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बेकसूर

कसूर किस का, सजा किस को

ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश ’

अंतिम ने हाथ को झटका दिया,‘‘ छोड़ो पापाजी !’’ कहते हुए वह भागने लगी.

पापाजी की पकड़ मजबूत थी. वह छूड़ा नहीं पाई. उन्हों ने अंतिम को खींच कर बांहों में भर लिया,‘‘ अरे ! वह पहले वाली अंतू कहां गई ?’’ वे चहके.

‘‘मर गई पापाजी,’’ अंतिम ने दोनों हाथों से जोर लगा कर मोहन-पापाजी को झटका दिया.

‘‘आइंदा ! ऐसी हरकत मत करना. वरना ?’’ वह आंख दिखा कर चींखीं.

‘‘वरना ? क्या कर लेगी,’’ पापाजी ने कहा,‘‘ जरा मैं भी तो सुनी. क्या वह दिन भूल गई ?’’ उन्हों ने अंतिम के पुराने घाव कुरेदने की कोशिश कीं.

अंतिम ने कुछ नहीं सुना. वह भागी. कमरे में गई. उसे डर था. कहीं यह बात उस का पति सुनील न सुन लें. अन्यथा वह कहीं की नहीं रहेगी. जब कि उस का कोई कसूर नहीं था.

जिस का डर था वहीं हुआ.

एक लड़का दौड़ादौड़ा आया, ‘‘ बाबूजी ! सुनील ने कुंए में छलांग लगा लीं.’’

सुनते ही सभी के होश उड़ गए. सभी कुंए की ओर दौड़ पड़े.

अंतिम को जिस बात का डर था, वही हुई. उस के होश उड़ गए. वह भी दौड़ पड़ी. उस की आंखे वैसे ही लाल हो रही थी. वह बदहवाश सी चींखते हुए कुंए के पास पहुंची. वह पहले से ही भीड़ जमा थी. सुनील मर चुका था.

वह दौड़ कर सुनील से चिपट गई. वह बदहवाश सी रो रही थी. उस की दहाड़ सुन कर सभी लोगों का दिल पसीज गया. वह बारबार चिल्ला रही थी,‘‘ तुम मुझे इस बेरहम दुनिया में अकेले छोड़ कर चले गए. अब मैं किस के सहारे रहूंगी. तुम मुझे भी अपने साथ ले जाते. कम से कम इस बेरहम दुनिया के जूल्म तो नहीं सहने पड़ते.’’

अंतिम अब जीना नहीं चाहती थी. उसे दुनिया से नफरत हो गई थी. उस का पति था जो उसे दिलोजान से चाहता था. वह उस की भी सगी नहीं हो सकीं. जो गलती उस ने नहीं की थी उस की सजा उस के पति को मिल चुकी थी.

यदि देखा जाए तो इस गलती में उस का भी कसूर था. यह सोच कर वह आत्मग्लानि से भर उठीं. उस में जीने की लालसा नहीं बची थी. वह चुपचाप उठी. दौड़ी. कुंआ पास में था. ‘ अब मैं जी कर क्या करूंगी.’ सोच कर कुंए में कूदने दौड़ी.

भीड़ में से कई निगाहें उसे ही देख रही थी. जैसे ही अंतिम भागी, वैसे ही एक औरत ने उसे पकड़ लिया, ‘‘ अरे ओ करमजली ! क्या करने जा रही है ?’’ कहते हुए उस औरत ने उसे एक झटका दिया,‘‘ मरना चाहती है. इस से क्या होगा ? तेरा पति वापस आ जाएगा ?’’

कहने के साथ उस औरत ने अंतिम को अपने सीने से लगा लिया.

अंतिम फूटफूट कर रोने लगी. लोग उस के पति को घर ले आए. अर्थी सजाई गई. फिर श्मषान ले जा कर अंतिम संस्कार कर दिया गया. वह यंत्रवत सी सभी कार्य करने लगी. उसे अपने किए पर बहुत अफसोस हो रहा था. उस ने ऐसा क्यों किया ?

मगर, उस का कसूर क्या था ? वह समझ नहीं पा रही थी. उस के पति को उस की बात सुनना थी. कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के पति ने पापाजी की हरकत देख ली हो. उसे गलत समझ बैठे हों ?

मगर, जो भी हो, उन्हें एक बार मुझ से बात करनी थी. मैं उन्हें बताती कि मैं बेकसूर थी. गलती मेरी नहीं थी. गलती आप के पापा की थी. उन की वासना की षिकार हुई थी. एक व्यक्ति को इतना कामुक नहीं होना चाहिए कि वह किसी की भावना से खेलने लग जाए.

मगर, नहीं. उन्हें तो अपनी करनी से मतलब था. खुद ही आत्महत्या कर लीं. कम से कम मुझ बेगुनाह से कुछ कहा होता ? डांटा होता ? फटकारा होता ? पूछा होता ? तब मैं उन्हें हकीकत बताती. वास्तव में मुझ पर क्या बीती थी. ताकि वे मुझे बेगुनाह समझते. अनजाने में किया गया गुनाह, गुनाह नहीं होता है. इसे तो कुदरत भी माफ कर देती है.

यह सोचते हुए वह अतीत में लौट गई.

वह 11 साल की थी. बात तब की है. वह कक्षा 5 में पढ़ती थी. पड़ोस में मोहनलाल जी रहते थे. बिलकुल नेकदिल इनसान थे. अंतिम को वे बहुत अच्छे लगते थे. जब भी उसे टीवी देखना होता, वह उन के घर चली जाती थी.

‘‘ आओ अंतू !’’ वे उसे बुला कर कहते,‘‘ बहुत देर से आई ?’’ साथ ही एक चाकलेट दे देते थे.

‘‘ अंकल ! मैं स्कूल गई थी. इसलिए लेट हो गई.’’

‘‘ वह दिन भर क्या किया ?’’ वे पूछते.

‘‘ दिनभर पढ़ाई की. दोपहर को खेली. और शाम को स्कूल से वापस आ गई.’’ चहकते हुए अंतिम बताती. वे बड़े ध्यान से सुनते थे.

फिर कहते, ‘‘ तुम्हारी हंसी बहुत खूबसूरत है. जब तुम हंसती हो तो गौरे गाल पर पड़ने वाला यह गड्ढा बहुत सुंदर लगता हैं.’ वे अंतिम की तारिफ करते. फिर धीरे से गाल सहला देते थे.

‘‘ अच्छा अंकल !’’ कह कर अंतिम खिलखिलाने लगती.

वे उसे उठा कर गले से लगा लेते. फिर वे उसे नीचे उतार देते. झट से अपना हाथ आगे बढ़ा देते. अंतिम झट से ताली बजा देती. उसे ऐसा करने में मजा आता था.

‘‘ कुछ खाओगी ?’’

‘‘ नहीं अंकल ! टीवी देखना है. अच्छी फिल्म आ रही है.’’

‘‘ तो देखो,’’ मोहन जी टीवी चालू करने के बाद उस के आगे गुलाब जामुन रख देते.

अंतिम की मम्मी ने उसे समझा रखा था किसी के घर कुछ चीजें नहीं खाना चाहिए.

‘‘ नही अंकल मैं नहीं खाऊंगी.’’

‘‘ मम्मी ने मना किया है ?’’ वे प्रष्नवाचक निगाहें से देख कर उस से पूछते,‘‘ मगर, तुम्हारी मम्मी को बताएगा कौन कि तुम ने गुलाब जामुन खाए है ?’’ कह कर उन्हों ने एक गुलाब जामुन अंतू के मुंह में रख दिया.

फिर क्या था. मन ललचा गया. गुलाब जामुन के साथ टीवी का मजा आने लगा.

अब कभी कचोरी आती. कभी सेव आती. कभीकभी तो दूधपाक भी आता. जिसे मिल कर अंतू और मोहन जी खाते. कभीकभी मान मनवार करते हुए वे अंतू को दूधपाक खिला दिया करते थे.

अंतू इस को अंकल का प्यार समझती थी. मगर, उस की मम्मी की अनुभवी आंखें इस बात को ताड़ गई थी. इसलिए उन्हों ने एक बार उसे कचोरी खाते हुए पकड़ लिया.

‘‘ तू यहां कचोरी खा रही है ?’’ मम्मी चिल्लाई.

‘‘ बहनजी ! इस पर नाराज मत होइए.’’ मोहन जी ने मम्मी से हाथ जोड़ कर कहा,‘‘ मैं कचोरी खा रहा था. यह आ गई. इसलिए इसे मैं ने दे दी. यह तो नहीं खा रही थी. मगर, मैं ने जबरदस्ती की.

‘‘ मैं कचोरी खाता और यह न खाए ? यह कहीं अच्छा लगता है ?’’

मोहनजी मम्मी को समझाते हुए बोले,‘‘ आप बैठिए. मैं आप के लिए चाय बना देता हूं.’’

‘‘ आप तकलीफ क्यों करते हैं ? मैं मेहमान नहीं हूं,’’ मम्मी ने मुस्करा कर कहा तो मोहनजी बोले,‘‘ लेकिन आप पहली बार आई है. इसलिए चाय का हक बनता है.’’ कह कर मोहनजी ने स्टोव पर चाय रख दी.

मम्मी को चाय पीना पड़ी. मोहनजी ने बिस्कुट भी रख दिए थे. वे उन्हें खाना पड़े.

इस दिन के बाद मम्मी के मन का मैल खत्म हो गया. वह अंतिम का ध्यान रखती थी. कहती थी,‘ बेटी, समय खराब है. संभल कर चलना चाहिए. तू लड़की है. इसलिए थोड़ा सावधान रहना. आदमी की नियत कभी भी बदल जाती है.’

अनगढ़, अलहड़, मस्त अंतिम इसे सुन लेती. मगर, अपनी मस्ती छोड़ नहीं पाती. नदी कब रूकना जानती है. वह बहती हुई अच्छी लगती है. यही हाल अंतिम का था. उस के मन में कोई बात नहीं टिकती थी.

कभी वह सहेली से मन की बात कह देती. कभी समय मिलता तो मम्मी को बता देती. यदि मुड़ हुआ तो मोहन अंकल को कह देती.

इस कारण वह मोहनजी से हिलमिल गई थी.

एक दिन वह बहुत घबराई हुई घर आई. उसे कोई बीमारी हो गई थी. उसे लगा कि अब वह बच नहीं पाएगी. उसे कोई गंभीर बीमारी हो गई. वह रूआंसी हो गई .घर पर मम्मी नहीं थी. वे कहीं गई थी. पड़ोस में देखा. मोहनजी बैठे थे.

वह धीरे से अंदर गई.

‘‘ क्या हुआ अंतू !’’ मोहनजी ने दोनों कंघे पकड़ कर उसे कुर्सी पर बैठा कर पूछा.

‘‘ कुछ नहीं ,’’ वह डरीसहमी थी.

‘‘ कुछ तो है ?’’ मोहनजी ने अंतू के सिर पर हाथ फेरा.

अंतू को अच्छा लगा. वह रोने लगी. मोहनजी ने आंखें पौछीं.

‘‘ रोते नहीं,’’ उन्हों ने उसे अपने गले से लगाते हुए कहा, ‘‘ बताओं, क्या बात हुई ? ’’ उन्हों बड़े प्यार से उस के कान में कहा और पीठ पर प्यार से हाथ फेरा.

अंतू पिघल गई. मन में बंधा, प्यार का बांध फूट पड़ा,‘‘ मुझे कोई भयानक बीमारी हो गई है ?’’ वह धीरे से बोली.

‘‘ क्या ?’’ उन्हों ने अंतू को गले से हटा कर उस का चेहरा देखा. फिर उस के गाल पर एक प्यारीसी पप्पी लगा कर पूछा,‘‘ क्या हुआ ? मुझे नहीं बताओगी ?’’

डरतेडरते अंतिम ने बता दिया,‘‘ उस की पेषाब की जगह खून निकल रहा है.’’ कहते हुए वह भावावेश में डर के मारे मोहनजी से चिपक गई.

मोहनजी की नियत डोल गई, ‘‘ इस का इलाज है मेरे पास ?’’

सुन कर अबोध अंतिम खुश हो गई,‘‘ क्या है अंकल, बताइए ना ?’’ वह चहक उठी.

‘‘ मगर मेरी एक शर्त है. यह इलाज किसी को बताना नहीं.’’

‘‘ नहीं तो ?’’

‘‘ वापस ज्यादा खून निकलने लगेगा.’’ मोहनजी ने उसे कुरेदा.

‘‘ नहीं बताऊंगी,’’ अंतिम ने कहा और जिद कर के बारबार पूछने लगी तब मोहन बोले,‘‘ जिस तरह अंगुली में खून निकलने पर उसे दबा कर खून बंद किया जाता है वैसे ही इस जगह को दबा कर खून बंद कर सकते हैं.’’

‘‘ सच !’’

‘‘ हां ’’ कहते हुए मोहनजी ने उस के अंग में अपनी अंगुली चला दी. फिर धीरेधीरे उस में अंगुली फेरने लगे.

अंतिम के लिए अजूबा था. पहले उसे अटपटा लगा. फिर धीरेधीरे मजा आने लगा. मोहनजी बहुत देर तक यह कृत्य करते रहे. अंतिम चुपचाप बैठी रही. उसे यह अच्छी लग रहा था. मगर, कुछ शंका थी.

‘‘ मेरा खून बंद हो जाएगा ?’’

‘‘ हां, मगर, चार दिन लगेंगे,’’ मोहनजी ने कहा,‘‘ तब तक तुम इस तरह यह कपड़ा लगा कर रखना और हां, घर पर यह बात मत बताना कि यह कपड़ा मैं ने लगाया है. मम्मी पूछे तो कह देना- एक सहेली ने लगाया है.’’

मोहनजी की यह तरकीब कामयाब रही. अब वे अंतिम के अंगों से खेलने लगे थे. वे दूध पीते तो दस रूपए पकड़ा देते. पप्पी देते तो दस रूपए दे देते. अंतिम के लिए यह मजेदार खेल थे.

जहां उसे मजा आता वहां उसे पैसे भी मिल जाते थे. यह खेल कब धीरेधीरे अंग संचालन तक पहुंच गया. अंतिम को पता नहीं चला. मगर, जब पता चला तो उसे इस में मजा आने लगा था.

फिर एक दिन वह सब कुछ हो गया जिस की कल्पना अंतिम ने नहीं की थी. यह उस के लिए एक मजेदार खेल था. तब वह पहली बार समझी कि औरतआदमी साथ क्यों रहते हैं. उन के बीच प्रेमप्यार क्यों बढ़ता है.

यह सिलसिल दो साल चलता रहा. एक दिन मोहनजी वहां से स्थानांतरित हो कर चले गए. मगर, जब वे एक दिन वापस आए तो उन के साथ उन का लड़का था. वे अंतिम की शादी उस से तय कर गए.

अंतिम को बहुत दुख हुआ.

‘‘ मम्मी ! मैं सुनील से शादी नहीं करूंगी ?’’

‘‘ क्यों बेटी ? क्या कारण है ?’’ मम्मी ने उस से पूछा,‘‘ क्या सुनील अच्छा लड़का नहीं है ? क्या वह खुबसूरत नहीं है ? या फिर, और कोई बात है ? या तूझे पसंद नहीं है.’’

‘‘ नहीं मम्मी , ऐसी बात नहीं है ,’’ अंतिम ने कहा.

‘‘ फिर भी, कोई कारण तो होगा ? जिस के लिए तू सुनील से शादी नहीं करना चाहती है ?’’

अंतिम क्या बताती. उस के पिता से उस के संबंध थे इसलिए वह सुनील से शादी नहीं करना चाहती है. या फिर वह यह बताती कि सुनील के पिता ऐसे इनसान है इसलिए वह उन से शादी नहीं करना चाहती है. फिर मोहनजी सब कुछ जानते हुए सुनील की शादी उस से क्यों करना चाहते हैं. यह अंतिम समझ नहीं पा रही थी.

उसे मोहनजी के इरादे ठीक नहीं लगे. वे उसे से वापस खेल खेलना चाहते हैं. यही वजह है कि वे उस से शादी करवाना चाहते हैं. मगर, अंतिम कोई वजह नहीं बता पाई. उस की शादी सुनील से हो गई.

अंतिम भी पुरानी बात भूल जाना चाहती थी. उस ने अपने पति से अपना संबंध जोड़ लिया था. वह अपने पति से बहुत प्यार करती थी. इस कारण, वह कभी अपने श्वसुर के पास नहीं जाती थी. मोहनजी ने बहुत कोषिश की. वह अंतिम को अपना षिकार बनाए. मगर, अंतिम सजग रहने लगी थी.

वह जैसेजैसे बचने की कोषिश करती वैसेवैसे मोहनजी उसे अपनी ओर अकर्षित करने की कोषिश करते. मगर, अंतिम गलती दोहराना नहीं चाहती थी. वह इसे अपने बचपन की नादान हरकत समझ कर भूला बैठी थी.

वह मन ही मन किए पर शरमिंदा थी. इसलिए उस ने अपनी इस शरमिंदगी को एक डायरी में उतार लिया. ताकि वह अपने मन का बोझ हल्का कर सकें.

मगर, आज सुनील बाहर गया हुआ था. सास घर पर नहीं थी. मोहनजी को अवसर मिल गया. वे अंतिम के पास पहुंच गए. फिर उस से ‘एक बार’ वही खेल करने की विनती की. अंतिम ने स्पष्ट मना कर दिया,‘‘ वह सुनील की अमानत है. आप की बहू. अब वह ऐसा कोई काम नहीं करेगी जिस से उसे शरमिंदा होना पड़े.’’

‘‘ तो क्या हुआ ? मैं तूझ से अमानत छिन नहीं रहा हूं.’’

‘‘ तो फिर ये क्या है ?’’ अंतिम ने पूछा.

‘‘ यह तो वही प्रेम है.’’

‘‘ इसे आप प्रेम कहते हैं.’’

‘‘ हां, इस से तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा,’’ मोहन जी ने उसे अपनी ओर खींचते हुए कहा था,‘‘ जो तेरा पति करता है, वहीं मैं करना चाहता हूं.’’

तब अंतिम चींख पड़ी थी.,‘‘ मुझे नहीं करना. यह सब कुछ.’’

तभी किसी ने उसे झकझोरा,‘‘ बेटी ! रोटी खा लो.’’

वह अतीत से वर्तमान में लौट आई,‘‘ मां ! भूख नहीं है ?’’ उस ने कहा.

‘‘ ऐसे कैसे काम चलेगा अंतू,’’ मम्मी ने उसे समझाया,‘‘ जाने वाला तो चला गया. अब उस के लिए रोने से क्या फायदा ?’’

मगर, अंतू नहीं मानी. मां थक कर वापस चली गई.

तभी अंतिम का हाथ तकिए के नीचे चला गया. वहां कोई कागज पड़ा था. उस ने झट से वह कागज निकाल लिया. वह एक चिट्ठी थी. सुनील को जब भी सरप्राइज देना होता था वह इसी तरह चिट्ठी लिख कर तकिए के नीचे रख दिया करता था.

उस ने झट से चिट्ठी खोली. उस में लिखा था.

‘ प्रिय अंतू !

मैं तुम्हारे लिए दो चिट्ठी छोडे़ जा रहा हूं. पहले 1 नंबर वाली चिट्ठी पढ़ना. उस के बाद 2 नबंर वाली चिट्ठी खोलना.

तुम्हारा सुनील.’

अंतिम ने झट से एक नंबर वाली चिट्ठी उठाई. उसे खोला और पढ़ने लगी.

‘‘ प्रियवर !

मैं तुम्हारी पीड़ा समझ चुका हूं. मैं जानता हूं कि तुम बेकसूर हो. मुझे यह भी पता है कि तुम्हारे बचपन में तुम्हारे साथ क्याक्या बीत चुका है. तुम सोच रही हो कि मुझे कैसे पता चला. इस की भी एक वजह है.

एक बार मैं ने तुम्हें पापाजी से बहस करते हुए देख लिया था.

तब मुझे वह सब जानने की इच्छा हुई. इस के लिए मैं ने तुम्हारी डायरी पढ़ ली थी. उस में तुम्हारी सारी व्यथाकथा लिखी थी. इसलिए मैं तुम्हें बेकसूर मानता हूं. यह गलती तुम्हारी नहीं है. तुम नादान थी. यह मेरे बाप की गलती थी. जिस की सजा तुम भुगत रही थी. इसलिए मैं तुम्हें नादान समझ कर कब का माफ कर दिया था. मगर.....

मगर, मैं अपने बाप को माफ नहीं कर पा रहा हूं. उसे मेरी शादी के बाद अपनी बहु के साथ ऐसी नीच हरकत नहीं करना चाहिए थी. इसलिए मैं इस दुनिया से जा रहा हूं.

मेरी मौत का जिम्मेदार मेरा बाप है. यदि तुम भी उसे जिम्मेदार मानती हो तो उसे पुलिस के हवाले कर देना. सबूत के तौर पर यह चिट्टी पुलिस को दे देना. उसे अपने किए की सजा मिलेगी. यदि तुम उसे सजा न दे सकें. यह तुम्हारी मरजी है.

यह सोच कर कि तुम्हारी बदनामी होगी तो मेरी दूसरी चिट्टी पढ़ लेना. अन्यथा उसे जला देना.

तुम्हारा अभागा पति

सुनील.’

अंतिम पढ़ कर वह दंग रह गई. उस ने तत्काल दूसरी चिट्ठी खोल कर पढ़ी. उस में लिखा था.

‘‘ प्रियवर,

यदि तुम मेरे कमीने बाप को माफ कर चुकी हो तो अपने मायके चली जाना. यहां मत रहना. यह मेरी अंतिम इच्छा है.

तुम्हारा डरपोक पति

सुनील ’’

यह चिटठी पढ़ कर वह उठी. उसी समय उस के श्वसुर मां के साथ कमरे में गई. उस ने चुपके से पहली वाली चिट्ठी उन की ओर बढ़ दी. उन्हों ने चिट्ठी खोली. और पढ़ कर चुपचाप दूसरे कमरे में चले गए.

अंतिम धम्म से बिस्तर पर गिर गई. उस की मां कुछ समझ नहीं पाई. वह अंतिम के माथे पर हाथ फेरने लगी.

***

दिनांक- 14.09.2014

प्रमाणपत्र

प्रमाणित किया जाता है कि प्रस्तुत रचना मेरी मौलिक है. यह कहीं से ली अथवा चुराई नहीं गई है. इसे अन्यत्र प्रकाश न हेतु नहीं भेजा गया है.

ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश ’

अध्यापक, पोस्ट आफिस के पास

रतनगढ - 485226 जिला-नीमच (मप्र)

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