मुखौटे Vinita Shukla द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मुखौटे

मुखौटे

-विनीता शुक्ला

पार्टी शबाब पर थी. मीनाक्षी दीवान मुस्कराकर उसकी तरफ बढ़ीं. हाथ में थामा हुआ वाइन- ग्लास, दिखाते हुए उन्होंने कहा, “मिसेज कोशी...व्हाट इज दिस ब्रांड? लुक्स इंटरेस्टिंग!”

“ओह मीनाजी, दिस इस नोन एज़ सेंग्रिया”

“रेसेम्बल्स विद ब्लड...”

“जी हाँ!! इसमें रेड वाइन को ब्लेंड किया है...यू नो विद ऑरेंज जूस.”

“आई सी...तभी तो ऐसा कलर आया है...एंड द अदर मॉकटेल? आई थिंक उसमें लाइम जूस और मिंट मिलाया गया है” “आपका आईडिया बिलकुल सही है मीनाजी...एंड देट इज़ मॉगरीटो” कहते हुए यामिनी की नज़र, मांजी के पोट्रेट से जा टकराई. मांजी की आँखें बहुत जीवंत लग रही थीं लेकिन ना जाने ऐसा क्यों लगा कि उनमें उलाहना छलक रहा था. इस विचार से, उसकी आत्मा काँप गयी! भीतर उमड़ आये विक्षोभ को, सहेज ही रही थी कि नीना दिखाई पड़ी. “और सुनाओ बेटा...क्या कर रही हो आजकल?” यामिनी ने नीना से पूछा. “ग्रूमिंग क्लास चला रही हूँ आंटी”

“ओह देट इज़ ग्रेट...गुड गोइंग...कीप इट अप!” यामिनी चहककर बोली, लेकिन उसके भीतर कुछ बुझ सा गया. जब कुछ कर दिखाने की उमर थी तो वह ब्यूटिशियन का कोर्स कर रही थी, टेबल अरेंजमेंट सीख रही थी...कॉन्टिनेंटल डिशेज़ के नाम का रट्टा लगा रही थी...छुरी कांटे और चॉप- स्टिक्स से खाने का अभ्यास कर रही थी. अंग्रेजी में पर्सनल ग्रूमिंग कहिये या विशुद्ध हिंदी में व्यक्तित्व अलंकरण- मिलाजुलाकर यह वजूद पर मुलम्मा चढ़ाने का काम करता है. आत्मविश्वास बढ़ाने के गुर हों याकि सामने वाले को प्रभावित करने वाली ‘बॉडी लैंग्वेज’, या फिर अंगरेजी में ‘गिटर- पिटर’- इस अवधारणा की ही उपज हैं! इंसानों को ‘प्रोडक्ट’ बनाने वाला बाजार, नित नए हथकंडे अपनाता हुआ, खूब फल- फूल रहा है.

यामिनी की उड़ती हुई नज़र अपने पति सुदेश पर पड़ी. सुदेश को अपना बनाने के लिए, उसे ऐसे ही तमाम हथकंडे अपनाने पड़े थे. वे मल्टीनेशनल कम्पनी में नियुक्त, फाइव- फिगर सैलरी पाने वाले, आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी जो थे. उन सा सुपात्र भला कौन होता?? लेकिन देसी रंग- ढंग छोड़कर, मॉडर्न नाजोअंदाज में ढल पाना, आसान कहाँ था! क्या क्या पापड़ नहीं बेले!! भजन और गजल को साधना छोड़, मैडोना, माइकल जैक्सन और पिंक- फ्लॉयड म्यूजिक अलबमों की बारीकियां समझनी पडीं...लोकनृत्यों का जादू बिसारकर, डिस्को और सालसा के वीडियो खंगालने पड़े...चर्चित विदेशी फिल्मों और पुस्तकों की समीक्षा, कड़वी घुट्टी की तरह हलक से उतारनी पड़ी...मैनीक्योर, पैडीक्योर, फेशियल, ब्लश, ऑय- लाइनर जैसे शब्द, शब्दावली में जोड़ने पड़े. समय के साथ ना चल पाने वालों को बैकवर्ड और गंवार समझा जाता है.

आज मांजी की पुण्यतिथि पर, दारू- पार्टी थ्रो करना कितना सही था?? यामिनी के संस्कार उसे कचोटते हैं. लेकिन परवाह किसे है?! सुदेश में माँ का अंश है, जब उन्हें ही खयाल न हो तो कोई क्या करे? वह तो स्त्री है, चाहकर भी कुछ बदल नहीं सकती; समय की धारा के संग, बह जाना उसकी नियति है!! ”मॉम देखो तो कौन आया है” बेटी शोभना की आवाज़ से चिंतन- धारा टूटी. अर्जन शोभना के साथ ही खड़ा था. उसने लपककर यामिनी के पैर छू लिए और ना चाहते हुए भी वह गदगद हो गयी. लड़का बहुत भला है, संस्कारी भी; लेकिन उसके गंवारू तौर- तरीके, खलते हैं. शोभना का दिल, इस देहाती अर्जन में अटक गया है. बेवकूफ लड़की! आधुनिक सुख- सुविधाओं और चमक- दमक की दुनियां से निकलकर, देहात की पिछड़ी हुई दुनियां में, भविष्य खोजती है. काश कि अर्जन का ही कायापलट हो पाए; ताकि वह शोभना के संसार में रम सके. किन्तु अर्जन, यामिनी की तरह स्त्री नहीं है; अपने अनगढ़ व्यक्तित्व को तराशने देगा??

“हाय यामी” यामिनी को उसके प्यार के नाम से, भला कौन बुला रहा था?! उसने मुड़कर देखा तो रिया के दीदार हुए. ‘टोड’ जैसी मुस्कान सजाये और विशालकाय देह डुलाती हुई, वह उसी की तरफ बढ़ी चली आ रही थी. रिया को वहां पाकर, सुदेश की भी बांछें खिल उठी थीं. मशहूर आर्किटेक्ट रिया, उनकी चहेती दोस्त थी. दोनों की दादियाँ, बचपन की सहेलियां थीं. दादियों ने सुदेश और रिया की जोड़ी में, अपनी दोस्ती का भविष्य पाया था. लेकिन सब कुछ मनमुताबिक नहीं होता. सुदेश ने स्वयं यामी को बताया था, “मेरा विवाह रिया से होना था...लेकिन वह बड़ी होकर, भारीभरकम मेढकी जैसी दिखने लगी...” रिया के जोरदार ‘हग’ के साथ, यामिनी होश में आई. उसने भी प्यार से, रिया के गाल थपथपाए. इसके पहले कि वे आपस में कुछ कहे सुनें, सुदेश रिया को खींच ले गए और किटी पार्टी की सखियाँ यामिनी को. डिस्को जॉकी के साथ, बेमन से उसने कुछ स्टेप्स किये. स्टार्टर्स का दौर शुरू हो गया था- नमकीन काजू और कबाब, साथ में चीज़ कॉर्न बॉल्स. यामी ने अपने लिए सॉफ्ट ड्रिंक आर्डर किया तो लतिका जी से रहा नहीं गया, “हैंगओवर का डर, तुम्हें कबसे होने लग गया डिअर? तुम तो बिंदास पी लिया करती थीं?”

इस टिप्पणी से अन्य महिलाओं का ध्यान भी, यामिनी की तरफ गया; किन्तु उसने बात को हंसकर टाल दिया... दिल उचाट हुआ जा रहा था. वह चौंकी जब “हाई हनी...व्हाट्स अप “ कहते हुए प्रिया नारायण ने उसके हाथ थाम लिए और जब तक वह कोई प्रतिक्रिया देती, उसके गालों पर चुम्बन अंकित कर दिये. यामी को झुरझुरी सी हुई. वाशरूम जाकर, गाल धो लेने का मन किया. यह हाई -प्रोफाइल महिला, अपनी हालिया पोजीशन तक कैसे पंहुची- सब जानते हैं! रिवीलिंग पोशाक में इतराती फिरती है...बॉस को ‘ख़ास ढंग’ से ओबलाइज करने में, इसे कोई गुरेज नहीं!! आज के समय में सब पैसा और स्टेटस देखते हैं, आचरण कोई नहीं देखता; तभी तो ऐसी औरतें भी सम्मान पाती हैं. कैसा विरोधाभास है...मध्यम वर्ग की प्रिया, ब्याह के लिए, अपनी प्रदर्शनी करते करते थक गयी. पैसा और शोहरत देने वाला, कोई सजीला राजकुमार नहीं आया...और तब उसकी महत्वाकांक्षा ने ‘शॉर्टकट’ ढूंढ निकाला... सहसा रिया के जोश भरे स्वर ने, यामी की सोच पर लगाम कस दी. शोभना रिया को, अर्जन से मिला रही थी और इस सबके बीच सुदेश, मंद मंद मुस्करा रहे थे.

विचारों की भग्न कड़ियाँ, स्वतः ही जुड़ गईं. अर्जन लतिका जी के उन सम्बन्धियों में था, जिनकी पृष्ठभूमि को लेकर; वह उन्हें ‘अछूत’ मानती रहीं. वे नातेदार, जो आज के ‘सूडो कल्चर’ का हिस्सा नहीं थे...जिन्हें मॉडर्न सोसाइटी में, उठने बैठने की तमीज नहीं थी. अपने पोतों के लिए, वे बड़े गर्व से बतातीं, “भई हमारे सोनू – मोनू तो हिन्दी जानते ही नहीं. वे बस इंग्लिश में ही बोल- बतिया सकते हैं.” उन्हें कौन समझाए कि उनके बच्चे बुआ, चाची, काका और ताऊ जैसे शब्दों का अर्थ भी नहीं समझते; उनकी जीवन- शैली ने, रिश्तों की तमाम राहें बाधित कर दी हैं! अर्जन भी लतिका जी की ‘गुड बुक्स’ में नहीं था. इस गंवई को, उन्हें मजबूरी में झेलना पड़ रहा था. गाँव से कसबे के बोर्डिंग स्कूल, स्कूल से दिल्ली के कॉलेज और पत्रकारिता संस्थान तक, अर्जन अपनी धरती से दूर निकल आया था. अंग्रेजी भी भोजपुरी एक्सेंट में बोलता. सुनकर वितृष्णा सी होती. लतिका जी भी क्या करें?! सगी जेठानी का भतीजा था, एकदम कन्नी तो काट नहीं सकतीं! यामिनी की बिल्डिंग में रहने के कारण, लतिका का उससे सम्पर्क रहता.

उनका बेटा देवेन्द्र, विख्यात सर्जन है. इस मुकाम तक पहुँचने में, देवेन्द्र को ससुराल से सहयोग मिला. चिकित्सा की भारीभरकम डिग्री और नवीन उपकरणों से लैस क्लीनिक, ‘आर्थिक योगदान’ के बगैर संभव ना होता. लतिका जी के जलवे निराले थे. घर में टेबल लैंप से लेकर, पियानो तक- कितने ही आइटम विलायती थे. जब देखो, फॉरेन ट्रिप प्लान कर लेतीं. ब्रांडेड ज्वेलरी, कपड़ों और एक्सेसरीज के गिर्द, उनकी दुनियां घूमती थी. जाने- अनजाने, अर्जन और शोभना को मिलवाने में, वे हेतु बन गईं. दरअसल शोभना को एम. ए. फाइनल के प्रोजेक्ट में मदद चाहिये थी. वह सामाजिक- विज्ञान की परियोजना, ग्रामीण परिवेश पर केन्द्रित थी. ग्राम्य- जगत के बारे में, अर्जन से बेहतर कौन बतला सकता था?! शोभना उसके ज्ञान और प्रतिभा पर मुग्ध हो गयी. सुदेश भी उससे ख़ासा इम्प्रेस्ड थे; कह रहे थे, “बहुत टैलेंटेड बच्चा है भई. टॉप मीडिया चैनल्स ने जॉब ऑफर किये हैं...हाँ अंग्रेजी का लहजा थोड़ा सही नहीं है...लेकिन जल्द ही सीख लेगा” अर्जन भी पढ़ाई के प्रति, शोभना की लगन और परिश्रम से प्रभावित था. कुल मिलाकर, ऐसी खिचड़ी पकी जो यामिनी से हजम नहीं हो पा रही थी!

पति का झुकाव, अर्जन की तरफ क्यों था; यह वह खूब समझती थी. उनका विवाह अपनी ‘चाइल्डहुड स्वीटहार्ट’ से नहीं हो सका... वे चाहते थे कि बिटिया उनकी तरह, सपनों से समझौता ना करे. रिया को लेकर, सुदेश अक्सर पसेसिव हो जाते हैं. अपनी इस बालसखी को वे मानते बहुत हैं... एक जैसे सामाजिक स्तर, पारिवारिक प्रतिष्ठा और आर्थिक परिस्थितियों ने, उन्हें एक जैसे जीवन – मूल्य और दृष्टिकोण दिए. विदेशों में पढ़ाई और उच्च शैक्षणिक योग्यता ने, दोनों के वजूद में, ख़ासी चमक पैदा कर दी थी; कितना कुछ मिलता जुलता था... अद्भुत तालमेल था उनके बीच! सही मायनों में सुदेश को ऐसी ही जीवनसंगिनी चाहिए थी. किन्तु क्या यामी किसी से कम थी?? अभिभावकों से वैसा ही प्रोत्साहन और आर्थिक मजबूती मिली होती तो वह भी जीवन में कुछ बन सकती थी! किन्तु निम्न मध्यम वर्ग के माता- पिता तो केवल ब्याह कर, कन्या को निपटाना जानते हैं. विवाह से ऐश्वर्य और सुविधाएँ अवश्य मिलीं; लेकिन उसकी हैसियत महज शो- पीस जितनी है. जो मान सुदेश रिया को देते हैं, क्या वह कभी पत्नी को दे सकेंगे... शायद नहीं! यामिनी के बाह्य सौन्दर्य ने उन्हें बांधा था, उसके आंतरिक गुणों को वे जानते ही कब थे?!

हठात ही यामी, अतीत में विचरने लगी. हाँ...उसकी भी किसी ने कद्र की थी ...बहुत कद्र की थी! यादों के कैनवास पर कोई चेहरा उभर आया उससे एक साल सीनियर निमिष, साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में, सहभागी थे. कॉलेज में रंगारंग कार्यक्रमों के संचालन के लिए, उन दोनों को अवश्य बुलाया जाता. वाद विवाद प्रतियोगिताओं में, वे एक- दूसरे को टक्कर देते. निमिष विशेष तौर पर, उसकी तर्कशक्ति और गायकी के प्रशंसक थे. समूह- नृत्य में, जब सिनेमेटिक डांस होता तो यामिनी से सुझाव लिए जाते. शास्त्रीय गायन तो उसने बाकायदा सीखा जबकि लोकनृत्य बुआ से, थाती में मिला था. अध्ययन और कला-साधना के संग, दिन मानों पखेरू हो गए ... समय का घट, तेजी से रीत रहा था. धीरे- धीरे निमिष की दृष्टि में, आमंत्रण झलकने लगा, जिसे देखकर वह विचलित हो उठती लेकिन प्रकट में अनजान बनी रहती. निमिष के परिवार में छोटा- मोटा बिजनेस था लेकिन उन सबका दिल बहुत बड़ा था. यामी कभी- कभार वहां जाती रहती और जब भी जाती, आत्मीयता की फुहारों से सराबोर होकर लौटती.

“कम ऑन डिअर.. हमें इनवाईट किया और अब पूछ तक नहीं रही!” यामिनी मानों नींद से जागी. यह मरिया थी, साथ में पुछल्ले की तरह रीमा भी. रीमा, मरिया के बॉस की बीबी है. उसे ‘एंटरटेन’ करना मरिया के अघोषित कर्तव्यों में से है- शौपिंग और सिनेमा से लेकर, सोशल गेदरिंग तक...हर जगह, उसे कंपनी देना. यामिनी उकताने लगी. हाई सोसाइटी में हर किसी ने मुखौटा पहन रखा है...बनावटी हंसी, औपचारिक अभिवादन और दिखावटी शालीनता. इन आडम्बरों में पड़कर, उसे लगने लगा है कि उसका खुद का चेहरा बदल गया! मरिया और रीमा की मिजाजपुरसी करते हुए, उसकी चोर निगाह, एक बार फिर अर्जन पर पड़ी. कितनी मासूमियत थी इस युवक में... दुनियां की उलझी रवायतें, इसके सरल स्वभाव को उलझा न सकीं. घर के हालात भी कुछ अलग से थे. अर्जन के संयुक्त परिवार ने, अपने खेतों की देखभाल के लिए, उसके पिता को गाँव भेज दिया. माँ और छोटे भाई के साथ, उसे भी वहां शिफ्ट करना पड़ा.

एक दूसरी वजह से भी बेचैन है यामिनी. आज सुदेश उसे, अर्जन के घरवालों से मिलवाने वाले हैं. कैसे भी करके, उसे उनका विवाह – प्रस्ताव ठुकराना है. शोभना बिटिया उस घर में कैसे निभा सकेगी?? मीठे जल की मछली, भला खारे पानी में रह सकती है?! यह सम्बन्ध भी उतना ही अव्यवहारिक है. चिंतन के इस बिंदु पर, ना जाने क्यों, निमिष याद आए. उनका भी प्रस्ताव तो ठुकराया गया था! उनके प्रति अनाम आकर्षण को, वह भुला नहीं पाई ...उन्हें सामने पाकर, सर्वांग पुलक उठता! पर तभी जीवन में सुदेश का प्रवेश हुआ. सुदेश की हर बात निराली थी!! उस भव्य व्यक्तित्व की चकाचौंध से, यामी की आँखें चुंधियाने लगीं. चचेरे भैया सूरज के विवाह में, उसे ठुमकते देखकर, सुदेश मोहित हो गए थे. यामिनी के समक्ष, नये भविष्य का द्वार खुल गया. सब कुछ परीकथा सा था... सपनों का महल, धन- दौलत, ऐशोआराम और बढ़ता हुआ सामाजिक कद. उस लोभ में पड़कर, निमिष का जादू , बिखर जाना ही था! सुदेश से लगन तय होने के बाद, निमिष का रिश्ता भी आया; लेकिन तब तक देर हो चुकी थी!!

आज भी कुछ ऐसा ही मंजर है. आज भी किसी को ‘मिसफिट’ करार दिया जाएगा- वह युवक जो शोभना को परमप्रिय है...ग्रामीण क्षेत्रों में रिपोर्टिंग का संकल्प ले चुका है...जो शहरी विलासिता में खप नहीं सकता! यामिनी ने चारों तरफ देखा; चेहरे ही चेहरे थे- मुखौटे ही मुखौटे; समाज में अपना सम्पर्क साधते हुए! प्रभावशाली लोगों से जितना अधिक सम्पर्क होगा, व्यक्तिगत साख उतनी ही अधिक बढ़ेगी. और अर्जन?? इम्पोर्टेड कपड़ों और परफ्यूमस का रुआब... हाई हील पर नटिनी की तरह कमर नचातीं बालाओं का रुआब... कलफ लगे, चमकदार कपड़ों में सजे हुए वेटरों का रुआब- इन सबके आगे, अर्जन कहाँ टिक पायेगा. आम आदमी की औकात, संभ्रांत वर्ग से होड़ लेने लायक नहीं! झूठ का ज़माना है. झूठी आन बान और शान के लिए, दुनियां मरती है. मुखौटों के भीतर फरेब छुपा है और फरेब में नश्वर सुखों की मरीचिका. “यामिनी इनसे मिलो- ये हैं अर्जन के पिता...” सुदेश अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाए, जब यामी ने पलटकर देखा. उसे अपनी आँखों पर विश्वास ना हुआ, दिल धक से रह गया था! यह तो निमिष थे...यकीनन निमिष ही थे; कनपटी पर सफ़ेद हो आये, माथे पर कुछ उड़े उड़े से बाल, मुख पर उभर आयीं समय की बारीक रेखाएं! चश्मे के मोटे लेंस को, भेदती हुई सी दृष्टि... किसी चक्रवात सी उसे निगलने को आतुर!! सुदेश बहुत कुछ बोलते रहे पर ना तो यामी ने सुना और न निमिष ने. “ तो क्या विचार है आगे...” वार्तालाप के अंत में, जब सुदेश ने पूछा; यामिनी के मुंह से बोल न फूटा, वह ‘ना’ नहीं कर पाई. बिना कोई देर किये, सुदेश ने शोभना और अर्जन को बुलाया. दोनों का हाथ थामे, वे माइक की ओर बढ़ चले थे, उनकी सगाई की घोषणा करने. यामिनी स्तंभित सी खड़ी थी. मुखौटों की चमक अब, फीकी लगने लगी थी...अब तो चहुँ ओर, एक ही रंग छा रहा था - विस्मय का रंग!!!