शूरवीर पृथ्वीराज चौहान
डॉ अमृता शुक्ला
भारत में भाषा, धर्म, जातिगत विविधता होते हुए भी प्राचीन काल से एकता की भावना विद्यमान रही है। जब -जब भी किसी ने इस एकता को खंडित करने का प्रयास किया है तब यहाँ पर ऐसी शक्तियों के प्रति संघर्ष जाग जाता रहा है। राष्ट्रीय एकता, देश - प्रेम मनुष्य के हृदय में अवश्य रहता है और रहना भी चाहिए क्योंकि जिस भूमि पर वह जन्म लेता है, जहां का अन्न, जल ग्रहण करके अपना विकास करता है, जीवन व्यतीत करता है, उस देश के प्रति प्रेम सबसे बढ़कर होना चाहिए।
देश -प्रेम वह पुण्य क्षेत्र है,असीम त्याग से विलसित।
आत्मा के विकास से जिसमें मानवता होती विकसित।
देश के प्रति प्रेम की उच्चतम भावना व्यक्तिगत लाभ से परे है। भारत में अनेक महान राजा और महान् व्यक्ति हुएं हैं जिन्होंने देश की रक्षा के लिए विदेशी ताकतों से लोहा लिया और प्राण गंवाए । इन्हीं देश-प्रेम से ओतप्रोत वीर ,कुशल राजाओं में से एक प्रमुख पृथ्वीराज चौहान हैं जिनका भारतीय इतिहास में एक अविस्मरणीय नाम है। वे एक राजपूत राजा थे जिन्होंने बारहवीं सदी में उत्तरी भारत के दिल्ली और अजमेर साम्राज्यों पर शासन किया था | पृथ्वीराज चौहान दिल्ली के सिंहासन पर राज करने वाले अंतिम स्वत्रंत हिन्दू शासक थे | राय पिथोरा के नाम से प्रसिद्ध इस राजपूत राजा ने चौहान वंश में जन्म लिया था | उनके पिता का नाम सोमेश्वर चौहान और माता का नाम कर्पूरी देवी था। बारह साल बाद 1149 में पृथ्वीराज चौहान का जन्म हुआ। इनके जन्म लेते ही राज्य में बड़ी उथल-पुथल होने लगी। इसके साथ उनको मारने के षडयंत्र रचे जाने लगे। ईश्वरीय कृपा से वे हर बार बच गए। अजमेर की महारानी कपूरी देवी अपने पिता अनंगपाल की इकलौती संतान थीं। अनंगपाल के सामने यह बड़ी समस्या थी कि मृत्यु के पश्चात उनका शासन का उत्तराधिकारी कौन बनेगा ? इसलिए उन्होंने मन में विचार करने के बाद अपने बेटी-दामाद के सामने अपनी परेशानी रखी और नाती को शासन-तंत्र सौपने का प्रस्ताव रखा। उन दोनों की सहमति के बाद पृथ्वी राज को उत्तराधिकारी घोषित किया गया। सन् 1166 में महाराज अनंपाल की मृत्यु के बाद पृथ्वी राज का दिल्ली की गद्दी पर राज्य अभिषेक किया गया। मात्र 11 वर्ष की उम्र में उन्होंने दिल्ली और अजमेर का शासन संभाला। इसी उम्र में अपनी पिता की छाया से वंचित हो गए। उन्हें सुख -दुख का अनुभव एक साथ ही हुआ। लेकिन वे बड़े साहसी और कुशल प्रशासक साबित हुए। वे अपने राज्य के विस्तार के लिए सदा सजग रहते, और उसे कई सीमाओं तक फैलाया। पृथ्वीराज ने अपने चारों ओर अपना राज्य स्थापित कर लिया था जिसे वो अपने बराबर वीर समझते उससे युद्ध करके राज्य प्राप्त कर लेते। लेकिन अंत में वे राजनीति का शिकार हुए।
पृथ्वीराज बचपन से ही एक कुशल योद्घा थे। बाल्यकाल के समय से ही शब्द भेदी बाण का उन्होंने अभ्यास किया था। पृथ्वी राज के बचपन के मित्र चंदबरदाई तोमर वंश के शासक की बेटी के पुत्र थे जो उनके लिए किसी भाई से कम नहीं थे।
एक बार राजा पृथ्वी राज को मित्र चंदबरदाई ने रानी संयोगिता की सुंदरता का वर्णन किया और पृथ्वीराज को उनका चित्र दिखाया। दूसरी तरफ संयोगिता से पृथ्वीराज के बारे में चित्र देकर रानी के सामने वर्णन किया । रानी संयोगिता और पृथ्वीराज एक दूसरे से मिले बिना केवल चित्र देखकर मोहित होकर आपस में प्रेम करने लगे। संयोगिता के पिता जयचंद के मन में पृथ्वीराज के प्रति ईर्ष्या का भाव था और उसे नीचा दिखाने का अवसर ढूंढते थे। जबसे अनंगपाल ने पृथ्वीराज को गोद लिया तबसे अजमेर और दिल्ली एक हो गए थे। ये बात जयचंद की ईर्ष्या को और बढ़ा गयी । आखिर पृथ्वीराज से बदला लेने का अवसर जयचंद को मिल गया। जयचंद ने बेटी संयोगिता का स्वंयावर आयोजित किया। इस स्वयंवर में पृथ्वीराज को छोड़कर पूरे देश से राजाओं को आमंत्रित किया। इसके साथ जयचंद ने अपमानित करने के लिए पृथ्वीराज की स्वर्ण मूर्ति बनाकर द्वारपाल के स्थान पर रखवा दी। संयोगिता ने प्रेम के वशीभूत द्वारपाल की मूर्ति को जयमाला पहना दी। स्वयंवर की खबर पाते ही पृथ्वीराज ने भरी सभा में से संयोगिता का अपहरण कर लिया। जयचंद की सेना से बड़ी दूर तक पीछा किया,लडाई हुई। लेकिन पृथ्वीराज बचकर संयोगिता को अपनी रियासत ले आए। दिल्ली आकर दोनों का विधिवत विवाह संपन्न हुआ। इस अपहरण की घटना के बाद जयचंद और पृथ्वीराज के बीच दुश्मनी और बढ़ गई। पृथ्वीराज की सेना बहुत विशालकाय थी जिसमें तीन लाख सैनिक और तीन सौ हाथी थे। वे कुशल योद्घा थे इसलिए उनकी सेना अच्छी तरह संगठित थी और इसी के बल पर उन्होंने कई युद्ध जीते। शूरवीर पृथ्वीराज और उनके सामंतगण आदर्श योद्धा थे। परंतु सीमा विस्तार के लिए तुर्क दुश्मनों को पीछे हटाना जरूरी था। दूसरी ओर मुहम्मद गोरी बहुत ही महत्वाकांक्षी था । वह भारतवर्ष में अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहता था। सर्वप्रथम मुहम्मद गोरी ने मुल्तान पर आक्रमण किया और उसे धोखे से जीत लिया। उसके बाद मुहम्मद गोरी ने गुजरात के सोलंकियों से युद्ध किया ,लेकिन उसे पराजय का सामना करना पड़ा। मुहम्मद गोरी को अपना साम्राज्य खड़ा करने में पृथ्वीराज रास्ते का कांटा था। इस कारण मुहम्मद सुल्तान गोरी और पृथ्वीराज चौहान की आपस में युद्ध करने की स्थिति बनती रहती। अपने राज्य के विस्तार के लिए पृथ्वीराज ने इस बार पंजाब को चुना। जहाँ पर मुहम्मद शहाबुद्दीन गौरी का शासन था । वह भटिंडा में बैठकर पंजाब पर शासन करता था। गौरी से युद्ध करने के लिए पृथ्वीराज ने आक्रमण कर दिया। सर्वप्रथम हांसी, सरस्वती और सरहिंद का किला अपने अधिकार में ले लिया। इसी बीच अनहिलवाडा में विद्रोह होने के कारण पृथ्वीराज को वहां जाना पड़ा। दूसरी तरफ उनकी अनुपस्थिति में उनकी सेना ने ताकत खो दी और सरहिंद का किला खोना पड़ा। अनहिलवाडा से आने पर पृथ्वीराज ने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिया। युद्ध में भागे हुए सैनिक ही बचे और मुहम्मद गौरी अधमरे हो गए। अपने ऊंचे तुर्की घोड़े पर घायल अवस्था में गिरने ही वाला था कि उसके सैनिक की दृष्टि सुल्तान पर पड़ी और उसने गोरी के घोड़े की लगाम थाम ली और कूद कर सुल्तान के घोड़े पर चढ़ गया। गोरी को हराकर पकड़ लिया गया था ,पर पृथ्वीराज ने गोरी को क्षमा दान देकर छोड़ दिया। बाद में गौरी को सैनिक घोड़े पर ड़ालकर महल में ले गए और उपचार कराया गया। नेतृत्व विहीन गोरी की सेना तितर-बितर हो गई। पृथ्वीराज की सेना ने दुश्मन की सेना का बहुत दूर तक पीछा किया। इस विजय में पृथ्वीराज को बहुत धन-संपत्ति जीती,जिसे बाद में उसने अपने बहादुर सैनिकों में बांट दिया। पृथ्वीराज ने अपने आदर्श और नियमों का हमेशा पालन किया -स्त्रियों पर हमला न करना, गिरे हुए घायलों और पीठ दिखाने वाले सैनिकों को न मारना आदि। परंतु इन सबसे बढ़कर पृथ्वीराज ने शत्रु को प्राण दान ही नहीं वरन् ऐसे प्रबल शत्रु को जो कई बार अपमानित और दंडित होकर बार-बार आक्रमण करता रहा, बंदी बनाने के बाद मुक्त कर दिया और सैनिक के द्वारा महल भिजवाया।
पुत्री के अपहरण के बाद जयचंद ने बढ़ी दुश्मनी के कारण अन्य राजपूत राजाओं को पृथ्वीराज के खिलाफ भड़काने लगा। तभी जब जयचंद को गौरी और पृथ्वीराज के युद्ध का पता चला तो वह गौरी के साथ खड़ा हो गया ताकि पृथ्वीराज से बदला ले सके। जयचंद और मुहम्मद गौरी ने मित्रता स्थापित कर ली । दोनों ने मिलकर 1192 में पुनः पृथ्वीराज पर हमला कर दिया। इस हमले का समाचार पाकर पृथ्वीराज अपने सैनिकों के साथ पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरे थे। पृथ्वीराज की सेना और तैयारी का वर्णन गौरी अपने गुप्तचर से सुन चुके थे, जिससे वो ड़रते हुए आगे बढ़ने का विचार कर रहा था लेकिन जयचंद के साथ देने के कारण मुहम्मद गौरी की शक्ति ज्यादा हो गई। पृथ्वीराज ने युद्ध भी पहले की तरह तराई के मैदान में हुआ। पृथ्वीराज मुहम्मद गोरी से मोर्चा लेने के लिए तैयार हुए। संयोगिता से विवाह के पश्चात उनका और पृथ्वीराज का अंतिम मिलन और प्रथम वियोग था। पृथ्वीराज के नेतृत्व राजपूत सेना पानीपत से बढ़ती हुई सतलज नदी के पार पहुंच गई थी। तब पृथ्वीराज ने अपने मित्र को चंदबरदाई को कांगडा दुर्ग के हमीर को मना लाने के लिए भेजा और कहा कि 'उससे मिलते ही कहना कि-उस पर जो कलंक लगाया था ,वो मज़ाक था। वह तो सदा ही युद्ध में अग्रगामी रहा है। 'फिर चंद से बोले कि-'मार्ग में विराम मत करना ,क्योंकि समय थोड़ा है। 'हमीर को कई तरह से समझाया पर वो नहीं माने। चंदबरदाई ने और भी राजपूत राजाओं से मदद मांगी लेकिन संयोगिता के अपहरण की वजह से किसी ने मदद नहीं की,क्योकि जयचंद ने बेटी के अपहरण की बात से राजपूत राजाओं को भडकाया था। ऐसे में पृथ्वीराज अकेले पड़ गए । उन्होंने अपने तीन लाख सैनिकों के साथ दुश्मनों का सामना किया। महाराज जयचंद की अस्सी लाख सेना पृथ्वीराज की सेना को घेरे हुए थे और उसकी चतुरंगिणी सेना का सबसे पहले मोर्चा रोकनेवाला पृथ्वीराज का सामंत लंगरीराय था। लंगरीराय बडा़ ही परक्रमी और शूरवीर था। युद्ध के समय जयचंद के प्रधान सुमित्र के वार ने लंगरीराय का आधा शरीर चीर दिया । पर इसके बाद भी जान रहने तक वह युद्ध करता रहा। इस समय युद्ध का मैदान भंयकरता से भरा था। इसी का वर्णन एक कवि ने इस प्रकार किया है--
पैदल के पैदल आ भिडे, औ असवारन से असवार। ।
हौदा के संग हौदा भिड गए, हाथिन लड़े दांत से दांत। ।
सात कोस सौं चले सिरोही, चारों तरफ चले तलवार। ।
पैग पैग पर पैदल गिरि गए,उनके दुदुई पैग असवार। ।
चारों तरफ मार-काट हो रही थी। दोनों राजा अपनी सैनिकों के साथ एक दूसरे को हराने की खातिर संघर्ष कर रहे थे। शत्रु को मृत्यु के फंदे में डाल वीरों की रात व्यतीत हुई। प्रातःकाल होते ही सैनिक चक्रव्यूहाकार में अपनी सेना सजाए खड़े थे। सुबह होने के साथ दोनों दलों के सुभटों ने अपनी तलवारें खींच लींं और भंयकर युद्ध शुरू हो गया। युद्ध-भूमि रक्त से लाल हो गई थी। सैनिक लड़ रहे, उनके शव इधर-उधर गिर रहे थे। चील-कौए-गिद्ध नभ में उड़ रहे थे। तलवारें जब चलती तो बिजली चमकने लगती। धूल का गुबार उड़ रहा था। हाथी की चिंघाड गूंज रही थी। पृथ्वीराज अकेले होकर अपनी सेना के साथ लड़ाई कर रहे थे। युद्ध अपनी चरम सीमा पर था। शूरवीर अपना पराक्रम दिखाते हुए वीरगति को प्राप्त हो रहे थे। उस समय पृथ्वीराज की मदद के लिए चंदबरदाई ने युद्ध करने की आज्ञा मांगी। फिर बिना उनके आज्ञा के रण प्रांगण मेंं घोडा दौडा दिया। चंद ने अद्भुत साहस,धैर्य और युद्ध-कौशल से शत्रु की सेना को विचलित और तितर-बितर कर दिया। मुहम्मद गोरी की सेना में अच्छे घुडसवार थे। तभी अवसर देख कर घुडसवारों ने चारों ओर से पृथ्वीराज को घेर लिया। ऐसे में जयचंद के गद्दार सैनिकों ने राजपूत सैनिकों का संहार किया। जिससे पृथ्वीराज हार गए। हारने के बाद पृथ्वीराज और चंदबरदाई को बंदी बना लिया। बाद में राजा जयचंद को भी गद्दारी के कारण मार डाला गया। मुहम्मद गौरी पृथ्वीराज को अपने राज्य ले गए और बहुत यातनाएं दी। दूसरे दिन मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज को दरबार में उपस्थित होने की आज्ञा दी। उनकी आंखों को लोहे की गर्म सलाखों से जलाया गया,जिससे वे अंधे हो गए। गोरी ने कहा पृथ्वीराज तुमने मुझे सात लोहे के तवे भेदने का वचन दिया था। लेकिन अब तुम्हारी आँखों से दिखेगा नहीं, तुम अपना वचन कैसे पूरा करोगे। तब भी पृथ्वीराज ने साहस नहीं छोड़ा और अपना दिया वचन पूरा करने को तैयार थे। । लेकिन पृथ्वीराज की बात पर ध्यान दिए मुहम्मद गौरी ने पृथवीराज की ओर मुखातिब होकर कहा --अरे रहने दो। अपनी अंतिम इच्छा बता दो । पृथ्वीराज ने अपने कवि मित्र चंदबरदाई के शब्दों पर शब्द भेदी बाण का उपयोग करने की इच्छा प्रकट की। सुल्तान ऊपर बड़े मंच पर राजसिंहासन पर पृथ्वीराज के कौशल्य को देखने के लिए विराजमान हो गया। तब कवि चंदबरदाई ने दोहा बोला । एक तरह से वह इस दोहे के माध्यम से पृथ्वीराज को यह संकेत देना चाहता था कि मुहम्मद गोरी जिस जगह बैठे हैं उसकी दूरी समझ कर वो निशाना साध सके--
चार बांस, चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान। ।
यह सुनकर पृथ्वीराज ने बाण चला कर सुल्तान की हत्या कर दी। इसके बाद मुहम्मद गोरी के सैनिक पृथ्वीराज और चंदबरदाई को पकड़ने दौडे। चंदबरदाई पृथ्वीराज को संभाल कर भागने लगे। काफी दूर सैनिकों से बचकर दोनों ने अपनी दुर्गति से बचने के लिए अपना जीवन समाप्त कर लिया। जब संयोगिता को यह खबर मिली तो उसने भी अपना जीवन खतम कर लिया। इस प्रकार देश के अंतिम हिन्दू शासक का अंत हो गया।
प्रेषिका
डॉ अमृता शुक्ला
सी/9/4, हर्षित रत्ना, गुरुद्वारे के पास,
टाटीबंध, रायपुर छत्तीसगढ़ 492099
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