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प्रोत्साहन एक शक्ति

प्रोत्साहन एक शक्ति

शब्दों में बहुत शक्ति होती है। उनका प्रयोग बहुत सोंच समझ कर करना चाहिए। शब्द बाण की तरह होते हैं जो लक्ष्य को भेदते हैं। किसी को कहे गए कड़वे तथा अपमान जनक शब्द उस व्यक्ति को दुख पहुँचाते हैं। जबकी मधुर तथा सम्मान में कहे गए शब्द सुनने वाले व्यक्ति को प्रसन्न कर देते हैं। अतः शब्दों की ताकत को ध्यान में रखते हुए हमें उनका इस्तेमाल इस तरह करना चाहिए कि वह लोगों पर सकारात्मक प्रभाव छोड़ें।

अच्छे प्रेरणादाई शब्द हमें नई स्फूर्ति व ऊर्जा प्रदान करते हैं। हमें जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। प्रोत्साहन में चमत्कारिक शक्ति होती है। इसके बल पर व्यक्ति कई बार मुश्किल से मुश्किल काम भी कर जाता है।

प्रोत्साहन से आशय किसी व्यक्ति को इस प्रकार से प्रेरित करना होता है कि वह अपने भीतर की छिपी हुई प्रतिभा को पहचान कर उसे निखारने की दिशा में अपना कदम बढ़ा सके।

हम सभी के भीतर किसी ना किसी तरह की प्रतिभा होती है। किंतु कई बार हम उसे यही प्रकार से पहचान नहीं पाते हैं। हम अपनी उस प्रतिभा पर भरोसा नहीं कर पाते हैं। उस समय आवश्यक्ता होती है एक ऐसे व्यक्ति की जो हमें हमारी क्षमता का ज्ञान करा सके।

“हर किसी की जिंदगी में, कभी न कभी ऐसा समय आता है, जब हमारे अन्दर की आग बुझ जाती है। फिर अचानक ऐसा होता है कि एक दूसरे इंसान के संपर्क में आकर यह ज्वाला के रूप में फूट पड़ती है। हम सभी को उन लोगों के प्रति शुक्रगुजार होना चाहिये जो हमारी आंतरिक अग्नि को पुनः प्रज्वलित करते हैं।”

– अल्बर्ट श्वीजेर

प्रोत्साहन की शक्ति को महावीर हनुमान की कथा से अच्छी तरह समझा जा सकता है।

जब रावण सीता जी का हरण कर उन्हें लंका ले गया तब भगवान राम बहुत दुखी हुए। वह सीता जी को खोजते हुए किशकिंधा नरेश सुग्रीव से मिले। सुग्रीव के भाई बालि ने छल से उनका राज्य हड़प लिया था। भगवान राम ने सुग्रीव को उसका राज्य वापस दिलाने में सहायता की। सुग्रीव ने भगवान राम को सीता जी की खोज में सहायता का वचन दिया।

अपने वचन के अनुसार सुग्रीव ने अंगद तथा महावीर हनुमान की अगुवाई में वानरों का एक दल भेजा। कई दिनों तक सीता जी की खोज के बाद उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। इस बात से दल के सभी लोग बहुत दुखी थे।

अपने खोजी अभियान में चलते हुए वानर दल दक्षिणी छोर पर स्थित समुद्री किनारे पर आ पहुँचा। वहाँ वह आपस में सीता जी के विषय में बात कर रहे थे। अपनी बातचीत में उन्होंने जटायु का नाम लिया। जब रावण सीता जी का हरण कर ले जा रहा था तब जटायु ने रावण से उनकी रक्षा करने का प्रयास किया था। किंतु सफल नहीं हो सका। अपनी मृत्यु से पहले उसने यह बात सीता की खोज में भटकते भगवान राम को बता दी।

वानर दल की बात वहाँ पड़े गिद्ध संपाती ने सुन ली। वह जटायु का बड़ा भाई था। वृत्तासुर-वध के उपरांत अत्यधिक गर्व हो जाने के कारण दोनों भाई आकाश में उड़कर सूर्य की ओर चले। उन दोनों का उद्देश्य सूर्य का विंध्याचल तक पीछा करना था। सूर्य के ताप से जटायु के पंख जलने लगे तो संपाती ने उसे अपने पंखों से छिपा लिया। अत: जटायु तो बच गया किंतु संपाती के पर जल गये और उड़ने की शक्ति समाप्त हो गयी। वह विंध्य पर्वत पर जा गिरा।

संपाती उड़ नहीं सकता था। किंतु महामुनि निशाकर के प्रताप से उसके पास दूर तक देख सकने की शक्ति थी। उसने वानर दल को आश्वासन दिया कि वह अपनी इस शक्ति का प्रयोग कर सीता जी का पता लगाने में उनकी सहायता करेगा। सभी वानर खुश हो गए। संपाती ने अपनी शक्ति का प्रयोग कर देखा कि सीता जी लंका में रावण की अशोक वाटिका में हैं। सीता जी की सूचना पाकर वानरों में उत्साह की लहर दौड़ गई।

किंतु यह खुशी कुछ ही समय में चिंता में बदल गई। लंका तक पहुँचने के लिए विशाल सागर को पार करना था। समस्या यह थी कि कौन यह कठिन कार्य कर पाएगा। सभी निराश व उदास बैठे इसी विषय में सोंच रहे थे।

महावीर हनुमान भी इसी बात से चिंतित थे कि अब यह मुश्किल काम कैसे होगा। क्या यहाँ से निराश होकर ही लौटना पड़ेगा। वानर दल में रीक्ष राज जांबवन भी थे। उन्हें महावीर हनुमान की शक्ति का ज्ञान था। वह जानते थे कि हनुमान इस समय अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं। अतः उन्हें ही महावीर हनुमान को प्रोत्साहन देना होगा।

जांबवन महावीर हनुमान के पास जाकर बोले।

"हे पवन पुत्र तुम इस तरह निराश क्यों बैठे हो ? उठो और इस विशाल सागर को लांघ जाओ।"

महावीर हनुमान आश्चर्य से उनकी तरफ देख रहे थे। जांबवन ने उन्हें प्रोत्साहित करते हुए कहा।

"हे केसरी नंदन तुम ही हो जिसमें इस विशाल सागर को पार कर सकने की शक्ति है। तुम महावीर हो। भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ के समान उड़ कर तुम इस विशाल जलराशि को पार कर सकते हो।"

जांबवन के इन शब्दों ने महावीर हनुमान पर असर करना शुरू कर दिया। जांबवन ने आगे कहा।

"हे वीर तुम तो अतुलित बल के स्वामी हो। बुद्धिमान हो। अपनी शक्ति को पहचानो और अपने निश्चय को मज़बूत करो। तुम्हारी शक्ति के आगे यह विशाल सागर किसी छोटे से तालाब से अधिक नहीं है। आवश्यक्ता है दृढ़ संकल्प की।"

जांबवन महावीर हनुमान के भीतर की शक्ति से उन्हें मिलाना चाहते थे। बचपन में महावीर हनुमान बहुत उत्पाती थे। एक ऋषि ने उन्हें श्राप दिया था कि वह जिन शक्तियों के कारण उत्पात करते हैं उन्हें भूल जाएंगे। जांबवन अब उन्हें उस विस्मृत शक्ति को याद दिलाने का प्रयास कर रहे थे।

"हे अंजनि पुत्र उस समय को याद करो जब तुम बालक थे। आकाश में उगते लाल सूर्य को फल जान कर तुम उसे खाने के लिए मचल उठे। तुमने ठान लिया कि तुम यह फल खाकर ही रहोगे। अपनी इच्छाशक्ति से तुम उड़ कर आकाश में गए और उसे निगल लिया। आज भी उसी तरह ठान लो कि तुम इस विशाल सागर को पार करोगे। उठो और अपने लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ो।"

जांबवन के प्रोत्साहित करने वाले शब्दों ने महावीर हनुमान को उनके भीतर छिपी उस शक्ति से परिचित करा दिया। शक्ति व स्फूर्ति से भरे हनुमान महेंद्र पर्वत पर चढ़ गए। उन्होंने भगवान राम का जयघोष किया और एक ज़ोरदार छलांग लगाई। विशाल सागर को पार कर वह लंका पहुँचे और सीता जी से भेंट कर उन्हें भगवान राम का समाचार सुनाया।

तो देखा आपने प्रोत्साहन में कितनी शक्ति होती है। हमें सदा प्रोत्साहित करने वाले शब्द कहने चाहिए। खास कर बच्चों को सदैव ही प्रोत्साहन देना चाहिए। यदि वह गल्तियां करें तो भी उन्हें प्यार से उनके बारे में बताते हुए कहना चाहिए कि इन्हें सुधार लो पर तुमने अच्छी कोशिश की है। ताकि वह निराश ना हों। बल्कि उत्साह के साथ आगे बढ़ सकें।

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