आधी नज्म का पूरा गीत - 6 Ranju Bhatia द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आधी नज्म का पूरा गीत - 6

आधी नज्म का पूरा गीत

रंजू भाटिया

Episode ६

अमृता तो अमृत थी, जो जी भी सकी और कह भी सकी

अमृता और इमरोज दोनों मानते थे कि उन्हें कभी समाज की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं थी !आम लोगो की नजर में उन्होंने धर्म विरोधी काम ही नही किया था बलिक उससे भी बड़ा अपराध किया था, एक शादीशुदा औरत् होते हुए भी सामजिक स्वीकृति के बिना वह किसी अन्य मर्द के साथ रहीं जिस से वह प्यार करती थी और जो उनसे प्यार करता था !

एक दिन अमृता ने इमरोज से कहा था कि इमरोज तुम अभी जवान हो.तुम कहीं जा कर बस जाओ. तुम अपने रास्ते जाओ, मेरा क्या पता मैं कितने दिन रहूँ या न रहूँ ! तुम्हारे बिना जीना मरने के बराबर है और मैं मरना नही चाहता इमरोज ने जवाब दिया था !

एक दिन फ़िर किसी उदास घड़ी में उन्होंने इमरोज़ से कहा था कि तुम पहले दुनिया क्यों नही देख आते ? और अगर तुम लौटो और मेरे साथ जीना चाहा तो फ़िर में वही करुँगी जो तुम चाहोगे !"इमरोज़ उठे और उन्होंने उनके कमरे के तीन चक्कर लगा कर कहा "लो मैं दुनिया देख आया ! अब क्या कहती हो ?"

अब ऐसे दीवाने प्यार को क्या कहे ? अमृता जी के लफ्जों में कहे तो..

आज मैंने एक दुनिया बेची

एक दीन विहाज ले आई

बात कुफ्र की थी

सपने का एक थान उठाया

गज कपडा बस फाड़ लिया

और उम्र की चोली सी ली …

"इश्क समतल सपाट भूमि का नाम है न ही घटना रहित जीवन का सूचक जब यह भूमि होता है तब इसके अपने मरुस्थल भी होते हैं जब यह पर्वत होता है तब इसके अपने ज्वालामुखी भी होते हैं जब यह दरिया होता है तब इसके अपने भंवर भी होते हैं जब यह आसमान होता है तो इसकी अपने और अपनी बिजीलियाँ भी होतीं है यह खुदा को मोहब्बत करने वाले की हालत होती है.जिसमें खुदा के आशिक को अपने बल पर विद्रोह करने का भी हक भी होता है और इनकार करने का भी परयह ऐसे हैं जैसे कि खुले आकाश के नीचे जब कोई छत डालता है वह असल आकाश को नकारता नही है.

यह बात अमृता ने अपने एक इंटरव्यू के दौरान तब कही जब उनसे पूछा गया कि कभी आपने लिखा था..मेरी उम्र से भी लम्बी है मेरी वफ़ा की लकीरें और शब्दों की दौलत के बिना भी वफ़ा है अमीर या मोमबत्ती यह प्राणों की रात भर जलती रही..पर आपकी इस अवस्था को क्या कहूँ जब आपने लिखा की इश्क का बदन ठिठुर रहा है, गीत का कुरता कैसे सियूँ ख्यालों का धागा टूट गया है.कलम सुई की नोक टूट गई है और सारी बात खो गई है..

अपने १.२.६३ को बम्बई से लिखे ख़त में अमृता ने इमरोज़ को लिखा...राही !! तुम मुझे संध्या के समय क्यूँ मिले ! जिंदगी का सफर ख़त्म होने को है तुम्हे यदि मिलना ही था तो जिंदगी की दोपहर में मिलते उस दोपहर का सेंक तो देख लेते.. काठमांडू में किसी ने यह हिन्दी कविता पढ़ी थी कई बार कई लोगो की पीड़ा कितनी एक जैसी होती है मेरी जिंदगी के खत्म हो रहे सफर में अब मुझे सिर्फ़ तुम्हारे खतों का इन्तज़ार है

मेरा यह इन्तजार तुम्हारे इस शहर की जालिम दीवारों से टकरा कर हमेशा ज़ख्मी होता रहा है.पहले भी चौदह बरस राम बनवास जितने बीते बाकी रहते बरस भी लगता है अपनी पंक्ति में जा मिलेंगे.आज तक तुम्हारा एक ही ख़त आया है शायद तुम्हे काठमांडू का पता भूल गया हो.रोज़ वहां तुम्हारे एक अक्षर का इन्तजार करती रही वहां मेरे लिए लोगों के पास बहुत शब्द थे दिल को छु जाने वाले पर उन्होंने इन्तजार की चिंगारी को और सुलगा दिया और जला दिया मुझसे उसका सेंक सहा नही गया तीन दिन के इन्तजार के बाद मुझे बुखार हो गया.कल वापस आई.रास्ते में हवाई जहाज बदल कर सीधे सफर की सीट नही मिली रात को सवा नौ बजे पहुँची.न तुम्हारे लफ्जों ने इतनी कंजूसी क्यों ली है . आज की डाक भी आ चुकी है सवाल का जवाब बनने वाले मुझे इस चुप का अर्थ समझा जाना !!

अमृता जी अपने आखिरी दिनों में बहुत बीमार थी | जब इमरोज़ जी से पूछा जाता कि आपको जुदाई की हुक नही उठती ? वह आपकी ज़िंदगी है, आप उनके बिना क्या करोगे ? वह मुस्करा के बोले जुदाई की हुक ? कौन सी जुदाई? कहाँ जायेगी अमृता ? इसे यहीं रहना है मेरे पास, मेरे इर्द गिर्द..हमेशा | हम चालीस साल से एक साथ हैं हमे कौन जुदा कर सकता है ? मौत भी नही | मेरे पास पिछले चालीस सालों की यादे हैं,. शायद पिछले जन्म की भी, जो मुझे याद नहीं, इसे मुझसे कौन छीन सकता है...|और यह बात सिर्फ़ किताबों पढी नही है, जब मैं इमरोज़ जी से मिलने उनके घर गई थी तब भी यह बात शिद्दत से महसूस की थी कि वह अमृता से कहीं जुदा नही है, वह आज भी उनके साथ हर पल है, उस घरमें वैसे ही रची बसी, उनके साथ बतयाती और कविता लिखती |

एक बार उनसे किसी ने पूछा कि मर्द और औरत् के बीच का रिश्ता इतना उलझा हुआ क्यों है ? तब उन्होंने जवाब दिया क्यूंकि मर्द ने औरत के साथ सिर्फ़ सोना सीखा है जागना नही ! इमरोज़ पंजाब के गांव में पले बढे थे वह कहते हैं कि प्यार महबूबा की जमीन में जड़ पकड़ने का नाम है और वहीं फलने फूलने का नाम है| जब हम किसी से प्यार करते हैं तो हमारा अहम् मर जाता है, फ़िर वह हमारे और हमारे प्यार के बीच में नही आ सकता | उन्होंने कहा कि जिस दिन से मैं अमृता से मिला हूँ, मेरे भीतर का गुस्सा एक दम से शान्त हो गया है |मैं नही जानता यह कैसे हुआ | शायद प्यार की प्रबल भावना इतनी होती हैकि वह हमे भीतर तक इतना भर देती है कि हम गुस्सा नफरत आदि सब भूल जाते हैं.| हम तब किसी के साथ बुरा व्यवहार नही कर पाते क्यूंकि बुराई ख़ुद हमारे अन्दर बचती ही नही.

महात्मा बुद्ध के आलेख पढने से कोई बुद्ध नही बन जाता, और न ही भगवान श्रीकृष्ण के आगे सिर झुकाने से कोई कृष्ण नही बन जाता है | केवल झुकने के लिए झुकने से हम और छोटे हो जाते हैं | हमे अपने अन्दर बुद्ध और कृष्ण को जगाना पड़ेगा और यदि वह जाग जाते हैं तो फ़िर अन्दर हमारे नफरत शैतानियत कहाँ रह जाती है ?

यह था प्यार को जीने वाले का एक और अंदाज़...जो ख़ुद में लाजवाब है..उनका एक ख़त.जो २६ -४ ६० को इमरोज़ को लिखा गया... मेरे अच्छे जीती !

आज मेरे कहने से, अभी, अपने सोने के कमरे में जाना.रेडियोग्राम चलाना.और बर्मन की आवाज़ सुनना -- सुन मेरे बन्धु रे ! सुन मेरे मितवा ! सुन मेरे साथी रे !"और मुझे बताना कि वह लोग कैसे होते हैं.जिन्हें कोई इस तरह आवाज़ देता है.और यह भी जानती हूँ.मेरी इस आवाज़ का कोई जवाब नही आएगा | कल एक सपने जैसी तुम्हारी चिट्ठी आई थी, पर मुझे तुम्हारे मन की कानिफ्ल्क्ट का भी पता है | यूँ तो मैं तुम्हारा अपना चुनाव हूँ.फ़िर भी मेरी उम्र.मेरे बंधन.तुम्हारे कानिफ्लिक्ट हैं | तुम्हारा मुहं देखा., बोल सुने तो मेरी भटकन ख़त्म हो गई | पर आज तुम्हारा मुहं इनकारी है | क्या इस धरती पर मुझे अभी और जीना है, जहाँ मेरे लिए तुम्हारे सपनों ने दरवाज़ा भेड़ लिया है ? तुम्हारे पैरों की आहट सुन कर मैंने जिंदगी से कहा था --अभी दरवाज़ा बंद मत करो हयात !रेगिस्तान से किसी के क़दमों की आहट की आवाज़ आरही है |" पर आज तुम्हारे पैरों की न आहट न आवाज़ सुनाई दे रही है | अब जिंदगी को क्या कहूँ ? क्या यह कहूँ कि अब सारे दरवाज़े बंद कर ले...? आज हम लिविंग रिलेशन शिप की बातें करते हैं विरोध करते हैं, पर अमृता ने आज के वक़्त से बहुत पहले ही उसको जीया न केवल जीया बिंदास समाज में उस को मनवाया भी।

बरसों की राहें चीरकर

तेरा स्वर आया है

सस्सी के पैरों को जैसे

किसी ने मरहम लगाया है …

मेरे मजहब ! मेरे ईमान !

तुम्हारे चेहरे का ध्यान कर के मजहब जैसा सदियों पुराना शब्द भी ताजा लगता है | और तुम्हारे ख़त ? लगता है जहाँ गीता, कुरान, ग्रन्थ और बाइबिल आ कर रुक जाते हैं, उसके आगे तुम्हारे ख़त चलते हैं..…

अवतार दो तीन दिन मेरे पास रह कर गई है, कल शाम गई |मेरी मेज पर खलील जिब्रान का स्केच देख कर पूछने लगी, ''यह इंदरजीत का स्केच है न ?"" मुझे अच्छा लगा उसने तुम्हारा धोखा भी खाया तो खलील जिब्रान के चेहरे से | नक्शोंमें फर्क हो सकता है, पर असल बात तो विचारों की होती है |सचमुच तुम्हारे इस नए ख़त को पढ़ कर तुम्हारा और खलील जिब्रान का चेहरा मेरे सामने एक हो गया है |एक पाकीजगी जो तुममें देखी है वह किताबों में पढ़ी तो जरुर है, पर किसी परिचित चेहरे पर नही देखी है |

तुम्हारे जाने के बाद एक कविता लिखी है ---रचनात्मक क्रिया, एक आर्टिकल ---एक कहानी भी ! पर यह सब मेरी छोटी छोटी कमाई है, मेरी जिंदगी की असली कमाई तो मेरा इमरोज़ है |

अब कब घर आओगे ? मुझे तारीख लिखो, ताकि मैं ऊँगलियों पर दिन गिन सकूँ तो मुझे अपनी यह उँगलियाँ भी अच्छी लगने लगें | तुम्हारी जोरबी इतना पाक इतना सच्चा प्रेम, जो पढ़े उसको यह इस प्रेम की हुक लगा दे, यह थी हमारी अमृता |...वह अपने बारे में कहती है कि..मैं औरत थी, चाहे बच्ची सी, और यह खौफ -सा विरासत में पाया था कि दुनिया के भयानक जंगल में से मैं अकेले नही गुजर सकती.शायद इसी भय से अपने साथ मर्द के मुहं की कल्पना करना मेरी कल्पना का अन्तिम साधन था.पर इस मर्द शब्द के मेरे अर्थ कहीं भी पढ़े, सुने या पहचाने हुए अर्थ नही थे | अंतर में कहीं जानती अवश्य थी, पर अपने आपको भी बता सकने का समर्थ मुझ में नहीं थी | केवल एक विश्वास सा था कि देखूंगी तो पहचान लूंगी |

पर मीलों दूर तक कहीं भी कुछ भी नही दिखायी देता था |और इसी प्रकार वर्षों के कोई अडतीस मील गुजर गए |मैंने जब उसको पहली बार देखा..तो मुझसे भी पहले मेरे मन ने उसको पहचान लिया | उस वक्त मेरी उम्र अड़तालीस वर्ष थी...यह कल्पना इतने साल जिन्दा रही और इसके अर्थ भी जिन्दा रहे..इस पर मैं चकित हो सकती हूँ, पर हूँ नहीं क्यूंकि जान लिया था कि यह मेरे "मैं" कीपरिभाषा थी..."थी भी और है भी |"मैं उन वर्षों में नही मिटी, इसलिए वह भी नहीं मिटी...यह नही कि कल्पना से शिकवा नही किया, उस दौर की कई कविताएं निरी शिकवा ही हैं जैसे --

लख तेरे अम्बरां बिच्चों, दस्स की लभ्भा सानूं इक्को तंद प्यार दी लभ्भी, ओह वीं तंद इकहरी..तेरे लाखों अम्बारों में से बताओ हमें क्या मिला प्यार का एक ही तार मिला, वह भी इकहरा..पर यह इकहरा तार वर्षों बीत जाने पर भी क्षीण नही हुआ | उसी तरह मुझे अपने में लपेटे हुए मेरी उम्र के साथ चलता रहा.

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