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ज्ञानी भिखारी


ज्ञानी भिखारी


ऋषि शौनक तथा अभिप्रत्तारी दोनों वायु देव के उपासक थे। एक दिन दोपहर को जब वह दोनों भोजन करने बैठे तो वहाँ एक ब्रह्मचारी आया और भिक्षा मागने लगा। लेकिन दोनों ऋषियों ने उसे भोजन देने से मना कर दिया। आश्रम में द्वार पर आए भिक्षुक को मना करना सही नहीं था। अतः उस भिक्षुक ने उनसे प्रश्न किया।
"आप दोनों किस देवता के उपासक हैं।"
उनमें से एक ने उत्तर दिया "हम वायु देव के उपासक हैं। वायु देव हमें जीवन शक्ति प्रदान करते हैं। इसलिए उन्हें प्राण भी कहा जाता है।"
उस भिक्षुक ने बड़े ध्यान से उत्तर को सुना। फिर कुछ सोंच कर बोला "प्राण जीवनदायनी शक्ति है। जीवन इसी से आरंभ होकर इसी में लुप्त हो जाता है।"
दोनों ऋषियों ने उसका समर्थन किया।
वह भिक्षुक आगे बोला "इस जगत में जो भी दृश्य अदृश्य है सभी में प्राण हैं।"
दोनों ऋषियों ने पुनः स्वीकृति दी।
"प्राण हर जगह व्याप्त है। सब कुछ उसी के कारण अस्तित्व में है।" भिक्षुक ने फिर प्रश्न किया।
दोनों ऋषि उसकी इस बात से बहुत प्रभावित हुए।
"वह आप दोनों में भी है।" भिक्षुक ने उनकी तरफ इंगित कर कहा।
दोनों ऋषियों ने सर हिला कर हाँ किया।
"तो फिर वह मुझमें भी समाया है। अर्थात आपके आराध्य वायु देव मेरे भीतर बैठे भूख से अकुला रहे हैं। अपने आराध्य को भूखा रख कर आप कैसे भोजन कर सकते हैं।" भिक्षुक ने अपनी बात का समापन किया।
दोनों ऋषियों को अपनी भूल समझ आ गई।
यह कथा छांदोग्य उपनिषद से ली गई है। इसका सार यही है कि हर जीवित प्राणी में ईश्वर का वास होता है। जो इस सत्य को जान लेता है वही सच्ता ज्ञानी होता है।
स्वयं भगवान श्री कृष्ण भगवद् गीता में कहते हैं

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।

"जो सर्वत्र मुझे देखता है और सभी में मुझे देखता है। मैं उससे कभी दूर नहीं रहता और ना ही वह मुझसे दूर रहता है।"
जो सब स्थानों तथा सभी प्राणियों में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करता है वही दूसरों की पीड़ा को समझ सकता है। ऐसा व्यक्ति अपने पराए, धर्म जाति तथा सामाजिक स्थिति का भेद किए बिना दूसरों की मदद कर सकता है।
दोनों ऋषियों ने उस भिक्षुक के भीतर प्राण रूप में बैठे अपने आराध्य वायु देव के दर्शन नहीं किए। अतः उन्होंने उसे भोजन कराने से मना कर दिया।
हमारे पुराणों में कई ऐसी कहानियां हैं जो हमें जीवन को सही तौर पर बिताने की शिक्षा देती हैं। जैसे कि इस कहानी का सार है कि ईश्वर का अस्तित्व केवल प्रतिमाओं में नहीं है। बल्कि ईश्वर तो मानव शरीर रूपी प्रत्येक मंदिर में विराजमान हैं।
हम अक्सर मंदिरों में जाकर अपने आराध्य देवी या देवता को भोग चढ़ाते हैं, वस्त्रादि भेंट करते हैं। लेकिन यदि कोई दरिद्र व्यक्ति सामने आ जाए तो उसे दुत्कार देते हैं। उस दरिद्र व्यक्ति के भीतर बैठे अपने आराध्य को नहीं देखते।
हम वाह्य आडंबरों को ही सब कुछ समझते हैं। अपने अपने मत व धर्म के अनुसार उनका पालन करते हैं। लेकिन कभी मूल तत्व को समझने का प्रयास नहीं करते हैं। यही हमारे दुखों का वास्तविक कारण है।
जब हम केवल बाहरी रूप देखते हैं तो हमें हर व्यक्ति पृथक प्रतीत होता है। इस अंतर के कारण ही ऊंच नीच, धर्म जाति आदि की दीवारें खड़ी होती हैं। यदि हम सभी को ईश्वर का रूप मानेंगे तो यह अंतर मिट जाएगा। तब हमें प्रत्येक नर में नारायण नज़र आएंगे।
ईश्वर ने इस प्रकृति को विविधता के रंगों से सजाया है। किंतु जैसे प्रकाश किरण ये विभिन्न रंग उत्पन्न होते हैं। किंतु सभी विभिन्न रंग श्वेत रंग में विलीन हो जाते हैं। वैसे ही प्रकृति की भिन्नता के पीछे एक ही तत्व ब्रह्म विद्यमान है। हम सबका दायित्व है कि हम विविधता में एकता के दर्शन करें। किसी धर्म या समाज विशेष के विकास के बारे में सोंचने के स्थान पर समग्र राष्ट्र के विकास के लिए एकजुट हो जाएं। राष्ट्र के विकास में ही हम सबका विकास निहित है।
विकास का अर्थ यह नहीं कि समाज का केवल एक ही हिस्सा आगे बढ़े। यदि विकास का लाभ केवल कुछ ही लोगों तक पहुँचता है तो यह सही मायनों में विकास नहीं है। जब विकास समाज के सबसे निचले स्तर तक रहने वाले लोगों तक पहुँचेगा तभी राष्ट्र मजबूत बन पाएगा।
लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि राष्ट्र की तरक्की का फायदा अभी केवल कुछ ही लोगों तक पहुँच पा रहा है। देश के कई हिस्से हैं जो आज भी पिछड़े हैं। जहाँ लोगों को पानी जैसी मूलभूत आवश्यक्ता के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। यहाँ लोग आज भी गरीबी और भूख से परेशान हैं। इसका कारण यही है कि हम समाज को विभिन्न वर्गों में बांट कर एक वर्ग विशेष की तरक्की की बात करते हैं। जबकी आवश्यक्ता है कि हम किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं बल्कि संपूर्ण मानव समाज के उत्थान के विषय में सोंचें। किंतु ऐसा हो नहीं रहा है।
इस स्थिति को बदलना बहुत आवश्यक है क्योंकी यह स्थिति समाज में असंतोष को जन्म देती है। समाज का जो वर्ग पिछड़ जाता है उसमें समय के साथ आक्रोश जन्म लेता है। इससे समाजिक संतुलन बिगड़ जाता है। समाज में अशांति फैलती है।
इस स्थिति से निपटने का उपाय ऋगवेद की ऋचा में अच्छी तरह से समझाया गया है। यदि हमें सही प्रकार से उन्नति करनी है तो हमें एक होना होगा। हम सब को एक दूसरे की उन्नति के बारे में सोंचना होगा। हम सबका उद्देश्य एक हो। समाजिक उत्थान। हम सब एक दूसरे के सुख के विषय में सोंचें।
यदि हम समग्र समाज का विकास चाहते हैं तो हमें अपने व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठ कर सोंचना होगा। वर्तमान में हमारी सोंच संकुचित होकर आत्मकेंद्रित हो गई है। हम यह सोंचते हैं कि यदि हम तरक्की कर लें तो सुखी रहेंगे। भले ही समाज के अन्य लोग पिछड़े रहें। लेकिन ऐसा सोंचना सर्वथा अनुचित है। जब तक हमारे आसपास सभी तरक्की नहीं करेंगे तब तक समाज में शांति नहीं रहेगी। समाज में अशांति हमें भी सुख से जीने नहीं देगी। अतः हमें ऋगवेद की निम्न ऋचा को अपने जीवन में उतारना चाहिए।


संगच्छध्वं , संवद्धवं संवो मनांसि जानताम , देवभागम यथापूर्वे संजानाना उपासते। ।

समानो मन्त्र: समिति: समानी
समानं मन: सहचित्तमेषाम्
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये व:
समानेन वो हविषा जुहोमि ||

समानि वा आकूति समाना हृदयनिवाः समां नमस्तुवो मनो यथावः सुसहासति। ।

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