखता है, देर—सबेर सबके परिश्रम का फल देता है' यह उक्ति गरिमा के ऊपर पूर्णतया चरितार्थ हो रही थी। उसने अपनी अधूरी शिक्षा को पुनः आरम्भ करने का निश्चय किया, तो सभी रास्ते स्वतः खुलते चले गये। प्रभा ने अपने वादे के अनुसार अगले दिन ही पुस्तके लाकर दे दी थी और आने वाले शनिवार को जब आशुतोष घर लौटकर आया, तब वह भी बी. ए. प्रथम वर्ष के पाठ्‌यक्रमानुसार पर्याप्त अध्ययन सामग्री ले आया। आवश्यकतानुसार पाठ्‌य—सामग्री तो गरिमा ने प्रभा से प्राप्त कर ली थी, किन्तु आशुतोष द्वारा लायी गयी अध्ययन—सामग्री से उसको एक विशेष प्रकार का सुख—सन्तोष तथा प्रोत्साहन मिल रहा था। सोमवार की प्रातः जिस समय गरिमा ने आशुतोष से बी.ए. की अध्ययन — सामग्री लाने का निवेदन किया था, उस समय गरिमा को यह विश्वास नही था कि उसका पति उसके निवेदन को स्वीकार करके कार्यरूप मे परिणत करेगा, भले ही आशुतोष ने उसको आश्वासन दिया था। अब उसको पूर्ण विश्वास हो गया था कि उसकी अधूरी शिक्षा को पूरा करने मे उसका पति यथासम्भव उसकी सहायता अवश्य करेगा।

गरिमा को अब आशुतोष का यह निर्णय भी अपने हित मे प्रतीत हो रहा था कि वह परीक्षा—फॉर्म जमा करने के लिए तथा परीक्षा देने के लिए अपने मायके चली जाए और परीक्षा सम्पन्न होने तक वही रहे। वह सोच रही थी कि ससुराल मे रहकर परीक्षा देना उसके लिए अत्यत कठिन हो जाता। परीक्षा के दिन भी उसके ऊपर घर के कायोर् का उतना ही भार रहता, जितना सामान्य दिनो मे रहता है। इतना ही नही, शारीरिक परिश्रम के साथ—साथ उसे मानसिक तनाव भी सहना पड़ता। इसके विपरीत मायके मे न उसके ऊपर किसी प्रकार का दायित्व—भार रहेगा, न ही किसी प्रकार का तनाव रहेगा। अब तो, उस पर कही आने—जाने का प्रतिबन्ध भी नही रहेगा। अब विवाहित लड़की होने के कारण वह अकेली जाकर अपना फॉर्म भरकर जमा कर सकती है। वह परीक्षा देने के लिए अकेली जा सकती है। कुछ समय के लिए वह अपने अतीत मे खो गयी, जब उसकी बी. एस.सी. की शिक्षा अधूरी छुड़वाकर उसके परिवार ने उसका अकेले घर से बाहर निकलना बन्द कर दिया था। उस समय पूरा परिवार सम्पत्ति की भाँति उस पर दृष्टि रखता था कि कोई चुराकर न ले जाए। कई बार उसने माता—पिता को कहते हुए सुना था कि एक बार बिटिया के हाथ पीले हो जाएँ, तो जिसकी अमानत है, उसे सौपकर सिर से भार उतर जाएगा और गगा जी नहा जाएँगे। अब, जबकि वे भार—मुक्त हो चुके है और गगा जी नहा गये है, तब मेरे ऊपर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध लगाने का न तो कोई औचित्य ही बनता है और न ही आवश्यकता है।

मायके मे स्वतन्त्रता की हवा मे साँस लेने की कल्पना मे गरिमा इतनी तल्लीन हो गयी कि वह यह भी भूल गयी कि उस समय वह मायके मे नही, ससुराल मे थी। अपने कल्पना—जगत से वह तब बाहर आयी, जब उसे आशुतोष ने कधा पकड़कर हिलाया। कल्पनाओ के सुखद—ससार से यथार्थ—जगत मे आकर भी आज गरिमा बहुत प्रसन्न थी। अपनी प्रसन्नता को प्रकट करते हुए उसने आशुतोष से कहा—

आज मै बहुत खुश हूँ ! मेरी प्रबल इच्छा थी कि पढ़—लिखकर मै अपने जीवन मे कुछ बड़ा करूँ ! जब मेरी शिक्षा अधूरी छुड़वाकर मेरा विवाह कर दिया गया, तब मेरी इच्छा भी दम तोड़ने लगी थी। परन्तु आज ईश्वर ने मेरी प्रार्थना सुन ली और पुनः मेरी शिक्षा आरम्भ कराने का श्रेय प्रभा को जाता है !

अच्छा जी ! पैसा खर्च हमने किया, परिवार के नियमो—सिद्धान्तो के विरुद्ध जाकर हम जिसकी पढ़ाई मे सहयोग कर रहे है, वह हमारा धन्यवाद करने मे भी कजूसी करे, तो बेकार है सहयोग करना!

मैने ऐसा तो नही कहा है कि आपके सहयोग के बिना ही मेरी शिक्षा पूरी हो जाएगी ! लेकिन प्रभा की प्रेरणा से मेरी इच्छा को नवजीवन मिला, तभी तो आपकी सहमति और सहयोग की आवश्यकता पड़ी है !

हाँ—हाँ, मान लेते है कि तुम ठीक कह रही हो ! तुम जितना चाहे, जब तक चाहो पढ़ाई कर सकती हो मुझे कोई आपत्ति नही है, न भविष्य मेे कभी होगी और जितना सभव होगा, मै तुम्हे सहयोग करता रहूँगा ! आशुतोष ने भाव—विभोर होकर गरिमा की अधूरी शिक्षा को पूरी करने मे और निरन्तर जारी रखने मे अपने सहयोग का आश्वासन दिया, तो गरिमा की आँखो मे प्रसन्नता के आँसू छलक आये। अपनी शिक्षा के प्रति आशुतोष की प्रतिबद्धता देखकर वह मन्त्रमुग्ध—सी होकर उसके सीने से लिपट गयी, जैसे कि वृक्ष के तने पर कृशकाय लता लिपट रही हो। तभी अचानक गरिमा को मिचली—सी आयी और वह आशुतोष के सीने से हट गयी। उसको लगातार उल्टी आती रही और जी—मिचलाता रहा, तो आशुतोष चितित हो गया। वह अपनी चिन्ता को प्रकट करने का आदी नही था, फिर भी उसके हृदयस्थ—भाव बाहर आने को बेचैन थे। उसकी चिन्ता और सवेदना ने हृदय से बाहर आते—आते जब पुरुष प्रकृति के अनुरूप कठोर रूप धारण कर लिया, तब क्रोधित होकर पुरुषोचित कठोर भाव—भगिमा चेहरे पर लाते हुए बोला—

कुछ उल्टा—सीधा खाया होगा, उसी से यह हालत है ! दिन—भर घर मे पड़े—पड़े तला—भुना खाने के अलावा औरतो को और कुछ काम तो होता ही नही है ! पहले खाने मे कमाई उड़ाओ, फिर डॉक्टरो का खर्च भरो !

आशुतोष का क्रोध देखकर गरिमा को भी क्रोध आ गया। वह सोचने लगी कि बीमारी की अवस्था मे रोगी को सेवा—सात्वना की आवश्यकता होती है, डाँट—फटकार की नही ! लेकिन इस परिवार की विचित्र परम्परा है कि रोगी के प्रति सहानुभूति व्यक्त करने के स्थान पर आशुतोष क्रोध प्रकट कर रहे है। आशुतोष का क्रोध से विकृत चेहरा देखकर गरिमा अधिक समय तक चुप न रह सकी। उसने भी क्रोधित होकर कहा— कुछ नही खाया है मैने उल्टा—सीधा और तला—भुना ! आज व्रत था मेरा, इसलिए सुबह से कुछ भी नही खाया है !

अरे, व्रत था, तो भूखो मरना जरूरी था क्या ? व्रत मे दूध—चाय पीना भी वर्जित होता है क्या ? कुछ भी ऐसा खा लेती, जो व्रत मे खाना वर्जित नही होता है ! माँ से कहकर दुकान से मँगवा लेती ! आशुतोष ने पुनः उसी कठोर मुद्रा मे डाँटते हुए कहा, तो गरिमा को हँसी भी आयी और क्रोध भी— जब आपका अनुमान था कि मैने दिन मे कुछ तला—भुना खाया होगा, जिसके कारण मुझे अपच हो गया है और यह जी मिचलना तथा उल्टियाँ होना उसी का असर है, तब भी आप मुझे क्रोध से डाँट रहे थे। अब जब मै स्पष्ट कर चुकी हूँ कि आज मेरा उपवास था, तब भी आपकी मुद्रा मे कोई परिवर्तन नही आया है ! इसे क्या समझा जाए ? यही न, कि पुरुष होने के नाते आपको यह अधिकार है कि आप जब चाहे मुझे—अपनी पत्नी को फटकार सकते है, मेरा कुछ दोष हो या न हो ! इतना कहकर गरिमा चादर ओढ़कर लेट गयी और आशुतोष कमरे से बाहर चला गया। रात—भर गरिमा प्रतीक्षा करती रही कि उसका पति उसके स्वास्थ्य की चिन्ता करके वापिस लौटेगा, किन्तु वह नही लौटा।

जब से आशुतोष का विवाह हुआ था, तब से प्रतिदिन प्रातः उठकर घर की बहू होने के नाते गरिमा ही रसोई का सारा काम सम्हालती थी। श्रुति कभी—कभी बहुत कहने पर उसका हाथ बँटाती थी। प्रायः गरिमा अकेली रसोई मे काम करती थी और श्रुति बाहर से मिलने वाले आदेशो को उस तक पहुँचाकर अपने कर्तव्यो की इतिश्री समझ लेती थी। उस दिन सूरज सिर पर चढ़ आया था, किन्तु रसोई सूनी पड़ी थी। श्रुति और उसकी माँ आपस मे कह रही थी—

सारी रात जागकै सबेरी कू सिदोस्सी आँख खुल जावै, तो दुनिया सोणा ई ना छोड़ देवै। दुफैर लौ पड़ी सुस्सावै ऐ ! अब इसै मरद आकै गाली बकेगे, जभी इसकी अकल ठिकाणे आवेगी ! म्हारे कहणे सै तो उसके ढुँगे पै जूँ बी नी चलती !

गरिमा अपने कमरे मे लेटी हुई सारी बाते शान्त—भाव से सुन रही थी। उसने कई बार सोचा कि उठकर नाश्ता बनाये, परन्तु उसके शरीर मे सुस्ती—सी आ गयी थी। वह चाहते हुए भी नही उठ सकी और चादर ओढ़कर पुनः मुँह ढककर लेट गयी। कुछ ही समय बाद नाश्ते का समय होने वाला था। गरिमा को चिन्ता हो रही थी कि आखिर क्या होगा, जब निश्चित समय पर सभी परिवार वाले नाश्ता करने बैठ जाएँगे ? गरिमा के सोचते—सोचते नाश्ते का समय हो गया और उसने सुना कि बाहर आँगन मे उसके ससुर और देवर यथोचित समय पर नाश्ता नही बनने के कारण क्रोध से चिल्ला रहे है कि समय पर खाने को कुछ नही मिलेगा, तो खेतो मे काम कैसे हो पायेगा। उनकी सारी बातो का साराश यह था कि पुरुष दिन—भर कठोर परिश्रम करते है, किन्तु घर की स्त्रियाँ सारे दिन आराम से घर के अन्दर कमरो मे बैठती है, जहाँ न धूप और ठड से कुछ असुविधा होती है और न बरसात से। गरिमा को आभास हुआ कि उसकी सास ने उनकी प्रतिक्रियास्वरूप कुछ कहा था, लेकिन क्या कहा था, वह स्पष्ट नही सुन सकी थी। तभी उसके कानो मे आशुतोष का स्वर पड़ा—

उसकी तबियत खराब है ! रात को कई बार उल्टियाँ हुई थी, हो सकता है, अब शायद उसकी तबियत रात से भी ज्यादा बिगड़ गयी हो !

अर तू सारी रात कहाँ रह्‌या, जो तुजै न्यू बी ना पता अक उसकी हालत रात सै बिगड़ी ऐ या सुदरी ऐ ! माँ ने आशुतोष को डाँटकर कहा।

मुझे नीद आ रही थी, इसलिए मै घेर मे जाकर प्रशान्त के साथ सो गया था !

तुझै नीद आ री ई तो हमै बता जात्ता, बऊ की तबियत खराब ऐ ! हम उसका कुछ देस्सी इलाज करते ; उसकी देखभाल करते ! माँ ने सहानुभूतिपूर्वक कहा।

अरै, कम्मख्तो ! अब्‌ बी सब य्‌ही खड़े रहोगे ! कम—सै—कम अब तो भित्तर जाकै देख ल्यो ! उसकी दवाई—गोली का इन्तजाम करो अर किसी डॉक्टर कू दिखाओ ! आशुतोष के पिता ने पूरे परिवार को फटकारते हुए गरिमा की देखभाल करने का आदेश दिया, तो नाश्ता करना भूलकर पूरा परिवार उसकी चिन्ता करने लगा। घर के मुखिया की आज्ञा से गरिमा की गाँव के बेहतर डॉक्टर से जाँच करायी गयी। डॉक्टर ने जाँच करके बताया कि गरिमा माँ बनने वाली है। इस शुभ समाचार को सुनते ही, कि उनके घर मे नया मेहमान आने वाला है, घर मे सुखद वातावरण बन गया। गरिमा के ससुर ने तुरन्त प्रशान्त को मिठाई लाने की आज्ञा दी और डॉक्टर से कहा कि प्रतिदिन घर पर आकर बहू के स्वास्थ्य के विषय मे जानकारी लेता रहे। श्रुति का तथा उसकी माँ का क्रोध और द्वेष—भाव भी कुछ समय के लिए तिरोभूत हो गया। उसका स्थान उस समय वात्सल्य—भाव ने ले लिया था। नव—आगन्तुक के प्रति उनके हृदय मे जो वात्सल्य—भाव उमड़ रहा था, वह द्वेष और क्रोध पर भारी पड़ गया, परिणामस्वरूप उन्हे भी गरिमा के स्वास्थ्य की चिन्ता होने लगी थी।

घर मे बच्चा आने की सूचना से घर का वातावरण पूर्णरूप से परिवर्तित हो गया था। अब श्रुति तथा उसकी माँ गरिमा की ऐसे देखभाल करती थी कि उसे लगता था, वे उसकी सास—ननद नही, बल्कि उसकी माँ—बहन है। गरिमा के आस—पास अपनी माँ को या श्रुति को देखकर आशुतोष अपने पति—धर्म के प्रति उदासीन हो जाता था। जब तक उसकी माँ तथा बहन गरिमा के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार करती रही थी, सयोगवश तब तक आशुतोष अपनी पत्नी के प्रति अपने कर्तव्यो का निर्वाह करता रहा था, परन्तु अब, जबकि उसकी माँ तथा बहन के व्यवहार मे सकारात्मक परिवर्तन आया था, तो आशुतोष गरिमा के प्रति अपने कर्तव्य—निर्वाह मे उदासीन हो गया था। अनेक बार गरिमा अपने पति की इस उदासीनता से आहत होती थी, लेकिन हर बार वह यह सोचकर चुप रह जाती थी कि गाँव की सस्कृति के अनुरूप आशुतोष अपनी माँ तथा श्रुति को उसके आस—पास देखकर सकोचवश उससे भेट नही करता है। इसी प्रकार चार महीने बीत गये। घर का वातावरण सुख—शाति से परिपूर्ण था। गरिमा भी अपने गर्भस्थ शिशु की कल्पनाओ मे खोयी रहती थी और सास—ननद के सौहार्द्रपूर्ण व्यवहारो से प्रसन्नचित्‌ रहती थी, किन्तु इस समयान्तराल मे आशुतोष ने घर मे आना बहुत ही कम कर दिया था। गाँव मे आकर वह अपना अधिकाश समय पुरुषो के लिए निर्धारित स्थान (जिसे वहाँ की स्थानीय भाषा मे घेर कहा जाता था) पर रहकर ही गुजारता था। जब वह घर मे आता था, तब भी गरिमा के साथ बैठकर तसल्लीपूर्वक बाते न करके चलते—चलते ही उसकी बातो का उत्तर देता था। आशुतोष के इस प्रकार के उदासीन रवैये से गरिमा को बहुत पीड़ा होती थी, पर श्रुति का और उसकी सास का सौहार्द्र उस पीड़ा पर मरहम का काम कर देता था। जब कभी वह अकेली होती थी, तब उसका गर्भस्थ शिशु उसके अकेलेपन को दूर करता था और उसका सम्बल बनकर उसकी पीड़ा को कम करता था।

इन चार महीनाो मे यदा—कदा प्रभा भी गरिमा से भेट करने के लिए आती रहती थी। प्रभा ने गरिमा को बताया था कि प्रवेश—पत्र मिलने के बाद भी श्रुति ने अपनी परीक्षाएँ नही दी क्योकि प्रतिदिन परीक्षा देने के लिए जाने पर उसकी पढ़ाई का गुप्त रहस्य खुलने की शत—प्रतिशत सभावना थी। श्रुति की विवशता तथा पढ़ने की इच्छा के विषय मे प्रभा से सुनकर गरिमा का हृदय रोने लगा। उसने निश्चय किया कि वह श्रुति की पढ़ाई पुनः आरम्भ कराने के लिए आशुतोष से तथा उसकी माँ से आग्रह करेगी तथा उन्हे समझायेगी कि वह समाज की मर्यादा भग किये बिना भी अपनी शिक्षा पूरी कर सकती है। गरिमा अपने निश्चय के अनुरूप आशुतोष से या उसकी माँ से कुछ कह पाती, उससे पहले ही घर मे एक घटना घट गयी।

उस दिन माँ ने घर की सुख—शान्ति के लिए तथा गरिमा के गर्भस्थ शिशु केे स्वास्थ्य के लिए श्री सत्यनारायण की पूजा का आयोजन किया था। माँ ने परिवार के एक—एक सदस्य को पिछले दिन शाम को ही कह दिया था कि प्रातः शीघ उठकर शौच—स्नान आदि से निवृत्त होकर सभी को मुँह झूठा किये बिना पूजा मे बैठना है। पूजा मे बहू के साथ बेटा का बैठना आवश्यक था, फिर भी आशुतोष निर्धारित समय पर पूजा मे नही पहुँचा। आज से पहले कभी ऐसा नही हुआ था कि वह किसी को बताये बिना घर से बाहर गया हो। पडित जी तथा पूरा परिवार उसकी प्रतीक्षा मे बैठा रहा और पूजा के लिए शुभ मुहुर्त निकलता जा रहा था। घर और सभी स्थानो पर आशुतोष को खोजा गया, लेकिन वह कहाँ गया था, किसी को कुछ पता नही चला। घर के बड़े बेटे के न मिलने पर सभी चितित थे। सब अपना—अपना मत तथा अपने हृदय की चिन्ता प्रकट कर रहे थे, गरिमा मर्यादावश ऐसा करने के लिए भी अधिकृत नही थी। उसी समय अचानक श्रुति ने गरिमा को सुनाते हुए कहा— बड़ा भैया सबेरी चम्पा भाब्बी की साथ गया हा ! कह रा हा पूजा के टैम सै पहलै आ जावेगा, पर उस राड की साथ जाकै ऊ पूजा सै पहले न आवै, मुजै तो पहलै ई पता हा !

इसै मुँह कू बन्द कर ले, नी तो यू जो तेरी गज—भर लम्बी जुबान लिकड़ री ऐ, इसै चिमटे सै खैच ल्यूँगी ! श्रुति को डाँटते हुए माँ ने बिगड़कर कहा।

माँ के बिगड़ने का मुख्य कारण था श्रुति द्वारा चम्पा के लिए अभद्र शब्दो का प्रयोग करके आशुतोष के बारे मे सूचना देना। चम्पा आशुतोष के तहेरे भाई की विधवा थी और अपने जेठ—देवरो से अलग रहती थी, इसलिए बाहर के कई कार्य—सम्पन्न कराने के लिए उसको प्रायः बाहर से सहायता लेनी पड़ती थी। उसके दो बेटे भी थे, लेकिन वे अभी इतने छोटे थे कि उन्हे किसी प्रकार का कार्य—भार नही सौपा जा सकता था। गली—मौहल्ले तथा गाँव—समाज के अनेक पुरुष उसके प्रति सहानुभूति रखते थे और उसके एक आग्रह पर कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाते थे। वैसे तो उसके जेठ—देवर और उनके परिवार के सभी लोग भी चम्पा से अपनत्व रखते थे और कदम—कदम पर उसकी सहायता करते थे, परन्तु उनकी सहायता लेना उसे कम रुचता था। वह अपने सभी छोटे—बड़े कार्यो को सम्पन्न कराने के लिए निरन्तर समाज के बाहरी लोगो के सम्पर्क मे रहने का प्रयास करती थी। उसके इस प्रकार के व्यवहार से उसके देवर—जेठ प्रसन्न नही रहते थे। आशुतोष चम्पा का सगा देवर नही था, इसलिए चम्पा का परिवार इससे भी सन्तुष्ट नही था, किन्तु आशुतोष तथा चम्पा को इस बात की परवाह नही थी। कुटुम्ब—परिवार मे वरिष्ठतम होने के नाते आशुतोष के माता—पिता के लिए चम्पा उस कुल की बहू थी और आशुतोष तो अपना बेटा था ही, इसलिए मर्यादा से बाहर की गयी श्रुति की टिप्पणी उन्हे प्रिय न लगी थी। श्रुति को डाँटने के बाद वे स्वय ही बड़बड़ाने लगी—

इस लौडिया कू इतनी बेर समझा लिया, अक बन्द मुठ्‌ठी लाख की होवै है, अर खुलकै खाक की रह जावै है। मै समझा—समझा कै हार गी, पर इसकी समझ मे तो अब तक यू बात भरी ना है ! माँ अभी तक अपने आप से ही बाते कर रही थी, तभी बाहर से आशुतोष ने अन्दर आकर माँ के क्रोध को और बढ़ा दिया। उन्होने क्रोधित होकर कहा—

मिलगी तुझै फुरसत घर आणे की ? मैन्नै घर के एक्केक जीव कू साँज ई कह दी ई अक सबेरी कू निन्यो बासी पूजा मे बैठना है, फेर बी तू घर मे नी रुक सकै आ ! क्यूँ ? ऐसा कौण—सा जरूरी काम अटकरा हा उसका, जो दो घटे पिच्छै नी हो सकै आ ! अर उसै आँक्खो की अद्‌धी कू न्यू ना सुज्झी, तू किसै लेक्कै जारी ऐ ! अर तू ? तेरी मति मारी गयी, जो बिना सोच्चो—समझो तू उसकी साथ चल दिया। तेरे दिमाक मै एक बार न्यू ना आयी, पूजा का मुहुरत लिकड़ जावेगा। यू बऊ य्‌हाँ तड़के सै भुक्की—पियास्सी तेरी बाट देखरी ऐ। इसके पेट का बालक भी भुक्का तडप रा होयेगा। अर एक तू...!

बस, अब चुप हो जा ! अपना लैक्चर बन्द कर ! मै उसके साथ चला गया, तो कौन—सा अनर्थ कर दिया मैने ? कुल—खानदान की बहू अकेली यहाँ—वहाँ फिरती ज्यादा अच्छी लगती ? पूजा मे बैठना था, अब बैठ लूँगा, अभी कौन—सा मुहुर्त निकल गया !

आशुतोष ने ऊँचे स्वर मे बोलना आरम्भ किया, तो माँ का स्वर धीमा पड़ गया। गरिमा शान्त बैठी थी, परन्तु उसका हृदय अशान्त था। अपनी सास—ननद तथा पति की बाते सुनकर उसके मन—मस्तिष्क मे तूफान—सा आ गया था। चम्पा प्रायः घर पर आती रहती थी। वह मित्रवत्‌ बाते करती थी ; हास—परिहास करती थी, इसलिए आज तक गरिमा ने चम्पा और आशुतोष को लेकर कभी अपना मन—मैला नही किया था, परन्तु आज उनके सम्बन्ध के बारे मे सोचकर गरिमा का हृदय अत्यधिक व्यथित हो रहा था। वह घूँघट निकालकर आशुतोष के साथ पूजा मे बैठी थी और हवन—कुण्ड मे आहुति दे रही थी, किन्तु मन्त्रोच्चारण के स्थान पर उसकी सिसकियो का स्वर फूट रहा था। अपने पति के हाथ मे हाथ रखकर जब वह चम्मच भरकर घी की यज्ञ मे आहुति देती थी, तभी उसकी आँखो से आँसुओ की बूँदे भी टपकती थी।

पूजा सम्पन्न होने के पश्चात्‌ सभी ने प्रसाद ग्रहण किया और भोजन किया। उसकी सास को अपनी आयु के अनुरूप जीवन के सुख—दुख और उतार—चढ़ाव का पर्याप्त अनुभव था। वह जानती थी कि सारी बाते सुनकर गरिमा की मनोदशा कैसी होगी ? इसलिए गरिमा द्वारा आज्ञा माँगने से पहले ही उन्होने कह दिया था— जा ! तू बैठ्‌ठी—बैठ्‌ठी हार गी होयेगी, थोड़ी देर अपणे कोठ्‌ठे मै जाकै लौट ले ! तड़कै उठकै पहलै घर का काम करा, फेर पूजा मै बैठ्‌ठी र्‌ही, पेट का बालक भी हार गा होयेगा ! सास का समर्थन पाकर गरिमा अपने कमरे मे चली गयी।

गरिमा अपने कमरे मे जाकर लेट गयी, तो कुछ ही समय बाद उस पर नीद ने अपना नियत्रण कर लिया। जब वह नीद से जागी, तब तक शाम ढल चुकी थी। उस समय आशुतोष कमरे मे कुछ ढूँढने का प्रयास कर रहा था। गरिमा ने उठकर उससे जानना चाहा कि वह क्या ढूँढ रहा है, ताकि वह उसकी सहायता कर सके। आशुतोष ने उसके प्रश्न पर कुछ प्रतिक्रिया नही दी और यथावत्‌ अपनी अभिप्सित वस्तु को खोजता रहा। अपने पति के इस व्यवहार से गरिमा और भी व्यथित हो गयी। वह पहले ही सुबह की घटना से दुखी थी, आशुतोष ने उसकी उपेक्षा करके जले पर नमक छिड़कने का काम किया था। गरिमा ने फिर भी परिस्थिति को नियत्रित करना ही उचित समझा, जो केवल परस्पर सवाद से ही सभव था। अतः उसने आगे बढ़कर आशुतोष के कधे पर हाथ रखा और उसे समझाने का प्रयास करने लगी कि चम्पा के साथ नही जाना चाहिए था, कम—से—कम पूजा के निश्चित समय तो कदापि नही। उसको पूजा आरम्भ होने के निर्धारित समय पर घर मे रहना चाहिए था।

एक स्त्री होकर गरिमा उसको समझाये, यह आशुतोष के लिए लज्जास्पद बात थी। फिर भीे वह सहन कर लेता, किन्तु चम्पा का कार्य करने के लिए वह उसके साथ क्यो गया था ? वहाँ उसे नही जाना चाहिए ! या वह भविष्य मे उसके काम न करे ; उसके साथ न बैठे ; उसके साथ कही न जाए, इस सम्बन्ध मे वह किसी की कोई बात सहन नही कर सकता था। सहन करना तो दूर, सुनना भी नही चाहता था। गरिमा की बातो से भी अब उस पर ऐसा ही प्रभाव पड़ा था। उसके एक—एक सकारात्मक शब्द का नकारात्मक अर्थ ग्रहण करते हुए आशुतोष ने आवेश से उद्वेलित होकर कहा—

तुम कहना क्या चाहती हो कि चम्पा के साथ मेरा अवैध सम्बन्ध है ? मेरा उसके साथ अवैध सम्बन्ध है ! तुझे जो कुछ करना है, कर ले !

मैने ऐसा कब कहा ? मैने तो ऐसा कुछ कहा ही नही है, आप व्यर्थ मे ही...!

गरिमा अपना पक्ष प्रस्तुत करती रही, परन्तु उसकी पूरी बात सुने बिना ही आशुतोष कमरे से बाहर निकल गया। गरिमा के मन मे बहुत कुछ था, जिसे वह आशुतोष के साथ बाँटना चाहती थी। एक पत्नी के रूप मे वह उससे क्या अपेक्षाएँ रखती है ; उसके साथ अपना पर्याप्त समय व्यतीत करना चाहती है ; अपने अनुभव उसे बताना चाहती है और उसके अनुभव सुनना चाहती है, आदि बाते करते हुए वह अपने पुराने गुजरे हुए क्षणो को लौटा लाना चाहती थी, परन्तु आशुतोष ने उसकी आशाओ को अपने उपेक्षापूर्ण व्यवहार से कुद कर दिया। गरिमा ने कभी नही सोचा था कि उसके जीवन मे ऐसा कठिन समय भी आएगा, जब वह एक ओर अपने गर्भ मे पल रहे बच्चे से आत्मीय सबध स्थापित करके अपूर्व—अद्वितीय सुखद—अनुभूति करेगी, तो दूसरी ओर, अपने पति की उदासीनता तथा उपेक्षा सहेगी ! ऐसे विषम समय मे आशुतोष के कठोर शब्दो से गरिमा का हृदय रो उठा—

इतनी सवेदनहीनता ! यह भी नही सोचा कि उसके शब्दो से जब मुझे कष्ट होगा, तब उसके बच्चे पर उसका कितना बुरा प्रभाव होगा !

गरिमा रो रही थी और बार—बार सोच रही थी कि आशुतोष को अपने बच्चे की भी चिन्ता क्यो नही है ? इसी विचार से प्रेरित होकर वह स्वय से प्रश्न करने लगी— क्या मुझे अपने बच्चे की चिन्ता है ? नही ! मुझे भी इसकी चिन्ता नही है। यदि मुझे चिन्ता होती, तो बैठकर यूँ नही रोती ! अपने बच्चे के लिए मुझे अपनी दुनिया से निकलकर उसकी दुनिया मे जाना पड़ेगा ! उसी की भाँति प्रसन्न तथा चिन्तामुक्त रहना पड़ेगा, तभी वह स्वस्थ—सुखी रहेगा ! अपने इसी निश्चय के साथ गरिमा उठी और कमरे से बाहर निकल आयी। उसके बाहर निकलते ही उसकी सास ने आगे बढ़कर प्रेमपूर्वक उसके स्वास्थ्य के विषय मे पूछा —

अब कैसा लग रहा है! और कुर्सी उसकी ओर खिसकाकर बैठने का सकेत किया। श्रुति ने भी अतिशीघ्रता से भोजन परोसते हुए खेद व्यक्त किया कि उसकी नीद मे बाधा न पड़े, इसलिए पहले भोजन देने के लिए कमरे मे नही गयी थी। श्रुति ने यह भी बताया कि अपनी इस गलती के लिए वह दिन—भर माँ से डाँट खाती रही है। माँ से डाँट खाकर वह भाभी के कमरे मे चुपचाप कई बार यह देखने के लिए आयी भी थी कि भाभी की नीद टूटी है या नही ? लेकिन हर बार भाभी उसे सोते ही मिली थी। अपनी सास का और श्रुति का सप्रेम व्यवहार देखकर गरिमा को कुछ सतोष हुआ था कि कोई तो इस घर मे, जो उसका ध्यान रखता है।

श्रुति के व्यवहारो से गरिमा बहुत प्रभावित थी। इन दो—चार दिनो मे तो वह उसके साथ इतनी निकटता का अनुभव करने लगी थी कि अपनी किसी भी समस्या को उसके साथ बाँटने मे उसे किसी प्रकार का सकोच नही होता था। अपने इसी अपनत्व—भाव से प्रेरित होकर गरिमा ने माँ के जाते ही उससे कहा— मै जानती हूँ कि मेरी ननद का पढ़ने मे कितना मन है ! यदि तुम चाहती हो कि तुम्हारी शिक्षा पुनः आरम्भ हो जाए, तो मै तुम्हारे साथ हूँ ! मै माँ से तुम्हारे लिए बात करुँगी और तुम्हारे भाई से भी इस विषय मे बात करुँगी, वे दोनो अवश्य मान जाएँगे !

गरिमा के शब्द कान मे पड़ते ही श्रुति ऐसे कठोर मुद्रा धारण करके खड़ी हो गयी, जैसे कि गरिमा ने उसे गाली दे दी हो और उस गाली का प्रतिशोध लेने के लिए वह कुछ भी कर सकती है। उसके हाव—भाव देखकर गरिमा सहम—सी गयी और सोचने लगी— मैने कुछ गलत कह दिया क्या ? शायद श्रुति इसलिए क्रोधित हो गयी है कि मै उसके गुप्त—मिशन के विषय मे जान गयी हूँ ! गरिमा सोच ही रही थी, तभी श्रुति ने खड़े होकर कर्कश स्वर

मे कहा— भाब्बी ! मेरे अर मेरे घरवालो के बीच मे आणे की तमै कोई जरूरत ना ऐ ! मुझै जो कुछ करणा ऐ मै अपणे आप कर ल्यूँगी, तम अपणी फिकर करो ! थारै पै अपणी गिरस्ती तो सिमल री ना, मेरी पढ़ाई शुरु करवाओगी ! श्रुति की बात सुनकर गरिमा स्तब्ध रह गयी। उसे श्रुति से ऐसे उत्तर की आशा नही थी। गरिमा को सज्ञाहीन देखकर श्रुति ने पुनः कहा— तमै पता बी ऐ कुछ, आजकल बड़ा भैया दिन—भर कहाँ रहवै ऐ ? बड़ा भैया आजकल सारे दिन उस चम्पा के काज सँवारता हुआ उसी की आग्गै—पिच्छै लगा फिरता रहवै ! ऐसी चलता र्‌हया, तो एक दिन थारी हरी—भरी गिरस्ती मे आग लग जावेगी अर तम मुझै पढ़ात्ती रह जाओगी ! अब बी जाग जाओ, अभी कुछ ना बिगड़ा है ! अभी तो बेट्‌टी बाप के घर है ! अब ना सम्हली तो फेर हाथ मलती रह जाओगी !

श्रुति ने आज गरिमा को जितना कुछ खरा—खोटा सुनाया था उससे गरिमा को क्रोध नही आया, बल्कि श्रुति के प्रति उसका अपनत्व और अधिक बढ़ गया था। आज उसे पहली बार इस बात का अनुभव हुआ था कि श्रुति की कठोरता मे भी उसके लिए कितने कोमल—भाव है और उपेक्षा मे भी कितनी हित—भावना छिपी हुई है। आशुतोष की छोटी बहन होने के नाते आज तक श्रुति को गरिमा ने स्वय से भी छोटी माना था, किन्तु आज उसने अनुभव किया कि सामाजिक व्यवहारो और सामाजिक सम्बन्धोे का ज्ञान उसकी अपेक्षा श्रुति को बहुत अधिक है। सामाजिक ज्ञान सम्बन्धी श्रुति की परिपक्वता से गरिमा प्रसन्न थी, परन्तु उसके ज्ञान और परिपक्वता ने गरिमा के विचारो को पुनः उसी दिशा मे मोड़ दिया था, जहाँ उसे तनाव के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त होने की सभावना नही थी। वह जिस विषय पर सोचना नही चाहती थी, श्रुति की बातो से उसका चित्‌ उसी विषय पर अनायास केद्रित होने लगा था। गरिमा तथा श्रुति के बीच अब पूर्णतः निःशब्दता का वातावरण हो गया था, तभी उस नीरवता को चीरते हुए उसकी माँ के शब्द कान मे पड़, तो दोनो उठकर खड़ी हो गयी।

श्रुति की माँ ने आकर सूचना दी कि उसकी मामी बहुत बीमार है। घर मे कोई उनकी देखभाल करने वाला भी नही है। न ही बच्चो को सम्हालने वाला कोई है, इसलिए उसके मामा चाहते है कि श्रुति या उसकी माँ उनकी देखभाल करने का दायित्व सम्हाल ले। उन्होने बताया कि उसके मामा अभी अपने साथ उसको लेकर इसी समय वापिस लौटना चाहते है। माँ की पूरी बात सुनने के पश्चात्‌ श्रुति ने उनसे असहमति प्रकट करते हुए कहा कि वह मामा के घर नही जाना चाहती है। वहाँ रहकर उसे अच्छा नही लगता है और न ही वहाँ उसका मन रमता है। श्रुति का नकारात्मक उत्तर सुनकर माँ ने कुछ क्षण मौन रहकर उससे कहा कि वे भी जवान बेटी को कही भेजने के लिए इच्छुक नही है, इसलिए उन्होने अपने भाई से कह दिया है कि श्रुति अपनी भाभी के साथ घर रहेगी और वे स्वय उनके साथ जाकर कुछ दिन भाभी और बच्चो की देखभाल करेगी। लेकिन उन्हे चिन्ता है कि माँ की उपस्थिति मे गरिमा की देखभाल श्रुति ठीक प्रकार से कर पायेगी या नही ! माँ की चिन्ता को दूर करते हुए श्रुति ने तत्काल अपना मत प्रस्तुत किया कि अब वो बच्ची नही रही है, बल्कि बड़ी हो चुकी है और अपनी माँ की अनुपस्थिति मे पूरे घर को भली—प्रकार सम्हाल सकती है। श्रुति के उत्तर से सन्तुष्ट होकर माँ ने गरिमा की ओर इस आशय से देखा कि वह उनकी अनुपस्थिति मे अपने साथ—साथ परिवार का ध्यान रखने के लिए तैयार है अथवा नही। माँ का आशय समझकर गरिमा ने अपनी गर्दन हिलाकर सहमति प्रदान की और उन्हे सकेत दे दिया कि वह उनके निर्देशानुसार घर सम्हालने मे श्रुति के साथ पूर्ण सहयोग करेगी। श्रुति तथा गरिमा से अपनी आशानुरूप सकारात्मक उत्तर पाकर माँ इतनी तो सन्तुष्ट हो गयी थी कि बहू को गर्भावस्था मे छोड़कर, जबकि उसको स्वास्थ्य की समस्या प्रायः होती रहती थी, साथ ही आशुतोष भी उसके प्रति अपने कर्तव्यो का पूर्ण निर्वाह नही कर रहा था, अपने भाई के साथ जा सकती थी। यह अलग बात थी कि घर छोड़कर जाने के बाद भी उन्हे गरिमा की तथा घर से सम्बन्धित अन्य व्यवस्थाओ की चिन्ता बनी ही रहेगी। उनका शरीर भाई के घर उपस्थित रहकर भी मन—मस्तिष्क अपनी बहू के लिए चिन्ता मे डूबा रहेगा। गरिमा तथा श्रुति माँ की इस मनोदशा को अनुभव कर रही थी, किन्तु उनकी भाभी को उस समय उनकी अधिक आवश्यकता थी, यह सोचकर उन्होने माँ को पुनः आश्वासन दिया कि वे घर की चिन्ता न करे, निश्चित होकर चली जाएँ।

माँ के जाने के बाद गरिमा और श्रुति पर एक ओर घर की व्यवस्था का भार आ पड़ा था, तो दूसरी ओर परिस्थितियो ने भी अब अपेक्षाकृत विषमतर रूप धारण कर लिया था। माँ के घर से जाते ही आशुतोष पूर्णतया नियत्रणमुक्त हो गया था। माँ के अकुश के अभाव मे उसे करणीय—अकरणीय का बोध नही रह गया था। माँ की उपस्थिति मे आज तक उसने कभी भी गरिमा के साथ दुर्व्यवहार नही किया था, किन्तु अब वह गरिमा के साथ दुर्व्यवहार करने मे भी सकोच नही करता था। पति के दुर्व्यवहार से त्रस्त गरिमा का अधिकाश समय अपने कमरे मे रोते हुए बीतता था। आरम्भ मे श्रुति ने उसे समझाने का प्रयास किया था, किन्तु गरिमा की समस्या का समाधान करने के लिए गरिमा को नही, आशुतोष को समझाने की अधिक आवश्यकता थी। आशुतोष को समझाना श्रुति के वश की बात नही थी, इसलिए वह गरिमा की व्यथा को दूर करने मे विफल रही। घर के अत्यावश्यक कायोर् से बचा हुआ गरिमा का समय अपने कमरे मे अकेले बैठकर रोने मे गुजर रहा था। जितने समय वह श्रुति के साथ रहती या काम मे व्यस्त रहती थी, उस समय भी वह उदास और चुप रहती थी। श्रुति के किसी भी प्रश्न का सीमित शब्दो मे उत्तर देकर पुनः मौन धारण कर लेती थी। गरिमा की दयनीय दशा को देखकर श्रुति भी व्यथित रहती थी। गरिमा के अपने कमरे मे रहने पर श्रुति को सदैव माँ की याद सताती थी और तब वह अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए अपनी चाची के घर या प्रभा के घर चली जाती थी। धीरे—धीरे वह बाहर रहने की इतनी आदी हो गयी कि प्रतिदिन नहा—धोकर निरकुश—निश्चित होकर घर से निकल जाती थी और अपनी चाची तथा प्रभा के अतिरिक्त गाँव के कई परिवारो के साथ घुल—मिलकर कई—कई घटे उनके साथ व्यतीत करने लगी।

एक माह की अवधि मे पूरे परिवार की स्थिति इतनी शोचनीय हो गयी थी कि परिवार का प्रत्येक सदस्य किसी प्रकार के नियत्रण के अभाव मे एक—दूसरे के प्रति सवेदनाहीन—सा हो गया था। यथोचित समय पर भोजन बनाने, खाने अथवा अन्य कायोर् की चिन्ता से मुक्त होकर सभी अपनी इच्छानुसार आचरण करने लगे थे। श्रुति, जो माँ की उपस्थिति मे प्रत्येक कार्य का भार अपने ऊपर लेकर बेहतर परिणाम देने का प्रयास करती थी और स्वय ही सबका नियत्रण स्वीकार करती थी, अब वह माँ की अनुपस्थिति मे स्वच्छद हो गयी थी। अपने किसी भी कार्य—व्यवहार मे वह अब किसी का हस्तक्षेप सहज स्वीकार करने की मनःस्थिति मे नही थी। उसके विचार से उस परिवार मे उस पर नियत्रण रखने योग्य कोई है ही नही, जिसका शासन वह सहज स्वीकार कर सके। वास्तव मे उसके विचारो मे सत्य का पर्याप्त अश था। श्रुति खुलकर कहती थी कि वह किसका नियत्राण माने ? गरिमा का ? वह स्त्री, जो अपने पति को वश मे नही कर सकी ; उसका पति अपनी विधवा भाभी के साथ रगरेलियाँ मनाता फिरता है और वह स्वय घर के कोने मे बैठकर रोती रहती है, उसका शासन कौन स्वीकार करेगा ? और बड़ा भाई आशुतोष ? उसका तो स्वय पर भी नियत्रण नही है, दूसरो पर नियत्रण कैसे रख सकेगा ? दूसरा कोई उसका अकुश क्यो मानेगा, जिसका कोई नियम—सिद्धान्त नही ; अपने कर्तव्यो का बोध नही ; जीवन मे किसी के लिए त्याग—तपस्या नही है ! और पिताजी ? वे तो बहुत दिन पहले माँ को सत्ता सौपकर स्वय उनका शासन स्वीकार कर चुके थे। अब उनमे शासन करने की क्षमता नही रह गयी है, केवल माँ को सहारा दे सकते है या कभी—कभी परिवार को बात—बेबात डाँट सकते है, यह बताने के लिए कि वे अभी भी जीवित है और इसी घर मे रहते है। अब छोटे भाईयो का नियत्रण स्वीकार करने का प्रश्न है, तो माँ के जाते ही वे दिशाहीन होकर भटकने लगे थे। एक ओर वे अपनी स्वतत्रता का स्वच्छदता की सीमा तक दुरुपयोग करने लगे, दूसरी ओर कार्य करने के लिए पर्याप्त दिशा—निर्देशो के अभाव मे अकर्मण्य होकर यहाँ—वहाँ विचरण करने लगे थे। श्रुति के कहने का आशय यही था कि उस परिवार मे ऐसा कोई नही था, जो उसकी अपेक्षा बुद्धिमान हो और जिसका वह नियत्रण स्वीकार करे।

परिवार की व्यवस्था—भग देखकर पास—पड़ोस तथा कुटुम्ब—परिवार भी उस अव्यवस्था का लाभ लेने की दिशा मे प्रयत्नशील हो गये थे। माँ के व्यवस्थित गृह—सचालन से जो लोग इस परिवार के प्रति ईर्ष्या—भाव रखते थे, अब उनके हृदय को शान्ति मिल रही थी। ऐसे सुअवसर पर वे कोई भी ऐसा कार्य—व्यवहार नही छोड़ना चाहते थे, जो उनके हृदय को अधिक शान्ति प्रदान कर सके। इस प्रयास मे श्रुति की चाची का योगदान सर्वाधिक सराहनीय था। श्रुति की चाची एक ओर उसको अपने पास बिठाकर समझाती थी कि भावी गृहस्वामिनी होने के नाते घर का कार्य—भार उठाने का दायित्व घर की बहू का होता है, परन्तु घर मे कोई बड़ा कुछ कहने—सुनने के लिए नही है, इसलिए सारा दिन गरिमा अपने कमरे मे सोयी रहती है। आशुतोष भी उसे उठने के लिए नही कहता है, क्योकि उन्हे तो काम करने के लिए बिना पैसे के नौकर के रूप मे श्रुति मिली है, अब उसे काम करने की क्या आवश्यकता है ?

कभी—कभी चाची गरिमा के पास आकर उसके हृदय मे भी कटुता का बीजारोपण करने का प्रयास करती थी कि गर्भावस्था मे स्त्री की दशा नाजुक होती है। ऐसी दशा मे उसे अकेला छोड़ना लापरवाही और सवेदनहीनता नही तो और क्या है ? इस दशा मे उसे छोड़कर सास को अपने भाई के घर नही जाना चाहिए था। परन्तु सास को अपनी बहू से अधिक अपनी भाभी की चिन्ता थी। सास चली गयी, तो कम—से—कम ननद को तो अपना फर्ज निबाहना चाहिए था! परन्तु, उसे तो सारे दिन घर—घर घूमने से ही फुरसत नही मिलती, अपनी भाभी के पास बैठकर उसकी देखभाल कैसे करे ? सास—ननद कोई अपनी नही होती, जब तक अपना पति अपना नही होता है ! जब अपना पति परायी औरत के पीछे पागल है, अपनी पत्नी की कोई कद्र ही नही है ; उसकी चिन्ता नही है, तो सास—ननद को क्या गरज पड़ी है कि बहू की देखभाल करे। गरिमा पर चाची की बातो का रग नही चढ़ पाता था। चाची को गरिमा के कार्य—व्यवहारो से अपनी आशानुरूप परिणाम नही मिलते थे, इसलिए वे उससे बहुत कम अपेक्षा रखती थी। गरिमा की अपेक्षा उन्हे आशुतोष से अधिक आशा थी, इसलिए अपनी दूषित मनोवृत्ति से प्रेरित शब्दो का जाल वे आशुतोष के लिए अधिक तत्परता से फैलाती थी। आशुतोष से चाची प्रायः कहती थी वे श्रुति को समझाने का बहुत प्रयास करती है कि अपनी माँ की अनुपस्थिति मे अपने भाई—भाभी की बात माने ; घर मे रहकर घर का काम करे और भाभी के स्वास्थ्य का ध्यान रखे, क्योकि ऐसी दशा मे बहू को घर मे अकेला छोड़ना और उससे काम कराना उचित नही है, परन्तु उसकी समझ मे ही नही आता है। चाची के समान कपटपूर्ण व्यवहार उनके अतिरिक्त भी कई परिवार कर रहे थे, जिनसे मुक्ति मिलना तब तक सभव नही था, जब तक कि माँ वापिस नही लौट आती।

माँ के वापिस लौटने की प्रतीक्षा तो परिवार के सभी सदस्य कर रहे थे, किन्तु उनकी अनुपस्थिति मे सबसे अधिक कष्ट गरिमा सहन कर रही थी, इसलिए उसका एक—एक क्षण उनकी प्रतीक्षा करते हुए बीत रहा था। वह प्रतिक्षण अधीर होकर दरवाजे पर दृष्टि गड़ाये रहती थी। उसे आशा थी कि माँ के लौटने पर सभी समस्याओ का समाधान करके परिस्थितियो को सामान्य कर देगी। किन्तु, माँ लौटती और परिस्थितियो को सामान्य करने का प्रयास करती, उससे पहले ही एक ऐसी घटना घटित हुई, जिसकी किसी ने कल्पना भी नही की थी। जिसकी कल्पना ही हृदय को हिला देती है, गरिमा के जीवन मे वह घटना यथार्थ मे घटित हो गयी थी।

वैसे तो, कई महीने से गरिमा के जीवन पर कष्टो की छाया पड़ रही थी। पहले पति की उदासीनता तथा फिर धीरे—धीरे गालियाँ देना, मारपीट करना तथा अन्य अनेक प्रकार के दुर्व्यवहार वह सहन करती रही थी, परन्तु उस दिन तो आशुतोष ने मर्यादा की सारी सीमाएँ लाँघ दी थी। सवेदना क्या होती है और सस्कार क्या होते है, वह सब कुछ भूल गया था। श्रुति घर से बाहर गयी हुई थी और गरिमा आँगन मे बैठी हुई दाल मे से ककड़ चुन रही थी। तभी उसकी दृष्टि घर के मुख्य द्वार की ओर गयी, जो धीरे—धीरे खुल रहा था। गरिमा की दृष्टि दरवाजे पर रुक गयी। वह देखना चाहती थी कि घर मे उस समय कौन आ रहा है ? कुछ ही क्षणोपरान्त उसने देखा कि आशुतोष स्वय प्रवेश करके किसी दूसरे व्यक्ति को अदर आने का सकेत करा रहा है। यह देखकर गरिमा की जिज्ञासा और भी बढ़ गयी कि आखिर दूसरा व्यक्ति कौन है ? जिसे उसका पति अदर बुला रहा है ! क्षण—भर तक गरिमा दरवाजे की ओर देखती रही, अगले ही क्षण वह जड़ीभूत—सी हो गयी। आशुतोष के साथ उसकी विधवा भाभी चम्पा थी, जो आशुतोष के पीछे—पीछे घर के अदर आ रही थी। गरिमा ने उसको देखकर शिष्टाचारवश खड़ी होकर अभिवादन की मुद्रा धारण कर ली। तब तक चम्पा भी उसके पर्याप्त निकट आ चुकी थी। अपने सस्कारो के अनुरूप गरिमा ने अभिवादन के लिए मुँह खोला ही था ; अभिवादन के लिए उसके होठ फड़के ही थे और हाथ आगे बढ़ रहे थे, तभी अचानक उसे एक झटका—सा लगा। उस झटके के साथ ही उसके होठ तथा हाथ यथास्थिति रह गये। उसने देखा, आशुतोष सीधा अपने शयन—कक्ष— जो गरिमा का तथा उसका सयुक्त कक्ष था, की ओर बढ़ा जा रहा है और चम्पा भी उसके पीछे—पीछे जा रही है। गरिमा की ओर देखने की ; उसका अभिवादन स्वीकार करने की या कोई शब्द बोलने की भी उसने आवश्यकता नही समझी थी। यह देखकर गरिमा हतप्रभ हो गयी। अपना अपमान अनुभव करके वह धरती मे फँसी जा रही थी। उस दशा मे भी वह ईश्वर का धन्यवाद करने लगी कि गनीमत है कि इस समय श्रुति घर मे नही है। वह घर मे होती तो...!

घर मे उस समय श्रुति के उपस्थित न होने के लिए गरिमा ईश्वर का धन्यवाद कर ही रही थी कि तभी श्रुति आ पहुँची। वह आँगन मे भाभी के साथ ही बैठ गयी। वह उन्हे उस स्वेटर के डिजाइन के विषय मे बताने लगी, जिसे वह अभी—अभी गरिमा को दिखाने के लिए कही से लेकर आयी थी। गरिमा अन्यमनस्क—भाव से श्रुति की बात सुनती रही और उस स्वेटर को उलट—पलटकर देखने का उपक्रम करने लगी। इतना करने पर भी श्रुति उसके व्यवहार के प्रति सन्तुष्ट नही थी, इसलिए उसने खिन्न होकर उसी समय गरिमा के हाथ से स्वेटर छीन लिया और उस पर आरोप लगाते हुए कहने लगी कि यदि उसे स्वेटर देखना नही है, तो अभिनय करने की आवश्यकता नही है।

श्रुति की खिन्नता ने गरिमा को तनाव का एक और विषय दे दिया था, जिसके लिए वह कदापि तैयार नही थी। उसने श्रुति को मनाने का अपनी सामर्थ्य—भर प्रयास किया, किन्तु सफल न हो सकी। अन्त मे पुनः वह उसी मुद्रा मे दीवार का सहारा लेकर बैठ गयी, जिसमे श्रुति के आने से पहले बैठी थी। गरिमा की मुद्रा देखकर श्रुति को शका हो गयी थी कि कुछ—न—कुछ अवश्य ऐसी घटना घटित हुई है, जिससे उसकी भाभी व्यथित हो गयी है, परन्तु आज कौन—सी नयी बात हुई है, इस विषय पर गरिमा से चर्चा करना उसने उचित नही समझा, इसलिए उससे कुछ दूरी पर बैठकर उसी स्वेटर को उलटने—पलटने लगी।

श्रुति कुछ समय तक स्वेटर को उलटती—पलटती रही, परन्तु ऐसा वह कब तक कर सकती थी ! चार—पाँच मिनट पश्चात्‌ ही वह उठकर अन्दर गयी और ऊन की एक मुच्छी लेकर सलाई मे फदे बनाने लगी। उसका जितना ध्यान फदे बनाने मे था, उससे अधिक ध्यान गरिमा की ओर लगा था। वह बार—बार गरिमा की ओर देखकर सोच रही थी कि इतनी तनावग्रस्त होने पर भी वह आँगन मे क्यो बैठी है ? आज से पहले तो ऐसा कभी नही हुआ था ! आज से पहले जब कभी गरिमा तनावग्रस्त होती थी, सदैव अपने कमरे मे जाकर लेट जाती थी ! श्रुति के मन—मस्तिष्क मे अनेक प्रश्न उठ रहे थे ; अनेक प्रकार की शकाएँ हो रही थी, किन्तु उसने गरिमा से कुछ नही कहा और चुप बैठकर सलाई मे फन्दे बनाती रही। सलाई मे फन्दे बनाते—बनाते पर्याप्त समय बीत चुका था, लेकिन सलाई मे एक भी फन्दा नही था। वह कुछ समय तक फन्दे बनाती थी और अगले क्षण उन्हे उधेड़ देती थी। उसके बाद फन्दे उधेड़ने से उलझ गयी ऊन के धागे को सुलझाती थी और पुनः फन्दा बनाने का उपक्रम करती थी। फन्दे बनाना, उधेड़ना, धागा सीधा करना और पुनः फन्दा बनाना, इसी काम को करते हुए उसका समय बीत रहा था। इस काम के अतिरिक्त वह कुछ अन्य काम करना भी नही चाहती थी क्योकि इस समय उसका मन—मस्तिष्क अनेक विचारो, प्रश्नो तथा शकाओ के भार से दबा हुआ था। वह निरन्तर गरिमा के विषय मे सोच रही थी।

श्रुति निरन्तर गरिमा के विषय मे सोचती हुई बार—बार उसकी ओर देखती थी, तभी उसकी दृष्टि कमरे से बाहर निकलते हुए आशुतोष पर पड़ी और एक क्षण पश्चात्‌ उसके पीछे—पीछे आती हुई चम्पा पर। आशुतोष के साथ उसके कमरे से निकलती हुई चम्पा को देखकर क्षण—भर के लिए श्रुति की आवाज बन्द हो गयी। उसके चित्‌ मे एक ही प्रश्न बार—बार उठ रहा था —चम्पा बड़े भैया के साथ उनके कमरे मे क्या कर रही थी इतने समय तक ? लगभग एक घटा तो मुझे आये हुए बीत चुका है, जबकि ये दानो मेरे आने से पहले ही कमरे मे थे। अब उसे समझ मे आ रहा था कि गरिमा तनावग्रस्त क्यो थी ? और कमरे से बाहर क्यो थी ? क्षण—भर बाद वह चम्पा से मुखातिब होकर आश्चर्य प्रकट करती हुई बोली—

भा—ब्बी ! तम ! तम भित्तर कोठ्‌ठे मै बड़े भैया की साथ का कर री ही ? अर ऊ बी इतनी देर सै ! एक घटे सै जादै तो मुझै आये हो गा, तम जब बी भित्तर ई ही, जब मै घर आयी ही !

फेर कधी बताऊँगी, अब जल्दी मे ऊँ मै ! चम्पा श्रुति के प्रश्न को टलाकर उसका उत्तर दिये बिना आशुतोष के पीछे—पीछे घर से बाहर निकल गयी। चम्पा के जाने के बाद गरिमा भी उठकर अपने कमरे मे चली गयी और शाम तक बाहर नही निकली। शाम को उठकर उसने खाना बनाया, लेकिन खाना खाने की उसकी इच्छा नही हुई। वह भूखी ही अपने कमरे मे जाकर सो गयी। दो दिन तक वह इसी प्रकार यत्रवत्‌ घर का काम करती रही। न उसे भूख—प्यास की सुध—बुध थी, न नहाने—धोने की। न वह रो पा रही थी, न ही हँस पा रही थी। बस, निरन्तर किन्ही विचारो मे डूबी रहती थी। शायद वह उस गभीर समस्या का समाधान ढूँढ रही थी, जो निरन्तर विकरल होती जा रही थी, परन्तु वह क्या और करे क्या न करे ?

आशुतोष के मर्यादाहीन आचरण से एक ओर गरिमा मे जड़ता भर गयी थी, तो दूसरी ओर श्रुति के अदर जो बड़े भाई के प्रति भय और विश्वास शेष था, अब वह भी समाप्त हो गया था। उसकी विचार—दृष्टि मे आशुतोष उसका बड़ा भाई नही रह गया था, बल्कि वह एक मूर्ख, निष्ठुर—सवेदनाहीन तथा मर्यादाहीन पुरुष था, जो न किसी का भाई हो सकता है, न बेटा हो सकता है। वह केवल वासना का एक कीड़ा है। एक पशु है, जो अपनी शारीरिक वासना से सचालित होता है। उसके अन्तःकरण मे कोमल उदात्त भावो के लिए कोई स्थान नही है। श्रुति ने एक बार पुनः सकल्प किया कि अब वह भविष्य मे कभी भी आशुतोष का शासन स्वीकार नही करेगी।

दो दिन पश्चात्‌ श्रुति की माँ घर लौट आयी। घर लौटकर उन्होने देखा और अनुभव किया कि अब उनका घर उन अथोर् मे घर नही रह गया था, जिसके लिए कोई प्राणी बाहर से घर की ओर खिचा चला आता है। अब वह घर एक ऐसा स्थान बन चुका है, जहाँ से हर प्राणी पलायन करने के लिए उद्यत रहता है ! माँ यह सोचने के लिए विवश हो गयी कि आखिर उनकी अनुपस्थिति मे इस एक माह मे क्या—क्या घटनाएँ घटी है ? जिनसे उनका घर स्वर्ग से नरक मे बदल गया है ! माँ ने अपने मन—मस्तिष्क मे उठने वाले सारे प्रश्नो को श्रुति के समक्ष प्रकट किया और उसे अपने पास बिठाकर विस्तार से उन सब घटनाओ का वर्णन करने की आज्ञा दी, जिन्होने घर की व्यवस्था को भग कर दिया था। श्रुति तो इस प्रतीक्षा मे ही बैठी थी कि कब वह माँ से घर की सारी परिस्थितियो का वृत्तान्त सुनाये और यह सिद्ध करे कि उनकी सभी सन्तानो मे वह ही सबसे बुद्धिमान तथा मर्यादा का पालन करने वाली है। एक महीने के अन्दर घटित घटनाओ के बारे मे सुनकर माँ का हृदय रो उठा। दो दिन पहले की घटना से तो वह सज्ञाहीन हो गयी और सिर पकड़कर धरती पर बैठ गयी। वे बार—बार केवल एक ही बात दोहराने लगी—

हे भगवान ! इस घर का क्या होवेगा ? जिस घर मै ऐसी नलैक ओलाद हो, उसे डूबणे सै कौन बचावेगा ? अब तो बस तू ई इस घर की नैय्या पार लगा सकै !

माँ सिर पकड़कर रो रही थी और ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि ईश्वर उनके बच्चो को सद्‌बुद्धि दे। वे गरिमा को समझाना चाहती थी ; उसे सात्वना देना चाहती थी, परन्तु उन्हे समझ मे नही आ रहा था कि उससे क्या कहे और कैसे कहे ? अपने बेटे के आचरण से वे स्वय को लज्जित अनुभव कर रही थी, परन्तु उससे निकलने का उन्हे कोई मार्ग नही सूझ रहा था। उनके मन मे आ रहा था कि वे आशुतोष को फटकारे ; उसे घर से निकाल दे, परन्तु अगले ही क्षण उनका पुत्र—मोह तथा बहू की चिन्ता उनके विचारो की धारा को बदल देते थे। वे अगले ही क्षण सोचने लगती थी कि बेटे को घर से निकालकर या उसके साथ कठोर बर्ताव करके समस्या का समाधान सभव नही है। उससे तो समस्या बड़ी हो जाएगी। घर की मान—प्रतिष्ठा तो जाएगी ही, घर भी बर्बाद हो जाएगा।

उस दिन इसी ऊहापोह मे वे दिन—भर घर मे चुपचाप लेटी रही। न उन्हाेने कुछ खाया—पिया, न ही किसी से बातचीत की। श्रुति की चाची उनसे मिलने के लिए तथा उनकी भाभी के स्वास्थ्य के विषय मे जानने—पूछने के लिए आयी, तो उन्होने श्रुति से कहलवा दिया कि यात्रा करके थक गयी थी, इसलिए आकर सो गयी है। अगले दिन माँ ने गरिमा को बुलाकर अपने पास बिठाया और उसे समझाने का प्रयास किया कि अपना घर बसाये रखने के लिए एक स्त्री को सहनशीलता, क्षमाशीलता तथा धैर्य जैसे गुणो की बहुत आवश्यकता होती है—

देख बेट्‌टी, मेरी लियो जैसी सुरति ऐ वैसी तू ए ! मुझै पता ऐ इस टैम तेरे जी पै कितना जोर पड़ रा ऐ ! पर तू ऊप्पर वाले पै भरोस्सा राख, ऊ सबकी सुणै, तेरी बी जरूर सुणेगा ! उसै आज अपणा आग्गा—पिच्छा ना दीख रा ऐ ; आज उसै ना अपणे घर की फिकर ऐ ना घरवाली की फिकर, अधा होकै उसके पिच्छै पागल हो रा ऐ ! पर जल्दी ई उसै अकल आ जावेगी, जब गाँव उसके मुँह पै थुक्केगा ! एक क्षण के लिए माँ चुप हो गयी। एक क्षण पश्चात्‌ अपनी बात को अपने लक्ष्य की ओर मोड़ते हुए उन्होने पुनः कहा— बेट्‌टी, तू ऐसै भुक्की—पियास्सी पड़ी रहैवेगी, तो तेरे पेट का बालक कैसे पलेगा ? अपने जी कू ठीक करले तू, अर खा—पी कै अपणे बालक की फिकर कर ! अब मै तुजै न्यू तसल्ली तो नी दे सकती अक उसै कल कू ई व्‌हँस्सै रोक द्‌यूँगी। घर सै बाहर जब एक बेर मरद मुँह मार लेवै, तो उसका रुकणा भोत मुसकिल पडै ऐ ! फेर ऊ जभी रुकै ऐ जब उसै अपणे आप अकल आवै ऐ ! जो औरत धीरज धरकै ऐसे मुसकिल टैम कू पार करले, उसका घर बसा रह जावे ए अर जो धीरज खो देवै, ऊ अपणे हात्तो सै अपणा घर बर्बाद करै ! तू पढ़ी—लिक्खी ऐ, समझदार ऐ, जैसे अब तू ठीक मान्नै, वैसे करले ! मै तेरी सात ऊँ, अब बी अर आग्गै बी !

अपनी सास का लम्बा व्याख्यान सुनकर गरिमा को यह तो समझ मे आ रहा था कि उन्होने पथभ्रष्ट पुरुष के विषय मे जो कुछ कहा, उसमे से अधिकाश सत्य था। उसे यह भी उचित लग रहा था कि इस समय अपने बच्चे के विषय मे सोचना ही उसके लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। परन्तु धैर्य के साथ उस समय की प्रतीक्षा करना, जिस समय तक उसके पति को स्वय ही अपने दुराचरण का बोध न हो जाए, गरिमा को स्वीकार्य न था। उसे समझ मे नही आ रहा था कि इस बात से वे अपने बेटे का पक्ष दृढ़ कर रही थी या अपनी बहू की हित—साधना कर रही थी। एक ओर वह कह रही थी कि अपने बेटे के विरुद्ध वे अपनी बहू के साथ है, तो दूसरी ओर वे कह रही थी दुराचारगामी पुरुष को रोकना कठिन है, इसलिए उसे सहन करते रहना चाहिए ! उनके घर लौटने से पहले गरिमा को आशा थी कि वे आते ही सबकुछ ठीक कर देगी, परन्तु अब गरिमा की आशा निराशा मे बदलने लगी थी। उसे अपने गर्भस्थ शिशु की चिन्ता थी, वह चाहती थी कि उसके यथोचित विकास के लिए वह स्वस्थचित्‌ रहे, यथोचित्‌ पोषण ले, परन्तु चाहकर भी वह ऐसा नही कर पा रही थी। उसका मानसिक तनाव कम नही हो पा रहा था। अब वह केवल इतना चाहती थी कि शीघ्रातिशीघ्र अपने माता—पिता के पास पहुँच जाए। अतः उसने सास से निवेदन किया कि वह अपने पिता के घर जाना चाहती है, वहाँ पर वह अपना तथा अपने गर्भस्थ शिशु की देखरेख अपेक्षाकृत अधिक भली—भाँति कर सकती है।

गरिमा के विवाह को अभी एक वर्ष भी नही हो पाया था। इतने छोटे—से वैवाहिक जीवन मे उसके दाम्पत्य—सम्बन्ध मे इतनी बड़ी समस्या को देखते हुए गरिमा की इच्छा स्वाभाविक तथा निवेदन सहज था। लेकिन, उसके सास के अनुभवी व्यक्तित्व को वह निवेदन स्वीकार्य नही था। वे जानती थी कि यदि गरिमा उस विषम परिस्थिति मे अपने पिता के घर चली गयी, तो गरिमा के प्रति आशुतोष के दुर्व्यवहारो, उसके अमर्यादित दुराचरण के विषय मे सबको पता चल जाएगा। यदि ऐसा हुआ, तो दोनो परिवारो के सम्बन्धो मे खटास आ जाएगा और दोनो परिवारो के बीच तनाव होने से गरिमा का वैवाहिक सम्बन्ध भी टूट सकता है ! गरिमा के वैवाहिक—जीवन पर सकट का परिणाम उसके गर्भस्थ शिशु के लिए अभिशाप बन सकता है। अनेक प्रकार से विचार करके, गरिमा के वैवाहिक—जीवन तथा उसके गर्भस्थ शिशु के भविष्य को ध्यान मे रखते हुए उसकी सास ने स्नेहपूर्वक उसे समझाया—

ना बेट्‌टी ना! ऐसी हालत मे सफर करणा ठीक नी होत्ता ! अर अब तो तेरी हालत वैसे बी पीहर जाणे लाइक ना है। तुजै दुखी देखकै तेरे माँ—बाप के जी पै कहा बिच्चैगी, तुजै नी पता, मुजे पता ऐ ! आज मेरी कही हुई बात कू पल्ले मे गाँठ मार ले, यू तेरा घर ऐ ! य्‌हाँ लड़ ले—मर ले, दुखी रह—सुखी रह, पर अपणी परेसान्नी पीहर जाकै मत बताइये कधी ! अपणे दुखो कू उनसे बताकै तू रोवेगी, तो वे जीते—जी मर जावेगे ! इस हालत मै अपणे घर रह ! मै तेरी माँ हूँ, जो दुख ऐ मेरे सै कहकै अपणा जी हल्का कर ले ! सैज—सैज भगवान उस टैम कू बी ल्यावेगा, जब तेरे सारे दुख दूर हो जावेगे। इतना कहकर गरिमा की सास ने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए श्रुति को आज्ञा दी कि वह गरिमा के लिए भोजन लेकर आए!

श्रुति भोजन लेकर आयी, तो माँ ने गरिमा से स्नेहपूर्वक आग्रह कया कि अपने बच्चे के लिए यथोचित समय पर भोजन ग्रहण करना भूलना नही चाहिए, अन्न का त्याग करने से ईश्वर रुष्ट हो जाते है। उन्होने गरिमा से कहा कि उसके पेट मे पल रहा बच्चा भगवान का रूप है और भगवान को भोग लगाना उसके हरेक भक्त का कर्तव्य है। गरिमा की इच्छा नही थी कि वह कुछ खाये—पिये, परन्तु माँ के स्नेह तथा आग्रह को वह अस्वीकार न कर सकी और उसने भोजन कर लिया। भोजन करने के बाद उसकी शारीरिक दुर्बलता के साथ ही उसका मानसिक तनाव भी कम हो गया था। अब वह पूर्णरूपेण तो नही, परन्तु लगभग प्रकृतिस्थ हो गयी थी ! उसका चित्‌ सकारात्मक दिशा मे क्रियाशील हो गया था। अब वह अपने भविष्य के विषय मे तथा अपने बच्चे के विषय मे सोचने लगी थी।

अपने भविष्य के विषय मे सोचते हुए गरिमा को याद आया कि बी.ए. के व्यक्तिगत परीक्षा—फॉर्म भरने की तिथि के विषय मे अब तक कोई सूचना आ चुकी होगी, शायद प्रभा उसे सूचित करना भूल गयी है। अतः उसने श्रुति से कहा कि प्रभा उसकी एक पुस्तक लेकर गयी थी, किन्तु शायद वह भूल गयी है, इसलिए अब तक उसको लौटाने के लिए नही आयी है। गरिमा ने श्रुति से आग्रह किया क प्रभा के घर जाकर उसका सदेश दे आये। श्रुति ने उसका आग्रह स्वीकार कर लिया और दो घटे बाद प्रभा को अपने साथ ले आयी। प्रभा ने आते ही गरिमा को बताया कि उसके पास ऐसी कोई पुस्तक नही है जिसके विषय मे श्रुति ने कहा था। गरिमा ने प्रभा को समझाया कि ध्यानपूर्वक ढूँढने पर वह उसे अवश्य मिल जाएगी, इसलिए चिन्ता करने की आवश्यकता नही है। श्रुति के वहाँ से चले जाने पर गरिमा ने उसको बताया कि पुस्तक तो एक बहाना मात्र थी। वास्तव मे जिस पुस्तक के विषय मे उसने श्रुति से कहा था, ऐसी कोई पुस्तक तो उसके पास भी नही है। गरिमा ने प्रभा को याद दिलाया कि बी.ए. के परीक्षा—फॉर्म की तिथि के विषय मे जानने के लिए उसे यह बहाना करना पड़ा, जबकि स्वय प्रभा ने यह वचन दिया था कि फॉर्म आते ही वह उसे सूचित करेगी। प्रभा ने गरिमा को पुनः विश्वास दिलाया कि उसे अपना वचन याद है और भविष्य मे भी सदैव याद रहेगा। उसने बताया कि वह सूचना देने के लिए इसलिए नही आयी थी, क्योकि अभी तक व्यक्तिगत परीक्षाओ के फॉर्म आये ही नही है, लेकिन इसी महीने मे आने की पूरी सभावना है।

यह जानकारी मिलते ही कि इसी महीने मे बी. ए. के परीक्षा—फॉर्म आने वाले है, गरिमा ने तुरन्त अपने पिता के लिए एक पत्र लिखा, जिसमे अपने पिता से आग्रह किया गया था कि पत्र मिलते ही उससे भेट करने के लिए आ जाएँ। उसने पत्र लिखकर प्रभा को दे दिया और कहा कि वह उस पत्र को स्पीड—पोस्ट कर दे। पत्र लिखने के चौथे दिन गरिमा के पिता उसके पास पहुँच गये। उसने अपने पिता को अपनी विषम परिस्थितियो से अवगत कराया और साथ ही उन्हे आश्वस्त किया कि वह अपनी पारिवारिक समस्याओ मे उनके हस्तक्षेप की आकाक्षी नही है। सघर्ष करके वह स्वय उन समस्याओ का निदान खोजने के लिए तैयार है, परन्तु अपने तथा अपने बच्चे के भविष्य के लिए वह अपनी अधूरी शिक्षा को पूर्ण करना चाहती है। उसने पिता से आग्रह किया कि वह इसी सत्र मे बी.ए . की व्यक्तिगत परीक्षा मे सम्मिलित होने के लिए उनके सहयोग की अपेक्षा रखती है। यदि वे उसका परीक्षा—फॉर्म भरकर कॉलिज मे जमा कर दे, तो उसकी शिक्षा पुनः आरम्भ हो सकती है।

गरिमा के पिता ने उसका आग्रह सहज स्वीकार कर लिया। उन्होने उसे आश्वासन दिया कि वे उसकी पढ़ाई मे यथासभव सहायता करते रहेगे। गरिमा के पिता ने उसको यह भी समझाया कि मात्र आर्थिक क्षेत्र मे आत्मनिर्भर होना पर्याप्त नही होता है, किसी भी व्यक्ति के जीवन को सुखी बनाने मे इस बात का भी महत्व होता है कि उसके परिवार मे तथा समाज मे उसकी क्या स्थिति है ? उसको सदैव इस विषय मे सोचना चाहिए कि उसकी अपने परिवार मे तथा समाज मे सुदृढ़ स्थिति बन सके। समाज मे ऊँचा स्थान प्राप्त करने की आकाक्षा रखने वाले व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि उसके परिवार मे भी परस्पर प्रेम, विश्वास, त्याग तथा सहयोग का वातावरण रहे।

मै अपने परिवार मे अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए ही अपनी शिक्षा पुनः आरम्भ करना चाहती हूँ ! आप मुझ पर विश्वास रखिए ! मै परिवार मे अपनी स्थिति तथा समाज मे अपने साथ परिवार की स्थिति सुदृढ़ बनाने के विषय मे कभी आपको निराश नही करूँगी ! गरिमा ने अपने पिता को सन्तुष्ट करने के लिए उनको वचन दिया और आश्वस्त किया कि अपनी अधूरी शिक्षा को पूरी करने का उसका उद्‌देश्य अपने परिवार से अलग होना नही है। उसके पिता उसके दृष्टिकोण से पूर्णतः सहमत भी थे और सन्तुष्ट भी थे। उन्होने गरिमा से उसके फोटो लिये और परीक्षा की तैयारी करने के लिए निर्देश देकर चले गये।

श्रुति को जब यह ज्ञात हुआ कि उसकी भाभी ने अपनी शिक्षा पुनः आरम्भ की है, तब उसने भी निश्चय किया कि वह भी अब अपनी शिक्षा आरम्भ करेगी और पिछले सत्र की भाँति परीक्षाएँ नही छोड़ेगी, बल्कि भयमुक्त होकर पढ़ाई भी करेगी, परीक्षाएँ भी देगी। अपने निश्चय को कार्य—रूप देने के लिए उसने माँ का समर्थन जुटाना चाहा और इस विषय मे उनसे चर्चा की। माँ ने उसके आग्रह को सपाट शब्दो मे नकार दिया।

माँ का नकारात्मक उत्तर पाकर भी श्रुति अपने निश्चय पर अटल थी, लेकिन उस दिन से उसके हृदय मे अपनी माँ के प्रति असन्तोष और अविश्वास बढ़ने लगा था। अपने असन्तोष को प्रकट करते हुए उसने प्रभा से कहा था कि उसकी अपनी माँ ने उसके साथ बचपन से ही भेदभाव किया था। उसके भाईयो को माँ सदैव मुँह—माँगी चीजे देती थी और उनका विशेष ध्यान रखती थी। न उन्हेे कभी नीद से जगाया, न काम का दबाव बनाया। जबकि अपनी इकलौती बेटी को न कभी नीद—भर सोने दिया, न उसकी इच्छानुसार खाने दिया। इतना ही नही उसके साथ माँ ने पढ़ाई मे भी भेदभाव किया। उसके भाई को पढ़ाई की पूरी सुविधाएँ दी गयी थी, जबकि उसे घर के काम मे माँ का हाथ बँटाने के बाद शेष बचे समय मे पढ़ाई करनी पड़ती थी। अन्त मे उससे वह अधिकार भी छीन लिया गया और आठवी कक्षा के बाद उसकी शिक्षा छुड़वाकर उसे घर के कामो मे लगा दिया गया। अपने साथ इतना भेदभाव होने पर भी उसने कभी माँ के निर्णय को अनुचित नही बताया, बल्कि माँ के प्रत्येक निर्णय को श्रद्धा के साथ शिरोधार्य करके उसका पालन करती थी, परन्तु अब वह इस भेदभाव को चुप रहकर सहन नही करेगी। यदि गरिमा इस घर की बहू होकर अपनी अधूरी छोड़ी हुई शिक्षा को पुनः आरम्भ कर सकती है, तो इसी घर की बेटी ऐसा क्याे नही कर सकती है ?

माँ के प्रति श्रुति का यही असन्तोष गरिमा के प्रति उसके हृदय मे ईर्ष्या तथा द्वेष उत्पन्न कर रहा था। गरिमा के प्रति उसका द्वेष तब अधिक बढ़ जाता था, जब माँ गरिमा का प्रसव—काल निकट अनुभव करके उसकी अतिरिक्त देखभाल करती थी। उस समय अपने ईर्ष्या—द्वेष—भाव के वशीभूत वह यह भी भूल जाती थी कि गरिमा को अतिरिक्त देखभाल की आवश्यकता है और एक स्त्री होने के नाते उसका भी कर्तव्य है कि वह भी अपनी भाभी की देखभाल करे और उसके साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करे। श्रुति के असवेदनशील व्यवहार से गरिमा को बहुत असहज अनुभव होता था, परन्तु श्रुति पर इसका कोई प्रभाव नही पड़ता था। वह अब प्रायः गरिमा को ‘माँ की लाडली' कहकर व्यग्य भी करने लगी थी।

गरिमा का प्रसव—काल ज्यो—ज्यो निकट आता जा रहा था, त्यो—त्यो उसकी चिन्ता भी बढ़ती जा रही थी। अपने पति आशुतोष के विषय मे सोच—सोचकर उसका तनाव भी बढ़ रहा था। कभी—कभी उसका तनाव इतना बढ़ जाता था कि उसको उस घर मे घुटन का अनुभव होने लगता था। जब से श्रुति के व्यवहार मे कटुता आयी थी, तब से उसका तनाव और घुटन की अनुभूति उसके मन—मस्तिष्क पर इस प्रकार प्रभावी होने लगा था कि वह सोचती थी— माँ के अतिरिक्त घर मे कोई भी नही है, जो मेरे प्रति आत्मीयता रखता हो या मेरी चिन्ता करता हो ! ऐसे मे यहाँ रहने का क्या लाभ है ? यहाँ रहने से अच्छा है कि मै अपने मायके चली जाऊँ !

अपनी इस इच्छा को गरिमा कई बार माँ के समक्ष व्यक्त भी कर चुकी थी, परन्तु माँ उससे सहमत नही होती थी। उनका स्पष्ट कहना था कि प्रसवकाल मे अपनी बहू की देखभाल और सेवा करना उनका कर्तव्य है। वे ऐसे समय मे उसे उसके पिता के घर भेजकर कर्तव्यविमुख नही हो सकती है। साथ ही उनको यह अधिकार भी है कि अपनी बहू को वे प्रसवकाल मे अपनी देखरेख मे अपने घर रख सके।

धीरे—धीरे वह शुभ समय भी आ गया, जब गरिमा को प्रसव—पीड़ा होने लगी। सयोगवश आशुतोष उस दिन घर पर ही था। यह ज्ञात होते ही कि गरिमा को प्रसव—पीड़ा हो रही है, अचानक बड़े ही अप्रत्याशित ढग से उसने अपनी माँ से कहा कि गाँव मे अच्छी चिकित्सा—सुविधा नही होने के कारण गरिमा तथा उसके बच्चे को खतरा हो सकता है! अच्छा होगा कि समस्या उत्पन्न होने से पहले ही सावधानी बरते और तुरन्त अस्पताल ले जाएँ! आशुतोष अपनी माँ से अस्पताल ले जाने के लिए कहकर बाहर चला गया और पन्द्रह मिनट मे वापिस लौटकर दरवाजे पर गाड़ी का हॉर्न बजा दिया, इस आशय से कि अस्पताल चलने मे देरी न करे। माँ अस्पताल चलने की सारी तैयारी पूरी कर चुकी थी। हॉर्न सुनते ही वे गरिमा को सहारा देकर गाड़ी तक लायी और उसमे लिटाकर यथाशीघ्र गरिमा को अस्पताल मे पहुँचा दिया। अस्पताल मे पहुँचाने के लगभग दो घटे बाद गरिमा ने एक बेटे को जन्म दिया। उसका बेटा पूर्ण स्वस्थ तथा सुन्दर था। अपने बेटे को देखकर गरिमा बहुत प्रसन्न थी। आशुतोष भी प्रसन्नचित्‌ मुद्रा मे प्रेमपूर्वक गरिमा को निहार रहा था।

आशुतोष के व्यवहार—परिवर्तन का श्रेय गरिमा मन—ही—मन अपने नवजात शिशु को दे रही थी, परन्तु श्रुति के उदासीनतापूर्ण—व्यवहार का कारण वह अभी तक नही समझ पायी थी कि आखिर उससे ऐसी कौन—सी भूल हो गयी, जिससे उसके प्रति श्रुति का व्यवहार कटु होने लगा था ; जिससे श्रुति के और उसके बीच इतनी दूरी बढ़ गयी थी कि गरिमा जब अस्पताल जाने के लिए घर से निकली थी, तब भी श्रुति उसके निकट नही आयी। वह सोच रही थी कि प्रसव—काल मे स्त्री के सिर पर कफन बँधा होता है, ईश्वर के अतिरिक्त किसी को नही पता होता कि प्रसूता—स्त्री का जीवनकाल कितना है ? फिर भी श्रुति के हृदय मे उसके प्रति सवेदना जाग्रत नही हुई !

तीन दिन तक अस्पताल मे रहने के पश्चात्‌ जब गरिमा घर लौटी, तब भी श्रुति के व्यवहार मे कोई परिवर्तन नही था, परन्तु ऐसा प्रतीत होता था कि अब उसके वैवाहिक जीवन मे आयी दुखो की बदली पूरी तरह से छँट चुकी थी। आशुतोष अब हर समय प्रसन्नचित्‌ रहकर अपना कर्तव्य—निर्वाह करने लगा था। अब उसके व्यवहार मे उपेक्षा या उदासीनता का चिह्‌न शेष न बचा था।

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