रात के ११बजे - भाग - 7 Rajesh Maheshwari द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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रात के ११बजे - भाग - 7

या तो सीरियल देख रहे होते हैं या फिर वे फिल्में देखते हैं। आज के प्रतिस्पर्धात्मक व्यापारिक युग के चैनल जो सीरियल दिखाते हैं वे भावनाओं को भड़काने वाले होते हैं वरना उन्हें कौन देखेगा। जो फिल्म दिखलाई जाती हैं वे प्रायः हिन्सा और वासना पर आधारित होती हैं। इनमें हिंसा और वासना का वीभत्स रुप ही परोसा जाता है। परिणाम स्वरुप बच्चों में भी हिन्सात्मक और वासनात्मक विचारों, चेष्टाओं और आकांक्षाओं की जड़ें फैल जाती हैं जो आजीवन उनके साथ रहतीं हैं। जब इनकी पूर्ति नहीं होती तो हीनताबोध आता है। वे मानसिक बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। आरती का प्रकरण भी कुछ ऐसा ही है। उसमें अनेक उच्च-वर्गीय कामनाएं जन्म ले चुकी हैं। इसका कारण उसका ऐसे स्कूल में पढ़ना जिसमें उसके परिवार की अपेक्षा बहुत उच्च वर्गीय परिवार के बच्चे पढ़ते हैं, प्रमुख है। इसके अतिरिक्त वह ऐसे क्षेत्र में रहती है जहां अधिकांश सम्पन्न वर्ग के लोग रहते हैं। उनके रहन-सहन और खान-पान में और आरती के परिवार के रहन-सहन और खान-पान में भी बहुत अन्तर है। इन्हीं सब बातों ने उसमें हीनता बोध भर दिया है। इसीलिये उसमें फिल्म इन्डस्ट्रीज के प्रति बहुत अधिक जुड़ाव पैदा हो गया है, क्योंकि उसे वहां अपनी सारी कामनाओं की पूर्ति नजर आती है। अभी उसकी उम्र ऐसी नहीं है कि वह इस वास्तविकता को समझ सके। इसीलिये अभी तो आवश्यक है कि उसकी इन उच्च आकांक्षाओं की पूर्ति की जाए और फिर जब वह इस ओर से संतुष्ट हो जाए तो एवं उसमें कुछ परिपक्वता आ जाए तो उसे जीवन की वास्तविकताओं से धीरे-धीरे परिचित कराया जाए। उसे समाज में उच्च स्थान पाने के लिये आवष्यक श्रम और प्रयासों का ज्ञान कराया जाए। यह उपचार बड़े धैर्य और विवेक के साथ लम्बे समय तक करना होगा तभी वह सामान्य हो सकेगी।

वह उससे काफी देर तक वार्तालाप करने के बाद उसके हीनताबोध के तीन प्रमुख कारण राकेश को बतलाता है। पहला आरती ने कुछ माह पूर्व अपनी माँ को उसके पिता के द्वारा बेरहमी से पीटा जाते देखा था। उसके मन में बचाव करने की तीव्र अभिलाषा थी किन्तु वह मजबूर और असमर्थ थी। इसका प्रभाव उसके मानस पटल पर बहुत गहरा सदमे के रुप में पड़ा। दूसरा वह जिस विद्यालय में पढ़ने जाती थी। वहां पर दूसरे बच्चे अमीर घरों से थे जबकि उसके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। इसके कारण उसे हीनता का बोध होता था जिसका उसके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा था। तीसरा उसकी इच्छा भी अन्य बच्चों के समान अच्छे-अच्छे रेस्टारेण्ट, बड़े-बड़े शापिंग माल और बड़े-बड़े खर्चे करने का होता था क्यों कि उसके सहपाठी प्रायः इनकी चर्चा करते थे। किन्तु धन के अभाव के कारण वह ऐसा करने में असमर्थ थी इसी कारण उसके मन में फिल्म उद्योग का भूत सवार हो गया था कि वह हीरोइन बनकर अपार धनराशि कमाएगी और अपने जीवन के सारे अभावों को दूर कर लेगी। समाज में उसका मान-सम्मान होगा और बड़े-बड़े लोग उसके पीछे-पीछे घूमेंगे।

यह जानने के बाद राकेश आरती के पिता को अपने कार्यालय में बुलाता है उन्हें प्रेमपूर्वक समझाता है कि हिन्सा या मारपीट किसी समस्या का निदान नहीं हैं। यह और भी समस्याओं को बढ़ा देती है। हमें प्यार और समझदारी से बच्चों एवं परिवार के अन्य सदस्यों से व्यवहार करना चाहिए। यही पारिवारिक सुख, शान्ति एवं उन्नति का पर्याय बनता है। उन्होंने भी इसे स्वीकार किया और भविष्य में इस दिशा में सतर्क रहने का आश्वासन दिया।

इसके बाद राकेश उनके घर आने-जाने का क्रम बढ़ जाता है। वह जब भी उसके घर जाता है आरती से जरुर बात करता है। धीरे-धीरे उसके और आरती के बीच खुलकर बात होने लगती है। कई बार वह मानसी और आरती को अपने साथ घुमाने भी ले जाता है। कभी वह उन्हें किसी अच्छे रेटारेण्ट में ले जाकर खाना आदि खिलाता है तो कभी कपड़ों आदि के शो रुम में ले जाकर उन्हें कपड़े और अन्य वस्तुएं दिलवाता है। इस प्रक्रिया में उसके काफी पैसे खर्च होते हैं किन्तु इससे आरती में भी काफी गुणात्मक परिवर्तन आना प्रारम्भ हो जाता है।

राकेश को अपने पारिवारिक कारणों से बम्बई जाना था। वह इस अवसर का लाभ उठाने का प्रयास करता है। वह आरती और मानसी को भी अपने साथ बम्बई ले जाता है। राकेश की मित्रता राजश्री प्रोडक्शन के स्टाफ से बहुत पुरानी थी। वह आरती और मानसी को वहां फिल्म की शूटिंग दिखाने ले जाता है। वहां वह उनकी मुलाकात फिल्म के प्रोडक्शन मेनेजर से भी करवाता है। वह आरती के सामने ही उससे आरती के मन की बात बतलाता है। वे आरती को समझाते हैं- बारह से अठारह साल तक की बालिकाओं को फिल्म इंडस्ट्रीज में काम मिलना कठिन होता है। बारह से कम उम्र की बच्चियों को बच्चों का रोल एवं अठारह से अधिक की बच्चियों को हीरोइन या साइड हीरोइन या अन्य कोई रोल मिल जाता है। इसलिये अभी तुम्हारी उम्र पढ़ाई की है, तुम मन लगाकर पढ़ाई करो, उसके बाद तुम मुझसे संपर्क करना मैं तुम्हारी मदद अवश्य करुंगा। अभी अपना समय बेकार ही नष्ट मत करो। इसका आरती पर बहुत प्रभाव पड़ा और उसके दिमाग से फिल्म का भूत लगभग उतर गया। बम्बई में राकेश उन्हें अच्छे रेस्टारेण्ट और होटलों में उन्हें ले जाता है। वह उन्हें अच्छी शापिंग भी करवाता है। इससे वे काफी प्रसन्न होते हैं क्योंकि उन्होंने तो कभी ऐसे स्थानों में जाने की कल्पना भी नहीं की थी।

बम्बई में उनके पास पर्याप्त समय था। एक दिन जब वे भोजन करने के बाद होटल में आकर बैठे थे और सोने की तैयारी कर रहे थे तभी मानसी ने राकेश से पूछा- आप जो कर रहे हैं इससे क्या इसके भविष्य में कोई अन्तर आने की संभावना है ? राकेश ने उसे समझाया- ईश्वर ने सभी को कोई न कोई प्रतिभा दी है और यह प्रतिभा परिचय की मोहताज नहीं होती। अनुकूल वातावरण मिलने पर वह स्वयं उभर कर सामने आती है। आवश्यकता होती है अनुकूल वातावरण की। किस्मत और परिस्थितियों के कारण उस प्रतिभा के सामने आने में देर हो सकती है। एक बात और है कि जहां प्रतिभा होती है वहां रचनात्मकता और सृजन होता है। प्रतिभा ईश्वर द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक सौन्दर्य है। उचित वातावरण मिलने पर यह खिल उठता है और उसके अभाव में यह घुट-घुट कर दम तोड़ देता है। एक की प्रतिभा जब खिलती है तो वह दूसरों को भी आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। इससे समाज में भी सकारात्मक वातावरण का निर्माण होता है। हमें केवल उचित वातावरण देना है।

आरती में जिस क्षेत्र में भी प्रतिभा होगी वह उभर कर सामने आएगी और वह उस दिशा में आगे बढ़ जाएगी। यही उसके जीवन की सही दिशा होगी।

जिस प्रकार हम सपने देखते हैं उसी प्रकार बच्चे भी सपने देखते हैं। उनका भी अपना सपनों का संसार होता है। उनके अपने सपने होते हैं। बचपन एक ऐसी अवस्था है जिसमें आंखों में सिर्फ और सिर्फ प्यार होता है। उनकी खुली आंखों में भी प्यार होता है और उनकी बन्द आंखों में भी प्यार होता है। उनके सपनों में परियों की कहानियां होती हैं। वे नानी की कहानियां सुनकर अपने आप में खो जाते हैं। हमें उनसे उनका बचपन नहीं छीनना चाहिए। हो यह रहा है कि हम अपने स्वार्थ के लिये और अपने परिश्रम से बचने के लिये उन्हें टी वी और फिल्मों में उलझा देते हैं। हमारे पास उन्हें सुनाने के लिये कहानियां ही नहीं हैं और कहानियां हैं तो उन्हें सुनाने का समय नहीं है। हम इस बात को भूल जाते हैं कि उनका यह बचपन फिर नहीं आएगा। हमें उन्हें उनके बचपन को पूरी तरह खुलकर जीने देना चाहिए। उनके सर्वांगीण विकास के लिये यह बहुत आवश्यक है।

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बम्बई से वापिस आने पर राकेश आरती को अपने साथ-साथ रखने लगा। वह उसे अनेक स्थानों पर ले जाता। वह उसे अपने कार्यालय भी ले जाता है। उसे कभी-कभी अपनी व्यवसायिक मीटिंगों में भी ले जाता है। अपने मित्रों के बीच भी ले जाता है। प्रायः प्रतिदिन शाम को वह जहां भी जाता था वहां आरती उसके साथ रहा करती थी। कभी-कभी मानसी भी उनके साथ हुआ करती थी। वह अपने स्कूल से आकर तैयार हो जाती थी और फिर राकेश उसे अपने साथ ले जाता था। इसका परिणाम यह हुआ कि उसके मन से हीनता बोध समाप्त होने लगा। वह पढ़ाई के साथ-साथ स्कूल के अन्य कार्यक्रमों में भी भाग लेने लगी। हर गतिविधि में उसे अच्छी सफलताएं मिलने लगीं। उसकी स्कूल में भी उसे महत्व मिलने लगा। राकेश के इन प्रयासों ने पतन के गर्त में डूब रही एक मासूम को प्रगति के रास्ते पर आगे बढ़ा दिया था।

स्वाभाविक रुप से इस प्रक्रिया में राकेश और मानसी के बीच भी संबंधों में आत्मीयता बढ़ रही थी। कभी-कभी आरती जब मानसी को साथ ले चलने की जिद करती थी तो राकेश को उसे भी अपने साथ ले जाना पड़ता था। ऐसे अवसरों पर मानसी उनके साथ जाने से बचने का प्रयास करती थी। राकेश को मानसी की परेशानियां भी दिख रही थीं। वह उसे भी आर्थिक मदद देने लगा। इस पूरी प्रक्रिया में राकेश के व्यक्तिगत खातों से अधिक पैसा निकलने लगा। उसके कार्यालय का हिसाब उसका पुत्र देखता था। उसकी नजर में भी यह बात आई कि पापा के खर्चे अचानक बढ़ गए हैं। एक ओर यह हो रहा था और दूसरी ओर समाज में भी चर्चाओं का बाजार निरन्तर चल रहा था। लोग उनके संबंधों को लेकर तरह-तरह की बातें करने लगे थे। धीरे-धीरे इसकी आग राकेश के परिवार तक भी पहुँचने लगी। राकेश भीतर ही भीतर सुलग रही इस आग से अनभिज्ञ था।

मानसी के प्रति राकेश के मन में बढ़ रही आत्मीयता के पीछे कुछ कारण थे। पहला तो यह कि मानसी ने यह जानते हुए भी कि राकेश एक सम्पन्न व्यक्ति है, कभी भी उससे अनुचित आर्थिक लाभ लेने का प्रयास नहीं किया था। दूसरा यह कि एक बार जब वे साथ-साथ थे तो राकेश की तबियत अचानक खराब हो गई थी। उसकी सांस थम गई थी। उस समय मानसी ने उसे कृत्रिम श्वांस देकर उसकी जीवन रक्षा की थी। तीसरा यह कि मानसी हमेशा राकेश के शेयर मार्केट और इस प्रकार के किसी प्रयास का जिसमें अचानक धन लाभ या हानि होती है उसका विरोध करती थी। चौथा यह कि वह एक समझदार महिला थी और राकेश को सदैव सकारात्मक सुझाव देती थी। राकेश में लिखने-पढ़ने के प्रति गम्भीर रूचि थी किन्तु व्यवसायिक व्यस्तता के कारण उसका यह क्षेत्र सूना पड़ा था। मानसी की प्रेरणा से उसकी लिखने और पढ़ने का क्रम प्रारम्भ हो गया था जिससे उसे एक मानसिक शान्ति और संतुष्टि मिलती थी। इन सब कारणों से वह मानसी को सम्मान की दृष्टि से देखता था और उनके बीच प्रगाढ़ मित्रता स्थापित होती जा रही थी।

राकेश और मानसी की इस निकटता को समाज समझने में असमर्थ था। वह भीतर की सच्चाई को नहीं जानता था। उसे तो केवल उनकी निकटता दिख रही थी। उसे इस निकटता का एक ही कारण समझ में आता था। लोगों को इसे अफसाना बनाकर चर्चा करने में मजा आता था। ये चर्चाएं धीरे-धीरे उसके परिवार तक भी पहुँचने लगीं। एक ओर बढ़ते हुए खर्च तो दूसरी ओर ये चर्चाएं, परिवार के सदस्यों को भी लगा कि राकेश कहीं भटक रहा है। वे भविष्य की किसी अनहोनी के प्रति आशंकित हो गये।

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एक दिन राकेश के परिवार के सभी सदस्यों ने राकेश को घेर लिया। उन्होंने राकेश से जवाब-सवाल प्रारम्भ कर दिया। राकेश के लिये यह आक्रमण अप्रत्याशित था। उसने वस्तु स्थिति को स्पष्ट करने का प्रयास किया। पर घर का कोई भी सदस्य उसकी बात को समझने में असमर्थ रहा।

जब हम किसी विचार या भावना से संपृक्त होते हैं तो हमें उसके अतिरिक्त और कोई बात समझ में नहीं आती। यही स्थिति उसके परिवार के सदस्यों की थी। राकेश का प्रत्येक उत्तर अनेक नये प्रश्नो को जन्म दे रहा था। जिनका समाधान उसके पास नहीं था। स्थिति काफी गम्भीर हो गई और विवाद विस्फोटक हो गया। यद्यपि राकेश के मन में परिवार के किसी भी सदस्य के प्रति कोई दुराभाव नहीं था और न ही उनके प्रति उसकी आत्मीयता में कोई कमी थी। यहां तक कि उनके द्वारा किये जा रहे प्रश्नो और उनके बर्ताव का कारण समझ में आ जाने से वह क्षुब्ध और स्तब्ध तो था किन्तु उसके मन में उनके प्रति कोई भी विपरीत भाव नहीं था। उसकी परिवार के प्रति आत्मीयता यथावत थी और परिवार के लिये अपने कर्तव्यों के प्रति भी वह सचेत था किन्तु उस समय वह एक असहाय स्थिति में पहुँच गया था।

अपने परिवार में हुए इस विस्फोट से राकेश हत्प्रभ था। वह लगातार यह अनुभव कर रहा था कि उसने बड़ी गलती की है। उसे इस घटनाक्रम के संबंध में परिवार के अन्य सदस्यों से भी चर्चा करते रहना चाहिए थी। कम से कम अपनी पत्नी को तो इस विषय में लगातार बताना और परामर्श करना ही चाहिए था। वह जानता था कि उसकी पत्नी भी एक सहृदय महिला है। यदि वह उससे इन सारी परिस्थितियों की चर्चा करता तो वह उसके लिये और भी मददगार ही सिद्ध होती। लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था ।

राकेश की सोच थी कि तुम क्या सोचते हो इसकी चिन्ता करो, यह मत सोचो कि दुनिया तुम्हारे विषय में क्या सोचती है। अपने मनन, चिन्तन व मन्थन से निर्णय लो। तुम्हें अपनी दिशा व रास्ता स्वयं खोजना है। अपने कर्म पर विश्वास रखो और धर्म पूर्वक किये गये कर्मो को आधार मानकर हमेशा सेवा, परहित और दूसरों की कठिनाइयों में काम आकर अपने को समर्पित करो। जीवन में विवेक को कभी नहीं खोना चाहिए। क्रोध व संताप गलत निर्णयों को जन्म देता है। विवेक खो देने से हम उचित और अनुचित का भेद नहीं कर पाते हैं। जीवन पथ हमेशा संकल्प पूर्ण कष्ट पूर्ण व संघर्ष से परिपूर्ण होता है। हम पथिक हैं और दिग्भ्रमित हो जाते हैं। जीवन में सही वक्त पर उचित मार्गदर्शन व सलाह यदि हमें प्राप्त नहीं होती तो हम भटकते रहते हैं। हमारे जीवन का ध्येय आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करना और अन्त में अनन्त में विलीन हो जाना होना चाहिए। यही शाश्वत सत्य है। आनन्द की परिभाषा सबकी अपनी अलग-अलग होती है।

आनन्द एक आध्यात्मिक पहेली है। हम सुख और दुख दोनों में ही इसकी अनुभूति कर सकते हैं। जो व्यक्ति कठिनाइयों और परेषानियों से घबराता है उसके लिये जीवन एक बोझ बन जाता है। वह निराशा के सागर में डूबता-उतराता हुआ, आनन्द के अभाव में जीवन व्यतीत करता है। जिसमें साहस, कर्मठता और सकारात्मक सोच होती है उसके लिये संघर्ष एक उत्साह पूर्ण क्रीड़ा है। इससे वह परेशानियों से जूझते हुए और कठिनाइयों को हल करते हुए सफलता की सीढ़ी पर चढ़ता चला जाता है। उसे एक अलौकिक संतुष्टि का अनुभव, एक अलौकिक प्रसन्नता, स्वयं पर भरोसा और एक अलौकिक सौन्दर्य युक्त संसार का अनुभव होता है, यही आनन्द है। धन, संपदा और वैभव मानव को भौतिक सुख देते हैं। वह आनन्द की तलाष में भौतिक सुखों के पीछे ही जीवन भर भागता रहता है। ये भौतिक सुख बाह्य हैं। आनन्द आन्तरिक है। सुख की अनुभूति हमारे शरीर को होती है तथा आनन्द की अनुभूति हमारे हृदय व आत्मा को होती है। हमें आनन्द मिलता है हमारे विचारों से, हमारे सद्कर्मों से और हमारी कर्मठता से।

जीवन में वक्त की धार, समय की मार, सूर्य की ऊर्जा का प्रकाश, नदी में जल का बहाव आज भी वैसा का वैसा ही है जैसा सदियों पूर्व था। किन्तु समय के साथ-साथ समाज व मानव की सोच में परिवर्तन होता जाता है। यह कभी सकारात्मक तो कभी नकारात्मक भी हो सकता है।

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हम सभी आधुनिक काल में रह रहे हैं किन्तु हमारी सभ्यता, संस्कृति व संस्कारों पर आज भी हमारी प्राचीनता की छाप है। किसी भी पुरूष की किसी महिला से मित्रता सामान्य रुप में नहीं ली जाती है। उसमें क्यों ? किसलिये ? क्या कारण है ? आदि की खोज होती है। राकेश एक आधुनिक विचारों का व्यक्ति था। उसने इस दुनियां को बहुत पास से देखा था। उसे समाज की चिन्ता व परवाह नहीं थी। वह एक दृढ़ व्यक्तित्व का धनी था। उसकी सोच स्पष्ट थी कि आज के समाज में धन का प्रभाव इतना हो गया है कि समाज धन के पीछे-पीछे पागल है। यदि हमारे पास धन है तो हम समाज से नहीं समाज हमसे है।

उसने अपने जीवन में बहुत कटु अनुभव प्राप्त किये थे। जब उसका समय ठीक नहीं चल रहा था। वह कठिन परिस्थितियों से गुजर रहा था। पारिवारिक कलह के कारण वह मानसिक रुप से त्रस्त था तब समाज कहाँ था। उस समय सहयोग करना तो दूर सान्त्वना देने तक को कोई साथ में खड़ा नहीं हुआ था। इसके विपरीत लोग चर्चा भी करते थे तो मजा लेने के लिये करते थे। उस समय समाज के ये ही ठेकेदार अवहेलना और उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे। फिर ऐसे समाज की परवाह क्यों की जाए। ऐसे समाज की किसी भी व्यक्ति या परिवार के लिये क्या उपादेयता है जो बुरे समय में उसके साथ खड़ा न हो और अच्छे समय में उसके निजी जीवन में जहर घोलने का प्रयास करे। इसीलिये राकेश समाज की परवाह नहीं करता था। लेकिन उन विपत्ति के दिनों में भी उसका परिवार उसके साथ था इसीलिये राकेश के जीवन में उसका परिवार सबसे अधिक महत्वपूर्ण था।

आज लोग यह चर्चा कर रहे हैं कि राकेश को एक महिला और उसकी बेटी के साथ लगातार देखा जाता है। ऐसा क्यों है ? क्या बात है ? और किस कारण से है ? लोग कहने लगे थे कि राकेश ने एक दूसरा परिवार भी बसा लिया है। परिवार के लोगों को भी यह चिन्ता थी कि राकेश के इस कार्य का समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? कल को जब बच्चे बड़े होंगे तो उनके जीवन पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा ? आदि आदि....

इस विषम परिस्थिति से निपटने का रास्ता तो अब उसे अकेले ही खोजना पड़ेगा। एक लम्बे प्रयास के बाद वह एक सद्कार्य में सफल हुआ था। उसे बीच में अधूरा कैसे छोड़ देता। परिवार के सदस्य भी अपने स्थान पर गलत नहीं थे। उनकी भी अवहेलना नहीं की जा सकती थी। इस द्वंद पर सोचते-सोचते वह एक निश्चय पर पहुँचा। उसने मानसी के दोनों बच्चों को होस्टल में भर्ती करवा दिया। इसके लिये उसे बच्चों को भी समझाना पड़ा और मानसी को भी सारी परिस्थिति से अवगत कराना पड़ा। उसे संतोष था कि उन सब ने उसे समझा और इसके लिये बिना किसी प्रतिरोध के मान गये। इसके बाद उसने मानसी से मिलना भी बन्द कर दिया। जब कभी बहुत आवश्यक होता तभी वह उससे मिलता। इसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे उसके परिवार की अशान्ति समाप्त हो गई।

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आनन्द और पल्लवी लगभग प्रतिदिन शाम को 6 बजे मिला करते थे। आनन्द बहुत व्यस्त व्यक्ति था। वह समय का बहुत पाबन्द था। अपने सभी कार्य वह निश्चित समय पर