जीवन को सफल नही सार्थक बनाये भाग - ४ Rajesh Maheshwari द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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जीवन को सफल नही सार्थक बनाये भाग - ४

31. जादू की यादें

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जादूगर एस. के. निगम कहते है कि जादू एक कला मिश्रित विज्ञान है। जादू में कोई अलौकिक शक्ति नहीं होती वह एक कला है। यह एक सशक्त रोजगार का साधन बन सकता है, हमारे देश को बहुमूल्य विदेशी मुद्रा दिला सकता है तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में प्रगाढ़ता ला सकता है। यह एक ऐसी कला है जिसमें लोग धर्म, जाति, भाषा, राष्ट्रीयता को भूलकर जादू को रहस्य-रोमांच की नजर से देखते हुए स्वस्थ्य मनोरंजन पाकर प्रसन्न होते हैं। श्री निगम ने अपने जीवन में जादू के प्रदर्शन के दौरान घटी कुछ रोचक एवं प्रेरणादायक घटनाओं के विषय में बताया।

वे बोले कि जब वे आस्ट्रेलिया, न्यूजिलैण्ड और फिजी के दौरे पर थे तब फिजी की राजधानी सूबा में एक गुजराती परिवार की पुत्री बोली किसी ने मेरा कमरा बांध दिया है मेरी शादी की बात जहाँ भी पक्की होती है टूट जाती है। आप जादू से ऐसा करें कि मेरी शादी तय हो जाए। वह लड़की मेरे पैर पकड़े हुए थी छोड़ने को तैयार ही नहीं थी। मुझे मजबूर होकर एक साधारण काले रंग का धागा उसके गले में बांधकर किसी प्रकार अपना पीछा छुड़ाना पड़ा।

उन्होंने बताया कि जब वे प्रशान्त महासागर के द्वीपों में अमेरिकन समुआ आइलैण्ड में वहाँ की सड़कों पर आँखों में पट्टी बांधकर गाड़ी चलाने का प्रदर्शन आयोजित किया गया। उसे देखने के लिये वहां हजार लोगों की भीड़ जमा थी। मैंने आँखों पर पट्टी बांध कर मोटर साइकिल को चालू किया तभी वहाँ की पुलिस कमिश्नर ने आकर पूछा- श्रीमान जी अपना इन्टरनेशनल ड्राइविंग लायसेन्स बताइये अन्यथा मैं आपको गिरफ्तार कर सकता हूँ। मैं अजीब स्थिति में फंस गया। मेरे पास अंतर्राष्ट्रीय लायसेन्स नहीं था। यदि मैं प्रदर्शन को रद्द करता तो न केवल मेरी बल्कि भारत देश की मेरे कारण हंसी होती। मेरे कारण देश का नाम खराब हो यह मैं सहन नही कर सकता था। मैं मोटर साइकिल छोड़कर साइकिल पर सवार हो गया और आँखों पर पट्टी बांधकर पांच किलोमीटर का सफर पूरा किया। इससे मेरा प्रदर्शन सफलता पूर्वक सम्पन्न हुआ और वहां के कानून की अवहेलना भी नहीं हुई। दूसरे दिन वहां के सभी दैनिक अखबारों ने मुख्य पृष्ठ पर इस खबर को छापा।

32. करूणा

श्रीमती गीता शरत तिवारी एक कर्मठ, व्यवहारिक एवं कुशल प्रशासक हैं। उन्होंने 1985 में घटित घटना के विषय में बहुत भावुक होकर बताया कि करूणा नाम की एक पढ़ी लिखी संपन्न परिवार की लड़की का विवाह स्वाजातीय लड़के से हुआ था। लड़की के माता पिता ने अपनी हैसियत से भी ज्यादा दहेज दिया था व उन्हें पूरी आशा थी कि उनकी बच्ची करूणा आजीवन सुखी व प्रसन्न रहेगी। उसके विवाह के कुछ समय पश्चात ही करूणा को पता हुआ कि उसके पति का किसी दूसरी लड़की के साथ प्रेम संबंध हैं व इसकी जानकारी लड़के के माता पिता को भी थी परंतु फिर भी उन्होंने यह बात छिपा कर उसका विवाह कर दिया। अब ससुराल में सबका व्यवहार करूणा के प्रति बहुत खराब होकर उसे अप्रत्याशित प्रताड़ना देना, दुर्व्यवहार करना हो गया। करूणा कुछ दिनों तक तो यह सब सहती रही परंतु जब वेदना असहनीय हो गई तो उसने यह बात अपने माता पिता को बताई। वे यह सुनकर भौचक्के रह गये और उनके दिमाग में गीता तिवारी का ध्यान आया कि वह इस मामले उनकी जरूर मदद करेंगी।

गीता जी ने बताया कि जब वे सब बातों से वाकिफ हुयी तब इस निष्कर्ष पर पहुँची कि करूणा के मामले में समझौता संभव नही है। इसका हल केवल संबंध विच्छेद ही है और वे इस दिशा में कार्यरत हो गयी। गीता जी के पिताजी और करूणा के ससुर आपस में अच्छे दोस्त थे इसका लाभ उठाकर दोनो पक्षों में आपस में सहमति बनाकर संबंध विच्छेद कर दिया गया।

करूणा का विवाह गीता जी के सहयोग से एक दूसरे परिवार में वापिस किया गया जहाँ पर आज भी वह बहुत खुशी से रह रही है। इस प्रकार का पहला मामला श्रीमती गीता तिवारी के जीवन में आया था। इससे शिक्षा लेकर उन्होंने 1986 में अखिल भारतीय महिला परिषद के अंतर्गत प्रयास परिवार परामर्श केंद्र की स्थापना की ताकि महिलाओं को उत्पीड़न से बचाकर समय पर कानूनी कार्यवाही की जा सकें। इसी की तर्ज पर कुछ वर्षों बाद 1992 में पुलिस परिवार परामर्श केंद्र प्रारंभ हुआ। इन परामर्श केंद्रो से समाज काफी लाभांवित है एवं महिलाओं के उत्पीड़न के मामले में भी कमी आयी है।

33. योजना

मानसी मेहनती, बुद्धिमान एवं अपने कार्य के प्रति समर्पित महिला थी। वह कम्प्यूटर में डिप्लोमा लेकर एक कम्प्यूटर कंपनी में कार्यरत थी। उसने कड़ी मेहनत करके उस कंपनी के कम्प्यूटरों की बिक्री एक वर्ष में ही दुगुनी कर दी थी। उसके स्वभाव में एक बहुत बड़ी कमजोरी थी कि वह बहुत जल्दी क्रोधित हो जाती थी और ऐसे समय में स्वयं पर नियंत्रण खोकर अपने उच्चाधिकारियों से भी असभ्यता से पेश आती थी। उसके इस स्वभाव के कारण अधिकारियों की स्थिति बड़ी अजीब होकर उन्हें नीचा देखना पड़ता था। मानसी मन में आश्वस्त थी कि उसे सेल्स मेनेजर का पद उसकी मेहनत और कार्यक्षमता को देखते हुए मिल जाएगा। जब पदोन्नति का अवसर आया तो उच्चाधिकारियों ने उसके क्रोधी स्वभाव की आदत के कारण उसकी जगह किसी दूसरे को सेल्स मेनेजर का पद दे दिया।

यह बात पता होते ही मानसी गुस्से से तमतमा उठी और उसने अपने बास के केबिन में जाकर उनसे इसका कारण पूछा ? बास ने कहा कि तुम्हारे क्रोधी स्वभाव की वजह से तुम्हारी पदोन्नति नही हो सकी अतः तुम अपने स्वभाव में परिवर्तन करो। मैं तुम्हें आश्वस्त करता हूँ कि अगले वर्ष तुम्हें अवश्य पदोन्न्ति मिलेगी। यह सुनकर मानसी ने कहा कि वह एक साल तक इंतजार नही कर सकती और गुस्से में तमतमाते हुए उसने अपना इस्तीफा दे दिया। उसके कुछ दिनो बाद एक दूसरी प्रतिद्वंदी कम्प्यूटर कंपनी ने उसे अपने यहाँ सेल्स मेनेजर के पद पर नियुक्त कर दिया। मानसी मेधावी तो थी ही उसने कुछ ही महीनों में इस कंपनी की बिक्री बढ़ाकर अपने उच्चाधिकारियों को संतुष्ट कर दिया। इसका सीधा प्रभाव उस कंपनी पर पड़ा जहाँ वह पहले कार्य करती थी और उस कंपनी के घाटे में जाने की संभावना के कारण उसके मालिकों ने उसे बेचने का निर्णय ले लिया।

एक दिन मानसी घर पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रही थी कि वह पुरानी कंपनी को खरीदने का सुझाव अपने मालिकों को दे दे। उसके मन में दूसरा विचार यह भी आ रहा था कि उसके संपर्क विक्रय विभाग में कार्य करने के कारण बाजार में सभी से बन गये हैं तो वह स्वयं ही बैंक से लोन लेकर कंपनी का अधिग्रहण कर ले। वह आवश्यक पूंजी जुटाकर कंपनी का अधिग्रहण करके मालिक बन जाती है। इतने गरिमापूर्ण पद पर आने पर वह अपने स्वभाव में पूर्णतः तब्दीली लाकर व्यवहारिक दृष्टिकोण अपना लेती है।

वह अपनी कड़ी मेहनत, ईमानदारी एवं स्पर्धा में कम कीमत रखने के कारण पूरे बाजार में छा जाती है। एक दिन ऐसा समय भी आ जाता है कि दूसरी कम्प्यूटर कंपनी को भी वह खरीद लेती है। वह धीरे धीरे उन्नति करते हुए कम्प्यूटर्स के उत्पादन के क्षेत्र में सर्वोच्च ऊँचाई पर पहुँच जाती है। उसके जीवन की यह संघर्ष गाथा यह बताती है कि महिलाएँ भी किसी भी क्षेत्र में पुरूषों से कमजोर नही है। वे परिश्रम से स्वावलंबी बनकर प्रेरणास्त्रोत बन सकती हैं।

34. उदारता

डा. विष्णु अग्निहोत्री राष्ट्रीय स्तर के एक अच्छे चित्रकार हैं। उन्होंने नाइफ के काम में मियामी विश्वविद्यालय अमेरिका से शिक्षा प्राप्त की है। बचपन से ही उन्हें चित्रकारी का शौक था और सीमित आर्थिक संसाधनों से जो भी संभव था उससे अपनी पेन्टिंग बनाया करते थे। उनकी बहुत इच्छा थी कि वे विदेशो में अपनी कला का प्रदर्शन करें। इसके लिये वे धन संग्रह करते रहते थे। उनके जीवन की सारी कठिनाइयों के बाद भी उनकी लगन और परिश्रम ने उन्हें वह सब दिया जो वे चाहते थे।

यह बात उन दिनों की है जब वे अपनी पेंटिंग्स के कारण चर्चित और स्थापित हो चुके थे। एक बार उन्हें एक सरकारी प्रस्ताव मिला जिसमें उनकी पेंटिंग्स की बिक्री की जाना थी और उससे प्राप्त होने वाली आय को अंध-मूक-बधिर बच्चों के लिये दिया जाना था। आयोजन अच्छी तरह सफल रहा। उनकी पेंटिंग्स अच्छे दामों में गईं और प्राप्त राशि को अंध-मूक-बधिर बच्चों के लिये दे दिया गया। उस आयोजन और उसके उद्देश्य से वे इतने प्रभावित हुए कि तब से लेकर अब तक वे अपनी पेंटिंग्स से होने वाली आय में से खर्च काटकर प्राप्त समस्त राषि को अंध-मूक-बधिर बच्चों के लिये दे दिया करते हैं। एक आयोजन ने उनके जीवन में एक ऐसा परिवर्तन कर दिया जो उन्हें आत्म संतोष और मानसिक शान्ति प्रदान करता है। वे कहते हैं कि हम सोचते बहुत कुछ हैं किन्तु करने वाला ईश्वर ही होता है। वह हमसे जब और जो कराना चाहता है हम वही करते हैं।

35. कर्तव्य

श्री इन्द्र प्रकाश अग्रवाल एक व्यापारी हैं। उनकी युवावस्था में एक दिन उनका पूरा परिवार जिसमें उनकी माँ और तीनों भाई शामिल थे, रामगंगा नदी बरेली में नहाने गये थे। वे स्नान करके एक टीले पर बैठे थे और ठण्डी हवा के झोकों का आनन्द ले रहे थे। अचानक ही उन्होंने देखा कि उनका छोटा भाई पानी के बहाव में अपना संतुलन खोकर नदी में बहने लगा है। यह देखकर बिना समय गवांए टीले से कूदकर वे उसे बचाने के लिये तैरते हुए उसके पास पहुँचे। अनुभवहीनता के कारण उसके द्वारा उन्हें पकड़ लेने से वे भी नदी में डूबने लगे। उनकी माँ और उनके भाई डर के मारे चीख रहे थे और उन्हें बचाने की गुहार लगा रहे थे।

ईश्वर की लीला निराली होती है। नदी में एक मल्लाह कुछ दूरी पर ही अपनी नाव में बैठा था। जैसे ही उसका ध्यान उनकी ओर गया वह बड़ी तत्परता के साथ नाव लेकर उन्हें बचाने तेजी से उनके पास पहुँच गया। उसके सहयोग से दोनों भाई नाव पर आ गये। उनके प्राणों की रक्षा हो चुकी थी।

तट पर आने के बाद परिवार के सभी लोग उस मल्लाह का आभार मान रहे थे। उनकी माँ की आँखें खुशी से छलक रहीं थीं। उन्होंने उस मल्लाह को इस कार्य के लिये पुरूस्कृत करने का प्रयास किया। मल्लाह ने विनम्रता के साथ कहा- मुझे जो भी देना है वह रामगंगा मैया दे देंगी। मैंने तो अपना फर्ज पूरा किया है। यह कहते हुए उसने कोई पुरूस्कार स्वीकार नहीं किया और वापिस अपनी नाव को लेकर आँखों से ओझल हो गया।

आज इन्द्र प्रकाश जी व्यापार से भी निवृत्त होकर आध्यात्मिक जीवन बिता रहे हैं और उनका वह छोटा भाई वेटेनरी डाक्टर के रूप में अपनी सेवाएं मोतीबाग वेटेनरी हास्पिटल दिल्ली को देने के बाद सेवानिवृत्त हो चुका है किंतु वह आज भी उस मल्लाह के स्वाभिमानी शब्दों एवं कर्तव्य परायणता को जीवन की प्रेरणा मानते हैं।

36. संतोष

प्रहलाद अग्रवाल एक व्यवसायी हैं। कुछ साल पहले वे मकराना राजस्थान अपने भतीजे संजय अग्रवाल के साथ संगमरमर खरीदने के लिये गये थे। वहाँ पर संगमरमर पसंद करने के बाद उसका भुगतान करके एक ट्रक में लदवा रहे थे। उसी समय ट्रक ड्राइवर और लदान करने वाले एक मजदूर के बीच झगड़ा हो गया। बात इतनी बढ़ गई कि उस ड्राइवर ने ट्रक में रखे सब्बल को निकाल लिया और क्रोध में आकर वह उस सब्बल को उस मजदूर के सिर पर मारने के लिये आगे बढ़ा। उसे बढ़ता देखकर उस समय अचानक उनकी कैसी मति हो गई कि उन्होंनें उस मजदूर के सिर को दूसरी ओर खींच लिया। इस प्रयास में उसकी वह सब्बल उनके हाथों को घायल करती हुई निकल गई। तब तक आसपास के लोग भी बीच बचाव करने आगे आ चुके थे। उन्हें शान्त करने के बाद लोग प्रहलाद को सीधे अस्पताल ले गये।

कलाई के पास और अंगुलियों की हड्डियां टूट चुकी थीं। चोट घातक थी। प्लास्टर बाँध दिया गया। पूरी तरह स्वस्थ्य होने में दो माह से भी अधिक का समय लगा। एक ओर तो चोट की पीड़ा थी किन्तु दूसरी ओर यह संतोष था कि उनके प्रयास ने एक जान की रक्षा कर ली। चोट तो कुछ समय में ही ठीक हो गई और सारी पीड़ा समाप्त हो गई किन्तु वह संतोष आज भी अनुभव होता है।

37. सफलता के सोपान

राजीव गौतम एक प्रसिद्ध व्यवसायी हैं। उन्होंने कड़ी मेहनत और लगन से अपने व्यापार को फर्श से अर्श तक पहुँचाया। उनके परिवार की पृष्ठभूमि व्यवसायिक नहीं थी, किन्तु वे इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिये कृत संकल्पित थे। उनके पिता एक राष्ट्रीयकृत बैंक में उच्चाधिकारी थे। उन्होंने यह जानकर कि राजीव की इच्छा व्यापार करने की है उन्हें अपने मित्र श्री एस. पी. धीर से मिलवाया जो कि आगरा के एक प्रसिद्ध व्यवसायी थे। उन्होंने अपने व्यापार को बढ़ाने के दृष्टिकोण से कोको कोला कंपनी के उत्पादनों के वितरण का नया काम आरंभ किया जिसमें उन्होंने राजीव को अपना बीस प्रतिशत का भागीदार बनाया और व्यापार सीखने में भी मदद दी। राजीव ने सुबह 6 बजे से रात के बारह बजे तक कड़ी मेहनत करके उनके व्यापार को कई गुना बढ़ा दिया। श्री धीर ने कार्य के प्रति उनकी निष्ठा, समर्पण और लगन को देखते हुए उनकी भागीदारी बीस प्रतिशत से बढ़ाकर चालीस प्रतिशत कर दी। उन्होंने लगभग चार वर्ष तक यह कार्य किया तभी केन्द्र में सत्ता परिवर्तन हो जाने के कारण राष्ट्रीय नीति के अंतर्गत कोकाकोला के प्लांट को बन्द करा दिया गया।

अब राजीव नये व्यापार की तलाश में जुट गये। उसी समय उनका एक मित्र आगरा में एचएमटी टैक्टर का वितरक था तथा वह अच्छा लाभ भी कमा रहा था। उसने इन्हें सुझाव दिया कि जबलपुर संभाग में अभी कोई एचएमटी का वितरक नहीं है। यदि तुम प्रयास करो तो वहाँ के वितरक बन सकते हो। उसके परामर्श पर इन्होंने एचएमटी की डीलरशिप ले ली और जबलपुर आ गये। उस समय इनके पास कुल जमा पूँजी अठहत्तर हजार रूपये ही थी। इनके ससुर ने भी इनकी मदद की और बैंक से साढ़े तीन लाख का कर्ज अपनी गारण्टी पर दिलवा दिया। इन्होंने जबलपुर आकर अपना आफिस खोला और पाँच सौ रूपये प्रतिमाह के किराये पर दो दुकाने लेकर कम्पनी से सात टैक्टर शोरूम में रखकर उनकी बिक्री के लिये प्रयासरत हो गए।

राजीव को उस समय गहरा सदमा लगा कि टैक्टर खरीदना तो दूर कोई उसकी जानकारी लेने तक नहीं आ रहा था। उन्हें अब अपनी पूरी रकम डूबती नजर आ रही थी क्योंकि यहाँ के किसान पुराने ढर्रे पर चल रहे थे। वे मशीनों के माध्यम से उन्नत खेती करने के इच्छुक नहीं थे। इस पूरे संभाग में एचएमटी टैक्टर का नाम भी कोई नहीं जानता था। इस विपरीत परिस्थिति को चुनौती के रुप में स्वीकार करते हुए दिन-रात परिश्रम करके मोटर साइकिल से नरसिंहपुर, दमोह, सागर मण्डला और कटनी तक के ग्रामीण क्षेत्रों में ठण्ड, गर्मी व बरसात की परवाह न करते हुए जाकर किसानों को समझाकर उन्होंने अपने व्यापार को बढ़ाया तथा पहले ही वर्ष में सत्तर टैक्टर बेचकर अपनी पूंजी को दुगना कर लिया। इस उपलब्धि को देखते हुए कम्पनी ने उन्हें पुरूस्कृत करते हुए प्रदेश के दूसरे संभागों का वितरण भी सौंप दिया। उन्होंने बारह वर्षों तक इस कार्य को संभाला। इसके बाद तो इस व्यापार में उनकी तूती बोलने लगी। उन्होंने 1983 में बजाज टेम्पो लिमिटेड के उत्पादनों की डीलरशिप ले ली। इसके बाद 1986 में मारूती कार का जबलपुर सागर और रीवा संभाग का तथा 1993 में इन्दौर संभाग का वितरण लेकर तेइस वर्षों तक उसका कुशल संचालन किया। वे मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े डीलर के रूप में जाने जाते रहे।

वे कहते हैं कि ईश्वर पर अटूट विश्वास, कड़ी मेहनत, लगन और अपने ग्राहक की संतुष्टि को प्राथमिकता देकर ही किसी भी व्यापार में सफल हुआ जा सकता है। हमारे मन में सफलता प्राप्त करने की दृढ़ इच्छा शक्ति और आत्म विश्वास भी होना चाहिए। जीवन में आने वाले संघर्षों से विचलित हुए बिना कार्य करते रहना चाहिए।

38. जनसेवा

रामप्रसाद तिवारी नाम के एक ठेकेदार जिनका काम ट्यूबवेल के बोर की खुदाई का था अपने नेत्रहीन होने के बावजूद भी सुचारू रूप से कर लेते थे। उन्हें एक विलक्षण प्रतिभा प्राप्त थी कि वे मिट्टी को चखकर उसके प्रकार कि वह काली मिट्टी है या पीली पथरीली है या मुरम, कड़क है या खोखली आदि बता देते थे। वे इसके साथ साथ कौन सी मिट्टी कितने फीट गहराई तक है इसे भी लगभग सही बता देते थे। उनकी इस प्रतिभा के देखकर सभी आश्चर्यचकित रह जाते थे। उनके नेत्रहीन होने के कारण उनको कोई खुदाई के संबंध में बेवकूफ नही बना सकता था।

वे बहुत दयालु एवं वक्त पड़ने पर मददगार स्वभाव के व्यक्तित्व के धनी थे। एक बार गलती से 12 इंच के बोर में लगभग दस फीट गहराई पर एक छोटा बच्चा गिरकर अंदर चला गया। वहाँ पर इस दुर्घटना से हाहाकार मच गया और पुलिस भी आ गई। रामप्रसाद को जैसे ही यह सूचना प्राप्त हुई वे अपने बच्चे को लेकर दुर्घटना स्थल पर पहुँचे और वहाँ खड़ी भारी भीड़ को एवं गिरे हुए बच्चे के माता पिता को बोले की आप लोग शांति रखिए। इतना कहकर उन्होने अपने बच्चे के पांव में रस्सी बाँधी और उसको उलटा लटकाकर नीचे गहरे गड्ढे में उतार दिया। उस बच्चे ने गिरे हुए बच्चे का हाथ पकड लिया एवं रस्सी को ऊपर खींचने का इशारा कर दिया। इस प्रकार दोनो बच्चे सुरक्षित ऊपर आ गये। उस बच्चे के माता पिता की खुशी का कोई अंत नही था, वे बारंबार तिवारी जी का धन्यवाद दे रहे थे। आज भी उनकी जनसेवा को लोग याद करते हैं। उन्होने अपने जीवन में नेत्रहीनता को अभिशाप नही समझा और आत्मबल एवं आत्मसम्मान के माध्यम से स्वरोजगार को अपनाते हुए अपना जीवन सुख पूर्वक व्यतीत किया।

39. स्मृति गंगा

मैं आज अपने अतीत की ओर देख रहा था जब मैं कक्षा ग्यारहवीं उत्तीर्ण करके महाविद्यालय में प्रवेश लेने वाला था। हमारी शाला की परंपरा के अनुसार प्रधानाचार्य महोदय ने शाला छोड़ने से पहले विदाई समारोह में अपना प्रेरक उद्बोधन देते हुए कहा कि तुम सभी की हायर सेकेंड्री तक की शिक्षा पूरी हो चुकी है। मैं तुम सभी के उज्जवल भविष्य एवं सफल जीवन की कामना करता हूँ। इस शाला से विदा होने के पूर्व मैं तुम सभी को कुछ व्यवहारिक बातें बताना चाहता हूँ जो कि संभवतः तुम्हारे जीवन में सहायक होंगी।

जीवन में समझदार व्यक्ति कठिन परिस्थितियों में भी अपने प्रतिद्वंदी की गतिविधियों से ही उसके आगे की कार्ययोजना को भांपकर अपने को सुरक्षित कर लेता है परंतु मूर्ख व्यक्ति सबकुछ जानकर भी नही संभलता और तिरस्कार का पात्र बनता है।

ज्ञान एक ऐसी दिव्य ज्योति है जिसके बिना जीवन अपूर्ण है। इस ज्योति का प्रकाश कभी समाप्त नही होता। ज्ञान अनंत है जितना आपकी क्षमता हो आप उतना प्राप्त करके जीवन में आगे बढ़ सकते हैं।

कोई व्यक्ति दीन हीन एवं गरीब हो उसे तुम उसकी गलती पर डाँटकर अपनी बात कह सकते हो परंतु उसका अपमान कभी मत करना अन्यथा वह जीवन पर्यंत तुमसे बदला लेने का प्रयास करता रहेगा।

जीवन में एक साथ कई कामों को करने का प्रयास नही करना चाहिये। इससे हमारी ऊर्जा बंट जाती है और समय की कमी के कारण इन सभी के साथ न्याय नही कर पाते हैं। इसलिये यह आवश्यक है कि मनन, मंथन करके एक या दो काम हाथ में लेकर उनके प्रति समर्पित होकर पूरी एकाग्रता के साथ संपन्न करों ताकि उसमें सफल हो सको। यदि आपको किसी काम में सफलता मिलने की उम्मीद नही है तो जिद करके समय नष्ट ना करें अपना रास्ता बदलकर किसी दूसरे काम की ओर अपने को मोड ले।

हमें बातें कम और काम ज्यादा पर ध्यान देना चाहिये। समाज में बड़बोले का मान सम्मान नही होता जो सकारात्मक सृजन करके समाज को नयी दिशा देता है उसे जीवन पर्यंत मान सम्मान के साथ याद रखा जाता है। समाज में जो व्यक्ति सफल होता है उसकी वाह वाही होती है परंतु असफल व्यक्ति का कोई इतिहास नही रहता।

जीवन में प्रतिष्ठा बहुत बड़ी पूंजी होती है इसे हर हाल में सहेज कर रखिये। जीवन में कभी ऐसा कोई काम ना करें जिससे की मान सम्मान और प्रतिष्ठा पर आंच आये। ये कई वर्षों की मेहनत का प्रतिफल होता है जिसे मिटाने में कुछ मिनिट का ही समय लगता है। जीवन में यदि आपको कभी कर्ज लेना पड़े तो उसे समय पर चुकता करने का ध्यान रखिये।

जीवन में ईमानदारी और नैतिकता के पथ पर चलें आप ध्यान रखियेगा कि ईमानदारी से कमाया गया दस रूपया बेईमानी से कमाये गये सौ रूपये से भी ज्यादा मूल्यवान होता है।

आप जीवन के किसी भी क्षेत्र में चाहे वह व्यापार हो या नौकरी अपने प्रतिद्वंदी से सावधान रहिये। यदि वह किसी प्रकार से आपको नीचा दिखाने के लिये प्रयास करता है तो आप इसका माकूल जवाब देकर उसे अधमरा मत छोडना। उसके दुर्भावना पूर्ण विचारों को पूर्ण रूप से खत्म कर देना ताकि वह वापिस तुम पर वार कभी ना कर सके।

इतना कहकर प्रधानाचार्य श्री एस.पी निगम ने अपनी बात समाप्त की। उस दिन प्राचार्य जी भावनाओं से भरे दिखाई दे रहे थे। वे बोल रहे थे और हम मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे। उनके वचन आज भी हमारे कानों में गूंजते हैं और हमारा पथ प्रदर्शन करते हैं।

40. गुरूता

प्रोफेसर एस. पी. दुबे दर्शन शास्त्र के प्रकाण्ड पंडित थे। मैंगलोर का एक शोध छात्र विद्यालंकार आयंगर उनके पास मार्गदर्षन हेतु आता था। वह उनके प्रति बहुत समर्पित, आज्ञाकारी तथा सेवाभावी था। प्रोफेसर दुबे भी उसके व्यवहार से प्रभावित थे और उसे पुत्रवत स्नेह करते थे। एक बार वह मैंगलोर वापिस जाते समय अपने गुरू प्रो. दुबे से यह आष्वासन लेता है कि उसके विवाह के लिये लड़की वे ही पसंद करेंगे। उसके माता-पिता पुराने विचारों के हैं और उन्हें समझाने का कार्य वे ही कर सकते हैं।

कुछ दिनों बाद ही प्रो. दुबे को मैंगलोर के विष्वविद्यालय से ’’ वर्तमान पृष्ठभूमि में दर्शन शास्त्र की महत्ता’’ विषय पर आख्यान देने के लिये आमंत्रण प्राप्त हुआ। उसी समय विद्यालंकार का आग्रह भी उन्हें प्राप्त होता है जिसमें उसने एक रिश्ते के संबंध में चर्चा की थी। प्रो. दुबे के स्वास्थ्य के कारण घर के सदस्य नहीं चाहते थे कि वे इतनी लम्बी यात्रा करें किन्तु वे यह कहते हुए वहाँ जाने का निश्चय करते हैं कि उन्होंने विद्यालंकार को आश्वस्त किया था कि कितनी भी विपरीत परिस्थितियाँ हों वे एक बार अवश्य वहाँ पहुँचेंगे।

नियत तिथि को जब वे जबलपुर हवाई अड्डे से मुंबई के लिये रवाना हुये तो मौसम की विपरीत परिस्थितियो के कारण अत्यंत कठिनाईयों में वे ऐसे समय पर मैंगलोर पहुँचे जब उनके व्याख्यान को कुछ ही समय शेष रह गया था।

पहुँचते ही वे शीघ्रता से तैयार हुए और कार्यक्रम में उपस्थित हो गए। उनका उद्बोधन अत्यन्त प्रेरक रहा। उन्होंने वहाँ दर्शन शास्त्र विभाग की भावी योजनाओं हेतु अपनी ओर से एक लाख रूपयों का चैक आयोजकों को समर्पित किया। इसका परिणाम यह हुआ कि उस योजना के लिये वहाँ लगभग पच्चीस लाख रूपये संग्रहित हो गए। इसके लिये आयोजकों ने तथा विष्वविद्यालय ने दुबे जी को अत्यन्त आत्मीय आभार व्यक्त किया।

इसके बाद विद्यालंकार ने उन्हे उस लड़की से मिलवाया जिससे वह विवाह करना चाहता था किन्तु उसके विजातीय होने के कारण उसके माता-पिता इस संबंध के लिये तैयार नहीं हो रहे थे। प्रो. दुबे ने विद्यालंकार के माता-पिता से भेंट की और उन्हें उस संबंध के लिये सहमत कर लिया। विद्यालंकार के माता पिता प्रो. दुबे की समझाइश से संतुष्ट हो गये उन्होंने यह शर्त रखी कि बेटा आपको बहुत मानता है अतः यह आपकी उपस्थिति में शीघ्र ही सम्पन्न हो तो अति उत्तम रहेगा। यह विवाह शीघ्र ही संपन्न कराया गया एवं प्रो. दुबे ने वर वधु को सफल एवं सुखी जीवन का आषीर्वाद दिया। विद्यालंकार एवं उसकी पत्नी ने गुरू के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा कि हमारे जीवन में यह अविस्मरणीय क्षण है कि हमारे नवजीवन की शुरूआत आपके आशीर्वाद से हो रही है। आज दुबे जी हमारे बीच में नही हैं परंतु आज भी गुरू-षिष्य संबंधों और उनके बीच की आत्मीयता के संदर्भ में उनके जानने वाले इस घटना का उल्लेख करते हैं।