धूप छाँव Vinita Shukla द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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धूप छाँव

धूप- छांव

नित -नये अँखुआते हुए सपने, आँखों को चुभने लगे थे. उम्मीदों के अंकुर, जहाँ फूटे- वहीँ पर दफन होकर रह गए. एक ही झटके में टूट गया- खूबसूरत सा भरम! फ़ोन के पैरेलल कनेक्शन पर, निशि ने जो कुछ सुना, वह अविश्वसनीय था. कोई और कहता तो वह कतई ना मानती; लेकिन उसके कान, धोखा कैसे दे सकते थे?! नई नई शादी का रोमांच, फुर्र हो चला. फेरों से लेकर, अब तक का घटनाक्रम, आँखों के आगे डोलने लगा. वधू के रूप में उसका गृहप्रवेश...रस्मों- रिवाजों का सिलसिला...परिवारजनों का उछाह...मेहमानों की आवाजाही..हर वक्त की चहल- पहल... बतकही, हंसी- मजाक और हवा में गूंजते ठहाके- यह सब, फिल्म की रील का हिस्सा लगते थे. पति गोपेश से मिला प्रेम, अनमोल था. उमंगें ऐसी कि पाँव जमीन पर ना ठहरते!

खुशियों को पंख मिले और जीवन को नवल संभावनाएं. गोपेश को उसने पसंद किया था. लगन के पहले, वरपक्ष की जांच- पड़ताल की गई थी. होने वाले वर को, जांच- परखकर, ठोंक- बजाकर, ‘फाइनल’ किया था. सब कुछ कितना देखा- भाला था...फिर चूक कहाँ हुई?! निशि को याद आया, बहू की रसोईं वाला दिन. गोपेश उसकी मदद को आ खड़े हुए थे. अतिथियों को जिमाया जा रहा था. निशि से गोपेश की चुहल को देख; भौजी ने आँख दबाकर बोला, “मैंने पति चुन लिया तो चुन लिया”. किसी फ़िल्मी डायलाग सा नाटकीय, उनका संवाद था; उनकी बुलंद आवाज़, व्यंग्य का पुट लिए थी. निशि को कुछ विचित्र सा लगा. यह बात और थी कि जब गोपेश ने, भौजी को तिर्यक दृष्टि से देखा तो वे हंस पडीं और बात आयी- गयी हो गई.

समस्या तब शुरू हुई, जब पगफेरे की रस्म के लिए, उसे मैके भेजने की तैयारी थी. एक चुलबुली युवती, भागती हुई वहां आयी. दौड़ने के कारण, वह बेहाल हो रही थी. साँसे धौंकनी सी चल रही थीं. शीशेदार झरोखों से, मुख्यद्वार पर खड़ी होकर हांफती, उस कन्या की झलक मिल गयी. काकी ने भौजी को आँख मारी और बोल पड़ीं, “आ गयी श्याम की राधा”. बदले में भौजी, रहस्यमय ढंग से मुस्करा उठीं. तब तक वह भीतर आ धमकी. “गोपेश दा...गोपेश दा” अनियंत्रित सांसों के मध्य, उसने पुकार लगाई. उसकी आवाज में कम्पन था. “गोपेश भैया, दोस्तन के संग हैं बिटिया...नइकी भाभी हैं कमरे में...जाइके मिल लो” जवाब घर के सेवक, बदलू काका ने दिया. काका ही उसे, निशि के पास ले गये. कुछ पलों तक, वह निशि को निहारती रही फिर ‘भाभी’ कहकर उससे लिपट गयी.

“भाभी मैं राधिका...आपके लिए फूल गूँथकर लाई हूँ.”

निशि की आँखों में प्रश्न उभरा. राधिका ने उस जिज्ञासा को पढ़ा किन्तु कोई उत्तर ना दिया; झट अपनी थैली से गजरा निकला और उसके केश सजा दिए. “बहुत सुंदर हैं ये फूल... बिलकुल तुम्हारी तरह! किस क्लास में पढ़ती हो?”

“बी. ए. फाइनल का एग्जाम दिया है” कहते कहते लड़की की दृष्टि, काकी और भौजी से जा टकराई. वह संकोच से भर उठी और वहां से चलती बनी. निशि चकित थी. उसके निकलते ही काकी ने ‘हुंह’ कहकर मुंह सिकोड़ लिया और भौजी फिर, उसी हिकारत भरे अंदाज़ में बोल उठीं, “मैंने पति चुन लिया तो चुन लिया.”

“क्या हुआ भौजी...काकीजी आप लोग इस तरह का बर्ताव क्यों कर रही हैं? कौन है ये राधिका?”

“ना बाबा”...”हम नहीं बताएंगे! काहे से- जबान खोलो तो घर भर के बुरे बनो!” यह और बात थी कि वे ही सबसे अधिक जबान चलाती थीं. रत्ना भौजी ने पेंच को और उलझा दिया था. “लेकिन भौजी...”

“लेकिन- वेकिन कुछ नहीं...तुम गोपू से ही पूछना...पर देखो- जरा सावधानी से! जब उसका मिजाज़ सही हो तब. और हाँ- थोड़ा जब्त करना, नहीं तो वह जानेगा कि मइके से ही, सीख- पढ़कर, बोल रही हो... हमारा नाम, बीच में, आना नहीं चाहिए; कहे देते है, हाँ!” रत्ना ने आग लगाई; अब वही बता रही थीं कि समाधान गोपू यानी उसके पति गोपेश के पास था. विवाह के बाद, पहली बार, वह नैहर जा रही थी. ऐसे में लडकियों के पास ढेरों बातें होती हैं, उल्लास के ढेरों रंग होते हैं जो उनकी मुट्ठी से, आह्लाद बनकर फूट पड़ते हैं. पर यहाँ दूसरा ही माज़रा था. भरे- पूरे संयुक्त परिवार में, वह अलग- थलग पड़ गयी थी. उसकी ससुराल के हाल जानने को, परिजन व्यग्र थे. किसी भाँति झूठी मुस्कान ओढ़कर, सबको आश्वस्त करना पड़ा.

अड़ोसी- पड़ोसी, नातेदार और बंधु- बांधव, ‘रौनक बढ़ाने’ का ठेका लिए थे. सखियों की शरारतें और महिलाओं की गपशप, थमने का नाम ही ना लेतीं! इस सबके बीच, वह अकेली...चंद पलों की मोहलत भी नहीं! एकांत मिल भी जाता तो रत्ना भौजी का जुमला, कानों में गूंजने लगता, “ मैंने पति चुन लिया तो चुन लिया” दिमाग में कीड़ा रेंगता रहता. दाल में कुछ तो काला था. वह सोच में थी. गोपेश से सवाल- जवाब, कैसे करे?! भागते हुए मन को संभालना कठिन था. अनगिनत प्रश्न उसे घेरे थे- परायी लड़की को हव्वा बनाकर, उस पर थोपने का मतलब? यह राधिका आखिर थी कौन? उसका निशि से, गोपेश से, उसके मायकेवालों से क्या लेना- देना??

अनिष्ट की आशंका, उसे बेचैन कर रही थी. गोपेश ने खुद उसको चुना. घुटने टेककर, फूलों का गुच्छा हाथ में थमाकर, प्रेम प्रस्ताव दिया. उनका विवाह प्रेम विवाह था; तो फिर यह उलझन कैसी?!! ऐसा अतीत- जो वर्तमान को ग्रास बना रहा था...गोपू के प्यार में, दुराव- छिपाव था या कोई छल? पहली बार, जब पति से जानना चाहा तो भावनाएं उमड़ पड़ीं, “ये राधिका क्या बला है गोपू? हर कोई उसका नाम, आपसे क्यों जोड़ता है??” सुनते ही गोपेश के तनबदन में आग लग गयी. उन्होंने उसका हाथ थामा और लगभग खींचते हुए, रत्ना के पास ले गये. वे कहते जा रहे थे, “पता है मुझे, ये सब किसका किया- धरा है!” रत्ना का सामना होते ही, वे फट पड़े, “ भौजी, यह मेरी पहली और आख़िरी चेतावनी है...इस घर में राधिका का नाम, दुबारा कोई नहीं लेगा”

“लल्लाजी, इसमें हम क्या करें...हमसे कैसा बैर?!” भौजी का मुंह फूल गया और कई दिनों तक फूला रहा. इसकी जिम्मेवार, वह निशि को मान रही थीं, जबकि उस बेचारी ने, उनका जिक्र तक नहीं किया. गोपेश के तेवर देख, रत्ना सहम गयी थीं. कई दिनों तक उस विषय पर, कोई चर्चा नहीं हुई. निशि को भी लगने लगा कि वह बेकार ही संदेह कर रही थी. वह भी ऐसी स्त्री के कहने पर- जिसके लिए परपंच ऑक्सीजन सा था और निंदा- रस स्फूर्तिदायक टॉनिक! धीरे- धीरे सब ठीक हो जाता यदि...“निशि बेटा! जरा इधर तो आओ. देखो तो कौन आया है” वह विचारों के भंवर में डूबी ही रहती, यदि सासू माँ ने बुलाया ना होता. आगंतुकों को देखकर, झटका सा लगा. मिठाई का डिब्बा हाथों में लिए, राधिका अपनी सहेली के संग आई थी. निशि को देखते ही, वह झट आगे बढ़ी और उसके पैर छू लिए. आग्रहपूर्वक हथेली खोलकर, लड्डू भी उसे थमा दिया. संस्कारी निशि, कोई तमाशा खड़ा ना कर सकी. सासू माँ का लिहाज भी तो करना था. राधिका उसके भावों को, पढ़ नहीं पाई और गोपू से मिलने, ‘स्टडी’ की तरफ दौड़ गयी. निशि का मन खट्टा हो गया. पैरेलल फोन पर जो कुछ सुना था, वह पुनः उसे कचोट रहा था.

“गोपेश दा”, राधिका कह रही थी, “मेरा जीवन आपकी प्रेरणा से ही, सफल हुआ है. आप वह पारस हैं, जिसके स्पर्श से, पत्थर भी सोना हो जाए...जिस पर भी आपकी कृपा हुई...”

“अब बस करो राधिका” गोपू के स्वर में, दुलार छलक आया था, “तुमने वह कर दिखाया है, जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी...पूरी यूनिवर्सिटी में टॉप करना, कोई हंसी- खेल नहीं”

“वह तो आपके ही कारण! आपने मुझे पढ़ाया...”

“राधा...” गोपेश उसे प्यार के नाम से बुला रहे थे, “तुम थोड़ी- थोड़ी पागल हो! तुम्हारा यह स्नेह, ये भोलापन बहुत कीमती है मेरे लिए” और नहीं सुन सकी थी निशि! एक तरफ गोपू चाहते थे कि भूलकर भी, कोई घर में, राधिका का नाम ना ले और दूसरी तरफ...!! बदलू काका ने यूँ ही बताया था कि राधिका, गोपेश से ट्यूशन लेती थी. तीन- चार साल पहले की बात रही होगी. फैजाबाद में गोपू की पहली नौकरी लगी थी. वे निरंजन जी के यहाँ, पेइंग गेस्ट की तरह रह रहे थे. वहीँ पास में, राधिका का घर भी था. राधिका के पिता दीनानाथ, उसकी पढ़ाई को लेकर परेशान थे. बेटी बारहवीं कक्षा में गयी थी. बोर्ड एग्जाम का नतीजा, अच्छा आना चाहिए था. मंहगे ट्यूटर की व्यवस्था करना, उनकी हैसियत में ना था. उन लोगों के निरंजन जी और उनके परिवार से, मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे. उसी का खयाल कर, गोपेश राधिका को पढ़ाने लगे थे. राधा ने परीक्षा में संतोषजनक अंक पाए तो उसका बहुत कुछ श्रेय, गोपेश को मिला.

दीनानाथ जी की पत्नी श्यामली, गोपेश का बहुत एहसान मानतीं और उनकी खातिर कोई न कोई व्यंजन बनाकर रखतीं थीं. उनका उस घर में, आना- जाना लगा ही रहता. फिर ना जाने, ऐसा क्या हुआ कि दोनों परिवारों के बीच, मनमुटाव पनप गया. बीच में समझौता जरूर हुआ लेकिन मांजी और गोपू के अलावा, वे लोग किसी को नहीं सुहाते! दिल्ली में जॉब मिलते ही, गोपेश पुरानी नौकरी छोड़कर, यहाँ चले आये थे- माता पिता के पास. उन्होंने ही राधिका को फैजाबाद से बुलाया और दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला दिलवा दिया. वह कलावती हॉस्टल में रहती है और कभी कभार, यहाँ आया जाया करती है. बदलू काका ने निशि को यह कहानी, ऐसे ही तो सुनाई नहीं होगी. वे उसके असमंजस, उसकी तड़प को भांप गये होंगे. काका से ही पता चला कि उसके पति बीच बीच में, उस लड़की की, आर्थिक मदद कर दिया करते हैं. लाइब्रेरी से किताबें भी लाकर देते हैं!!. गोपू का यह व्यवहार, निशि के पल्ले नहीं पड़ा. एक तरफ वे कहते हैं कि घर में कोई राधिका का नाम तक नहीं लेगा और दूसरी तरफ...!!! दिल कसमसा उठा और आँखें डबडबा गयीं. पतिदेव राधा के साथ मॉल जा रहे थे. वहीँ से वे कोई उपहार खरीदना चाहते थे. शानदार रिजल्ट का उसे ईनाम जो देना था!

जाते- जाते पत्नी पर उनकी दृष्टि पड़ी. वे स्तब्ध रह गये. छलकते नयनों का उलाहना, उनसे छुपा नहीं रह सका. उन्होंने उसे, शान्त बने रहने का इशारा किया और हड़बड़ी में वहां से चल निकले. मॉल से लौटे तो रात हो चुकी थी. गोपू राधा को हॉस्टल छोड़ते हुए आये थे. एक नामी रेस्टोरेंट में उसे ‘ट्रीट’ भी दी. मांजी को बता रहे थे कि राधिका को स्मार्टफोन दिलवाया था- तोहफे के तौर पर. इतना कुछ देख- सुनकर, निशि और भी विचलित हो गयी. वह बिस्तर पर पड़ रही. दिखावे को पलकें मूंद ली थीं पर नींद कहाँ से आती! थोड़ी देर में, गोपेश भी वहां आ पहुंचे . उसे देखकर, वे बोले, “मुझे पता है डिअर, तुम सो नहीं रहीं. आज तुम्हें, तुम्हारे सभी प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा...चलो उठो...फटाफट मेरे साथ चलो!” लेकिन मानिनी निशि रूठी रही और सोने का बहाना करती रही. इस पर उन्होंने, उसे झिंझोड़कर उठा दिया और खींचते हुए टेरेस तक ले आये. निशि ने क्रोध में उनका हाथ झटक दिया. वहां उसका भला क्या काम था?! टेरस के कोने में एक कोठरीनुमा कमरा था.

कमरे की सांकल पर, पुराने फैशन का, जंग खाया हुआ ताला लटक रहा था. एक लम्बी सी चाभी से, गोपेश ने दरवाजे को खोल दिया. दरवाजा चरमराया तो निशि की रूह काँप उठी! उसने पति के हाथों को जोर से पकड़ लिया. गोपू ने जेब टटोलकर, पहले टॉर्च ढूंढी और फिर उसी के सहारे- स्विचबोर्ड. बत्ती जलाते ही कमरे में, मरियल सी पीली रौशनी छा गयी. उन्होंने तब टॉर्च को, एक दीवार पर फोकस कर दिया. “देखो” वे पत्नी से बोले, “तुम्हें क्या दिखाई पड़ रहा है” दीवार पर टंगी तस्वीर देखकर, निशि सिहर उठी! तस्वीर वाली लड़की को देखकर जान पड़ता था कि राधिका अपनी किशोरावस्था में वापस चली गयी थी...पारंपरिक पहनावा और आभूषण, उस छवि को और भी आकर्षक बना रहे थे!! अद्भुत साम्य था, उसके चेहरे से इस चेहरे का...फर्क बस इतना कि इस मुखड़े पर जो आँखें चमक रही थीं, उनमें नीलापन था जबकि राधिका की आँखें कंजी थीं. बालों में भी थोड़ा अंतर अवश्य था. इस कन्या के सुनहरे, घुंघराले बाल थे वहीँ राधिका के केश लम्बे और काले.

“राधिका की फैंसी ड्रेस कम्पटीशन वाली फोटो लगती है” निशि ने हिचकते हुए धीमे से कहा. इस पर गोपेश के होठों पर एक फीकी हंसी उतर आई. उन्होंने गंभीरता से कहा, “कयास लगाना बंद करो. यह मेरी छोटी बहन कनक है जो...जो आज से लगभग सात साल पहले...” “कहो गोपू!” निशि उद्विग्न थी. “हमें छोड़कर चली गयी...हमेशा के लिए!!” भरे गले से किसी भांति वे वाक्य पूरा कर पाए. रात का सूनापन, उन पर हावी हो चला था... एक गहन संवादहीनता, उनके बीच पसर गयी. थोड़ी देर पहले जो निशि इतनी उतावली हो रही थी; अब कुछ भी पूछना नहीं चाहती थी. वे धीरे धीरे शयनकक्ष की तरफ बढ़ चले. “तो श्रीमती जी... मामले को और खोदा जाए ताकि आप उसकी तह तक पंहुच सकें” गोपेश के लहजे में, पहले वाली अकुलाहट नहीं थी वरन गंभीरता का पुट था. “नहीं गोपू...मुझे कुछ नहीं पूछना! मैं जान गयी हूँ...आप राधा पर इतने मेहरबान क्यों हैं”

“क्योंकि उसकी शक्ल मेरी स्वर्गवासी बहन से मिलती है?” गोपेश ने बीच में ही उसे टोक दिया, “नहीं निशि, बात यहीं तक नहीं है! यही एक कारण होता तो पिताजी और भैया भी उसे पसंद करते...वे लोग तो मानते हैं कि राधा अपने लालची घरवालों से मिलकर, मुझे लूट रही है. मेरी कमाई का एक- चौथाई हिस्सा, उस पर खर्च हो जाता है.”

“पर मुझे कोई आपत्ति नहीं गोपेश” “फिर भी मैं चाहता हूँ कि तुम पूरी बात जान लो” गोपेश गंभीर थे. वे अपनी ही रौ में, कहते चले गये, “ तुम्हें तो मालूम होगा, मैं राधा को पढ़ाया करता था” निशि को सहमति में सर हिलाते देखकर, वह आगे बढ़े, “शुरू शुरू राधिका को देखकर, मैं चौंक जाया करता था. मेरी कनक को तो कैंसर ने निगल लिया था लेकिन राधा को सामने पाकर, यह बात भूल जाता और उसमें कनक की छवि देखने लगता.” निशि की दृष्टि में, जिज्ञासा उतर आयी थी. कहानी आगे बढ़ी, “वह मेरे खाने पीने का ध्यान रखती. मुझे देखते ही चाय बना लाती. पढ़ाई के बाद, मेरे आराम की व्यवस्था करती. दीवान पर तकिया लगा देती...टी. वी. ऑन कर देती” कहते कहते वे रुक गए और शून्य में ताकने लगे. “आप कहते रहो...मैं सुन रही हूँ” पत्नी के निर्देश पर गोपेश थोड़ा हिचकिचाए और बोले, “यह सब बहुत स्वाभाविक था. वह कनक की हमउम्र थी. मुझसे सात- आठ साल छोटी...इसी से कुछ गलत नहीं लगा”

“तो फिर?” निशि पूछे बिना रह ना सकी. “फिर धीरे धीरे, अपने पिता दीनानाथ के सिखाने पर उसके हाव – भाव बदलने लगे. वे जानकर हम दोनों को अकेला छोड़ देते. किसी न किसी बहाने उसे मेरे साथ बाहर भेज देते...कभी उसे कॉलेज ड्राप करना होता तो कभी किसी सहेली के घर.” “आगे क्या हुआ?” रहस्य गहराता जा रहा था और निशि की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी. “ समय के साथ, भोली भाली राधा, अपने पिता के बहकावे में आ गयी जो बिना दहेज़ के ही मुझे ‘फांस’ लेना चाहते थे; मैं कनक की परछाईं उसमें देखता था, इसलिए समय रहते उसका इरादा जान न सका...उसके स्नेह- प्रदर्शन को मैं मूरख, एक बहन का प्रेम समझता रहा...दीनानाथ के निर्देश पर वह मुझे ‘दादा’(भैया) के बजाय, मास्साब कहने लगी, जो मुझे थोड़ा अटपटा जरूर लगा...” “लेकिन ये तो बहुत अजीब बात थी...” निशि बेचैन हो उठी थी. “लेकिन तब भी मेरी आँखों से भ्रम का परदा नहीं उठा”

गोपेश चुप हो गये थे. कहानी पराकाष्ठा को छूने ही वाली थी. पत्नी से उनकी यह चुप्पी सहन नहीं हुई तो वह उनके पास आकर बैठ गयी. निशि का आशय समझकर, गोपू ने मौन तोड़ दिया, “ एक दिन दीनानाथ के परिवार के साथ मैं थियेटर गया. वहां कोई रोमांटिक ड्रामा चल रहा था. राधिका को जानकर, मेरे पास बिठाया गया. कोई प्रेम – प्रसंग दिखाया जाता तो वह मेरी ओर देखती. एक बार तो हद ही हो गयी- जब हीरो ने हीरोइन के गले में बाहें डालीं...और”...”और...” “गोपेश आगे कहिये!” निशि से गोपू का संकोच सहन नहीं हो रहा था. “तब राधा मुझसे सटने लगी और मुझे उसे जोर से लताड़ना पड़ा” पति पत्नी कुछ देर, अवाक होकर बैठे रहे.

समय की नजाकत देखकर, गोपेश आगे बढ़े, “ दीनानाथ जी ने मुझ पर आरोप लगाया कि मैंने ही राधिका को बढ़ावा दिया था और उसकी मति फेर दी...मेरे पवित्र स्नेह का अर्थ, बाप – बेटी गलत लगा रहे थे. संयोग से बड़े भैया, रत्ना भौजी को लेकर, मुझसे मिलने फैजाबाद आये हुए थे. राधिका ने अपने पागलपन में, भौजी के सामने ही घोषणा कर दी, ‘मैंने पति चुन लिया तो चुन लिया’ भैया ने मुझसे साफ़- साफ़ कह दिया कि यदि मैं उस दिन दीनानाथ जी के यहाँ गया तो वे यह मान लेंगे कि राधा से विवाह करने में मेरी रूचि है. मैं मुकर गया तो राधा ने जहर खाकर जान देने की कोशिश की” “ अरे!!!...” निशि की पुतलियाँ विस्मय से फ़ैल गयीं थीं, “आगे क्या हुआ” “आगे...” गोपू मुस्कराए, “तुम्हारी तरह उसे भी कनक की तस्वीर दिखानी पड़ी!” “मैं समझ गयी गोपू” कहते हुए निशि, पति से लिपट गयी. उन्हें अब और कुछ, कहने- सुनने की आवश्यकता नहीं थी!