रात के ११बजे - भाग - २ Rajesh Maheshwari द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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रात के ११बजे - भाग - २

अनीता ने समझाते हुए कहा कि जीवन में सब कुछ किसी को नहीं मिलता। सुख और दुख जीवन के दो पहलू हैं जिनके बीच हमें सामन्जस्य करना ही होता है। हम भावनाओं को प्रतिबंधित नहीं कर सकते। हमारे मन व मस्तिष्क में विचारों का आना-जाना लगा रहता है। इससे विचारों में परिपक्वता आती है। भावनाओं को नियन्त्रित करना कठिन होता है। ये वायु के समान तेजी से आती हैं और आंधी के समान चली जाती हैं। यही जीवन है। भावनाओं और विचारों की समाप्ति जीवन का अन्त है। हम भावनाओं की गति को कम कर सकते हैं। परन्तु इन्हें पूरी तरह से अपनी इच्छा अनुसार ढालना संभव नहीं है।

मैं तो अपने जीवन में सब कुछ देख-सुनकर यही समझी हूँ कि दीर्घायु व प्रसन्न जीवन का भोग करो। यह कल्पना नहीं है, हकीकत है, इसे स्वीकार और अंगीकार करो। इसे अपने जीवन का आधार बनाओ। सूरज की पहली किरण जीवन में आशाओं का संदेश लेकर आती है। चांदनी भी विदा होती हुई हमें सुखी जीवन का संदेश देकर जाती है। रात्रि की कालिमा प्रतिदिन सूर्य देवता के आगमन से मिट जाती है। हम प्रतिदिन अपनी दिनचर्या में व्यस्त होकर अपने मन व मस्तिष्क को सृजन की दिशा में मोड़ते हैं। हमारा तन सेवा और श्रम के माध्यम से जीवन में सुख की अनुभूति लाता है।

हम अपने बुजुर्गों के अधूरे सपनों को पूरा करके साकार कर सकें। इसके लिये हमें चिन्ताओं को चिता में भस्म कर देना चाहिए और उसकी भस्म को तिलक के रुप में माथे पर लगाकर कर्मवीर बनकर जीवन में संघर्षरत रहकर सफलता पाना चाहिए। धर्म से कर्म हो ऐसी अभिलाषा रखते हुए सकारात्मक सृजन करके मानवतावादी दृष्टिकोण रखते हुए हमारे जीवन का अन्त हो, ऐसी कामना होना चाहिए। हमारी गौरव गाथा एक इतिहास बनकर दैदीप्यमान नक्षत्र के समान लोगों की स्मृतियों में सुरक्षित रहे ऐसा प्रयास होना चाहिए।

अनीता बोल रही थी और राकेश सुन रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे अनीता की आवाज कहीं दूर से आ रही थी और वह कहीं और खोयी हुई थी। राकेश भी सुन रहा था, उसकी निगाहें अनीता के चेहरे पर टिकी हुई थीं, दोनों को ही पता नहीं था कि वे अनजाने ही धीरे-धीरे एक दूसरे के कितने करीब आ चुके थे। उनके बीच की सारी दूरियां समाप्त होती जा रहीं थीं। उनकी आंखें बोझिल हो रहीं थी और वे सभी दूरियों को मिटाकर एक दूसरे की बांहों में समाकर कब नींद के आगोश में समा गए उन्हें पता ही नहीं चला।

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सुबह हो चुकी थी। चारों ओर प्रकाश था। ट्रेन ग्वालियर और मथुरा के बीच अपनी गति से चली जा रही थी। राकेश की आंख खुली तो उसने स्वयं को अनीता की बांहों में देखा। उसने धीरे से अपने को अलग करके उठने का प्रयास किया तो अनीता की भी आंख खुल गई। उसके होठों पर मुस्कराहट तैर गई। वह अपने को अलग करके उठ बैठी। राकेश भी मुस्करा रहा था। दोनों के चेहरे पर संतुष्टि की आभा थी। चाय आई और दोनों चाय की चुस्कियां लेने लगे।

उनके बीच धीरे-धीरे काम की बात होने लगी। अनीता चाहती थी कि मकान में जो साज-सज्जा के सामान लगना हैं, वे खरीदकर रवाना कर दिये जाये ताकि जब वे वापिस पहुँचे तो उन्हें मिल जायें और काम की प्रगति में रूकावट न आये। इसके बाद उसने बताया कि वह तीन-चार अच्छे आर्कीटेक्ट्स और बिल्डर्स से परिचित है जिनके साथ विचार विमर्श करके काम की रूपरेखा तैयार कर ली जाए। राकेश भी इससे सहमत था। इस संबंध में उनकी चर्चा होती रही और दिल्ली आ गई।

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उस दिन होटल से तैयार होकर वे होटल की टैक्सी में ही निकले और अनीता के मन-माफिक सामान की खरीददारी करके उसे रवाना कर दिया गया। अनीता आज बहुत प्रसन्न थी क्योंकि उसकी हर बात को राकेश ने सम्मान दिया था और उसकी प्रत्येक सलाह को स्वीकार किया था। आज पूरा दिन इसी काम में लग गया। शाम को वे एक रेस्टारेण्ट में भोजन के लिये गये। रेस्टारेण्ट में खाने के बीच अनीता राकेश को बताती है कि उसका एक महत्वपूर्ण कार्य निकट भविष्य में होने की संभावना है। वह चाहती थी कि राकेश उसके उस काम की पूर्णता के लिये ईश्वर से प्रार्थना करे। वह बताती है कि यदि यह काम हो जाता है तो उसका जीवन संवर जाएगा। राकेश के प्रयास करने पर भी वह यह नहीं बताती कि वह क्या काम था। वह राकेश से कहती है कि जीवन में भाग्य एवं समय पर हमारा भविष्य निर्भर करता है। वक्त की मार अमीर-गरीब जाति-धर्म और संप्रदाय में भेदभाव नहीं करती। यह ईश्वर द्वारा निर्धारित है और इसमें उसी की मर्जी चलती है। उसे तुम्हारी सल्तनत से कोई मतलब नहीं है। हम समय को समझ नहीं पाते हैं इसीलिये वह हमारे साथ शह और मात का खेल खेलता रहता है। हमें उसके प्रति हृदय में सम्मान रखते हुए नत मस्तक होकर उसे स्वीकार करना चाहिए। बुद्धिमत्ता इसी में है। यही हमें जीवन में मंजिल तक पहुँचा सकता है। राकेश ! वक्त की मेहरबानी उन्हीं को प्राप्त होती है जो मुकद्दर के सिकन्दर होते हैं। समय को समझो तो जीना है समय को न समझो तो भी जीना है एक जीवन का जीना है और दूसरा जीवन है सिर्फ इसलिये जीना है।

राकेश उसकी बातों से अचंभित था। डिनर लिया जा चुका था। वे दिन भर के थके हुए भी थे और सफर की भी थकान थी। इसलिये लौटकर होटल आ गए।

कमरे में राकेश ने उसे अपनी बांहों में भर लिया। उसकी सुन्दरता और उसकी कोमलता में खोया हुआ वह उससे कह रहा था- तुम्हारी आंखें बहुत हसीन हैं। तुम्हारी नजरों ने मुझे प्यार का नजराना दे दिया है। यह एहसास ही कितना हसीन महसूस होता है। ऐसी तकदीर सभी को नसीब नहीं होती। जिसे जीवन में यह प्राप्त होती है वह खिले हुए गुलशन की तरह महक जाता है। तुम जीवन को कल्पनाओं में जीती हो। मैं उन कल्पनाओं को हकीकत में बदलना चाहता हूँ। तुम्हारे ये कोमल और गुलाबी होंठ किसी के भी जीवन में बहार ला सकते हैं। तुम अपने में जीती हो मैं जीवन को जीता हूँ। तुम मयखाने में जाम की तरह हो जिसका मैं दीवाना हूँ। हम दोनों का मिलन एक मधुर गीत है, एक मधुर संगीत है। हम इस गीत के भावों में और इस संगीत की तानों में खो जाएं, एक दूसरे के हो जाएं। यह सुनकर अनीता ने बड़े प्यार से इतना ही कहा अच्छा! और दोनों एक दूसरे की बांहों में समा गए।

दूसरे दिन सुबह वे आराम से उठे और तैयार होकर निकल पड़े। दिन भर वे भवन निर्माताओं और आर्कीटेक्ट के साथ व्यस्त रहे। शाम को वापिस आकर उन्होंने दिन भर के काम पर विचार किया और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इस पर अंतिम निर्णय सभी के कोटेशन और एस्टीमेट आने के बाद ही लेना चाहिए। उस रात वे वहीं रहे और सुबह की उड़ान से अपनी मीठी यादों को साथ लिये लौट आए।

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अगले दिन सुबह अनीता का फोन आया। वह बहुत ही आल्हादित थी। उसके स्वर में उल्लास झलक रहा था। उसने राकेश को बताया कि तुम्हारी प्रार्थना ईश्वर ने स्वीकार कर ली। राकेश ने पूछा कि कौन सी प्रार्थना ? तो उसने कहा कि आज सुबह तुम नाश्ता मेरे साथ ही लो। यहीं मैं तुम्हें अपने सामने बैठाकर यह खुशखबरी सुनाउंगी। राकेश के मन में जिज्ञासा का तूफान उमड़ रहा था। वह शीघ्र ही तैयार होकर उसके घर पहुँच गया। अनीता की प्रसन्नता देखते ही बन रही थी। उसने एक पत्र राकेश के हाथों में दिया जिसमें फ्रांस के पेरिस नगर में एक अंतर्राष्ट्रीय कंस्ट्रक्षन कम्पनी में उसे उच्च पद पर सेवाएं प्राप्त हो गईं थी। उसे तत्काल ही वहां जाकर ज्वाइन करना था। राकेश उसे देखकर हत्प्रभ रह गया। उसने दबी जुबान में अनीता को बधाई दी।

राकेश का वह पूरा दिन उदासी और मायूसी में गुजरा। दिन भर अनीता और अनीता के साथ गुजारे गए पल उसकी आंखों में झूलते रहे। रात भर वह बिस्तर पर करवटें बदलता रहा। वह रात भर सो नहीं पाया। उसका सबसे विश्वसनीय सहयोगी मझधार में ही उसे छोड़कर जा रहा था।

अनीता अपनी सफलता पर बिस्तर पर लेटे-लेटे ही सोच रही थी। वह ईश्वर की इस कृपा के प्रति नतमस्तक होकर इसका श्रेय उसके द्वारा सम्पन्न सद्कार्यों को ही दे रही थी। वह परमात्मा से अपने व परिवार के सुखद भविष्य की कामना करते हुए यहां की खट्टी-मीठी यादें जो उसके दिल में बसी हुईं थीं उन्हें सदा अपने साथ ले जाने की कल्पना में खोई हुई थी। वह अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ने की दिशा अनुभव कर रही थी। उसके जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ होने जा रहा था। चांद की दूधिया चांदनी सी सफलता की अनुभूति के रुप में उसके मन-मस्तिष्क पर दस्तक दे रही थी। यह सोचते-सोचते ही वह गहरी नींद में सो गई।

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सुबह हुई तो अनीता अपने साथ एक और युवक को लेकर राकेश के घर आयी। उसने उस युवक का परिचय एक इनर डेकोरेटर के रूप में कराया। उसने बताया कि उसे सारी बातें समझा दी हैं। वह निर्धारित समय में ही सारा काम पूरा कर देगा और उसके काम से राकेश को कोई शिकायत नहीं होगी। राकेश को इससे बहुत राहत मिली और उसके दिल में अनीता के प्रति प्रेम और भी अधिक बढ़ गया।

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अनीता ने मुम्बई के लिये अगले दिन की फ्लाइट बुक करा ली थी। राकेश उसे निर्धारित समय पर एयरपोर्ट पर छोड़ने गया। उस समय उसका पति सामान आदि की बुकिंग में व्यस्त था। राकेश और अनीता प्रतीक्षालय में अकेले थे। वहां उसने उसे एक उपहार और शुभकामनाएं दीं और भावावेश में उसे गले लगा लिया। दोनों की आंखें गीली थीं राकेश ने उसके कान के पास जाकर कहा- मुझे सदैव तुम्हारी प्रतीक्षा रहेगी। उपहार के साथ राकेश ने उसे एक पत्र भी दिया था जिसमें लिखा था-

हमारे स्मृति पटल पर

देंगी दस्तक

तुम्हारे साथ बीते हुए

लम्हों की मधुर यादें

ये रहेंगी हमेशा धरोहर के समान

मेरे अंतरमन में देंगी

कभी खुशी कभी गम का अहसास

जो बनेगा इतिहास

यही बनेंगी

मेरा सम्बल

और दिखाएंगी सही राहें

मेरे मीत मेरी प्रीत भी

रहेगी हमेशा तेरे साथ

तेरे हर सृजन में

बनकर मेरा अंश

यही रहेगी तेरी-मेरी

सफलता का आधार

जीवन में करेगी मार्ग दर्शन

एवं देगी दिशा का ज्ञान

ये न कभी खत्म हुई है

न ही कभी खत्म होगी

आजीवन देती रहेगी तेरा साथ

सागर से भी गहरी है तेरी गंभीरता

एवं आकाश से भी ऊंची हों तेरी सफलताएं

तुम वहां मैं यहां

बस तेरी यादों का ही है अब सहारा

कर रहा हूँ अलविदा

खुदा हाफिज, नमस्कार।

अनीता वहां से राकेश को फोन करती रहती थी। राकेश भी उसे फोन करता था। दोनों एक दूसरे का दर्द एक-दूसरे को बताकर हल्का होने का प्रयास करते थे। उन्हें क्या पता था कि जितना वे हल्का होने का प्रयास करते हैं उतना ही वे भारी हो जाते हैं। समय अपनी गति से उड़ता चला जा रहा था। समय को कौन रोक पाया है ? कुछ माह बाद अनीता ने अपने परिवार को भी वहीं बुला लिया। धीरे-धीरे वे इस संसार के मायाजाल में फंसते चले गये और उनके बीच की रेशम की डोरी टूटती चली गई।

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इसी समय राकेश को लगा जैसे प्लेन उड़ने के साथ ही क्रेश हो गया हो। वह हड़बड़ा कर उठ बैठा। उसने देखा कि गौरव उसे हिला-हिलाकर उठा रहा था और कह रहा था- उठो भाई दिल्ली आ गई। राकेश भी उठता है देखता है कि ट्रेन दिल्ली की सीमा में आ चुकी थी। वह भी उतरने की तैयारी करने लगता है।

दिल्ली में राकेश के आने का मकसद अपोलो हास्पिटल में एक्जिक्युटिव चेकअप कराना था। वह प्रतिवर्ष अपने चेकअप के लिये दिल्ली आता था। गौरव ने पुनः उससे पूछा कि झांसी में रात को ग्यारह बजे तुम्हारे पास आने वाली कौन थी।

राकेश ने बताया कि उसका नाम मानसी है। मेरा परिचय उसकी बहिन पल्लवी से कुछ दिन पहले ही हुआ था। फिर हमारी एक दो मुलाकातें और हुईं। बाद में एक दिन हमारे साथ आनन्द भी था। मैंने देखा कि आनन्द पल्लवी में कुछ अधिक ही रूचि ले रहा था। मैंने भी उनके बीच बाधा डालना उचित नहीं समझा। मुझे पता था कि आनन्द का परिवारिक जीवन सुखी नहीं था। उसके परिवार के साथ उसके मतभेद थे। इससे वह सदैव उदास रहा करता था। जब मैंने पल्लवी को भी उसकी ओर आकर्षित होते देखा तो मेरे मन में विचार आया कि आनन्द और पल्लवी की मित्रता से यदि आनन्द को राहत मिलती है, उसे अपने जीवन का अभाव कम होता लगता है तो इसमें कोई हर्ज नहीं है।

एक दिन मैं आनन्द और पल्लवी एक रेस्तरां में बैठे डिनर ले रहे थे। उस दिन उसके साथ उसकी बहिन मानसी भी थी। पल्लवी ने बताया कि वह भोपाल में रहती है। वह वहां से यहां आना चाहती है। उसके पति की नौकरी चली गई है। वहां उसे अच्छी-खासी तनख्वाह मिलती थी। उसका परिवार सुखी था। बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ रहे थे। उसका पति जिस प्रोजेक्ट में काम कर रहा था वह पूरा हो जाने के कारण उसकी नौकरी चली गई। अभी अनेक माहों से वेतन न मिलने और कोई नया काम न मिल पाने के कारण उसकी आर्थिक स्थिति खराब हो गई है। वह यहां आकर कोई काम करना चाहता है। यहां आने के लिये उसे लगभग दस हजार रूपयों की आवश्यकता है। वह चाहती थी कि आनन्द उसकी मदद कर दे। उसे यह रकम तीन माह में वापिस मिल जाएगी।

इस बात को सुनकर आनन्द चुप रहा। उसने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया और कुछ देर रूककर बहाना बनाकर वहां से चला गया। पल्लवी के चेहरे पर उदासी छा गई थी। मुझे यह अच्छा नहीं लगा कि एक ओर तो हम आपस में मित्रता की बात करते हैं और दूसरी ओर मित्र की परेशानी को सुनकर उससे मुंह मोड़ लेते हैं। मैंने मानसी से कहा- मैं परसों दिल्ली जा रहा हूँ। तुम अगर भोपाल से झांसी आकर ट्रेन में मुझ से मिल सको तो मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ। उसने इसे स्वीकार कर लिया और कल रात तुमने जिसे देखा था वह मानसी ही थी जिसे मैंने लिफाफे में रखकर दस हजार रूपये दिये थे।

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