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शुभ घड़ी

शुभ घड़ी

आशीष कुमार त्रिवेदी

शर्माजी शादी का कार्ड देख रहे थे. उनके परम मित्र रघुवर टंडन की बेटी का विवाह अगले हफ्ते था. टंडनजी ने कल फोन पर भी निमंत्रण दिया था और अभी कुछ समय पहले ही कूरियर से यह कार्ड भी आ गया.

शर्माजी सोंच में पड़ गए. इधर स्वास्थ कुछ अच्छा नही था. ऐसे में दिल्ली जाना कठिन था. वैसे फोन पर उन्होंने अपनी समस्या समझा दी थी. किंतु टंडनजी घनिष्ठ मित्र थे. किसी को तो जाना ही चाहिए.

वह अपनी बेटी गायत्री को भेजने के विषय में सोंचने लगे. जब से उसका अपने पति से तलाक हुआ था उसने स्वयं को एक दायरे में कैद कर लिया था. काम पर जाने के अतिरिक्त वह बहुत कम ही घर से बाहर निकलती थी. ना किसी से मिलना ना बात करना. बस अपने में खोई रहती थी. शर्माजी को उसकी इस दशा से बहुत कष्ट होता था. कहीं ना कहीं वह इसके लिए स्वयं को दोषी मानते थे.

शाम को जब गायत्री लौटी तो उन्होंने दिल्ली जाने के विषय में उससे बात की.

"तुम्हें तो पता है कि मेरा स्वास्थ इन दिनों ठीक नही है. मेरा जाना तो कठिन होगा. तुम चली जाती तो अच्छा होता."

कुछ देर सोंचने के बाद गायत्री बोली "आप तो जानते हैं ना पापा अब मेरा कहीं भी आने जाने का मन नही करता."

शर्माजी कुछ गंभीर स्वर में बोले "तेरी पीड़ा समझता हूँ बेटी. पर ऐसे कब तक चलेगा. बीते को भुला कर आगे बढ़ना ही समझदारी है. तुम जाओगी तो तुम्हारा मन भी बहल जाएगा और उन्हें भी खुशी मिलेगी."

कुछ क्षण रुक कर बोले "बाकी तुम्हारी इच्छा. मैं ज़ोर नही दूंगा."

गायत्री अपने कमरे में आ गई. वह अपने पिता की बात पर विचार करने लगी. टंडन अंकल ने सदैव उसे बेटी की तरह माना था. उनके अच्छे पारिवारिक संबंध थे. यदि पापा नही जा सकते तो उसे ही जाना चाहिए. बहुत सोंच विचार के बाद वह जाने को तैयार हो गई.

गायत्री को देख सभी बहुत प्रसन्न हुए. खासकर रुची वह दौड़ कर उसके गले लग गई. आज रुची की हल्दी की रस्म थी. सभी रस्में टंडनजी के फार्महाउस में हो रही थीं. कफी चहल पहल थी. एक लंबे अर्से के बाद गायत्री ऐसे माहौल में आई थी. धीरे धीरे अपने आप को इस माहौल में ढाल रही थी.

शादी के दिन सभी बारात का स्वागत करने के लिए तैयार हो रहे थे. गायत्री भी मौके के अनुसार तैयार हुई. बारात सही समय पर आ गई. बारातियों में एक चेहरे ने गायत्री का ध्यान अपनी ओर खींच लिया. उसने भी गायत्री को देख लिया. दोनों एक दूसरे को पहचान गए. लेकिन उस समय बात कर पाना संभव नही था.

उस चेहरे को देख गायत्री अतीत में चली गई.

वैभव से पहली बार वह अपनी बुआ के घर मिली थी. गायत्री ने कुछ ही दिन पहले अपना एम बी ए समाप्त किया था. वह नौकरी ढूंढ़ रही थी. कुछ दिनों की छुट्टियां बिताने वह बुआ के यहाँ गई थी.

वैभव बुआ के पड़ोस में रहता था. अक्सर शाम को वह बुआ के घर आ जाता था. दोनों खूब बात करते थे. वैभव को एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई थी. बस कुछ ही दिनों में ज्वाइन करने वाला था.

धीरे धीरे दोनों के बीच नज़दीकियां बढ़ने लगीं. वैभव का झुकाव कुछ अधिक था. बुआ उनके बीच पनपते प्रेम को महसूस कर रही थीं. वह जानती थीं कि उनके भाई गायत्री के लिए योग्य वर ढूंढ़ रहे हैं. वैभव हर लिहाज़ से गायत्री के योग्य था. अतः उन्होंने इस विषय में अपने भाई से बात की. लग रहा था जैसे सब कुछ ठीक है रिश्ते में कोई अड़चन नही होगी.

गायत्री अपने घर वापस आ गई. वैभव के नौकरी ज्वाइन कर लेने के बाद दोनों परिवारों ने रिश्ते की बात आगे बढ़ाई. लेकिन पहले ही कदम पर व्यवधान पड़ गया. शर्माजी ग्रह नक्षत्रों में बहुत विश्वास रखते थे. उनका मानना था कि कुंडली का मिलान किए बिना विवाह नही किया जाना चाहिए. वैभव के घर वालों ने मिलान करने के लिए कुंडली दे दी. किंतु दोनों की कुंडली का सही मेल नही हुआ. शर्माजी ने रिश्ते से इंकार कर दिया. सब ने समझाने का प्रयास किया किंतु वह नही माने. गायत्री यूं तो वैभव से विवाह करना चाहती थी किंतु अपने पिता का विरोध करने की हिम्मत नही जुटा पाई. उसकी चुप्पी से वैभव बहुत आहत हुआ. उनका रिश्ता नही हो सका. वैभव को कंपनी की ओर से विदेश जाने का मौका मिला. वह चला गया. उसके बाद उसकी कोई खबर नही मिली.

इसी बीच शर्माजी ने गायत्री के लिए एक लड़का ढूंढ़ लिया. दोनों की कुंडली बहुत अच्छी तरह से मिली थी. दोनों का धूम धाम से विवाह हो गया.

कुंडली सही प्रकार से मिलने के बावजूद आकाश और गायत्री के बीच का रिश्ता कभी सही नही रहा. उसने कभी भी गायत्री को पत्नी का सम्मान नही दिया. अक्सर उसे प्रताड़ित करता रहता था. गायत्री ने रिश्ते को बचाए रखने का हर संभव प्रयास किया किंतु कुछ सही नही हुआ. तीन साल के असफल प्रयास के बाद गायत्री ने हार मान ली. दोनों का तलाक हो गया.

गायत्री अपने मायके चली आई. उसने एक एम बी ए कॉलेज में पढ़ाना आरंभ कर दिया. जो दुख झेला था उसके कारण उसने स्वयं को बाहरी दुनिया से काट कर एक दायरे में कैद कर लिया.

सभी लोग खाना खा रहे थे. किसी ने उससे भी खाना खाने के लिए कहा. उसने देखा तो सामने वैभव था.

"क्या हम साथ में खाना खा सकते है." वैभव ने पूंछा.

गायत्री ने हामी में सर हिला दिया. दोनों एक एकांत टेबल पर खाने के लिए बैठ गए. कुछ देर शांत रहने के बाद वैभव बोला "कुछ दिन पहले घर गया था. बुआ जी से तुम्हारे बारे में पता चला. मुझे दुख हुआ."

एक बार फिर दोनों शांत हो गए. इस बार गायत्री ने कहा "मेरी छोड़ो अपनी बताओ. आजकल कहाँ हो."

"छह महिने पहले इंडिया वापस आया. आजकल दिल्ली में ही हूँ. दूल्हे का बड़ा भाई मेरे अच्छे मित्रों में है. उसने ज़िद की तो बारात में आ गया."

"घर संसार कैसा चल रहा है." गायत्री ने कुछ सकुचाते हुए पूंछा.

वैभव उसकी तरफ देख कर हल्के से मुस्कुराया और बोला "घर संसार बसा ही नही. जिससे मन मिला था उससे कुंडली नही मिल पाई. फिर किसी से मन ही नही मिला."

गायत्री ने वैभव की तरफ देखा. उसकी आंखों मे अफसोस झलक रहा था. कुछ देर और दोनों बातें करते रहे. दोनों ने एक दूसरे से मोबाइल नंबर ले लिया. वैभव बारात के साथ विदा हो गया तथा गायत्री भी अपने घर चली गई.

दोनों फोन तथा सोशल एकांउट के माध्यम से एक दूसरे के संपर्क में रहते थे. गायत्री अब पहले की तरह प्रसन्न रहने लगी थी. धीरे धीरे उसने लोगों से मिलना जुलना भी आरंभ कर दिया था. उसमें आए इस बदलाव से शर्माजी बहुत खुश थे.

इस प्रकार तीन माह बीत गए. एक दिन गायत्री अपने सोशल एकांउट पर वैभव से चैट कर रही थी. वैभव का एक मैसेज पढ़कर वह चौंक गई.

'क्या हम हमेशा इसी तरह दूर रह कर बातें करेंगे. हम एक नही हो सकते.'

मैसेज पढ़कर गायत्री सोंच में पड़ गई. कुछ क्षणों बाद उसने लिखा

'तुम आकर पापा से बात करो.'

वैभव का जवाब आया

'मैं आउंगा, लेकिन इस बार तुम मेरे साथ खड़ी होगी ना.'

गायत्री ने फौरन लिखा 'हाँ'.

वैभव ने लिखा 'इस रविवार को आउंगा.'

गायत्री वैभव की प्रतीक्षा करने लगी. उसने शर्माजी को इस बारे में कुछ भी नही बताया था. वह चाहती थी कि जब वैभव बात करे तो वह उसका साथ दे.

रविवार को जब वैभव उनसे मिलने आया तो अचानक ही उसे देख कर वह चौंक गए. गायत्री भी वहाँ आकर बैठ गई. अपने हाथ जोड़ कर वैभव बोला "मैं जानता हूँ कि हमारी कुंडलियां मेल नही खातीं किंतु अपनी और गायत्री की खुशी के लिए मैं आपसे हमारे विवाह की अनुमति चाहता हूँ."

गायत्री जाकर उसके बगल में खड़ी हो गई.

शर्माजी बिना कुछ बोले भीतर चले गए. वैभव और गायत्री असमंजस में थे कि उनका निर्णय क्या होगा. कुछ देर बाद शर्माजी बाहर आए. उनके हाथ में पूजा की थाली थी. उन्होंने वैभव को तिलक लगाया और चांदी की गणपति प्रतिमा उसके हाथ में रख कर बोले "तुम दोनों का मेल तो ईश्वर ने तय किया है. अब दोबारा उसकी इच्छा के विरुद्ध नही जाउंगा."

वैभव ने उनके पांव छुए और गायत्री उनके गले से लग गई.

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