दलित साहित्य: एक हुंकार Ashish Kumar Trivedi द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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दलित साहित्य: एक हुंकार

दलित साहित्य : एक हुंकार

आशीष कुमार त्रिवेदी

'अभिव्यक्ति' मानव की मूलभूत ज़रूरतों में से एक है। भाषा व लिपि के अविष्कार से भी पहले से मानव भित्ति चित्रों तथा मूर्तियों के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करता रहा है।

अभिव्यक्ति का आशय अपने मन के भावों को दूसरों के समक्ष व्यक्त करना है। अपने मन की कोमल भावनाओं, आकांक्षाओं, अपेक्षाओं, दुख एवं अवसाद को दूसरों के साथ बांटना ही अभिव्यक्ति है।

जब से मानव ने भाषा को लिपिबद्ध करना सीख लिया तब से वह अपनी इन भावनाओं को लिख कर व्यक्त करने लगा। यहीं से साहित्य का आरंभ हुआ। समय के साथ साथ साहित्य केवल सौंदर्य, मधु तथा श्रृंगार की अभिव्यक्ति का साधन मात्र ही नहीं रहा वरन यह सामाजिक कुरीतियों, रूढ़ियों, अर्थहीन परंपराओं के विरोध का भी साधन बना। साहित्य के माध्यम से जनता में जागरूकता फैलाने का काम किया गया।

स्वतंत्रता संग्राम के समय भी साहित्य के माध्यम से देश प्रेम की भावना जाग्रत करने का प्रयास किया गया।

कई लेखकों ने अपनी कलम का इस्तेमाल कर समाज के दबे शोषित वर्ग के बारे में लिखा। उस समाज की व्यथा का चित्रण किया। किंतु साहित्य में उस वर्ग के लोगों का प्रवेश नहीं हो पाया। उन्हें स्वयं अपनी दुख, तकलीफ, घुटन बताने का मौका नहीं मिला जो समाज की खोखली व्यवस्था के कारण उन्हें मिली थी।

लेकिन शोषित समाज में शिक्षा का प्रसार होने पर उनके बीच से भी अभिव्यक्ति की आवाज़ें उठने लगीं। उस सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध असंतोष देखने को मिला जिसके कारण उन्हें समाज में सबसे निचले स्तर पर रखा गया था। यह आरंभ था दलित साहित्य का।

दलित साहित्य

दलित साहित्य क्या है? इस प्रश्न का उत्तर जानने से पहले 'दलित' शब्द की व्याख्या करना आवश्यक है।

दलित से आशय समाज के उस वर्ग से है जो भारतीय हिंदू समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था के कारण सदियों से शोषित है। जिन्हें सामाजिक व्यवस्था में सबसे निचले स्थान पर रखा गया है। जो आधुनिक शिक्षा व्यवस्था के लागू होने से पहले शिक्षा पाने के अधिकार से वंचित रखे गए थे।

भारतीय समाज में जिसे अस्पृश्य माना गया वह व्यक्ति दलित है। अर्थात दलित शब्द उस व्यक्ति के लिए प्रयोग किया होता है जो समाज-व्यवस्था के तहत सबसे निचली पायदान पर होता है और जो शोषित है।

डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन दलित शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि दलित वह है जिसे भारतीय संविधान ने अनुसूचित जाति का दर्जा दिया है।

अतः दलित साहित्य का अर्थ दलित समाज से संबंध रखने वाले व्यक्तियों की लेखनी से निकली शब्दों की वह धारा है जिसमें उनकी व्यथा, घुटन तथा आक्रोश के दर्शन होते हैं। दलित साहित्य वह हुंकार है जो समाज की जातिगत व्यवस्था का विरोध ही नहीं करती है बल्कि उससे टकराने का उद्घोष भी करती है।

दलित चिंतक कंवल भारती की धारणा है कि दलित साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूपायित किया है। अपने जीवन-संघर्ष में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उनकी उसी अभिव्यक्ति का साहित्य है। यह कला के लिए कला नहीं, बल्कि जीवन का और जीवन की जिजीविषा का साहित्य है। इसलिए कहना न होगा कि वास्तव में दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य की कोटि में आता है।

दलित साहित्य की परिभाषा को लेकर दो भिन्न मत हैं। एक पक्ष का कहना है कि दलित साहित्य में केवल दलित लेखकों के साहित्य को ही सम्मिलित किया जाना चाहिए। क्योंकी एक दलित ही अपने समाज की व्यथा को सही प्रकार से समझ सकता है। वह वही लिखता है जो वह भोगता है।

दूसरा पक्ष वह है जो दलित समाज से नहीं है। उनका मानना है कि जिस साहित्य में भी दबे शोषित वर्ग की बात की जाए वह दलित साहित्य है। चाहें लिखने वाला गैर दलित ही क्यों ना हो। ऐसे कई लेखक हैं जिन्होंने समाज के उपेक्षित वर्ग की दुर्दशा के बारे में लिखा है चाहें वह स्वयं दलित समाज से ना रहे हों।

दलित साहित्य वही हो सकता है जिसमें पूरी ईमानदारी के साथ दलित समाज की व्यथा, उनके आक्रोश, उनकी आशाओं, उनकी अपेक्षाओं तथा ऊपर उठने की उनकी इच्छा को पाठकों के समक्ष लाया जा सके। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह कार्य भुक्तभोगी ही सही प्रकार से कर सकता है।

दलित साहित्य क्रांति का बोधक है। यह सामाजिक व्यवस्था में बदलाव लाने की एक मुहिम है। इस मुहिम का उद्देश्य समतावादी समाज की स्थापना करना है। दलित साहित्य अंबेदकरवादी विचारधारा से प्रभावित है। जो एक ऐसे समाज की वकालत करती है जिसमें सामाजिक न्याय हो।

डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर 'हिमायती पत्रिका ' में लिखते हैं- “दलित साहित्य ने देश में एक नई क्रांति को जन्म दिया है वह है सामाजिक समता की क्रांति।”

दलित साहित्य का आरंभ

दलित समाज में शिक्षा की ज्योति जलाने वाले थे ज्योति राव फूले तथा उनकी पत्नी सावित्रीबाई फूले। इस दंपत्ति ने स्त्रियों तथा दलितों की शिक्षा के लिए अभूतपूर्व कार्य किया। 1848 में पहली कन्या पाठशाला खोली। 1851 में पहली अछूत पाठशाला खोली। सावित्री बाई फूले ने पहली भारतीय शिक्षिका होने का गौरव पूर्ण स्थान भी प्राप्त किया।

शिक्षा का विस्तार होने से दलित समाज में एक चेतना आई। अब तक जिस अन्याय को वह अपनी नियति समझते थे अब उसके विरुद्ध उनमें एक असंतोष पैदा होने लगा। यह असंतोष दलित लेखकों के लेखन में परिलक्षित होने लगा। डॉ. अंबेदकर ने जो जन चेतना जगाई वह उनकी कलम से साहित्य के रूप में सामने आने लगी।

हीरा डोम द्वारा रचित कविता 'अछूत की शिकायत' जो कि 1914 महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ पत्रिका में छपी थी को पहला दलित साहित्य कहा जा सकता है।

‘अछूत की शिकायत’ में हीरा डोम ने दलित जीवन के दुख, अवसाद और पीड़ा को गहराई से व्यक्त किया है।

इसी प्रकार अछूतानंद ने भी अपनी कविताओं एवं गीतों के ज़रिए मनुवादी व्यवस्था का विरोध करते हुए दलितों में आत्मसम्मान की भावना जाग्रत करने का काम किया।

दलित साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन करना नहीं बल्कि समाज को झकझोर कर जगाने का था। दलित लेखक अपने समाज की गरीबी, दुख, अवसाद को दिखाने में सवर्ण लेखकों से कहीं अधिक सफल हुए हैं।

बीसवीं सदी की शुरूआत में छोटे छोटे प्रयासों के रूप में जन्म लेने वाला साहित्य सदी के अंत तक हिंदी की एक विस्तृत और क्रांतिकारी शाखा में बदल गया। इसमें कविता, कहानि, आत्मकथा, संस्मरण, नाटक, आलोचना आदि सभी विधाएँ शामिल हैं।

दलित साहित्य की प्रमुख आत्मकथाएं

कई दलित लेखकों ने अपनी आपबीती के माध्यम से समाज की अनन्यापूर्ण व्यवस्था को उजागर किया है।

जूठन

ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा 'जूठन' दलित साहित्य में अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है। अपने व्यक्तिगत अनुभवों के ज़रिए ओमप्रकाश जी ने शिक्षा प्राप्त करने के लिए दलितों द्वारा किए गए संघर्ष को बहुत अच्छी तरह से प्रस्तुत किया है।

'जूठन' में भारतीय जीवन में रची-बसी जाति–व्यवस्था के सवाल को, दलितों की वेदना और उनके संघर्ष को बहुत गहराई से चित्रित किया गया है।

मर्दहिया

डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा 'मर्दहिया' पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचल में शिक्षा के लिए जूझते एक दलित की मार्मिक अभिव्यक्ति है। यह कहानी एक दलित लड़के की है जो अपनी आर्थिक व सामाजिक स्थिति को चुनौती देते हुए अपने आत्मविश्वास के बल पर घर से बाहर आता है और जे.एन.यू जैसे विश्वविद्यालय में विदेशी भाषा का विद्वान बनता है।

दोहरा अभिशाप

कौशल्या वैसन्त्री की आत्मकथा 'दोहरा अभिशाप' हिन्दी दलित साहित्य की पहली महिला आत्मकथा है।

कौशल्या वैसन्त्री द्वारा अपने जीवन को पर्त दर पर्त पाठकों के सामने खोल देना बहुत साहस का काम है। एक दलित स्त्री को अपने दलित व स्त्री होने का दोहरा अभिशाप भोगना पड़ता है।

शिकंजे का दर्द

सुशीला टाकभौरे की इस आत्मकथा ने अपने पारिवारिक और सामाजिक संघर्ष को जिस तरह शब्दबद्ध किया है वह इसे दलित साहित्य में एक विशिष्ट स्थान दिलाता है। यह भी एक दलित महिला द्वारा दो मोर्चों पर लड़ी गई लड़ाई है।

अपने अपने पिंजरे

मोहनदास नैमिशराय ने इस आत्मकथा में अपने बचपन के ज़रिए गांव टोले की सामाजिक व्यवस्था का विहंगम चित्र उकेरा है।

अन्य कृतियां

आत्मकथाओं के अतिरिक्त अन्य कहानियां, उपन्यास, कविताएं हैं जिन्होंने विशेष स्थान बनाया है।

1. पच्चीस चौका डेढ़ सौ (कहानी) – ओम प्रकाश वाल्मीकि

2. अपना गाँव (कहानी ) – मोहन दास नैमिशराय

3. ठाकुर का कुआं (कविता ) – ओम प्रकाश वाल्मीकि

4. सुनो ब्राह्मण (कविता ) – मलखान सिंह

5. नो बार (मराठी कहानी) – जयप्रकाश कर्दम

6. मैं दूंगा माकूल जवाब (कविता) – असंगघोष

दलित साहित्य के माध्यम से दलित समाज अपने उपेक्षित होने की, शोषित होने की, अपमानित होने की, गाथा व इतिहास कहता है। निरंजन कुमार अपनी किताब 'मुनष्यता के आइने में दलित साहित्य का समाजशास्त्र’ में लिखते हैं- “समाज और इतिहास दलितों के लिए जितना बर्बर और अमानवीय रहा, उसके विरूद्ध उनकी प्रतिक्रिया आक्रोशपूर्ण और एक उन्माद के रूप में रही, यह स्वाभाविक ही है बल्कि एक सीमा तक नैतिक भी है।”