आधी नज्म का पूरा गीत
रंजू भाटिया
एपिसोड 27
मेरा द्वारा इमरोज़ जी का लिया गया साक्षात्कार
अमृता प्रीतम के इमरोज़ से मेरा मिलना..एक यादगार लम्हा एक ज़माने सेतेरी ज़िंदगी का पेड़ कविता फूलता फलता और फैलतातुम्हारे साथ मिल करदेखा हैऔर जब तेरी ज़िंदगी के पेड़ नेबीज बनाना शुरू कियामेरे अंदर जैसे कविता कीपत्तियाँ फूटने लगी हैं.[.इमरोज़....]एक सपना जो सच हुआ.....सुबह उठी तब कहाँ जानती थी कि इन पंक्ति को लिखने वाले से ख़ुद रु बरू बात होगीऔर मेरा ज़िंदगी का एक सपना यूँ सच होगा...मिलना होगा एक ऐसी शख़्सियत से जिसको अभी तक सिर्फ़उनके बनाए चित्रो से देखा है या अमृता की नज्मो के मध्याम से जाना है...जाना होगा उस अमृता के घर जिसको मैने 14 साल की उमर से पढ़ना शुरू किया और उसको अपना गुरु मान लिया.....सुबह फ़ोन आया की आज इमरोज़ से मिल का वक़्त तय हुआ है 2 बजे से पहले..यदि साथ चलना चाहो तो चल सकती हो..नेकी और पूछ पूछ...ऐसी ड्रीम डेट को भला कौन छोड़ना चाहेगा...जाने में अभी दो घंटे बाक़ी थे और वो 2 घंटे कई सवाल और कई उत्सुकता लिए कैसे बीते मैं ही जानती हूँ...अमृता इमरोज़ के प्यार का ताजमहल उनका ख़ूबसूरत घर.......उनका घर बिल्कुल ही साधारण, हरियाली से सज़ा हुआ और अमृता इमरोज़ से जुड़े उनके वजूद का अनोखा संगम लगा. एक ख़ुश्बू सी वहाँ थी या मेरे ज़ेहन में जिस को मैने बचपन से पढ़ा था आज मैं उसके घर पर थी....हाय ओ रब्बा !!!यह सच था या सपना.....उनके घर की जब डोर बेल बजाई तो दिल एक अजब से अंदाज़ से धड़क रहा था...उनको देखने की जहाँ उत्सुकता थी वहाँ दिमाग़ में अमृता की लिखी कई नज़मे घूम रही थी...दरवाज़ा खुला..समाने अमृता के बड़े बेटे थे कहा कि इमरोज़ अभी बाज़ार तक गये हैं आप लोग अंदर आ जाओ. इमरोज़.अभी आ जाएँगे......ड्राइंग रूम में अंदर आते ही...कई छोटी छोटी पेंटिंग्स थी एक बड़ा सा ड्राइंग रूम..ठीक मेरे बाए हाथ की तरफ़ एक दिलीप कुमार की हाथ से बनाई पेंटिंग लगी थी...उनके ख़ामोश लब और बोलती आँखे जैसे अपनी ही कोई बात कर रहे थे हमसे...थोड़ी देर हम उन्ही पेटिंग्स में गुम थे की पता चला की इमरोज़ आ गये हैं...और उनसे मिलने फर्स्ट फ्लोर पर जाना होगा....रास्ते में सीढ़ियों पर पेंटिग्स..एक सुंदर सी छोटी सी मटकी पेंट की हुई और अंदर दरवाज़े पर अमृता की किसी पंजाबी नज़्म की कुछ पंक्तियाँ लाल रंग से लिखी हुई थीबहुत ही साधारण सा घर जहाँ अंदर आते ही दो महान हस्तियाँ अपनी अपनी तरह से अपने होने का एहसास करवा रही थी...सामने की दीवार पर इमरोज़ के रंगो में सजी अमृता की पंटिंग्स और साथ में लिखी हुई उनकी नज़मे.एक रोमांच सा दिल में पैदा कर रहे थे....एक छोटी सी मेज़ जहाँ अब अक्सर इमरोज़ कविता या नज़्म लिखते हैं...उसके ठीक पीछे कुछ मुस्कराते से पौधे.. सामने की तरफ़ रसोईघर....जहाँ कभी अमृता अपना खाना ख़ुद बनाती थी और इमरोज़ साथ रह कर वही पर उनकी मदद करते थे..उनके लिए चाय बना देते थे....यहाँ सब सामान शीशे का यानी पारदर्शी जार में है कभी कोई समान ख़त्म होने पर..इमरोज़ उस ख्त्म हुए समान को फिर से ला कर भर दे....और अमृता को कोई किसी चीज की कमी या कोई परेशानी ना हो....यही बताते हुए इमरोज़ ने एक बहुत ही सुंदर बात कही की काश इंसान भी पारदर्शी शीशी की तरह होते..जिस के अंदर झाँक के हम देख सकते....कितनी सजहता से इमरोज़ कितनी गहरी बात कह गयेएक असाधारण व्यक्तिव इमरोज़..वापस वही रसोई घर के सामने रखी मेज़ पर आ कर और उस इंसान को देख रही थी जिसका ज़िक्र अमृता की नज़मो में होता है...एक सपना वो अक्सर देखा करती थी की एक लंबा सा आदमी सफ़ेद कुर्ते पायजामे में..कंवास और रंगो से कुछ पेंट कर रहा है..यह सपना वह कई साल देखती रही..इमरोज़ ने बताया की मुझसे मिलने के बाद वह सपना आना काम हो गया...सच में इतना प्यार कोई करे और उसके जाने के बाद भी अपनी बातो से अपने एहसासो से उस औरत को ज़िंदा रखे किसी औरत के लिए इस से ज़्यादा ख़ुशनसीबी क्या होगी......हमारे लिए वो अपने हाथो से कोक ले के आए..बहुत शर्म सी महसूस हुई की इतनी बड़ा शख्स पर कोई भी अहंकार नही कितना साधारण..दिल को छू गया उनका यह प्यारा सा मुस्कराना.और बहुत प्यार से बाते करना मैने पूछा कि आप को अमृता की याद नही आती...नही वो मेरे साथ ही है उसकी याद कैसे आएगी..इसके बाद जितनी भी बात हुई उन्होने उसके लिए एक बार भी थी लफ़ज़ का इस्तेमाल नही किया..मैने पूछा भी था उनसे की आपने हर बात में है कहा अमृता को..थी नही..उन्होंने मुस्कारते हुए कहा कि वह अभी भी है..और रहेगी हमेशा.सच ही तो कहा उन्होंनेप्यार का एक नाम इमरोज़....मैने कहा मैं अमृता जी से मिलना चाहती थी..तो बोले की मिली क्यों नही..वह सबसे मिलती थी यह दरवाज़ा हमेशा खुला ही रहता था..कोई भी उस से आ कर मिल सकता था..तुमने बहुत देर कर दी आने में.....सच में बहुत अफ़सोस हुआ...कि काश उनके जीते जी उनसे मिलने आ पाती... सामने जो मेरे शख्स था वो आज भी पूरी तरह से अमृता के प्यार में डूबा हुआ, , वहाँ की हवा में रंग था नज़्म थी और प्यार ही प्यार था....कोई किसी को इतना प्यार कैसे कर सकता है....पर एक सच सामने था....एक अत्यंत साधारण सा आदमी...भूरे रंग के कुर्ते में सफ़ेद पाजामे में..आँखो में चमक...और चहरे पर एक नूर..शायद अमृता के प्यार का...सब एक सम्मोहन..सा जादू सा बिखेर रहे थे.मैने जब उनसे पूछा कि क्या मैं अमृता का रूम देख सकती हूँ..जहाँ वह लिखा करती थी..तो उन्होने मुझे पूरा घर दिखा दिया..यह पहले ड्राइंग रूम हुआ करता था..अब वहाँ इमरोज़ की पंटिंग्स और अमृता की नज़मो का संगम बिखरा हुआ था एक शीशे की मेज़ जिस पर एक टहनी थी जिसकी परछाई अपना ही जादू बिखेर रही थी इस से बेहतर..कोई ड्राइंग रूम और क्या हो सकता है....अमृता का कमरा वैसे ही है जैसा उनके होते हुए था.और बिस्तर पर पड़ी सलवटे जैसे कह रही हो की अभी यही है अमृता..बस उठ कर शायद रसोईघर तक गयी हो..फिर से वापस आ के कोई नज़म लिखेगी..... इमरोज़ का कमरा रंगो में घिरा था...और हर क़मरे की आईने में कोई ना को नज्म पंजाबी में लाल रंग से लिखी हुई थी...एक और कमरे में बड़े बड़े बूक शेल्फ़.जिस में कई किताबे..सजी थी...अमृता की और कई अन्य देश विदेश के लेखको की....बस सब कुछ जो देखा वो समेट लिया अपने दिल में और वहाँ फैली हवा में उन ताममं चीज़ो के वजूद को महसूस किया..जो साथ साथ अपना एहसास करवा रहे थे....प्यार के लिए लफ़्ज़ो की ज़रूरत नही..उन्होने बताया की चालीस साल में कभी भी अमृता और मैने एक दूसरे को I LOVE U नही कहा.क्यों कि कभी हमे इस लफ्ज़ की ज़रूरत ही नही पढ़ी..वैसे भी प्यार तो महसूस करने की चीज है उसको लफ़्ज़ो में ढाला भी कैसे जा सकता है......बस हम दोनो ने एक दूसरे की ज़रूरत को समझा....वो रात को 2 बजे उठ कर लिखती थी उस वक़्त उस को चाय चाहिए होती थी...हमारे कमरे अलग अलग थे क्यों कि उसको रात को लिखने की आदत थी और मुझे अपने तरीक़े से पेंटिंग करनी होती थी.हमने कभी एक दूसरे के काम में डिस्टर्ब नही किया...बस उठता था उसकी चाय बना के चुपचाप उसके पास रख आता था..वह मेरी तरफ़ देखती भी नही पर उसको एहसास है कि मैं चाय रख गया हूँ और उसको वक़्त पर उसकी जो जरूरत थी वह पूरी हो गयी है..सच कितना प्यारा सा रिश्ता है दोनो के बीच....उसको सिगरेट की आदत है, मैं नही पीता पर उसको ख़ुद ला के देता..मैने पूछा कि क्या आपने कभी उनको बदलने की कोशिश नही की....उन्होने कहा नही की, वो ख़ुद जानती थी की इसको पीने में क्या बुराई है तो मैं उसको क्या समझा सकता हूँ.बहुत अच्छा लगा.यही तो प्रेम की प्रकाष्ठा है..इस से उपर प्रेम और हो भी क्या सकता है...एक एक लफ्ज़ में प्यार था उनका अमृता के लिएअमृता इमरोज़ का मिलना......मैने पूछा की आप मिले कैसे थे..अमृता को अपनी किताब के लिए कवर पेज बनवाना था...और इमरोज़ से उसी सिलसिले में मुलाक़ात हुई.....फिर कब यह ख़ूबसूरत रिश्ते में ढल गयी.पता ही नही चला...अमृता इमरोज़ से 7 साल बढ़ी थी..तब उस वक़्त बिना किसी समाज की परवाह किए बिना..उन्होने साथ रहना शुरू किया...इमरोज़ ने बताया की तब कई लोगो ने कहा की यह तो बूढ़ी हो जाएगी..तुम अभी जवान हो या अमृता को भी बहुत कुछ कहा गया..पर कुछ नही सुना..मैने उस वक़्त जब वो 40 साल की भी नही थी उसकी पेंटिंग बनाई की 80 साल की हो के वो कैसी लगेगी.उसके बाल सफ़ेद किए..चहरे पर झुरियाँ बनाई..और जब उसके 80 साल के होने पर मैने उसको उसको पंटिंग से मिलाया तो वो उस पैंटिंग से ज्यादा ख़ूबसूरत थी.....भला नक़ली रंग असली सुंदरता से कैसे मुक़ाबला कर पाते...यह प्यार कितना प्यारा था जो करे वही समझे!कुछ यादे कुछ बातें.....कुछ बाते आज की राजनीति पर हुई.कुछ आज कल के बच्चो जो बुढ़ापा आते ही अपने माँ बाप को ओल्ड एज होम छोड़ आते हैं...पर उनकी हर बात का अंत सिर्फ़ अमृता पर हुआ...उनकी लिखी कविताओ में उन्होने कहा की कोई दुख का साया या कुछ खोने का डर नही दिखेगा...क्यूकी मेरे पास तो खोने के लिए कुछ है ही नही जो ज़्यादातर कविता या नज्मो में होता है क्यूँकी मेरा जो भी कुछ है वो मेरे पास ही दिखता है...सच हो तो कहा उन्होने अमृता जी वहाँ हर रंग में हर भाव में इमरोज़ के रंगो में ढली हुई थी उन्ही के लफ़्ज़ो में लोग कह रहे हैं उसके जाने के बादतू उदास और अकेला रह गया होगामुझे कभी वक़्त ही नही मिलाना उदास होने का ना अकेले होने का... वह अब भी मिलती है सुबह बन कर शाम बन करऔर अक्सर नज़मे बन करहम कितनी देर एक दूजे को देखते रहे हैंऔर मिलकर अपनी अपनी नज़मे ज़िंदगी को सुनाते रहे हैं[इमरोज़]कभी नही भूलेंगे मुझे यह ख़ूबसूरत पल..यह छोटी सी मुलाक़ात मेरी ज़िंदगी के सबसे अनमोल यादगार पलो में से एक है...उनके कहे अनुसार जल्दी ही उनसे मिलूंगी..क्यों कि उनके कहे लफ्ज़ तो अभी मेरे साथ हैं कि जैसे अमृता को मिलने में देर कर दी.,.मुझे दुबारा मिलने में देर मत करना..क्यों कि मैं भी बूढ़ा हो चुका हूँ..क्या पता कब चल दूं... नही इमरोज़ जी आप अभी जीयें और स्वस्थ रहे यही मेरी दिल से दुआ है.....रंजना [रंजू] भाटिया 20 अप्रैल 2007 यह तारीख है इमरोज़ जी से मिलने की जो आज भी रोमांचित कर जाती है, इस को सीरिज में देना इसलिए जरुरी लगा, कि जिसको मैंने हर पल अपने साथ महसूस किया उस अमृता प्रीतम के साए से जो बातें सुनी वह यहाँ आपके साथ शेयर करूँ l
***