जीवन को सफल नही सार्थक बनाये भाग - ३ Rajesh Maheshwari द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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जीवन को सफल नही सार्थक बनाये भाग - ३

20. कर्मफल

जबलपुर शहर से लगी हुई पहाडियों पर एक पुजारी जी रहते थे। एक दिन उन्हें विचार आया कि पहाडी से गिरे हुये पत्थरों को धार्मिक स्थल का रूप दे दिया जाए। इसे कार्यरूप में परिणित करने के लिये उन्होने एक पत्थर को तराश कर मूर्ति का रूप दे दिया और आसपास के गांवों में मूर्ति के स्वयं प्रकट होने का प्रचार प्रसार करवा दिया।

इससे ग्रामीण श्रद्धालुजन वहाँ पर दर्शन करने आने लगे। इस प्रकार बातों बातों में ही इसकी चर्चा शहर भर में होने लगी कि एक धार्मिक स्थान का उद्गम हुआ हैं। इस प्रकार मंदिर में दर्शन के लिये लोगों की भारी भीड़ आने लगी। वे वहाँ पर मन्नतें माँगने लगे। अब श्रद्धालुजनो द्वारा चढ़ाई गई धनराशि से पुजारी जी की तिजोरी भरने लगी और उनके कठिनाईयों के दिन समाप्त हो गये। मंदिर में लगने वाली भीड़ से आकर्षित होकर नेतागण भी वहाँ पहुँचने लगे और क्षेत्र के विकास का सपना दिखाकर अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का प्रयास करने लगे।

कुछ वर्षों बाद पुजारी जी अचानक बीमार पड़ गये। जाँच के उपरांत पता चला कि वे कैंसर जैसे घातक रोग की अंतिम अवस्था में है यह जानकर वे फूट फूट कर रोने और भगवान को उलाहना देने लगे कि हे प्रभु मुझे इतना कठोर दंड क्यों दिया जा रहा है ? मैंने तो जीवनभर आपकी सेवा की है।

उनका जीवन बड़ी पीड़ादायक स्थिति में बीत रहा था। एक रात अचानक ही उन्होनें स्वप्न में देखा की प्रभु उनसे कह रहे हैं कि तुम मुझे किस बात की उलाहना दे रहे हो ? याद करो एक बालक भूखा प्यासा मंदिर की शरण में आया था अपने उदरपूर्ति के लिये विनम्रतापूर्वक दो रोटी माँग रहा था परंतु तुमने उसकी एक ना सुनी और उसे दुत्कार कर भगा दिया। एक दिन एक वृद्ध बरसते हुये पानी में मंदिर में आश्रय पाने के लिये आया था। उसे मंदिर बंद होने का कारण बताते हुये तुमने बाहर कर दिया था। गांव के कुछ विद्यार्थीगण अपनी शाला के निर्माण के लिये दान हेतु निवेदन करने आये थे। उन्हें शासकीय योजनाओं का लाभ लेने का सुझाव देकर तुमने विदा कर दिया था। मंदिर में प्रतिदिन जो दान आता है उसे जनहित में खर्च ना करके, यह जानते हुये भी कि यह जनता का धन है तुम अपनी तिजोरी में रख लेते हो। तुमने एक विधवा महिला के अकेलेपन का फायदा उठाकर उसे अपनी इच्छापूर्ति का साधन बनाकर उसका शोषण किया और बदनामी का भय दिखाकर उसे चुप रहने पर मजबूर किया।

तुम्हारे इतने दुष्कर्मों के बाद तुम्हें मुझे उलाहना देने का क्या अधिकार है। तुम्हारे कर्म कभी धर्म प्रधान नही रहे। जीवन में हर व्यक्ति को उसका कर्मफल भोगना ही पड़ता है। इन्ही गलतियों के कारण तुम्हें इसका दंड भोगना ही पडे़गा। पुजारी जी की आँखें अचानक ही खुल गई और स्वप्न में देखे गये दृश्य मानो यथार्थ में उनकी आँखों के सामने घूमने लगे और पश्चाताप के कारण उनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी।

21. दो रास्ते

श्री रवि गुप्ता उद्योगपति होने के साथ साथ महाकौशल चेंबर आफ कामर्स के अध्यक्ष भी हैं। मैंने जब उनसे पूछा कि आपके जीवन का कोई ऐसा वृत्तांत बताए जो कि आपके जीवन में निर्णायक मोड़ के रूप में आया हो व दूसरों के लिये प्रेरणादायी भी हो तो वे बहुत गंभीर हो गये। वे बोले उनके पिताजी जो कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से स्नातक थे उन्होंने एक इंजीनियरिंग कारखाने की स्थापना की थी उसे सुचारू रूप से चलाने हेतु मुझे इंजीनियरिंग की शिक्षा दिलवायी गयी। इसके बाद उन्होंने 6 दिसंबर 1982 को घटित उस मार्मिक दुर्घटना के विषय में बताया जिसमें उनके पिताजी की मृत्यु एक बारात में हवाई फायर के दौरान गोली लग जाने से अचानक हो गई। वो अपने आदर्श एवं प्रिय पिता कि मात्र स्मृतियों को अपने दिलों में समाए असहाय से ईश्वर के इस कृत्य के साक्षी बनकर रह गये थे।

रवि ने बताया कि अब उनके जीवन में संघर्ष का वह दिन आ गया जब उन्हे यह निर्णय लेना था कि अपने पिता द्वारा निर्मित कारखाने को संभालू या पैतृक व्यवसाय जो कि उनके भाई बंधुओं की सम्मिलित भागीदारी से चल रहा था उसमें जाने का मार्ग चुनू। उनके पिताजी के संस्कारों ने यह प्रेरणा दी कि इन कठिन परिस्थितियों एवं विपरीत समय में उन्हें भाई बंधुओं का साथ देना चाहिए, यह उनका नैतिक दायित्व था और उन्होंने निर्णय ले लिया कि वे अपने पैतृक व्यवसाय को अपनाने के मार्ग पर आगे बढेंगें। इस निर्णय ने उनकी विचारधारा एवं जीवनशैली ही बदल दी।

श्री गुप्ता जी की सोच है कि जीवन सफर में कभी भी ना थकते हुए सकारात्मकता के साथ सर्वजन सुखाए सर्वजन हिताए के सिद्धांत को मानकर अपना कार्य संपादित करना चाहिए ताकि एक स्वस्थ्य समाज की चाहत पूरी हो सके।

22. गुरूदक्षिणा

आचार्य रामदेव के सान्निध्य में अनेंकों छात्र शिक्षा ग्रहण करते थे, उनमें से एक केशव अपनी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत गुरूजी के पास जाकर उन्हें गुरूदक्षिणा हेतु निवेदन करता है। गुरूजी उसकी वाणी से समझ जाते हैं कि इसे मन में अहंकार की अनूभूति हो रही है। वे गुरूदक्षिणा के लिये उसे कहते है कि तुम कोई ऐसी चीज मुझे भेंट कर दो जिसका कोई मूल्य ना हो।

केशव यह सुनकर मन ही मन प्रसन्न होता है कि गुरूजी तो बहुत ही साधारण सी भेंट मांगकर संतुष्ट हो जाऐंगे। वह जमीन से मिट्टी उठाकर सोचता है कि इसका क्या मूल्य है तभी उसे महसूस होता है कि जैसे मिट्टी कह रही है कि वह तो अमूल्य है वह अनाज की पैदावार करके भूख से संतुष्टि देती है उसके गर्भ में अनेको प्रकार के खनिज एवं अमूल्य धातुऐं छिपी है इनका दोहन करके मानव धन संपदा पाता है। ऐसा भाव आते ही केशव मिट्टी को छोड़ देता है और पास में पडें हुऐ कचरे के ढेर में से कुछ कचरा यह सोचकर उठाता है कि यह तो बेकार है इसका क्या मूल्य हो सकता है वह कचरा मानो उससे कहता है कि मुझसे ही तो खाद बनती है जो कि खेतों में पैदावार को बढाने में उपयोगी होती है।

केशव उसे भी वापिस फेंक देता है और मन ही मन सोचता है कि ऐसी कौन सी वस्तु हो सकती है जिसकी कोई उपयोगिता एवं मूल्य ना हो ? उसको कुछ भी समझ मे ना आने पर वह वापिस गुरूजी के पास जाता है और कहता है कि इस सृष्टि में बेकार कुछ भी नही है जब मिट्टी और कचरा भी काम आ जाते हैं तब बेकार की चीज़ क्या हो सकती है ?

गुरूजी ने उसे अपने पास स्नेहपूर्वक बैठाकर बताया कि अहंकार ही एक ऐसी चीज है जो व्यर्थ है और यदि इसे अपने मन से हटा दो सफलता के पथ पर स्वयं आगे बढते जाओगे। केशव स्वामी जी का भाव समझ गया और उसने मन में प्रण कर लिया कि अब वह अहंकार को त्याग कर गुरूजी के बताए मार्ग पर ही चलेगा।

23. आत्मनिर्भरता

रमेश एम बी ए की शिक्षा पूरी होने के उपरांत एक कंपनी में सेल्समेन के पद पर कार्यरत था। वह एक मध्यम परिवार से था और इस नौकरी पर ही उसका परिवार आश्रित था। उसने अपने कठिन परिश्रम, लगन एवं समर्पण से अपनी कंपनी के उत्पादन की बिक्री एक ही वर्ष में काफी बढ़ा दी थी, जिससे वह आश्वस्त था कि इससे उसे कंपनी में शीघ्र ही तरक्की प्राप्त होगी।

एक दिन उसे कंपनी के जनरल मैनेजर ने अपने पास बुलाकर उसकी तारीफ करते हुये उसके काम की प्रशंसा की और माल की बिक्री बढ़ाने के लिये उसे धन्यवाद दिया। इसके बाद वे बोले कि मुझे बहुत दुख है कि तुम्हे यह बताना पड रहा है कि मालिक के एक निकट रिश्तेदार जिन्होने हाल ही में सेल्स में एम बी ए किया है उन्हें तुम्हारे पद पर नियुक्त किया जा रहा है। हम तुम्हें एक माह का समय दे रहें हैं ताकि तुम कोई वैकल्पिक नौकरी खोज सको।

यह सुनकर रमेश के पांव तले जमीन खिसक गयी और उसने दुखी एवं निराश मन से घर जाकर अपनी माँ को यह बात बताई। उसकी माँ ने उसे समझाया कि जीवन में संकट तो आते ही रहते है। हमें उनका दृढ़ता पूर्वक मुकाबला कर चुनौती को स्वीकार करके उसके निदान की दिशा में प्रयास करना चाहिये। माँ के विचारों ने उसे इन विपरीत परिस्थितियों में भी संबल प्रदान किया। यह सुनकर रमेश ने चिंता छोड़कर इसके समाधान एवं भविष्य की कार्ययोजना पर गंभीर चिंतन, मनन प्रारंभ कर दिया।

उसके मन में विचार आया कि जब मैं कंपनी की बिक्री इतनी बढ़ा सकता हूँ तो क्यों ना मैं स्वयं ही इसी उत्पाद का छोटे रूप में निर्माण करके उसे बाजार में लेकर आ जाऊँ। रमेश इस दिशा में प्रयासरत हो गया और बैंक से कर्ज लेकर उसने उत्पादन प्रारंभ कर दिया उसे बिक्री के क्षेत्र में तो महारत हासिल थी ही और अपने संपर्कों के माध्यम से उसका पूरा उत्पादन आसानी से बाजार में बिकने लगा। अब धीरे धीरे उसने तरक्की करके उसे एक बड़ा रूप दे दिया। उसकी इस सफलता का सीधा प्रभाव उस कंपनी पर पडने लगा जहाँ वह काम करता था। वह कारखाना बिक्री कम होने के कारण घाटे में जाने लगा और एक दिन बंद हो गया।

कोई भी व्यवसाय चाटुकारों और अनुभवहीन रिश्तेदारों से नही चलाया जा सकता है। एक दिन रमेश सोच रहा था कि प्रभु की कितनी कृपा है कि उसे नौकरी से हटाया गया और उसने आत्मनिर्भर बनने के लिये स्वयं का यह काम आरंभ कर दिया। यदि उसे नौकरी से नही हटाया जाता तो उसका सारा जीवन नौकरी में ही बीत गया होता और वह जीवन में सफलता के इस मुकाम पर कभी नही पहुँच पाता। ईश्वर जो भी करता है हमारी भलाई के लिये ही करता है।

24. दस्तक

श्री रवि रंजन जी मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में एक प्रतिष्ठित अधिवक्ता के रुप में जाने जाते हैं। उनके अनुसार जीवन जीने की कला और वकालत का ज्ञान एवं साहित्यिक अभिरूचि की प्रेरणा उन्हें उनके पिता जी सुप्रसिद्ध अधिवक्ता श्री व्ही. पी. श्रीवास्तव जी से प्राप्त हुई। श्री वी.पी. श्रीवास्तव जी एक बहुत ही जीवट, दृढ़ निश्चय एवं बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। रवि रंजन ने बताया कि उन्हें आज भी अच्छे से याद है कि उनके पिताजी कहा करते थे कि यदि कोई गरीब व्यक्ति न्याय पाने की आस में हमारे आफिस में आए और यदि उसके पास फीस देने की रकम ना भी हो तो उसे कभी बाहर मत करना उसकी बात ध्यान से सुनकर जो कुछ भी मदद हो सके वह कानून के अंतर्गत जरूर कर देना चाहिए।

अब पिताजी 90 वर्ष के हो गये थे और उन्हें पेट में दर्द की शिकायत थी जिसके निवारण के लिए चिकित्सकों ने आपरेशन कराना आवश्यक बताया था। हमने जब उन्हें इस बात से अवगत कराया तो वे मुस्कुराकर अपनी सहमति देते हुए बोले:-

दाग इस बहर-ए-जहां में, किश्ति-ए-उमरे रवां।

जिस जगह पर जा लगी, वहीं किनारा हो गया।।

उनके इस व्यवहार से हम सभी को ये प्रेरणा मिली कि इतनी उम्र के बाद भी उनमें सहनशक्ति थी और जीवन जीने की अभिलाषा उनके मन में थी। वे दुर्भाग्यवश आपरेशन के उपरान्त बच नहीं सके और दीपावली के अगले दिन उन्होंने अंतिम सांस ले ली। उनका उत्साही व्यक्तित्व, जीवन भर अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित एवं पूरे परिवार को एक सूत्र में बांधने की क्षमता रखने वाले ऐसे व्यक्तित्व से जीवन जीने की कला की प्रेरणा मिलती हैं। रवि रंजन ने अपने पिताजी के निर्वाण दिवस को प्रेरणा दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया एवं उस दिन वे गरीबों को कानून संबंधी सलाह मशवरा निशुल्क देने लगे।

25. जनआकांक्षा

श्रीमती सुशीला सिंह एक कुशल गृहणी के साथ-साथ एक कुशल प्रशासक भी हैं। राजनीति में वे गहरी पैठ रखती हैं। वे पूर्व महापौर भी रह चुकी हैं।

उन्होंने राजनीति में रहते हुए भी ईमानदारी और नैतिकता से कभी समझौता नहीं किया। वे राजनीति में नीति को महत्व देती हैं। नीति विहीन राजनीति उनके स्वभाव मे नहीं है। वे राजनीति में उच्च आदर्शो की पोषक हैं। वे कहती हैं- वर्तमान में राजनीति एक व्यापार बन गयी है जिसने इसका स्वरुप विकृत कर दिया है। पहले के राजनीतिज्ञ एक प्रेरणा स्वरुप होते थे और जनता उनके पथ का अनुसरण करती थी। वे बताती हैं कि 1980 में वे बम्बई में एक समारोह में शामिल हुईं जिसकी सहभागिता ने मन में महिला सशक्तिकरण और जागरुकता के लिये काम करने की प्रेरणा जागृत की। उन्होंने संकल्प लिया कि वे जीवन पर्यन्त इसके लिये समर्पित रहेंगी। उनके जीवन पर राजमाता सिन्धिया जी की कार्यप्रणाली का बहुत जबरदस्त प्रभाव पड़ा है और वे उन्हें अपनी प्रेरणा मानती हैं।

श्रीमती सुशीला सिंह जी का मत है कि राजनीति में जो भी प्रवेश करे उसकी परिकल्पना इरादे एवं मंजिल बहुत स्पष्ट होनी चाहिए। उसे सेवा करने के लिये जनता के बीच जाना चाहिए न कि मेवा बटोरना उसका उद्देश्य हो। उनके द्वारा किये गये जनसेवा के कार्यों के लिये आज भी उन्हें याद किया जाता है। जैसे गृहनगर में फोरलेन सड़क का निर्माण, सड़कों के विस्तार हेतु धर्मस्थलों खासकर बाजारों को अतिक्रमण क्षेत्र से हटाकर बिना विवाद के उचित स्थल पर स्थानान्तरित करना जैसे महत्वपूर्ण कार्यों को सफलता पूर्वक सम्पन्न करना रहा है। इससे यह प्रेरणा मिलती है कि योग्य नेता को उसके पद से जाने के बाद भी जनता याद रखती है व उनका सम्मान करती है। श्रीमती सिंह की कर्मठता, लगनशीलता और कार्य के प्रति समर्पण मातृशक्ति के लिए प्रेरणा का प्रतीक है।

26. गुरू-शिष्य

श्री हरि भटनागर देश के सुप्रसिद्ध चित्रकार हैं। जिन्होंने एमब्रास्ड चित्रकारी में महारथ हासिल की है। वे इस क्षेत्र में देश के सर्वश्रेष्ठ चित्रकारों में से एक माने जाते हैं। श्री हरि भटनागर ने ग्वालियर के विक्टोरिया कालेज जो कि वर्तमान में महारानी लक्ष्मीबाई कालेज के नाम से जाना जाता है वहां से एम. काम. की शिक्षा पूरी की। उनकी आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत नहीं थी। इसलिये उन्होंने राजस्व विभाग में नौकरी की ताकि पढ़ाई का खर्चा निकल सके। जब वे इस कालेज में अध्ययनरत थे तभी ग्वालियर में शासकीय ललित कला एकेडमी की स्थापना हुई। श्री भटनागर की बचपन से ही पेन्टिंग के क्षेत्र में गहरी अभिरूचि थी। उन्होंने वहां से पूर्णकालिक डिग्री लेकर जे. जे. स्कूल आफ फाइन आर्ट बाम्बे और मध्यप्रदेश से संयुक्त रुप से एडवांस डिप्लोमा आफ फाइन आर्ट किया जिसमें उन्हें सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ था। उसके बाद उन्हें ग्वालियर कालेज में व्याख्याता के रुप में नियुक्त किया गया।

उन्होंने बतलाया कि ललित कला संस्थान में प्रवेश हेतु उन्हें बड़े पापड़ बेलने पड़े। वहां के तत्कालीन प्राचार्य श्री एल. एस. राजपूत ने उन्हें अयोग्य घोषित करके उनका प्रवेश पत्र रद्द कर दिया था। वे भारी मन से निराश होकर अपने घर जाने के लिये सीढ़ी से उतर रहे थे तभी श्री डी. डी. देवलारिकर जो कि उन्हें जानते थे एवं राजपूत जी के गुरू थे ने उनसे पूछा क्या बात है तो उन्होंने बताया कि मुझे प्रवेश नहीं दिया जा रहा है। यह सुनकर वे मुझे अपने साथ ऊपर ले गये और श्री राजपूत से पूछा कि इससे किस विधि में पेन्टिग बनवायी गयी है। उन्होंने कहा कि वाटर मार्क में। और जब वह बुलाकर डी. डी. देवलारिकर जी को दिखाई गई तो वे उससे काफी प्रभावित हुए। उनके निर्देशन पर राजपूत जी को पुनः विचार करके एडमीशन देना पड़ा।

श्री देवलारिकर जी को मध्यप्रदेश शासन ने छः माह के लिये इन्दौर से स्थानान्तरित करके ग्वालियर वहां की संस्थान को व्यवस्थित करने के लिये भेजा था। वे प्रसिद्ध चित्रकार थे जिन्होंने एम. एफ. हुसैन, बैंद्ले, मनोहर जोशी जैसे ख्याति प्राप्त चित्रकारों को चित्रकला की बारीकियां सिखलाईं थीं। वे पेन्टिग के क्षेत्र में मील का पत्थर माने जाते थे।

हरि भटनागर ने ललित कला संस्थान में शिक्षा लेना प्रारम्भ कर दिया किन्तु राजपूत जी मन ही मन में उनसे बहुत बैर रखते थे। एक दिन हरि भटनागर ने राजपूत जी के विषय में जानकारी प्राप्त की तो पता चला कि वे केवल दसवीं पास हैं। यह जानकर भटनागर उनके पास गये और उनसे बोले सर आप कम से कम मैट्रिक की परीक्षा तो उत्तीर्ण कर लें अन्यथा आपको रिटायरमेन्ट के बाद शासकीय सुविधाओं से वंचित होना पड़ेगा। ऐसा शासकीय नियम है। राजपूत जी ने जब पता किया तो यह जानकारी सही पायी गई और इससे उनका हृदय परिवर्तन हो गया। वे उन्हें एक दिन अपने घर ले गए, अपनी पत्नी से मिलवाया। उनकी कोई संतान नहीं थी वे हरि भटनागर को पुत्रवत स्नेह देने लगे। जब उनकी मृत्यु हुई तो मुखाग्नि हरि भटनागर ने ही दी और हरिद्वार जाकर उनका तर्पण किया। जब तक श्रीमती राजपूत रहीं हरि भटनागर प्रतिमाह उनके खर्चे के लिये रुपये भेजा करते थे। गुरु और शिष्य के बीच का ऐसा प्रेम आज दुर्लभ है और प्रेरणा का स्त्रोत है।

27. जब मैं शहंशाह बना

श्री केशव कुमार अग्रवाल जो कि चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट हैं को आज के. कुमार के नाम से जाना जाता है। उनके पिता बाबू रामकिशोर अग्रवाल ’मनोज’ एक प्रतिष्ठित व्यवसायी होने के साथ ही एक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार भी थे। राम कथा के विभिन्न पक्षों पर उनके अनेक ग्रन्थ हैं। यही कारण है कि श्री के. कुमार को साहित्य और कला के क्षेत्र में रूचि एवं परख संस्कारों में मिली है।

हर साल एक जुलाई को नगर में सी. ए. डे मनाया जाता है। एक वर्ष सी. ए. डे की तैयारी के लिये सी. ए. राकेश खण्डेलवाल उनके पास आये और उन्होंने उनसे सी. ए. डे पर शहंशाह का रोल करने का प्रस्ताव रखा। श्री के. कुमार उस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे किन्तु साथियों के दबाव में उन्हें उसे स्वीकार करना पड़ा।

कार्यक्रम के पन्द्रह दिन पहले श्री खण्डेलवाल उन्हें लेकर नगर की प्रसिद्ध दुकान पर कास्ट्यूम लेने गए किन्तु वहाँ वह उपलब्ध नहीं हो सका। बिना कास्ट्यूम के यह प्रस्तुति संभव ही नहीं थी। इसके लिये उनके पुत्र सुरेश ने अपने रंगमंच के मित्र रविन्दर सिंह ग्रोवर से संपर्क किया। जब बात नहीं बनी तो रंगमण्डल के मेक-अप मैन श्री रोहित झा को बुलवाया गया। फिर सबने शहंशाह फिल्म देखी और तैयारियां प्रारम्भ हो गईं। ग्रोवर ने अमिताभ बच्चन जैसे काले और चमकदार पैण्ट की व्यवस्था की। गमबूट के लिये सुरेश ने सामान्य बूट के ऊपर रेगजीन का खोल तैयार करवाया। श्री रोहित झा ने स्टील के जाल की जगह रस्सी का जाल बनवाकर उसे एल्युमीनियम पेण्ट करवाया तो वह बिलकुल असली जैसा दिखने लगा। श्री रोहित झा ने ही बाजार से बाल खरीदकर बालों का विग और दाढ़ी तैयार की। इस प्रकार बड़े जतन और बड़े परिश्रम से पूरा कास्ट्यूम तैयार किया गया।

मोनू ने फिल्म से डायलाग चुना।

कौन हो तुम?

रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप होते हैं - नाम है शहंशाह।

तुम शायद ये नहीं जानते कि इस शहर में एक और अफसर आया है जो पुलिस की नौकरी नहीं करता लेकिन काम पुलिस का करता है। जो कानून की नौकरी नहीं करता पर अपना कानून खुद बनाता है और उसका पहला हुक्म यह है कि उसके इलाके में जुर्म न अपने पैरों पर खड़ा हो सकेगा ना ही कोई कानून के सिर पर बैठकर नाच सकेगा। ( फिर नेपथ्य से गाना - अंधेरी रातों में ............. )

उनसे कहा गया कि वे डायलाग याद करें। लेकिन वे अमिताभ बच्चन की आवाज का प्रभाव तो नहीं ला सकते थे। इसका रास्ता यह निकाला गया कि उस डायलाग की सी. डी. तैयार करवाई गई। फिर शुरू हुआ रिहर्सल का सिलसिला। ग्रोवर आफिस के बाद आते और रिहर्सल होती। जिस दिन शो होना था उसके एक दिन पहले शहीद स्मारक के रंगमंच पर फुलड्रेस रिहर्सल की गई।

नियत तिथि पर शो हुआ। 6 बजे से 8 बजे तक मेरा मेकअप हुआ। आखिर उनका नम्बर आया। पूरे हाल की लाइट बन्द कर दी गई। वे एक झिल्ली के परदे को फाड़ते हुए मंच पर आये। दो मिनिट का शो था। जब तक चलता रहा लोग सीटियाँ और तालियाँ बजाते रहे। श्री खण्डेलवाल इतने उत्साहित थे कि शो समाप्त होते ही आये और बोले- मेकअप मत उतारना। ऐसे ही आडियन्श में जाकर बैठना है।

आज भी वह दिन मुझे याद है। अपनी सफलता से मैं किसी बच्चे के समान उत्साहित था। आज भी वह सी. डी. देखकर गर्व अनुभव करता हूँ। मैं सोच भी नहीं सकता था कि सत्तर साल की उम्र में भी कोई ऐसा काम जिसे जीवन में कभी न किया गया हो वह सफलता पूर्वक किया जा सकता है। यह सच है कि यदि हम किसी कार्य को करने का बीड़ा उठा लें, हमारे सहयोगी और मार्गदर्शक हमारे साथ हों और हम पूरे परिश्रम के साथ उसे करें तो सफलता निश्चित मिलती है। किसी भी कार्य को करने में उम्र आड़े नहीं आती।

28. मातृ देवो भव

डा. अश्विनी देशमुख नगर के युवा दन्त चिकित्सक हैं। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के मापदण्डों को ध्यान में रखते हुए अपने चिकित्सालय का निर्माण कराया है। भारत के सांस्कृतिक परिवेश से उन्हें बेहद लगाव है। सामाजिक कार्यों में वे बढ़चढ़कर भाग लेते हैं।

उस दिन देशमुख जी मरीज देखकर आई सी यू के सामने से गुजर रहे थे। आई सी यू के बाहर बनी पत्थर की लम्बी सीट पर मंजुला जी चादर बिछा रही थीं। उनके चेहरे पर गूढ़ चिन्ता थी। आँखें सजल और बोझिल थीं। डा. ने पूछा कि आप अभी तक यहीं हैं?

हाँ ! माँ की तबीयत अभी भी पूरी तरह स्थिर नहीं हुई है। आज थोड़ी बेहतर है।

तो आप यहीं इस पत्थर पर सोती हैं?

उन्होंने बड़ी सहजता से उत्तर देते हुए कहा- हाँ! भगवान की कृपा से मुझे रात को कहीं भी किसी भी स्थिति में नींद आ जाती है।

मैंने देखा- पत्थर की बेंच पर केवल चादर बिछा था। तकिया भी नहीं था। प्रतीक्षालय में ऊपर दो सीलिंग फैन चल रहे थे। अप्रेल का महीना था। दोपहर का तापमान 42 डिग्री तक हो जाता। रात को थोड़ी राहत होती थी।

आप कब से यहाँ ऐसे रह रही हैं?

तीन माह हो गए। मेरी माँ अन्दर चार नम्बर पलंग पर हैं। वे जीवन-मृत्यु से संघर्ष कर रही हैं। किडनी फेल है, प्रतिदिन डायलिसिस हो रहा है। वेन्टीलेटर पर हैं। यह तो मेरे जीवन की परीक्षा है। कर्तव्य पूरा करने का समय है।

माँ के विषय में बोलते हुए वे काफी भावुक हो चुकी थीं। जैसे स्वयं से ही कह रही थीं। डा. देशमुख के मन में एक अजीब सी सिहरन उठ रही थी। उन्होनें फिर पूछा-

यहाँ अच्छी नींद आ जाती है?

हाँ ! मैं पूरे समय यहीं रहती हूँ। सिर्फ खाना खाने, कपड़े धोने और उनके लिये सूप वगैरह बनाने जाती हूँ। लगभग दो घण्टे में काम पूरा हो जाता है। ( वे फिर खो गईं ) यही तो समय है जब मैं अपने अस्तित्व को दुनियाँ में लाने वाली माँ का कर्ज चुका सकती हूँ। कैसे भूल जाऊँ कि उसने मुझे इस दुनियाँ में लाने में असहनीय पीड़ा सही है। उसने संस्कार दिये और दुनियाँ में रहने के काबिल बनाया है।

उनकी आँखें छलक रही थीं और गला रूंध रहा था। मैं भी गंभीर था। उन्हें सान्त्वना देकर वहाँ से आगे बढ़ गया।

डा. देशमुख उस महिला के मातृप्रेम से अभिभूत हो गये उनके कानों में मंजुला के वे शब्द आज भी गूंजते हैं। उसका वह चेहरा और पत्थर की बेंच पर बिछा हुआ वह चादर आज भी उनकी आँखों में ज्यों का त्यों बसा हुआ है। लोग कहते हैं गुरू ही ब्रम्हा हैं गुरू ही विष्णु हैं और गुरू ही महेश हैं। गुरू साक्षात भगवान हैं। उस दिन मंजुला की प्रेम और सेवा भावना देखकर उनके मन में यह बात अच्छी तरह बैठ गई है कि माता-पिता का स्थान सर्वोपरि होता है। यदि वे हमें इस दुनियाँ में नहीं लाये होते तो गुरू भी नहीं मिलते, इसलिये माता-पिता का स्थान गुरू से भी श्रेष्ठ है।

29. जीवन-ज्योति

सुश्री लता गुप्ता जी मृदुभाषी, स्पष्टवक्ता, परिश्रमी व्यक्तित्व की धनी महिला हैं। ये एक सुप्रसिद्ध ब्यूटी पार्लर खूबसूरत की संस्थापक हैं। इसे उन्होंने बहुत परिश्रम एवं समर्पण के साथ बनाया है। इनके मन में बचपन से ही स्वयं कुछ करने का जुनून रहा है।

वे बतलाती हैं कि बचपन से ही उन्हें पढ़ने और एक अच्छा शिक्षक बनने की प्रबल आकांक्षा थी। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण विद्यार्थी जीवन से ही पढ़ाई के साथ साथ छोटे-मोटे काम करती थी जिससे कुछ आमदनी हो सके और पढ़ाई का खर्च चलता रहे। नगर में विश्वविद्यालय द्वारा एक अघ्ययन केन्द्र चलाया जा रहा था जहाँ पुस्तकें लेकर वहीं पढ़कर उन्हें वहीं वापिस करना पड़ता था। उस अघ्ययन केन्द्र में अध्ययन करके उन्होंने ग्रेजुएशन और फिर पोस्ट ग्रेजुएशन किया। पढ़ाई के दौरान ही वे राजस्थानी लहंगे, जूतियां, ज्वेलरी, साड़ियां आदि बेचा करती थीं। दिन-दिन भर पैदल भटकती थीं ताकि जो कमाई हो उसे जोड़ सकें। इसके बाद उन्होंने बी. एड किया। वे शिक्षिका बनने के लिये प्रयासरत रहीं। इसके लिये उन्होंने बड़े परिश्रम से प्रतियोगी परीक्षा पास की और इन्टरव्यू दिया परंतु उनका चयन नही हो सका।

इस घटना ने उनके अब तक के सारे परिश्रम पर पानी फेर दिया था। उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब वे नौकरी नहीं करेंगी बल्कि अपना स्वयं का व्यवसाय विकसित करेंगी। पढ़ाई के दौरान उन्होंने एक ब्यूटी पार्लर में भी काम किया था। उनका वह अनुभव अब काम आया।

सुश्री गुप्ता ने अपने भाइयों की सहायता से एक ब्यूटी पार्लर प्रारम्भ किया। पिछले तेरह सालों में लगन और मेहनत से काम करते हुए उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई। उन्होंने काम की गुणवत्ता से कभी कोई समझौता नहीं किया। आज उनके पार्लर का इतना विस्तार

हो गया है कि दस से भी अधिक लड़कियां उनके यहां काम करती हैं और वे भी कम पड़ती हैं। उनका सपना है कि वे एक ऐसी संस्था प्रारम्भ करें जिसमें जरुरतमंद बुजुर्गो और अनाथ बच्चों को सम्मानजनक जीवन जीने में सहायता मिले।

30. परिश्रम

सुनीता नाम की एक महिला उद्यमी थी जिसने बहुत कठिन परिश्रम कर अपने व्यवसाय को उन्न्ति के शिखर पर पहुँचाया था उसकी संस्था के द्वारा बनाए गये पापड़ देश के बाहर भी जाते थे। वह सभी के लिये एक प्रेरणा का स्त्रोत थी एवं उसका चयन स्थानीय चेंबर आफ कामर्स के द्वारा सर्वश्रेष्ठ महिला उद्यमी के पुरूस्कार हेतु किया गया था।

वह नियत तिथि पर अपना पुरूस्कार लेने पहुँची। वहाँ का पूरा सभागृह खचाखच भरा हुआ था, वह अपना नाम पुकारने पर मंच पर पुरूस्कार हेतु आगे बढ़ी परंतु अचानक उसका पैर मुड़ जाने के कारण वह मंच पर अकस्मात् ही गिर गयी। वह तुरंत ही उठकर खडी हुयी और इसके पहले वह हँसी की पात्र बनती माइक के पास पहुँच कर बोली कि मैं आयोजकों के प्रति बहुत आभारी हूँ जिन्होने मेरा चयन इस पुरूस्कार हेतु किया है, मुझसे कई लोगों ने पूछा कि मेरी प्रगति का क्या राज है ?

मैंने अभी गिरकर और उठकर सांकेतिक रूप में इस प्रश्न का जवाब देने का प्रयास किया है। मैंने जीवन में कई उतार चढ़ाव देखे हैं, और जीवन में उन्न्ति करने के लिये कई बार गिरी हूँ और वापिस उठकर और भी अधिक लगन और परिश्रम से लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ी हूँ यही मेरी सफलता का राज है। जीवन में परेशानियाँ तो आती ही हैं और हमें इनका दृढ़ता पूर्वक मुकाबला करना चाहिये एवं विचलित नही होना चाहिये। जीवन में चुनौती और संघर्ष के बिना हमारा विकास संभव नही है। उसके प्रेरक विचारों को सुनकर सारा सभागृह तालियों की गड़गड़ाहट से गुंजायमान हो उठा और उसने अपना पुरूस्कार ग्रहण किया एवं धन्यवाद देती हुयी चली गई।