साधना का जादू Archana Singh द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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साधना का जादू

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साधना का जादू

मानव जीवन में संगीत का खास महत्तव होता है, इससे जीवन में रस उत्पन्न होता है। संगीत कुदरत में व्याप्त है बस आवश्यकता है उसे परखने व निखारने की। प्रकृति की गोद में बैठकर हम ऐसा अनुभव कर सकते हैं। अगर देखा जाए तो 1947 के दौरान भी गीत-संगीत के माध्यम से लोगों में देशभक्ति भाव ,जोश व चेतना जागृत किया गया था। बहती नदी में, पर्वत के झरनों में, पशु-पक्षियों में, पल्लवों व पुष्पों में भी संगीत है। ईश्वर का लाख-लाख धन्यवाद है कि संगीत की कोई जाति या धर्म नहीं है। संगीत सभी मज़हबों में मुहब्बत बिखेरता है-दुनिया रहे या ना रहे, कुदरत में संगीत का स्वर गूॅंजता ही रहेगा। जैसा कि आज भी ‘ मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा ’संगीत लोगों को कर्णप्रिय है व दूरदर्शन पर देखने को मिल ही जाता है। आज के दौर में संगीत की चर्चा पं0 भीमसेन जोशी के बिना अधूरी है।
हमारे देश में कई ऐसे महान कलाकार हुए जिन्होंने देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपनी पहचान बनाई। साथ ही साथ उन्हें भारत रत्न, पद्म विभूषण जैसे अन्य कई सम्मान से भी नवाज़ा गया। उनमें से ही एक नाम श्री भीमसेन जोशी जी का भी है, जिन्हें 1972 में पद्म श्री, 1985 में ’पद्म भूषण’, 1999‘पद्म विभूषण’, 2009 में ‘भारत रत्न’अवार्ड व ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड’से भी सम्मानित किया गया था। भारतीय संगीत के क्षेत्र में इससे पहले एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी, उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान, पंडित रविशंकर और लता मंगेशकर को ’भारत रत्न’ से सम्मानित किया जा चुका है। उनकी योग्यता का आधार उनकी महान संगीत साधना है।
भीमसेन जोशी जी का जन्म कर्नाटक के ’गड़ग’ में 4 फ़रवरी, 1922 ई.को हुआ था। उनके पिता ’गुरुराज जोशी’ स्थानीय हाई स्कूल के हेडमास्टर थे, साथ ही वे कन्नड़, अंग्रेज़ी और संस्कृत के विद्वान भी थे। उनके चाचा जी.बी जोशी चर्चित नाटककार थे तथा उन्होंने धारवाड़ की मनोहर ग्रन्थमाला को प्रोत्साहित किया था। उनके दादा प्रसिद्ध कीर्तनकार थे। पंडित भीमसेन जोशी किराना घराने के महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय गायक थे। उन्होंने 19 साल की उम्र से ही गायन शुरू किया था और सात दशकों तक शास्त्रीय गायन करते रहे। भीमसेन जोशी ने कर्नाटक को गौरवान्वित किया है। देश-विदेश में लोकप्रिय हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के महान गायकों में उनकी गिनती होती थी। अपने एकल गायन से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में नए युग का सूत्रपात करने वाले पंडित भीमसेन जोशी कला और संस्कृति की दुनिया के छठे व्यक्ति थे, जिन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ’भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया था। ‘किराना घराने’ के भीमसेन गुरुराज जोशी ने गायकी के अपने विभिन्न तरीकों से एक अद्भुत गायन की रचना की।
पंडित भीमसेन जोशी को बचपन से ही संगीत का बेहद शौक था। बचपन से ही भीमसेन में संगीत के प्रति प्रेम और रूचि थी और इसके साथ ही संगीत के वाद्य जैसे हार्मोनियम और तानपुरा बजाना भी उन्हें काफी पसंद था। वे दिन-रात संगीत का अभ्यास करते रहते और कभी-कभी तो अभ्यास करते-करते ही उन्हें नींद लग जाती। इससे उनके पिता काफी परेशान रहते और एक बार तो उन्होंने उनकी शर्ट पर भी लिख दिया था की, “यह शिक्षक जोशी का बेटा है।” उनकी यह योजना सफल साबित हुई इससे जब भी भीमसेन कही सो जाते तो लोग उन्हें जोशी के घर ले जाते।
उनके बाल्यावस्था से जुड़ी एक और रोचक कहानी धारवाड़ जिले के रोन की है. कर्नाटक में एक छोटी सी जगह। एक बच्चा रोज स्कूल से आने में देर करता था, पिता गुरुराज को फिक्र होती थी। उन्होंने कई बार पूछा किन्तु बच्चे ने टाल दिया। पिता चिंतित थे कि कहीं बेटा गलत संगत में तो नहीं पड़ गया। एक दिन वो बाजार कुछ सामान खरीदने गए। बाजार में ग्रामोफोन की एक दुकान थी। गुरुराज जी सामने से निकले, तो दुकानदार ने उन्हें बुलाया और कहा कि मास्टर जी, आपका बेटा बहुत अच्छा गाता है। गुरुराज जी ज़रा चौंके,.दुकानदार ने उनसे कहा कि अरे आपको नहीं पता कि आपका बेटा गाता है? गुरुराज जी को समझ नहीं आया कि दुकानदार क्या कह रहा है. उन्होंने पूछा कि तुमने मेरे बेटे को गाते हुए कब सुना? दुकानदार ने बताया कि स्कूल बंद होते ही वो दुकान पर आकर बैठ जाता है। मैं उसके लिए एक रिकॉर्ड बजा देता हूं. वो एक रिकॉर्ड कई बार सुन चुका है। उसे सब रट गया है,वो अब ठीक वैसे ही गाता है, जैसे रिकॉर्ड में गाया गया है। यह पहला मौका था जब गुरुराज जोशी को पता चला कि उनका बेटा भीमसेन गाता है. भीमसेन यानि भीमसेन जोशी, जिनके सुर का चढ़ाव आकाश छूता था।
यह बात उन दिनों की है जब उनके सिर पर संगीत सीखने का जुनून सवार था, वह किराना घराने के संस्थापक अब्दुल करीम खान से बहुत प्रभावित थे। 1932 में वे गुरु की तलाश में घर से निकल पड़े जबकि उन्हें गंतव्य का पता तक न था। पास में पर्याप्त पैसे भी नहीं थे। उन्हें नौकर का काम तक करना पड़ा, जीवन सफ़र इतना सरल भी नहीं जीतना कि हम मानव समझने की भूल करते हैं। कभी कबार वे भूल से गलत ट्ेन में बिना टिकट के भी बैठ जाते किन्तु फिर भी प्रयास नहीं छोड़े। टी.टी. को राग भैरव में ’जागो मोहन प्यारे’ और ’कौन-कौन गुन गावे’ सुनाकर मुग्ध कर दिया। साथ के यात्रियों पर भी उनके गायन का जादू चल निकला। सहयात्रियों ने रास्ते में खिलाया- पिलाया। अंततः वह बीजापुर पहुँच गये। गलियों में गा-गाकर और लोगों के घरों के बाहर रात गुज़ार कर दो हफ़्ते बीताए । एक संगीत प्रेमी ने सलाह दी, ‘संगीत सीखना हो तो ग्वालियर जाओ।’
अगले दो वर्षो तक वे बीजापुर, पूणे और ग्वालियर में रहे। उन्होंने ग्वालियर के उस्ताद हाफिज अली खान से भी संगीत की शिक्षा ली, लेकिन अब्दुल करीम खान के शिष्य पंडित रामभाऊ कुंडालकर से उन्होने शास्त्रीय संगीत की शुरूआती शिक्षा ली। घर वापसी से पहले वे कलकत्ता और पंजाब भी गए। इसके सात साल पहले शहनाई वादक उस्ताद ‘बिस्मिल्ला खान’को ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किया गया था। वर्ष 1936 में पंडित भीमसेन जोशी जाने-माने खयाल गायक थे। अंत में 1936 में धारवाड़ के प्रसिद्ध संगीतज्ञ सवाई गन्धर्व ने उन्हें अपना शिष्य बनाना स्वीकार कर लिया । पं0 भीमसेन जोशी उनके साथ उनके घर पर ही रहे और गुरु-शिष्य का पारम्परिक गायन सीखा । ज्ञान के उत्सुक भीमसेन ने गुरु से उसी समय शिक्षा ली, वहाँ उन्होंने गुरु सवाई गंधर्व से कई वर्षो तक खयाल गायकी की बारीकियाँ भी सीख लीं। उन्होंने खयाल गायन के साथ-साथ ठुमरी और भजन में भी महारत हासिल की।
अपनी संगीत शिक्षा से संतुष्ट न हो कर भीमसेन जब ग्वालियर भाग आये थे और वहाँ के ’माधव संगीत विद्यालय’ में प्रवेश ले लिया था तब ग्वालियर के ’करवल्लभ संगीत सम्मेलन’ में उनकी मुलाकात में विनायकराव पटवर्धन से हुई। विनायकराव को आश्चर्य हुआ कि गुरु सवाई गन्धर्व उसके घर के बहुत पास रहते हैं। सवाई गन्धर्व ने भीमसेन को सुनकर कहा, “मैं इसे सिखाऊँगा यदि यह अब तक का सीखा हुआ सब भुला सके।” इसी तरह अनेक ज्ञानियों का जिनमें इनायत खान, स्यामाचार्या जोशी आदि के सहयोग व सीख से उन्हें जो ज्ञान मिला,उसके फलस्वरूप एक महान संगीतकार के रूप में उन्हें ख्याति प्राप्त हुई। उनकी लगन व मेहनत रंग लाती गई, वर्ष 1941 में भीमसेन जोशी ने 19 वर्ष की उम्र में मंच पर अपनी पहली प्रस्तुति दी। उनका पहला एल्बम 20 वर्ष की आयु में निकला,जिसमें कन्नड़ और हिन्दी में कुछ धार्मिक गीत थे। इसके दो वर्ष बाद वह रेडियो कलाकार के तौर पर मुंबई में काम करने लगे। विभिन्न घरानों के गुणों को मिलाकर भीमसेन जोशी अद्भुत गायन प्रस्तुत करते थे।
जोशी जी किराना घराने के सबसे प्रसिद्ध गायकों में से एक माने जाते थे। उन्हें उनकी ख़याल शैली और भजन गायन के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। पंडित भीमसेन जोशी ने कई फ़िल्मों के लिए भी गाने गाए। उन्होंने ‘तानसेन’, ‘सुर संगम’, ‘बसंत बहार’ और ‘अनकही’ जैसी कई फ़िल्मों के लिए गायिकी की। पंडित भीमसेन जोशी ने अपनी विशिष्ट शैली विकसित करके किराना घराने को समृद्ध किया और दूसरे घरानों की विशिष्टताओं को भी अपने गायन में समाहित किया। उनको इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने कई रागों को मिलाकर कलाश्री और ललित भटियार जैसे नए रागों की रचना की। उन्होंने खयाल गायन के साथ-साथ ठुमरी और भजन में भी महारत हासिल की थी।
पंडित भीमसेन जोशी का देहान्त 24 जनवरी 2011 को हुआ। किराना घराना के 86 वर्षीय शास्त्रीय गायक पंडित भीमसेन जोशी ने 19 वर्ष की आयु में पहली बार किसी सार्वजनिक मंच से अपनी गायन कला का प्रदर्शन किया था। उन्होंने पहली बार अपने गुरु सवाई गंधर्व के 60वें जन्मदिवस पर जनवरी 1946 में पूणे अपना गायन प्रस्तुत किया था। उनके द्वारा गाए गए गीत ‘पिया मिलन की आस’, ‘जो भजे हरि को सदा’ और ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ बहुत प्रसिद्ध हुए।
संगीत के इस सम्राट का व्यक्तित्व बहुत ही सरल और आकर्षक था। जो भी उनसे मिलता था, उनका होकर रह जाता था। उनकी महान शख्सीयत के उस पार एक बच्चों जैसे दिल वाला व्यक्ति था। यह निश्छलता उनकी हंसी में झलक जाती थी,वे एकदम बच्चों की तरह हंसते थे। उनका गायन के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान है। उनकी गायकी ने किराना घराने की गायकी को बुलंदियों तक पहुंचाया है। सवाई गंधर्व के शिष्य भीमसेन जोशी ने ख्याल गायकी को नया आयाम दिया है। साथ ही कई रागों के संयोजन से नए रागों की रचना भी की। मेहनत और लगन से काम करने वालों की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते थे।
पंडित भीमसेन जोशी के पास कौशल भरी तान तो थी ही, पर सबसे ज्यादा प्रभावित करती थी उनकी गायकी की आक्रामकता। मंच पर जिस तरह वह प्रस्तुत होते थे, वह देखने-सुनने लायक होता था। उनकी आवाज में एक सम्मोहन था। मंच पर भी वह एक साधक की तरह ही होते थे। सांसों के उतार-चढ़ाव पर उनका अद्भुत नियंत्रण था। संगीतज्ञ दादा भीमाचार्य जोशी की रगों में संगीत तो बहता ही था। मां के भजनों, पास ही मंदिर से आती प्रार्थना एवं भक्ति संगीत के स्वरों और मस्जिदों से उठती मुअज्जिनों की अजान ने भी इस संगीत संस्कार में गाढ़ा रंग भर दिया था।
पंडित भीमसेन जोशी को “मिले सुर मेरा तुम्हारा” के लिए भी याद किया जाता है, जिसमे उनके साथ बालमुरली कृष्णा और लता मंगेशकर ने जुगलबंदी की थी। तभी से वे “मिले सुर मेरा तुम्हारा” के जरिये घर-घर में पहचाने जाने लगे। तब से लेकर आज भी इस गाने के बोल और धुन पंडित भीमसेन जी की पहचान बनी हुई है।
‘मिले सुर मेरा तुम्हारा..’
(हिन्दी) में...
मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा
सुर की नदियाँ हर दिशा से बहते सागर में मिलें
बादलों का रूप ले कर बरसे हल्के हल्के
मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा
मिले सुर मेरा तुम्हारा .......
यह हिंदी के साथ-साथ अन्य भापाओं में भी गाया जा चुका है जैसे- कॉशूर,पंजाबी,सिंधी,उर्दू,तमिल,कन्नड,तेलगू,मलयालम,बंगाली,असामी,उड़िया, गुजराती, मराठी व हिंदी। चलचित्र के द्वारा इसकी प्रस्तुति बेहद ही खूबसूरत है जिसमें कई दिग्गज कलाकारों को भी शामिल किया गया था। यह अनेकता में एकता को दर्शाता है।
भारत रत्न के अतिरिक्त उन्हें कई अन्य पुरुस्कार भी मिल चुके हैं, उन्हें 1972 में पद्मश्री , 1976 में संगीत नाटक अकादमी पुरुस्कार , 1985 में पद्म भूषण ,1985 में ही गायकी में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार ,1999 में पद्म विभूष्ण , 2000 में आदित्य बिडला कलाशिखर पुरुस्कार , 2001 में कर्नाटक विश्वविद्यालय द्वारा नदोजा पुरुस्कार , 2002 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा महाराष्ट्र भूषण , 2003 में केरल सरकार द्वारा स्वाति संगीत पुरुस्कार , 2005 में कर्नाटक रत्न , 2008 में हरिदास पुरस्कार , 2010 में एस सी नारायाण स्वामी राष्ट्रीय पुरुस्कार और 2009 में दिल्ली सरकार द्वारा लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड आदि । वे प्रत्येक वर्ष अपने गुरु सवाई गन्धर्व की स्मृति में पुणे में एक संगीत उत्सव का आयोजन करते थे।
उनके प्रदर्शन की विशेषता होती थी उनकी समय के अनुसार तान की गति थी। जब वह तान देते थे तो ऐसा लगता था कि तारो से भी आगे निकल आये हैं जिन रागों के लिए प्रसिद्ध है वह है शुद्ध कल्याण ,मियाँ की तोडी, पुरिया धनाश्री ,मुल्तानी,पुरिया ,धनाश्री ,मुल्तानी,दरबारी और रामकली आदि। पंडित जी की गायकी हमारी धरोहर है। उनकी ईश्वरीय आवाज हमारी परंपराओं में रहेगी। दुख यही है कि अब वह हमारे बीच नहीं हैं। संगीत की बिरादरी ने उन्हें ‘स्वर भास्कर’ कहकर उनके प्रति अपनी श्रद्धा जताई। वह सही मायनों में स्वर भास्कर ही हैं। उनकी गायकी दुनिया को संवारने के लिए है।
इस कहानी के माध्यम से आने वाली भावी पीढ़ी को प्रेरणा व प्रोत्साहन के साथ सीख प्राप्त होगी कि प्रसिद्धि हासिल करना सहज नहीं होता,बात चाहे संगीत की ही क्यों न हो ? इसके पीछे कठिन संघर्ष छुपा होता है।


................. अर्चना सिंह‘जया’