छूटी गलियाँ - 14 Kavita Verma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

छूटी गलियाँ - 14

  • छूटी गलियाँ
  • कविता वर्मा
  • (14)

    मैं राहुल को लेकर परेशान था, बाल मनोविज्ञान की कई साइट्स मैंने छान ली लेकिन कहीं से कोई दिशा नहीं मिल रही थी। अब खुद की समझ और विश्लेषण के आधार पर ही कुछ करना था। हाँ एक विचार आया था कि किसी मनोविशेषज्ञ से पूछूँ लेकिन खुद की झिझक थी और अब तो एक शर्मिंदगी का एहसास भी कि मैं एक तेरह साल के बच्चे को नहीं समझ पा रहा हूँ।

    तीन चार दिन इसी उधेड़ बुन में निकल गए फिर मैंने फोन लगाया, "हैलो राहुल कैसे हो बेटा?"

    "ठीक हूँ" संक्षिप्त सा उत्तर मिला।

    "क्या बात है मेरा बेटा नाराज़ है मुझसे?"

    "नहीं तो" उसकी आवाज़ रुँध गयी।

    "फिर? आज पापा से बात करके खुश नहीं लग रहा है, क्या बात है बेटा?" अब मैं आवाज़ से उसकी मनस्थिति समझने लगा हूँ इस बात से खुद ही अचंभित था।

    "नहीं कोई बात नहीं।"

    "अच्छा पापा पाँच साल नहीं आ पाएँगे इस बात से नाराज़ हो?"

    "पापा मुझे आपके पास रहना है मुझे यहाँ अकेले नहीं रहना, मैं आपको बहुत मिस करता हूँ। प्लीज़ पापा आप वापस आ जाइये या हमें वहाँ बुला लीजिये।" वह रो पड़ा।

    सिर्फ दो ही सड़क की दूरी इतनी थी जिसे मैं चाह कर भी पार नहीं कर सकता था, मैं उसे सीने से लगा कर दिलासा दिलाना चाहता था कि मैं उसके पास हूँ।

    उसका मन बदलने के लिए मैंने बातों का रुख बदल दिया। बहुत देर तक मैं उससे यहाँ वहाँ की बातें करता रहा दुबई कैसा है क्या क्या खास है वहाँ बताता रहा। जब फोन रखा तब वह खुश था और मैं भी हल्का महसूस कर रहा था। बातों का सिलसिला चलता रहा।

    सनी घर आने वाला है मैं आठ दिनों से घर की साफ सफाई में लगा हुआ हूँ। उसके कमरे की सफाई करते हुए कई पुरानी चीज़े हाथ आयी जो मुझे उन सुखद दिनों में ले गयी जो अब कभी लौट कर नहीं आने वाले हैं। उसके कपड़े, खिलौने, कॉपी किताबें। उसकी बाइक मैंने बेच दी मैं नहीं चाहता कि उसका किसी कड़वी याद से सामना हो। किचन की सफाई कर रहा था जाने क्या क्या भरा पड़ा था इतने सारे डब्बों में जो सब ख़राब हो गया था। लगभग पूरा साल बीत गया था। इस किचन में सिवाय चाय के कुछ नहीं बना। ना ही मैंने कभी किसी चीज़ को देखने और छूने की कोशिश की। उन खुश दिनों की यादें जब तब मुझे घेरती रहती हैं किसी और दबी हुई याद को खुद उकेरने की हिम्मत नहीं है मुझमें। तभी नेहा आ गयी, दरवाज़ा खोलते ही मैं ऐसे खुश हो गया जैसे किसी बिछड़े हुए आत्मीय से मिल रहा हूँ। मेरे धूल भरे बाल, अस्त व्यस्त कपड़े देख कर वह चौंक गई।

    "सब ठीक तो है न आपकी तबियत।"

    "हाँ हाँ सब ठीक है सनी घर आने वाला है तो मैं घर की साफ सफाई कर रहा था।"

    "अरे वाह ये तो बड़ी अच्छी खबर है, कब आ रहा है मैं कुछ मदद करूँ?"

    "आप क्यों तकलीफ करती हैं लेकिन सच कहूँ किचन में मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है।"

    वह हँसते हुए किचन में चली आई, डब्बों में देख कर खराब सामान बाहर फिंकवाया फिर आगे क्या करना करवाना है बताने लगी।

    "हाँ ये सब तो मैं कल काम वाली से करवा लूँगा अभी तो आपको बढ़िया सी चाय पिलाता हूँ।"

    "लाइए मैं बनाती हूँ चाय तब तक आप हाथ मुँह धो लीजिये।"

    "राहुल कैसा है?" चाय पीते हुए मैंने पूछा।

    "काफी शांत रहने लगा है लेकिन मैं जानती हूँ कुछ प्रश्नों के जवाब वह अभी भी खोज रहा है। कभी कभी बहुत देर तक पुराने एलबम देखता रहता है जैसे उनमे कुछ ढूँढ़ रहा हो लेकिन आपसे बात होते रहने से उसकी उलझने कुछ कम हुई हैं।"

    "कौन से प्रश्न अभी बाकी हैं?"

    "मेरे और विजय के रिश्तों के। मुझसे तो उसने पूछ लिया लेकिन आपसे पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है।"

    "सच बताऊँ मैं इस स्थिति को टालने के लिए ही खूब बोलता हूँ। मैं जानता हूँ उसके प्रश्नों के जवाब कड़वे होंगे मैं उसे और दुखी नहीं करना चाहता।"

    "अभी तो उसके एक्साम्स हैं उसके बाद वह कम्प्यूटर या लैपटॉप लेने की जिद कर रहा है।"

    "हाँ तो दिलवा दीजिये आजकल बच्चों को पढ़ाई में भी बहुत मदद मिलती है कम्प्यूटर से।"

    हम देर तक इधर उधर की बातें करते रहे सच बहुत अच्छा लग रहा था।

    पिछले पंद्रह दिनों में माली ने बगीचे की शक्ल सूरत संवार दी थी। गीता के हाथ का लगाया जूही महकने लगा था। सूखे मुरझाये पेड़ पौधे काट छाँट दिए थे। अस्त व्यस्त सी मेरी जिंदगी भी अब एक संवरी सी सूरत लेने वाली थी। बगीचे में पानी देते हुए मैं सोच रहा था अब जितने भी पौधे बचे हैं इन्हे मुरझाने नहीं देना है।

    ठीक दस बजे मैं सेंटर पर पहुँच गया। सनी उस दिन खरीदी हुई नई टी शर्ट पहने तैयार खड़ा था, देखते ही गले लग गया उसके कपड़ों और कॉपी किताबों के बेग गाड़ी में रखे।

    गीता और सोना की तस्वीर के सामने खड़े होते ही वह फूट फूट कर रो पड़ा। "पापा ये सब मेरे कारण हुआ है, मैं ही मम्मी और सोना की मौत का कारण हूँ। मैंने अगर मम्मी की बात मानी होती तो आज वे और सोना हमारे साथ होती।"

    "नहीं बेटा गलती मेरी थी मैं ही पैसों की चकाचौंध में परिवार की असली जरूरत भूल गया था। भूल गया था खुशियाँ पैसों से नहीं एक दूसरे के साथ से मिलती हैं। तुम्हारी मम्मी ने मुझे कई बार आगाह किया लेकिन मैं समझ न सका।" आज पहली बार खुले दिल से उसके सामने मैंने अपनी गलती स्वीकार की थी।

    मैंने बाहर खाना खाने जाने को कहा तो वह बोला "नहीं पापा मुझे पढ़ना है बस पंद्रह दिन ही बचे हैं एक्साम्स को।" उसकी समझदारी ने मुझे अभिभूत कर दिया। मैंने फोन करके दो टिफिन मँगवा लिए।

    सनी जिस तरह मन लगा कर पढ़ाई कर रहा था देखकर ख़ुशी हो रही थी। उसकी मेहनत देख कर विश्वास हो गया कि वह अच्छे नंबरों से पास होगा और आगे भी कुछ करेगा। उसने कंपनी सेक्रेटरी के एंट्रेंस की भी तैयारी शुरू कर दी थी।

    सनी के आ जाने से अकेलेपन की अनुभूति कुछ कम तो हुई लेकिन गीता और सोना की कमी ज्यादा खलने लगी थी। एक दिन टी वी देखते एक कुकरी शो पर अटक गया, उसे देखते ख्याल आया कब से कुछ अच्छा नहीं खाया। जिंदगी एक सूनी सड़क पर अकेले चल रही है। बहुत देर तक किचन में खड़ा रहा। सनी जब कोई चार पाँच साल का था तब गीता ने जिद करके किचन का फर्नीचर बनवाया था। जब गीता खाना बनाती थी मैं यहीं कुर्सी डाल कर बैठ जाता था। रोटियां बनाते समय उसकी काली लम्बी चोटी कमर पर झूलती थी उसकी कमर के इर्द गिर्द लिपटा पल्लू शरारत से खींच दिया करता था और कभी यूँ ही पीछे से उसे बाहों में जकड़ लेता। बनावटी गुस्से से झिड़कती उसकी शर्मीली मुस्कान ही तो जीने का सबब थी। अब तो बर्तन, क्रॉकरी, मिक्सर, ओवन लगभग साल भर से ऐसे ही रखे थे। क्या अब इस किचन में कभी रौनक आ पायेगी?

    उस शाम पार्क में पहुँचा तो नेहा को वहाँ बैठे देखा। दिन भर की थकान ने उसकी सांवली रंगत को क्लांत कर दिया था। सामने बच्चे खेल रहे थे लेकिन वह शून्य में निहार रही थी।

    "नमस्ते नेहा जी" कहते हुए मैं सामने खड़ा हुआ तो उसने चौंक कर देखा।"कहाँ गुम हैं आप? सब ठीक तो है ना" कहते हुए मैं उसी बेंच पर बैठ गया। तभी मुझे ध्यान आया मुझे पहले पूछना तो चाहिए था मैं कैसे इतना बेतकल्लुफ हो गया। "माफ़ कीजिये मैं बिना पूछे ही बैठ गया।" मैंने झिझकते हुए कहा।

    "नहीं नहीं कोई बात नहीं" वह उसी बेख्याली में बोली लगा जैसे उसने सुना ही नहीं मैंने क्या कहा।

    "क्या बात है नेहा जी आप परेशान लग रही हैं, सब ठीक तो है ना?"

    "कोई विशेष बात नहीं है बस ऐसे ही।"

    मैं जानता था वह परेशान है इसलिए जानने की एक और कोशिश करते हुए कहा '"देखिये वैसे पूछने का मेरा हक़ तो नहीं बनता लेकिन मुझे लगा शायद अब हम दोस्त बन गए हैं इसलिए पूछ लिया।"

    वह वैसे ही खोयी सी बैठी रही। एक बार तो मुझे लगा कि वह शायद जानबूझ कर मेरी उपेक्षा कर रही है लेकिन उसकी खोई खोई आँखें और चेहरे पर तनाव की लकीरें देख खुद की सोच पर गुस्सा आया। एक अकेली औरत अपने बेटे रिश्तेदारों और समाज के लोगों से इतना बड़ा सच छुपा कर अपने बेटे और खुद की भावनात्मक उलझनों से जूझ रही है और मैं हूँ कि उसके बारे में ऊटपटांग सोच रहा हूँ। अगर वह मुझसे अपनी परेशानी नहीं बाँटना चाहती इसके दो ही कारण हो सकते हैं या तो वह सोचती है कि मैं इसमे उसकी कोई मदद नहीं कर पाऊँगा या वह अभी भी मुझे ऐसा दोस्त नहीं समझती। अपनी इस सोच पर मैं खुद ही हैरान था मैं कब से लोगों को समझने लगा काश मैं उस समय गीता को भी समझ पाता। शायद उस समय की मेरी इस नाकामयाबी ने ही मुझे अब लोगों को समझने के काबिल बना दिया है। दुःख बहुत कुछ सिखा देता है।

    ***