आधी नज्म का पूरा गीत
रंजू भाटिया
episode १२
मान सम्मान औरत का गहना
अमृता के लिखे यह लफ्ज़ वाकई उनके लिखे को सच कर देते हैं. उनके अनुसार काया के किनारे टूटने लगते हैं सीमा में छलक आई असीम की शक्ति ही फासला तय करती है जो रचना के क्षण तक का एक बहुत लम्बा फासला है एहसास की एक बहुत लम्बी यात्रा. मानना होगा कि किसी हकीकत का मंजर उतना है जितना भर किसी के पकड़ आता है.अमृता जी की लिखी कहानी "धन्नो " में समाज का छिपा हुआ रूप स्पष्ट रूप से सामने आया है. इस कहानी का स्थान कोई भी गांव हो सकता है, पर समय वह है जब " चिट्टा रूपया चांदी का होता था, गांव की एक अधेड़ उम्र की औरत धन्नो कहानी की मुख्य पात्र है. समाज की मुहं फट चेतना का प्रतीक. उसके शब्दों में "औरत को तो खुदा ने शुरू से ही धेली बनाया है रूपया साबुत तो कोई कर्मों वाली होती है जिसे मन का मर्द मिल जाये..पर उसको न किसी ने देखा न किसी ने सुना..घर -घर बस धेलियाँ ही पड़ी हुई है "
धन्नो सारे गांव की आँखों में चुभती है क्यों कि वह मुहंफट है और सदाचार के पक्ष से गांव की हर औरत को सिले हुए मुहं का होना चाहिए. यह धन्नो तो सिले हुए मुंहों के धागे उधेड़ती है. धन्नो के बदन की दुखती रग उसकी ज़िन्दगी का वह हादसा है जो उसकी चढ़ती जवानी के दिनों में हुआ था , मोहब्बत के नाम पर जो उसको माता पिता के घर से निकाल कर ले गया था, वह कोई ऐयाश किस्म का था जो दस बीस दिन उसके साथ रहा फिर उसको कहीं बेचने की कोशिश में लग गया. धन्नो ने यह भांप लिया और उसको मुहं फाड़ कर बता दिया था, अगर पल्ले से बंधी हुई धेली भुनवा कर ही रोटी खानी है. तो जाते हुए तेरी जेब क्यों भर जाऊं ? और वह अकेले ही अपन जोर पर जीते हुए, सारी उम्र कहती रही ---"काहे की चिंता है बीबी ! धेली पल्ले से बंधी हुई है, आड़े वक़्त में भुनवा लूँगी..."
धन्नो के पास कुछ जमीन है जो एक बार किसी मुरब्बे वाले ने उस पर रीझ कर, अपने पुत्रों से छिपा कर उसके नाम कर दी थी अलग घर भी बनवा दिया था और जब तक जिंदा रहा उसकी खैर खबर लेता रहा था. अब जब धन्नो का अंत समय आने को है तो गांव वालों की नजर उसकी जमीन पर लगी हुई है धन्नो जानती है सो माँ, मौसी जैसे पुचकारते हुए लफ़्ज़ों की खाल उधेड़ती है और नेक कामों के घूँघट भी उधेड़ती हुई अंत समय राम राम जपने की सलाह शिक्षा को भी दुत्कारती है, और कहती है....."ओ भगतानी ! काहे को मेरी चिंता करती है, धर्मराज को हिसाब देना है दे दूंगी..यह धेली जो पल्ले बंधी है वह धर्मराज को दे कर कहूँगी ले भुना ले और हिसाब चुकता कर "...सदाचार समझने वाला समाज धन्नो की बातें सुन कर कानों में उंगिलयां दे देता है और धन्नो के मरने के बाद भी उसकी वसीयत पढ़ कर भी अश्लीलता के अर्थ नहीं जान सकता. धन्नो के अपनी जमीन गांव की पाठशाला के नाम लिख दी है और साथ में एक चाह भी..कि चार अक्षर लड़कियों के पेट में पड़ जाएँ और उनकी ज़िन्दगी बर्बाद न हो.अश्लीलता धन्नो के आचरण में नहीं है, न उसके विचारों में है..अश्लीलता समाज के उस गठन में है जहाँ घर का निर्माण आधी औरत की बुनियाद पर टिका हुआ है....आधी औरत --एक धेली, सिर्फ काम वासना की पूर्ति का साधन साबुत रुपया तो धन्नो का सपना है, धन्नो का दर्द उस औरत की कल्पना --जिसके तन को मन नसीब हुआ हो और जिस सपने की पूर्ति के जोड़ तोड़ के लिए वह अपनी सारी जमीन गांव की पाठशाला के नाम कर देती है --भविष्य की किसी समझ बूझ के नाम, जब औरत को अपने बदन की धेली भुना कर नहीं जीना पड़ेगा और इस तरह से रोटी नहीं खानी पड़ेगी अश्लीलता इस समाज के गठन में है जहाँ औरत का जिस्म न सिर्फ रोटी खरीदने का साधन बनता है, बल्कि पूरे समाज की इस स्थापना में घरेलू औरत का आदरणीय दर्ज़ा खरीदने का साधन भी है. धन्नो इसी अश्लीलता को नकारती एक ऊँची, खुरदरी और रोष भरी आवाज़ है.चेतन- अचेतन मन से जुड़े हुए यह किस्से कभी कभी कलम तक पहुँचने में बरस लगा देते हैं, इस का सबसे अच्छा उदाहरण अमृता ने अपनी कहानी "दो औरतों" में दिया है...जो वह पच्चीस साल बाद अपनी कलम से लिख पायी. इस में एक औरत शाहनी है और दूसरी वेश्या शाह की रखेल यह घटना उनकी आँखों के सामने लाहौर में हुई थी. वहां एक धनी परिवार के लड़के की शादी थी और घर की लडकियां गा बजा रही थी. उस शादी में अमृता भी शामिल थी. तभी शोर मचा कि लाहौर की प्रसिद्ध गायिका "तमंचा जान "वहां आ रही है, जब वह आई तो बड़ी ही नाज नखरे वालीं लगीं. उसको देख कर घर की मालकिन का रंग उड़ गया पर थोडी में ठीक भी हो गया, आख़िर वह लड़के की माँ थीं. "तमंचा जान" जब गा चुकी तो शाहनी ने सौ रूपये का नोट उसके आँचल में डाल दिया. यह देख कर "तमंचा जान" का मुहं छोटा सा हो गया.पर अपना गरूर कायम रखने के लिए उसने वह नोट वापस करते हुए कहा कि.. "रहने दे शाहनी आगे भी तेरा ही दिया खाती हूँ."..इस प्रकार ख़ुद को शाह से जोड़ कर जैसे उसने शाहनी को छोटा कर दिया..अमृता ने देखा कि शाहानी एक बार थोड़ा सा चुप हो गई पर अगले ही पल उसको नोट लौटा कर बोली...."न न रख ले री, शाह से तो तुम हमेशा ही लेगी पर मुझसे फ़िर तुझे कब मिलेगा "" यह दो औरतों का अजब टकराव था जिसके पीछे सामाजिक मूल्य था, तमंचा चाहे लाख जवान थी कलाकार थी पर शाहनी के पास जो माँ और पत्नी का मान था वह बाजार की सुन्दरता पर बहुत भारी था...अमृता इस घटना को बहुत साल बाद अपनी कहानी में लिख पायी..."
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