सड़कछाप - 11 dilip kumar द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सड़कछाप - 11

सड़कछाप

(11)

आसफ अली रोड और नाका यही बुदबुदाता रहा वो रास्ते भर। उसकी आदत थी कि एक वक्त में एक वजह को पकड़कर वो जीने-मरने को उतारू रहता था। दो रुपये पचहत्तर पैसे के टिकट को उसने जेब के बजाय उंगलियों में फंसा रखा था। बार-बार वो कंडक्टर से पूछता “आसफ अली का नाका आ गया, आसफ अली का नाका आ गया”। कंडक्टर उसको समझाता कि जब आयेगा तब मैं खुद बता दूंगा। फिर भी अमरेश बार -बार पूछता । वो आशंकित था कि कहीं वो नाका छूट गया तो आदमियों के इस महासमुद्र में वो अपने पहचान वालों को कहाँ ढूंढेगा। जरूरी नहीं कि उसे हर बार सरदारजी जैसे कोई देवता आदमी मिल जायें। अपनी माँ के दूसरा विवाह कर लेने के बाद दुनिया के हर रिश्ते से उसका विश्वास उठ गया था। उसे हर आश्वासन झूठा लगता था और सही लगने वाली बात के भविष्य में शर्तिया झूठ हो जाने की उसे आशंका लगी रहती थी। क्योंकि उसकी माँ भी कहा करती थी कि कभी उसे छोड़कर नहीं जायेगी और उसे छोड़कर चली गयी। सो किसी के आश्वासन या बात पर यकीन ना करना अब उसकी जिंदगी का ब्रहमवाक्य बन गया था। सो कंडक्टर से पूछता ही रहा”आसफ अली रोड, चर्च रोड, नबी करीम”। हारकर कंडक्टर ने उसे एक ओवरब्रिज पर उतार दिया और कहा कि यही आसफ अली रोड है । ओवरब्रिज पर वो उतर तो गया लेकिन वहां से वो दिल्ली की आमदरफ्त देखकर हैरान रह गया। वो जहाँ उतरा उस सड़क के नीचे भी बड़े-बड़े घर थे। उस सड़क के नीचे भी एक सड़क थी जिस पर तमाम गाड़ियाँ आ जा रही थीं । घर के ऊपर जाती हुई सड़क, सड़क के ऊपर जाती हुई सड़क उसकी कल्पना से परे बात थी। अगर ऊपर वाली सड़क जिस पर वो खड़ा है वो अगर गिर गई तो ?सो ऐसी जगह से जल्द से जल्द हट जाना मुफीद होगा। मगर वो जाये तो जाये किधर?उस ओवरब्रिज पर बहुत तेजी से वाहन आ -जा रहे थे। उसने कई लोगों को रोकने की कोशिश की मगर कोई ना रुका। हारकर उसने उल्टी दिशा में चलना शुरू कर दिया जिस तरफ सारी गाड़ियां जा रही थीं। उसने सोचा कि अगर आसफ अली रोड उधर ही पड़ता जिधर से उसकी बस आयी है तो कंडक्टर उसे रास्ते में ही उतार देता इसलिये वाहनों के उलटी दिशा में जाने की कोई तुक नहीं है इसलिये वाहनों के साथ चलना ही मुफीद होगा।

पूछते-पूछते वो एक सिग्नल से दूसरे सिग्नल, एक सड़क से दूसरी सड़क और अंततः आसफ अली रोड वो पहुँच ही गया। करीब कोस भर तो वो पैदल चला ही होगा और जब आसफ अली रोड का बोर्ड उसने देखा तो उसे तसल्ली हुई । उस बोर्ड के पास खड़े होकर वो थोड़ी देर सुस्ताया।

बस वाला उसे धोखा दे चुका था, इस बार वो सजग था । उसे याद आया कि उसके गाँव के लोग कहते थे कि दिल्ली में बिना फायदे के लोग किसी को कुछ भी नहीं बताते। तभी उसे सरदार अतर सिंह याद आये मगर हर जगह तो सरदारजी जैसे लोग नहीं होते ये दुनिया तो उसके मांँ जैसे लोगों से भी भरी पड़ी है जो अपने फायदे की खातिर..?

हालात पर विचार कर के उसने बोर्ड के बगल के एक ठेले पर उसने चाय पी। थकान उतरी, चाय ने ताज़गी दी तो बुद्धि ने पुनः काम करना शुरू कर दिया। चाय वाले से उसने चर्च रोड, नबी करीम और ट्रांसपोर्ट का व्यापार बताया और मोंटी सेठ का नाम भी।

चाय वाले ने कहा”भाई ये सब तो मैं नहीं जानता मगर इतना जानता हूँ कि सीधे हाथ पर जाने से करीब दो किलोमीटर के बाद बहुत से ट्रांसपोर्ट वाले लोग हैं उस जगह को धोबी पुलिया कहते हैं”।

अमरेश दो किलोमीटर भी ना चला होगा कि सड़कों पर ही उसे ट्रक खड़े दिखने लगे। थोड़ी सी पूछताछ के बाद उसे चर्च रोड, नबी करीम का पता चल गया। वहां पहुंचकर उसने जिस पहले शख्स से मोंटी सेठ के ट्रांसपोर्ट की दरयाफ्त की उसी ने पता बता दिया। ये तलाश उसकी आसानी से मुकम्मल हो गयी जबकि उसे खासी मुश्किलें पेश आने की उम्मीद थी। वहीं पर उसने अपने फूफा जय नारायण शुक्ला के बारे में पता लगाना चाहा । उनके बारे में पता तो चल गया, मग़र ये पता लगते ही उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी कि उसके फूफा चार-पाँच दिन पहले गांव चले गए हैं और अब महीना भर बाद ही लौटेंगे।

, अमरेश निराश था और दुखी भी। थोड़ी देर वहाँ बिताने के बाद उसने सरदारजी के पास लौटने को सोचा । वो चलने लगा तो वहाँ मौजूद लोगों ने कहा नानमून से एक बार मिल लो वो यहीं रहते हैं और जय नारायण के चचेरे भाई हैं, तब चले जाना। वैसे भी दिल्ली में झोला लेकर दाखिल होने वाले लोगों के बारे में लेबर क्लास की यही राय रहती है कि उनके पास पहुंचे हुए आदमी के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है इसीलिए लोगों ने अपना सुझाव दिया। मरता क्या ना करता?लिहाजा अमरेश वहीं रुक गया।

काफी वक्त बीत गया, लाइटें जल उठीं, दिन में हाहाकारी और अजीब दिख रही दिल्ली रात को दुल्हन की तरह खिल उठी। माहौल खूबसूरत हुआ तो अमरेश की चिन्ता कुछ कम हुई। हाथ गाड़ी और ठेले वाले तमाम मज़दूर ट्रांसपोर्ट कंपनी में वापस आ गये थे। जो भी आता, उससे पूछताछ करता और कहता कि घबराओ मत नानमून वापस आ जाएंगे। बहुत रात हो गयी सब आये मगर नानमून ना आये। उस ट्रांसपोर्ट के गोदाम में लोग दो-तीन जगह स्टोव जलाकर खाना खाना बना रहे थे। भोजन की खुश्बू से अमरेश के नथुने फड़क उठे उसे बड़ी जोरों की भूख लग रही थी। उसने खुद को तसल्ली दी कि अगर नानमून नहीं आये तो वो बाहर होटल पर जाकर खाना खा लेगा औऱ यहीं-कहीं रात बिता देगा।

खाना बन गया तो तीनों स्टोव वालों ने बारी -बारी से पूछा। उसने दिखावे के लिए सभी को मना कर दिया लेकिन प्रचंड भूख, दिन भर की थकान और भोजन की खुश्बू उसको बेचैन किये जा रही थी। खाना भले ही अलग बना था मगर सब साथ में ही खाने बैठे और इकट्ठे ही । सभी सबकी सब्ज़ी, चावल, रोटी, सलाद चख रहे थे और आपस में बाँट भी रहे थे। मगर उन सभी ने अपने खाने से पहले उन सभी व्यंजनों को अमरेश को खिलाया जो भी वहाँ मौजूद था क्योंकि वो उन सबका मेहमान था। खाने के बाद सब वहीं गत्तों पर लेट गये। अमरेश को पहले तो अजीब लगा मगर ये गत्ते गद्दे से ज्यादा नरम और गुलगुल थे। अमरेश को अब नानमून की चिन्ता होने लगी तब उसने बड़ी मूछों वाले गुरूपाल से पूछा”हमारे फूफा के भाई नानमून फूफा कहीं खो तो नहीं गये। रास्ता तो नहीं भूल गये दिल्ली की भीड़भाड़ में”?

गुरूपाल जो कि ट्रक पर खलासी था उसने हंसते हुए कहा”चिंता मत करो पंडित, वो जगाधरी गया होगा। इस कंपनी का दूसरा आफिस वहीं है । कल दोपहर तक वो जायेगा। वैसे भी कल हिसाब का दिन है पहली तारीख है। तुम चिंता मत करो, सो जाओ”।

बत्तियां बुझ गयीं थोड़ी देर में सब खांस-खंखार कर सो गये। हालाँकि अमरेश का दिमाग अनहोनियों और चिन्ताओं से परेशान था मगर पेट भरा हो और शरीर थकान से चूर हो तो

इंसान को नींद आ ही जाती है, सो अमरेश को भी नींद आ गयी। सुबह उसकी आंख खुली तो उसी गोदाम में उसे तमाम स्टोव जलते नजर आये। सब लोग तैयार हो रहे थे। कोई खा-पीकर तैयार हो रहा था तो कोई तैयार होने के बाद खा-पी रहा था काम पर निकलने के लिये।

गुरूपाल ने उससे कहा”जाओ टट्टी-पेशाब कर लो, मंजन ना हो तो यहीं मिल जायेगा”अमरेश को दस का नोट थामते हुए गुरूपाल फुर्ती से बोला “गोदाम के बाहर की सड़क पर मंजन-ब्रुश मिल जायेगा । ले आओ चाय भी पी लेना । खाना रखा है बेटा, भूख लगे तो खा लेना। हम सब काम पर जा रहे हैं देखो कब लौटें। आराम से रहना, डरना मत बेटा”।

अमरेश असमंजस में था फिर भी उसने सहमति से सिर हिलाया । गुरूपाल ने मुस्कराते हुए कहा”दोपहर तक शायद नानमून भी आ जाये । डरना मत बिल्कुल, बिंदास रहो बेटा। खाना खा लेना और यहीं आराम करना और कहीं मत जाना”।

ये कहकर गुरपाल निकल गया। अमरेश ने देखा कि वो लोग दो-दो या दो-तीन के झुंड में हाथगाड़ी लेकर गोदाम से निकल गये। अमरेश उस बहुत बड़े से भूतिया गोदाम में अकेला रह गया। उसने पास में सटे बाथरूम में खुद को हल्का किया और वहीं पर रखे ढेर सारे ब्रुशों में से

एक ब्रश निकाल कर ब्रश -मंजन किया औऱ फिर नहाया तो उसे जोरों की भूख लग आयी। दस का नोट उसने तुड़ाना उचित नहीं समझा हालाँकि चाय की तलब उसको लग रही थी। मगर बाहर जाने पर खामखाँ पूछताछ भी हो सकती थी । सो उसने बाहर जाने का विचार त्याग दिया। गोदाम दो तल्ले का था । टाइम पास करने के लिये वो ऊपर के तल्ले पर चढ़ गया। ऊपर का तल्ले के ठीक सामने एक ओवरब्रिज था । गोदाम के ऊपरी हिस्से पर बैठकर वो गाड़ियों की आमदरफ्त देखता रहा। एकरसता से मन उचटा तो फिर नीचे उतर आया और खाना खाने बैठा। वो खाना खाने बैठा तो उसे अपना घर याद आया कि उसके रामजस दादा लम्मरदार के सिरवार थे मगर ऐसा चारों किस्म का भोजन उन्हें जीवन मे नसीब नहीं हुआ जबकि यहाँ दिल्ली में ठेला चलाने वाले लोग ऐसा भोजन करते हैं। यही सब सोचते हुए वो खाना खाने लगा। खाना उसे बहुत स्वादिष्ट लग रहा था सो उसने कुछ ज्यादा ही खा लिया । गले तक पेट भर गया तो अमरेश वहीं लेट गया, थोड़ी देर में उसकी आँख लग गयी।

अमरेश की आँख खुली तो उसके आस-पास बीड़ी का काफी धुँआ था। उसको देखकर चेचक के दागों वाला एक काला व्यक्ति उसे देखकर हँसा और बोला”तुम ही लल्लन शुकुल के लड़के हो “?

अमरेश ने सहमति में सिर हिलाया । उस आदमी ने बीड़ी का सुट्टा मारते हुए कहा”मैं नानमून हूँ”।

अमरेश उठ बैठा उसने झुककर उनके पाँव छुए। नानमून ने हड़बड़ी से कहा”जीते रहो, जीते रहो।

थोड़ी देर ठहर कर नानमून ने कहा”फूफा तुम्हारे तो दिल्ली में हैं नहीं। पहले वो यहीं काम करा करते थे। अब भी मोंटी सेठ से उनका कुछ हिसाब-किताब का लफड़ा चल रहा है। खैर छोड़ो ये सब तुम दिल्ली कैसे आये, किसके पास आये, पढ़ते-लिखते नहीं का”?

अमरेश ने धीरे से कहा”नौ में पढ़ता हूँ”।

नानमून ने झल्लाते हुए कहा”पढ़ते-लिखते होते तो यहाँ क्यों आते। बामन के सब लौंडे चौपट हैं। पढ़ाई-लिखाई कुछ नहीं खाली रंगबाजी करेंगे और बाद में दिल्ली, मुम्बई में मज़दूरी। का सोच के

दिल्ली चले आये पढ़ाई छोड़ के “?

अमरेश स्तब्ध रह गया नानमून के बर्ताव से, कि अजीब बातें कर रहा है आदमी। सहानभूति के फाहे रखने के बजाय घावों को कुरेद रहा है ।

बीड़ी फेंकते हुए नानमून ने कहा”देखो, दिल्ली में कुछ है नहीं अब। जान निकाल लेते हैं लोग यहां काम देने के नाम पर। अभी तुम्हारी उमर है, गाँव लौट जाओ पढ़ -लिखकर आदमी बन जाओगे। यहां बिना पढ़े-लिखे आदमी को भीख तक नहीं मिलती। दिल्ली में कोई राजपाट थोड़े ना धरा है । देख रहे हो किस तरह हम लोग मेहनत-मजूरी करके, तन-पेट काटकर अपने परिवार को बाल-बच्चों को चार पैसा भेजते हैं और वहां पर तुम्हारे जैसे लौंडे पढ़ने-लिखने के बजाय रंगबाजी करते हैं। बताओ हाल, कुछ ना सोचे बस झोला उठाये और गाँव से दिल्ली भाग आये मानो पहुंचते ही यहां दिल्ली में लॉट-गवर्नर बन जाओगे । लौट जाओ मेरी बात मानो”।

अमरेश को बाज़ी हाथ से फिसलती हुई प्रतीत हुई, जिन पर कल से मान-गुमान किये बैठा उनका ऐसा बर्ताव। इस बार और हर बार जब भी ज़िन्दगी समझ मे ना आये तब उससे निपटने का एक ही हथियार है चुप्पी। एक चुप सौ सुख। चुप्पी बेअसर होने लगे तो रोना शुरू कर दो वो भी बुक्का फाड़ कर नहीं बल्कि सुबक-सुबक कर और फफक-फफक कर। उसने ठीक यही किया और अंततः उसने सुबकना शुरू कर दिया, आँसू उसकी आँखों से झर-झर बहने लगे। वो बेआवाज़ रोये जा रहा था, नानमून इस हमले को झेल ना सका, वो उठ कर वहां से चला गया। अमरेश बड़ी देर तक रोता-सुबकता रहा। रोते-रोते उसने खुद को निढाल छोड़ दिया, आँसू उसके गालों पर सूख गये और वो सो गया।

काफी वक्त बीत गया तो कुछ आवाज़ों से उसकी आँख खुली। उसने देखा कि कमरे से सुबह बाहर गये लोग लौट आये हैं और आपस में बातें कर रहे हैं। सामने के शीशे में उसने देखा कि रोने और सोने से उसका चेहरा सूज गया है । उसे गोदाम का माहौल भी कुछ ठीक नहीं लग रहा था। लोग काफी शंकित लग रहे थे ।

अमरेश ने गुरूपाल से पूछा”क्या हुआ, आप लोग तो शाम को आने वाले थे फिर इतनी जल्दी कैसे लौट आये?”

गुरूपाल ने कहा”कर्फ्यू लग गया है बेटे। शहर में जगह-जगह तोड़-फोड़ हो रही है । माहौल बहुत खराब है”।

अमरेश ने पूछा”कर्फ्यू क्या है, खुद लगाना पड़ता है या कोई दूसरा लगाता है और इसमें क्या होता है”?

गुरूपाल ने उसे समझाते हुए कहा”बेटा, कर्फ्यू माने पुलिस की चौकसी बढ़ जाती है । आम आदमी का कहीं भी बाहर निकलना बंद हो जाता है। देखते ही पब्लिक को गोली मार देते हैं। पब्लिक क्या होती है जानता है ना”?

अमरेश ने समझने की सहमति नहीं दी, तब गुरूपाल ने कहा”पब्लिक माने कि जनता जैसे कि हम, तुम और यहाँ बैठे सारे लोग। हम सब लोग पब्लिक ही हैं”।

अमरेश ने सहमति में सिर हिलाया वो कुछ बोलता इससे पहले नानमून बोले”तब तो गाँव की बस -ट्रेन सब बंद हो गयी होगी”?

“हाँ, तब कभी भी, कहीं भी मार काट मच सकती है । स्टेशन तक सिटी बस भी ना जा सकेगी। वैसे तुमको गांव जाना है का अभी”गुरूपाल ने पूछा?

नानमून ने कहा”हमको नहीं, इनको अमरेश को गाड़ी पर बैठा देते। यहां दिल्ली में क्या करेगा ये”?

गुरूपाल ने हैरानी से कहा”का करेगा, अरे जब दिल्ली भागकर आ ही गया तो वापस क्या करने जायेगा। कुछ दुख पड़ा है तभी तो लौंडा भागकर आया है। गाँव में इसका कौन बैठा है ना माँ ना बाप”।

नानमून ने तमक कर कहा”तुम नहीं जानते इनके चाचा-पित्ती तो हैं। यहाँ इनका कौन बैठा है। फूफा इनके गाँव गये हैं। इनके फूफा जय नारायण का मोंटी सेठ से पुराना लफड़ा चल रहा है। सेठ इनको गोदाम में रहने नहीं देंगे। फिर कौन इनको पनाह देगा और कौन इनकी खुराकी सहेगा। यहां कौन लाट बख्श बैठा है। हम सब भी तो मजदूरी ही कर रहे हैं”।

गुरूपाल ने अचंभे से कहा”नानमून तेरा दिल भी बहुत नान(छोटा)है। किस हाल में लौंडा आया है ये भी तो देख लो। कैसी जली-कटी बातें कर रहा है तू इस अनाथ के सामने। तूने ज़रूर इसको डांटा-फटकारा होगा तभी इसका चेहरा उतरा है । डांटा है ना?”

अमरेश ने पहले सहमति में सिर हिलाया फिर झुका लिया।

नानमून झटके से खड़ा हुआ और आवेश में बोला”मैं तो इसे ना इसे अपने पास रह पाऊंगा ना खुराकी सह पाऊंगा। एक दिन के लिये भी नहीं। बाकी जिसका जो मन हो वो करे”ये कहते हुए वो कमरे से निकल गया।

अमरेश फिर सन्न, गुरूपाल ने उसे समझाया”तू चिंता मत कर, जब तक तेरी मर्ज़ी हो यहां आराम से रह। जब तक तेरे फूफा गांव से नहीं आ जाते तब तक जो मन हो वो करना। ज़रा सा भी चिन्ता मत करना । खाना, खर्चा, कपड़ा किसी बात की फिक्र मत कर। इस यूनियन का हेड मैं ही हूँ। नानमून नहीं ना सही, जय नारायण भी नहीं तो कोई बात नहीं। समझ ले अब मैं ही तेरा फूफा हूँ। बाहर शहर का माहौल बहुत गड़बड़ है, इसलिये अभी कहीं बाहर मत निकलना। “

रात होने से पहले नानमून ने अमरेश की शिकायत कर दी। उस वक्त मोंटी सेठ गुरुद्वारे से अरदास करके लौटा था उसके मन में दया थी और माथे पर चिन्ता की लकीरें क्योंकि अभी भी उसके कई ट्रक सफर में हैं और धीरे-धीरे पूरे देश में तनाव फैलता जा रहा है। अगर दंगा फैल गया तो जान-माल का खासा नुकसान हो सकता है उसके ट्रक फूंके जा सकते हैं और ड्राइवरों का कत्ल हो सकता है। चौरासी का दंगा वो अभी भूला नहीं था जब उसके ताया को इसी सड़क पर हिंदुओं ने दिन -दहाड़े काट डाला था। और आज राम मंदिर का मामला गर्म है तो उन्ही हिंदुओं के एक लड़के ने उसके गोदाम में पनाह ले रखी है। क्या करे वो, इन् खयालों ने उसके जेहन पर दस्तक दी । गोदाम में आकर उसने देखा। अमरेश से उसका इतिहास -भूगोल पूछा। दिल्ली आने का सबब जानना चाहा और अंत में ये भी पूछा कि उसका इरादा क्या है?

अमरेश ने मोंटी सेठ को अपनी रामकहानी विस्तार से बतायी मगर अब वो क्या करेगा, इस सवाल पर उसने चुप्पी साध ली। उसे खुद ही नहीं पता था कि अब वो क्या करेगा?

मोंटी सेठ ने उसे कई बार कुरेदा तो वो रोने लगा। मोंटी सरदार पसीझ गया। वो अमरेश को समझाते हुए बोला”देख भई। मेरा तुझसे कुछ लेना-देना नहीं है । ना मैं तुझसे रुकने को बोलूंगा और ना ही जाने को बोलूँगा। लेकिन अगर पुलिस का लफड़ा हुआ या दंगा-फ़साद हुआ तो तू जाने और तेरा काम जाने?मुझसे कोई पूछेगा तो मैं तो साफ कह दूंगा कि मानो मैं तुझे जानता ही नहीं। समझा क्या, लेकिन जल्दी से जल्दी कुछ इंतजाम करना पड़ेगा तुझे”।

नानक दुखिया सब संसार”बुदबुदाते हुए मोंटी सेठ गोदाम से बाहर निकलकर आफिस में आ गया। इस निर्णय के पीछे उसका धर्म-कर्म कम बल्कि व्यापारिक बुद्धि ने ज्यादा खेल खेला। दरसअल वो मालिक होने के नाते किसी मज़दूर का पक्ष लेना नहीं चाहता था ना ही नानमून का और ना ही गुरपाल का। नानमून उसका मुँहलगा था मगर गुरूपाल उस ट्रांसपोर्ट के लेबर यूनियन का हेड । उसने नानमून की शिकायत भी सुन ली और गुरूपाल की इच्छा का भी सम्मान किया और गालिबन कुछ भी नहीं किया, रब को याद किया “नानक दुखिया सब संसार”।

ऐसे ही कई दिन बीत गये। नानमून लोगों को गोदाम में भड़काते रहे लेकिन किसी ने कुछ ठोस विरोध नहीं किया। दंगे-फ़साद, आगजनी, कत्लोगारद की खबरें टीवी, अखबार और रेडियो पर आती रहीं। अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाई जा चुकी थी। दिल्ली उसके बाद के दंगों और तनाव के कई महीनों तक सुलगती रही थी । इस दरम्यान नानमून ने उससे कोई बात नहीं की और उसकी अनुपस्थिति में गोदाम पर एक दिन पुलिस भी आयी । इत्तेफ़ाक़ से उस पुलिसिया दरयाफ्त के वक्त मोंटी सरदार दफ्तर में ही था और उसने अमरेश का नाम नानमून के रिश्तेदार के तौर पर दर्ज कराया था। दिन आशंका और अनिष्ट के डर में बीतता और रातें जागकर कि कहीं कोई उन्मादी भीड़ हमला ना कर दे । अमरेश दिन रात बुदबुदाता रहता कि

"रखें राम तो भक्षे कौन, भक्षे राम तो रखे कौन”।

इन दंगों में हरियाणा बॉर्डर पर मोंटी सरदार का एक ट्रक फूंक दिया गया था उनके एक कलीनर को चाकू भी मारी गयी थी। सो यूनियन के लोग डर के मारे दिल्ली से बाहर ट्रक लेकर नहीं जाते थे। भयावह समय था, ट्रक के पहिये भले ही रुक गये थे, मगर समय का पहिया चलता रहा।

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