युवाओ को संबोधित करते हुए श्री नरेंद्र मोदी Virendra Baghel द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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युवाओ को संबोधित करते हुए श्री नरेंद्र मोदी

फर्ग्यूसन कॉलेज पुणे में युवाओं को

संबोधित करते हुए

श्री नरेंद्र मोदी

लेखक :—

विरेन्द्र बघेल

1772baghel.virendra@gmail.com


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फर्ग्यूसन कॉलेज पुणे में युवाओं को

संबोधित करते हुए श्री नरेंद्र मोदी

— 14 जुलाई, 2013

श्रीमान डॉ. श्रीकृष्ण कानेटकर जी, डॉ. रविंद्र सिंह परदेशी जी, मेरे साथी श्रीमान श्याम जाजू जी, उपस्थित सभी महानुभाव और सभी नौजवान मित्राो! जो लोग इस सभागृह में नहीं पहुँच पाए हैं और जिन्हें दूर से ही इस कार्यक्रम को देखने का अवसर आया है, उन मित्राों से मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप कार्यक्रम के बाद रुकिए, मैं आपके पास आऊँगा। मैं श्रीमान विजय शिरके जी के परिवार को बहुत—बहुत बधाई देता हूँ, उन्होंने इस ऐतिहासिक स्थल को सुरक्षित और संवर्धन करने के लिए अपने परिवार का योगदान दिया और इस पवित्रा कार्य को करने के लिए जिस परिवार ने योगदान दिया, उस परिवार का सम्मान करने का मुझे सौभाग्य मिला, इसलिए मैं आप सबका बहुत आभारी हूँ!

कई वषोर्ं से फर्ग्यूसन कॉलेज के संबंध में, यहाँ की शिक्षा प्रवृत्ति के संबंध में, जब भी कुछ महापुरुषों के जीवन को पढ़ने का अवसर मिला, तो अवश्य रूप से फर्ग्यूसन कॉलेज का उल्लेख आया। मन में था ही कि कभी—न—कभी इस पवित्रा धरती की रज अपने माथे पर चढ़ाने का सौभाग्य मिले, और वो सौभाग्य मुझे आज मिला है। वीर सावरकर जी प्रशिक्षण काल में जिस जगह पर रहकर के स्वातस्य देवी की उपासना करते थे, जहाँ से वो स्वातंत्रय का संदेश अपने साथियों को सुनाते थे, उस कक्ष में जाने का मुझे सौभाग्य मिला। भारत माँ की उत्कृष्ट सेवा करने की तीव्रतम इच्छा के वाइब्रेशन्स उस कक्ष में अनुभव किए, ये भी मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ। और जिस स्थान पर मैं अभी खड़ा हूँ, इतिहास गवाह है कि एक सौ साल पुरानी ये विरासत है, जहाँ पर देश के गण्यमान्य महानुभावों ने अपने विचारों से युवा पीढ़ी का और राष्ट्र का मार्गदर्शन किया है! हम कुछ भी ना करें, किसी वक्ता को भी ना बुलाएँ, सिर्फ मौन होकर के सौ साल की उस विरासत का हम अनुभव करें और मन में फिर स्मरण करें कि इस भूमि पर गाँधी आए होंगे तो कैसा दृश्य होगा, रवींद्रनाथ टैगोर आए होंगे तो कैसा दृश्य होगा, श्री रमण आए होंगे तो कैसा दृश्य होगा! ऐसे—ऐसे महापुरुष जब इस कक्ष में आए होंगे तो वो पल कैसे होंगे! अगर हम मौन रहकर के कुछ पल उन स्मृतियों का स्मरण करें, तो मित्राो, मुझे विश्वास है कि उन महापुरुषों के शब्दभाव आज भी यहाँ आंदोलित होते होंगे। हम उन आंदोलित भावों को अनुभव कर सकते हैं, सिर्फ हमारे मन की स्थिति होनी चाहिए! अगर हमारे मन की स्थिति हुई तो हम अनुभव कर सकते हैं। जैसे टीवी पर हम अपने पसंद का चैनल चलाते हैं और वो चैनल हमारे पास आता है, वैसे ही मन के चैनल को उसके साथ जोड़ दिया जाए तो हम उसकी अनुभूति कर सकते हैं। और ऐसे स्थान पर मुझे कुछ कहने का सौभाग्य मिल रहा है, ये अपने—आप में मेरे लिए एक बहुत बड़े सौभाग्य का पल है और मैं इसके लिए यहाँ के सभी व्यवस्थापकों का बहुत—बहुत आभारी हूँ!

मेरा फर्ग्यूसन कॉलेज में आना जब तय हुआ, तो मैंने एक छोटा—सा प्रयोग किया। मैं सोशल मीडिया में बहुत एक्टिव हूँ। टि्‌वटर, फेसबुक पर नई पीढ़ी के साथ जुड़ा रहता हूँ, उनके विचारों को जानने का मुझे बहुत अच्छा अवसर मिलता है। तो मैंने इस फर्ग्यूसन कॉलेज में आने से पहले फेसबुक पर एक रिक्वेस्ट लिखी थी कि मैं फर्ग्यूसन कॉलेज जा रहा हूँ, वहाँ के विद्यार्थी मित्राों से मिल रहा हूँ, तो आपको क्या लगता है कि मुझे क्या कहना चाहिए? आप मुझे गाइड करें, मेरा मार्गदर्शन करें! ऐसा मैंने सोशल मीडिया में, जो नौजवान एक्टिव हैं उनसे प्रार्थना की थी। और मैं आज बड़े आनंद और गर्व से कहता हूँ कि देश के कोने—कोने से ढाई हजार से अधिक नौजवानों ने मुझे चिट्ठी लिखी। यहाँ पर क्या बोलना, क्या कहना, उनके मन में क्या व्यथा है, क्या पीड़ा हैइतने उत्तम शब्दों में उन्होंने लिखा! मेरे भाषण में उन नौजवानों के विचारों की छाया रहेगी क्योंकि मैंने उसे पढ़ा है। एक प्रकार से आज के मेरे भाषण को बाँधने में बहुतेक मात्राा में सोशल मीडिया में मुझे एडवाइज करने वाले उन नौजवानों का योगदान है और एक प्रकार से ये भाषण मोदी का नहीं है, ये भाषण उन ढाई हजार सोशल मीडिया पर एक्टिव और प्रोएक्टिव नौजवानों का है, मैं सिर्फ उसको अपनी वाणी दे रहा हूँ और हो सकता है कुछ भाषा में मेरे अपने भाव प्रकट होंगे लेकिन मूल विचार उन नौजवानों ने दिए हैं। मैं फिर से एक बार उन नौजवानों का बहुत—बहुत आभार व्यक्त करता हूँ! और मैं एक संतोष व्यक्त करता हूँ। कभी—कभी चर्चा चलती है कि भई देश के नौजवान, देश की स्थिति, क्या चलता होगा? ये ढाई हजार देश के हर कोने में से हैं। कश्मीर से भी लिखने वाले लोग हैं, नागालैंड और मिजोरम से भी लिखने वाले लोग हैं, कन्याकुमारी से भी लिखने वाले लोग हैंदेश के हर कोने से लिखने वाले लोग हैं। और मैं उसमें एक समान भाव देखता हूँ, मैं उसमें एक समान तंतु देखता हूँ। और वो समान तंतु ये नजर आता है कि ये सब—के—सब देश की हर बात से, हर घटना से बहुत ही कंसर्न्ड हैं। हम जो मानते हैं कि हमारे नौजवानों को कोई परवाह नहीं, वो तो बस जींस का पैंट पहनना और लंबे बाल रखना यही उनका काम है, ऐसा नहीं है! वे सोचते हैं, वे कुछ करना चाहते हैं, वे कुछ कहना चाहते हैं और ये मैंने आज इस फर्ग्यूसन कॉलेज के मेरे लेक्चर के माध्यम से अनुभव किया कि नौजवानों के दिल में क्या आग है, क्या स्पार्क है, क्या सपने हैं, कितना सामर्थ्य पड़ा है, कठिनाइयों के बावजूद कुछ करने का कितना उमंग और उत्साह है! और जिस देश का नौजवान इतना सामर्थ्यवान हो, कुछ करने के लिए प्रतिबद्ध हो, उस देश का भविष्य कभी भी अंधकारमय नहीं हो सकता है, ये मैं आज इस पवित्रा धरती से कहना चाहता हूँ! और हम बहुत भाग्यशाली हैं, हम विश्व के सबसे युवा देश हैं। हमारे देश की 65÷ जनसंख्या 35 से कम आयु की है। जिस देश के अंदर 65÷ से अधिक जनसंख्या 35 से कम आयु की हो, वो युवा देश दुनिया को क्या कुछ नहीं दे सकता है, दुनिया के लिए क्या कुछ नहीं कर सकता है! एक प्रकार से ना सिर्फ हिंदुस्तान की समस्याएँ, बल्कि विश्व की समस्याओं के समाधान के लिए भी ये युवा शक्ति काम आ सकती है, बशर्ते कोई करने वाला हो, कोई सोचने वाला हो, कोई दिशा देने वाला हो, कोई उँगली पकड़कर चलने वाला हो, तो सब कुछ संभव है!

मित्राो, आज जो देश में निराशा का माहौल है! चारों तरफ, कोई भी मिले तो कहता है, छोड़ो यार, पिछले जन्म में क्या पाप किए होंगे जो हिंदुस्तान में पैदा हुए! छोड़ो यार, कुछ होना नहीं है! अरे छोड़ो यार, तुम क्यों औरों की परवाह करते हो, तुम अपना कर लो! ये ही भाषा सुनाई देती है। मित्राो, मैं इस भाषा को, इस निराशा के स्वर को एन्डोर्स नहीं करता हूँ। ये बहुरत्ना वसुंधरा है, हजारों सालों की सांस्कृतिक विरासत के हम धनी हैं। 1200 साल की गुलामी के बाद भी सीना तानकर खड़े रहने का सामर्थ्य इस धरती का है। क्या कारण है? लोकमान्य तिलक ने अँग्रेज सल्तनत के सामने उस समय जो ललकार किया था, ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है', वो कौन—सी ताकत थी, कौन—सा आत्मविश्वास था! अगर गुलामी के उस कालखंड में भी हमारे उस समय के नेताओं में वो सामर्थ्य था, तो आज तो देश स्वतंत्रा है, निराशा किस बात की? और इसलिए मित्राो, देश को इस निराशा के माहौल से ऊपर उठना बहुत आवश्यक है। और ऐसा नहीं है कि सब कुछ डूब चुका है, आज भी बहुत कुछ अच्छा होने की संभावना है!

आज हमारी शिक्षा व्यवस्था की अगर हम चर्चा करें, तो ऐसे हालात क्यों हुए? जो लोग हमारे देश के एजुकेशन के इतिहास को जानते हैं उनको पता होगा, हजारों वर्ष से हमारी कैसी महान परंपराएँ थीं! मैं तो रिसर्च स्कॉलर्स से प्रार्थना करता हूँ कि हमारी गुरुकुल की शिक्षा परंपरा और आज की अमेरिका की मॉडर्न एजुकेशन सिस्टम, दोनों को आधुनिक तराजू पर तौलकर देखा जाए तो हमें ध्यान में आएगा कि जिस प्रकार से अमेरिकन एजुकेशन सिस्टम में व्यक्ति के भीतर की ताकत को उजागर करने के लिए एक प्रॉपर एन्वायरमेंट प्रोवाइड किया जाता है, उसकी रुचि, प्रकृति, प्रवृत्ति के अनुसार उसको विकसित होने का माहौल दिया जाता है। उसको फीड नहीं किया जाता है, उसको लर्निंग के लिए रास्ते दिखाए जाते हैं। अगर हम हमारी गुरुकुल परंपरा को देखें, तो उसमें क्या था? एक ही ऋषि की चर्चा हो, एक ही ऋषि के आश्रम की चर्चा हो, लेकिन उसी के वहाँ राजकुमार भी पढ़ता है, योद्धा भी पढ़ता है, राज व्यवस्था को सँभालने वाले मंत्राी लोग भी पढ़ रहे हैं, कर्मकांड करने वाले पंडित भी पढ़ रहे हैं, वेद के ज्ञानी होना चाहते हैं वो भी पढ़ रहे हैंक्या कारण होगा? एक ही छोटा—सा आश्रम, एक ही ऋषि और वहाँ सब विधाओं को इस प्रकार से सामर्थ्यवान बनने के लिए अवसर मिलता होगा! उसी एक जगह से राजकुमार, राजकुमार के लिए जो चाहिए वो शिक्षा—दीक्षा लेकर के निकलता था। योद्धा, योद्धा के लिए जरूरी शिक्षा—दीक्षा लेकर के निकलता था। टीचर, टीचर के लिए, क्राफ्ट मैन, क्राफ्ट मैन के लिए, पंडित, पंडित के लिए जरूरी शिक्षा—दीक्षा लेकर के निकलता थाक्या कारण था? और आज उस पुरानी परंपराओं को देखें तो हम सोच सकते हैं कि हमारे पास कितना कुछ था, जो हमने गँवा दिया। मित्राो, हमारा सपना होना चाहिए गुरुकुल से विश्वकुल तक की यात्राा का! हम वो लोग हैं जिन्होंने उपनिषद्‌ से उपग्रह तक की यात्रााएँ की हैं, गुरुकुल से विश्वकुल तक के सपने सँजोए हैं! लेकिन फिर भी आज विश्व जब ‘21वीं सदी किसकी' का सवाल पूछता है तब हम सवालिया निशान के नीचे झुककर के खड़े हो जाते हैं। ऐसी स्थिति कब तक? मित्राो, जो यूनिवर्सिटी के इतिहास को जानते हैं उनको मालूम होगा। हमारे यहाँ यूनिवर्सिटीज में कॉन्वोकेशन की जो परंपरा होती है, सबसे पहले कॉन्वोकेशन का उल्लेख तैत्तिरीयी उपनिषद्‌ में मिलता है। दुनिया में मानव जात के इतिहास में सबसे पहला कॉन्वोकेशन तैत्तिरीयी उपनिषद्‌ में लिखा गया है जोकि हजारों साल पुरानी रचनाएँ हैं। मित्राो, यदि यूनिवर्सिटीज की अवेलेबल हिस्ट्री को देखा जाए तो कहा जाता है कि पूरी मानव संस्कृति की विकास यात्राा में यूनिवर्सिटी शिक्षा की उम्र करीब 2600 साल होगी, और आज मैं गर्व से कहता हूँ कि 2600 साल की इस शिक्षा—दीक्षा की यात्राा में 1800 साल तक एकचक्रीय शासन अगर किसी का रहा है, तो वो हिंदुस्तान के हमारे शिक्षकों का रहा है, हमारी शिक्षा प्रणाली का रहा है। बीच के 800 साल जो हमारी गुलामी के थे, उस समय हमने सब गँवा दिया और विश्व की शिक्षा प्रणालियों ने अपना सिर ऊँचा किया। 1800 साल तक शिक्षा के क्षेत्रा में सर्वमान्य व्यवस्था हमारी यही थी। हम नालंदा और तक्षशिला के लिए सुनते हैं, वल्लभी के लिए सुनते हैं। वल्लभी गुजरात में था, नालंदा और तक्षशिला पूर्व के हिस्से में थे। और दुनिया से लोग पढ़ने के लिए यहाँ आते थे। और वल्लभी तो एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था थी कि जहाँ पर विद्यार्थियों की सुविधा के लिए लोथल में समुद्र किनारे पर स्वतंत्रा पोर्ट बनाया गया था और करीब 84 देश के लोग वहाँ लोथल में आते थे, और वहीं से नजदीक में पचास किलोमीटर की दूरी पर वल्लभी में जाकर के पढ़ाई करते थे, शिक्षा—दीक्षा लेते थे। ये हमारा भव्य इतिहास रहा है! क्या हुआ, मित्राो! देश आजाद होने के बाद अगर हमने हमारी इस महान परंपरा को फिर से उजागर करने के सपने देखे होते, आधुनिक शिक्षा की ओर हमने करवट बदली होती, विश्व की आधुनिक शिक्षा को ग्राह्य करने का हमने सोचा होता, तो साठ साल के इतिहास में हम बहुत कुछ कर सकते थे।

मैं इस पवित्रा धरती पर से कोई राजनीतिक बयानबाजी करना नहीं चाहता हूँ। लेकिन भारत के नागरिक के नाते कहता हूँ, आजाद हिंदुस्तान के समय में सारे हिंदुस्तान के सामान्य नागरिक की कुछ आशा—आकांक्षाएँ थीं, क्या वो आशा—आकांक्षाएँ परिपूर्ण हुई हैं? मित्राो, शिक्षा हमारे लिए मैन मेकिंग मिशन था, आज शिक्षा मनी मेकिंग मशीन बन गया है! क्यों? कौन जिम्मेदार है? मैन मेकिंग मिशन से हम मनी मेकिंग मशीन की ओर चल पड़े हैं! मित्राो, ये गिरावट कैसे आई? क्या हमारे पूर्वजों ने हमें ये दिया था? ये हमारी परंपराएँ थीं? इन परंपराओं के सामने किसी को तो खड़े होने की आवश्यकता है, मित्राो! और मैं निराश नहीं हूँ। ये स्थितियाँ भी बदली जा सकती हैं, स्थितियों को ठीक किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए आपके पास विजन होना चाहिए। आप कल्पना कीजिए मित्राो, आज भी श्रेष्ठ शिक्षा संस्थानों की जब चर्चा होती है तो किसकी होती है? फर्ग्यूसन कॉलेज की होती है, शांति निकेतन की होती है, मालवीय जी द्वारा प्रारंभ की गई हिंदू बनारस यूनिवर्सिटी की होती है, बिट्‌स पिलानी की होती है! इसमें कहीं सरकार है क्या? कहीं सरकार नजर आती है क्या? महात्मा गाँधी द्वारा प्रारंभ किए गए गुजरात विद्यापीठ की ओर नजर जाती है! कहने का तात्पर्य ये है कि आजादी के पहले, देश गुलाम था तब भी, हमारे इन महापुरुषों ने शिक्षा का माहात्म्य समझा, और समझ कर के जिन संस्थानों को जन्म दिया था उसमें से किसी की उम्र अस्सी हुई होगी, किसी की सौ हुई होगी, किसी की सौ से ऊपर हुई होगीइन सबमें किसी—न—किसी महापुरुष का योगदान है, शासन व्यवस्था का योगदान नहीं है। मित्राो, क्या आजादी के बाद हम कोई ऐसी चीज नहीं कर सकते थे, जिसके कारण पूरे विश्व के अंदर हम गर्व से कहें कि हाँ भाई, शिक्षा के क्षेत्रा में हम ये काम कर रहे हैं। ये नहीं हुआ!

मित्राो, मैंने खुद तो उस गजट का स्टडी नहीं किया लेकिन किसी के भाषण में मैंने बहुत सालों तक सुना था। 1835 के गजट कहते हैं कि उस समय बंगाल 100÷ लिटरेट था। आज क्यों ऐसा हुआ कि आजादी के बाद हम उन सपनों को पूरा नहीं कर पाए? मित्राो, आप देखिए, केरल आज हर गाँव में शिक्षा पहुँचाने में सफल हुआ है। पूरे देश में केरल का एक बहुत अच्छा प्रदर्शन रहा है। लेकिन इसकी बारीकी में जाएँ तो ध्यान में आता है कि उसमें भी सरकारों का योगदान नहीं है। शिवगीरी मठ के नारायण गुरु महाराज हो गए, सौ साल से अधिक समय से पहले पिछड़ी जाति में पैदा हुए थे लेकिन उन्होंने एक मंत्रा लिया था कि मुझे केरल के हर मछुआरे को शिक्षित करना है, हर गरीब को शिक्षित करना है और उसका परिणाम ये आया कि सौ साल पहले जो नींव डाली गई, आज केरल शिक्षा की दिशा में समग्र देश के लिए एक प्रेरक उदाहरण बन के बैठा है। योगदान किसका? शिवगीरी मठ के नारायण गुरु स्वामी का, जिन्होंने अपना जीवन इसी काम के लिए खपाया था। कहने का मेरा तात्पर्य यही है मित्राो, कि व्यक्तिगत तौर पर आजादी के पूर्व से हमारे कई महापुरुषों ने योगदान दिया उसके कारण हम टिके हुए हैं।

मित्राो, मैं कालबाह्य चीजों को छोड़ने का पक्षकार हूँ। मैं आधुनिकता का पक्षकार हूँ। लेकिन मॉडर्नाइजेशन विदआउट वेस्टर्नाइजेशन। आधुनिकता चाहिए, पश्चिमीकरण नहीं। हमारे अपने सामर्थ्य हैं। मित्राो, हम हमारी शिक्षा के द्वारा विश्व के सामने आँख से आँख मिलाकर के ताकत के साथ खड़े रह सकें ऐसे हमारे नौजवान क्यों नहीं तैयार कर सकते! मित्राो, दुनिया हमारी शक्ति को मानने को तैयार नहीं थी, लेकिन जब हमारे बीस—पच्चीस साल के नौजवानों ने आई.टी. के क्षेत्रा में अपना रुतबा दिखाना शुरू किया और दुनिया को उँगलियों पर नचाने के लिए कंप्यूटर का उपयोग करके विश्व में फैल गए, तब विश्व को ध्यान में आया कि अच्छा, हिंदुस्तान के पास ये भी है! ये सामर्थ्य हमारे लोगों ने दिखाया! क्या हम इन्हीं चीजों को आगे नहीं ले जा सकते हैं?

मित्राो, आज पूरे विश्व में 21वीं सदी हिंदुस्तान की सदी, इसकी चर्चा हम कई दिनों से सुन रहे हैं। इस देश के कई प्रधानमंत्राी हमको ये कहकर गए कि 21वीं सदी आ रही है, 21वीं सदी आ रही है! हमारे कान उन सबको सुनते—सुनते पक गए! लेकिन क्या कभी हमने 21वीं सदी हिंदुस्तान की सदी बने उसके लिए सोचा, मित्राो? अगर 20वीं सदी के उत्तरार्ध में आजाद हिंदुस्तान के प्रारंभ से हमारे राष्ट्रीय नेतृत्वों ने पचास साल के भीतर देश को कहीं ले जाना है, 21वीं सदी में प्रवेश करेंगे तब हम कहीं होंगे, उसका एक सपना देखकर के उस सपने को पूरा करने की दिशा में व्यवस्थाओं के बारे में सोचा होता तो शायद आज हम जहाँ खड़े हैं वहाँ नहीं खड़े होते! आप साउथ कोरिया को देखिए, हमारे ही कालखंड में वो आजाद हुआ। और फर्क देखिए मित्राो, साउथ कोरिया और गुजरात का बराबर पॉपुलेशन है, गुजरात का साइज और साउथ कोरिया का साइज समान है। लेकिन इतने कम समय में साउथ कोरिया दुनिया के समृद्ध देशों में आ गया। इतना ही नहीं, साउथ कोरिया जैसा छोटा देश ओलम्पिक गेम्स का होस्ट बनता है। सियोल के ओलम्पिक गेम्स से साउथ कोरिया ने सारे विश्व में अपना एक स्थान बना लिया। खेल के माध्यम से दुनिया में साउथ कोरिया ने अपना पोजिशन कर लिया और इतने छोटे देश में इतना बड़ा ईवेंट करके सारी दुनिया को चकित कर दिया। क्या मानव ताकत होगी उनके पास, कैसी टें्रट मैनपावर होगी, कैसे विजनरी लोग होंगे! और 120 करोड़ की आबादी वाला देश, सिर्फ कॉमनवेल्थ गेम्स ऑर्गेनाइज करना था, सी.डब्ल्यू.जी., क्या कर दिया हमने! दुनिया में देश की इज्जत को लुटा दिया, नीलाम कर दिया। खेल—कूद की दो घटनाएँ, एक घटना साउथ कोरिया को विश्व के मानचित्रा पर एक शक्ति संपन्न राष्ट्र के रूप में उभार कर रख देती है और दूसरी एक छोटी—सी कॉमनवेल्थ गेम की घटना हमारे देश की इज्जत को मिटाने का काम करती है! मित्राो, तब सवाल उठते हैं, चिंता तब होती है कि क्या हम देश को इस दिशा में ले जाना चाहते हैं? 120 करोड़ का देश, जब भी ओलम्पिक गेम्स होते हैं उस समय टीवी में, अखबारों में, नेताओं में, सामाजिक जीवन में सब जगह चर्चाएँ होती हैं कि इतना बड़ा देश, एक गोल्ड मैडल नहीं मिला! फलाना देश ये कर गया, ढिकना देश वो कर गया! ठीक है, स्थिति ऐसी हैलेकिन कभी इस देश की शिक्षा व्यवस्था को हमने इसके साथ जोड़ा? क्या हमारे देश की युवा पीढ़ी को हमने अवसर दिया? और क्या मित्राो, 120 करोड़ के देश में कोई नहीं मिल सकता? अरे, सिर्फ सेना के जवानों को ये काम दिया जाए कि सेना के जो न्यूली रिक्रूटेड जवान हैं उसमें से मैचिंग किया जाए, स्पोटर्‌स में रुचि लेने वाले हैं उनको एक अलग जगह पर रखा जाए और उनको ही ट्रेनिंग देने का काम शुरू कर दिया जाए, तो मैं बताता हूँ मित्राो, पाँच—सात मैडल तो ये हमारे सेना के जवान लेकर के आ सकते हैं! सोच चाहिए! सब—के—सब हाथ पर हाथ धर के बैठे रहते हैं, नहीं हुआ, कुछ नहीं हुआऔर अगर एक—आध जो नसीब आ गया तो उसी को लेकर के सीना तानकर घूमते रहते हैं!

मित्राो, राष्ट्र ऐसे नहीं चलता और इसलिए जब नेशन बिल्डिंग की बात आती है तब ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेंट उसकी सबसे बड़ी और पहली आवश्यकता होती है। सरकार बजट खर्च करती है तो क्या करती है, यूनिवर्सिटी बिल्डिंग बनाती है! हमें तय करना है कि क्या हमारी शक्ति यूनिवर्सिटी बिल्डिंग में लगेगी या हमारी शक्ति बिल्डिंग द यूनिवर्सिटी में लगेगी। मित्राो, बात छोटी है, ये मेरे शब्दों का खेल नहीं है, मेरे भीतर से आवाज उठ रही है कि हमारी प्राथमिकता क्या है? हमारी प्रायोरिटी बिल्डिंग द यूनिवर्सिटी होनी चाहिए कि यूनिवर्सिटी की बिल्डिंग हमारी प्रोयोरिटी होनी चाहिए? यूनिवर्सिटी की बिल्डिंग बनाने में बड़ा इंटरेस्ट होता है, क्योंकि टेंडर होता है! और इसलिए मित्राो, हमारी प्रायोरिटीज हमें तय करनी होगी! ऐसा नहीं है कि समस्याओं के समाधान नहीं हैं। समस्याओं के समाधान हैं, करने का इरादा चाहिए।

मित्राो, आप चाइना की तरफ देखिए! ये बात सही है कि पिछले तीस—चालीस साल से एक बात की लगातार चर्चा चल रही है कि 21वीं सदी किसकी! तो लोग कहते थे एशिया की, अब कोई कहता है चाइना की, तो कोई कहता है हिंदुस्तान की और इसमें ज्यादा मतभेद नहीं है। अब पश्चिम के हाथ में ज्यादा कुछ रहने वाला नहीं है, ये सर्वसम्मति बन चुकी है। पूर्व की ओर झुकाव है ये सर्वसम्मति बन चुकी है। बात अटकी हुई है चाइना—इंडिया, चाइना—इंडिया! मित्राो, 21वीं सदी में सर्वोपरिता के दरवाजे पर आकर खड़े दो देश, एक का रोड मैप देखिए और दूसरे का रोड मैप देखिए! हमें पता चलेगा मित्राो, 1978 में चाइना ने तय किया कि हमें ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेंट पर जोर देना है, तो चाइना ने एक कमीशन बैठाया और उस देश की प्रायोरिटीज तय की। कौन—सी प्रमुख चीजें हैं जिस पर हमें बल देना है! एग्रीकल्चर को छाँटा, एजुकेशन को छाँटा, साइंस एंड टैक्नोलॉजी को छाँटा, इकॉनोमिकल एक्टिविटी को छाँटा, सिक्योरिटी एंड डिफेंस को छाँटाचार—पाँच मुख्य बिंदुओं को उन्होंने छांटा और फिर इसको पार करने के लिए पहली जरूरत क्या है, जैसे कि हमें हमारी एजुकेशन सिस्टम को उस रिक्वायरमेंट को पूरा करने के लिए ढालना है, ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेंट करना है! सारी एजुकेशन सिस्टम को उस गोल को अचीव करने के लिए उन्होंने डाइवर्ट किया, चैनलाइज किया, उसकी प्रायोरिटी चेंज की! मित्राो, आपको जानकर हैरानी होगी, मैं बहुत दूर की बात नहीं करता, जनसंख्या में हिंदुस्तान और चाइना में ज्यादा फर्क नहीं है मित्राो, स्वभाव में भी एशियन कंट्रीज के नेचर काफी मिलते—जुलते हैं। उसके बावजूद वर्ष 2000 में विश्व की जो प्रमुख 500 यूनिवर्सिटीज हैं, उसमें हिंदुस्तान की दो यूनिवर्सिटीज शामिल थीं और चाइना की एक भी यूनिवर्सिटी का नाम नहीं था। मित्राो, दस साल के भीतर—भीतर क्या हुआ, हम दो में से एक हो गए और चाइना जीरो था, 32 हो गया। और उनको तो लैंग्वेज की समस्या है मित्राो, हम लोगों के लिए अँग्रेजी मुश्किल काम नहीं है। हमारे यहाँ काम करने वाला भी सहज रूप से ‘हैलो' बोलता है। हमारे लिए वो कोई मुश्किल काम नहीं है, उसके बावजूद ये स्थिति क्यों बनी? चाइना ने अपने एजुकेशन के लिए जो रोड मैप बनाया है, मैं तो चाहूँगा कि फर्ग्यूसन कॉलेज के कुछ स्टूडेंट उसका अध्ययन करके नौजवानों के सामने रखें कि कैसे किया है उन्होंने! मित्राो, उन्होंने अपने बजट में से 20÷, जी. डी. पी. का 20÷ शिक्षा पर खर्च किया। हमारे देश ने 7÷ का सपना देखा, 4÷ पर अटक गए! अब बताइए मित्राो, अगर हमें नेशन बिल्डिंग करना है तो ह्यूमन बिल्डिंग की जरूरत है। अगर हमें मानव संसाधनों का विकास करना है तो उसके लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है, व्यवस्थाओं की जरूरत है। विश्व—भर में फैले हुए हमारे भारतीय भाई—बहन दुनिया—भर की अनेक यूनिवर्सिटीज में नाम कमा रहे हैं, बहुत बड़ा कॉन्ट्रीब्यूशन कर रहे हैं, लेकिन हमें कभी सूझता नहीं है कि हम उन्हें वापस लाएँ! मित्राो, पी—एच.डी. के बारे में आपको जानकर के हैरानी होगी कि हमारे यहाँ पहले कोई पचास—पचपन हजार डॉक्टरेट्‌स थे, उस समय चाइना के पास कोई छह हजार थे। आज मित्राो, चाइना सत्तर—अस्सी हजार को क्रॉस कर गया है और हम जहाँ थे वहाँ से पीछे हट गए हैं! इतना ही नहीं, अमेरिका में देखिए क्या व्यवस्था है! अमेरिका में ये व्यवस्था है कि यूनिवर्सिटीज रिसर्च करती हैं, लेकिन वो सिर्फ पी—एच.डी. लिखने के लिए या डाक्टर लिखने के लिए रिसर्च नहीं होती, रिसर्च किए गए हर एक कागज का राष्ट्र निर्माण के अंदर एक दस्तावेज के रूप में उपयोग होता है, एक डॉक्यूमेंट के रूप में प्रयोग होता है! मान लीजिए अगर अमेरिका को तिब्बत के लिए फॉरेन पॉलिसी बनानी हो या तिबेट से ट्रेड रिलेशन करना हो, तो पहले क्या करते हैं कि उनकी दस—बारह यूनिवर्सिटीज अलग—अलग सब्जेक्ट लेकर के वहाँ के स्टूडेंट्‌स को तिबेट में रिसर्च करने के लिए भेजती हैं। वो तिबेट का पूरा रिसर्च करके ले आते हैं। वे रिसर्च पेपर्स जो पॉलिसी बनाने वाले हैं उनको दिए जाते हैं। उसके आधार पर अमेरिका अपने तिबेट के साथ के रिलेशन की पॉलिसी का फ्रेम तैयार करता है और ज्यादातर उनको नुकसान कम होता है, सर्वाधिक उनको फायदा ही होता है! क्यों? रिसर्च की हुई चीजों को पॉलिसी मेकिंग प्रोसेस से जोड़ा जाता है! मित्राो, मैं दुःख के साथ कहता हूँ कि देश आजाद होने के बाद जितने लोगों ने रिसर्च किया है, उसका कोई यूनिफाइड डाटा इस देश के पास नहीं है। कितने गोल्ड मेडलिस्ट हैं, किस विषय में गोल्ड मेडल मिला है, देश के पास जानकारी नहीं है। कितने लोगों ने रिसर्च किया है, उस रिसर्च का क्या उपयोग हो सकता है, उसने रिसर्च किया वो डॉक्यूमेंट कहाँ पड़ा है। मित्राो, क्या आज के टेक्निकल युग में, ऑनलाइन और कंप्यूटर साइंस के युग में हम इसको कम—से—कम कंपाइल कर सकते हैं कि नहीं कर सकते? इसको कंपाइल करके, उनके ग्रुपिंग करके उनको बताइए कि भाई, इतना रिसर्च किया था, आपको क्या लगता है, देश के लिए कैसे काम आ सकता है? मित्राो, नया करने की जब ताकत आए तब आए, कम—से—कम माइनिंग वर्क तो कर सकते हैं और ये टैलेंट को खोज कर के निकाल तो सकते हैं! नेशन बिल्डिंग करना है तो ये ब्रिज बनाने की आवश्यकता है। हमारा जो टैलेंट पूल है, उस टैलेंट पूल को नेशन बिल्डिंग के साथ जोड़ना चाहिए।

मैं गुजरात का एक छोटा—सा उदाहरण देना चाहता हूँ, मित्राो। हमारे यहाँ हमने एक स्टडी किया कि आदिवासियों के कल्याण के लिए आजादी के बाद इतने रुपये खर्च किए गए, फिर भी परिवर्तन क्यों नहीं आता है? स्थिति में बदलाव क्यों नहीं आता है? रुपये तो जा रहे हैं! उन सारी चीजों को स्टडी किया। उसके बाद, हमारी कुछ यूनिवर्सिटियों ने ट्राइबल के संबंध में भिन्न—भिन्न प्रकार के रिसर्च किए थे। ट्राइबल एजुकेशन के संबंध में, ट्राइबल कस्टम के संबंध में, ट्राइबल फूड हैबिट्‌स के संबंध मेंहमने उन सारे दस्तावेजों को इकट्ठा किया, हमारी एक छोटी टीम को बैठाया, समझने की कोशिश की कि रिसर्च किया है तो क्या चीजें पड़ी हैं उसमें! सरकारी अफसर बेचारा फाइल के बाहर क्या देख पाता है, और फाइल के अंदर क्या होता है आपको मालूम है! आर.टी.आई. करके देख लीजिए, आपको मालूम पड़ जाएगा कि फाइल में क्या होता है! मित्राो, बाहर टैलेंट है, हमने उसको खोजा, ढूँढ़ा, तो उसमें से बहुत—सी बातें हमारे ध्यान में आर्इं और उसमें से हमारे यही ‘वनबंधु कल्याण योजना' का एक पूरा पैकेज तैयार हुआ। पहला पैकेज हमने बनाया था 15,000 करोड़ का, इस बार हमने पैकेज बनाया है 40,000 करोड़ का! और मित्राो, मैं विश्वास से कहता हूँ कि एक कॉम्प्रीहेन्सीव तरीके से, इस प्रकार के विजन के साथ, बजट को जोड़कर के काम में लगाया है और मैं देख रहा हूँ कि हमारे आदिवासियों के जीवन में जो परिवर्तन हम पचास साल में नहीं ला पाए थे, वो परिवर्तन हम दस साल में लाने में सफल हुए हैं! क्यों? हमने हमारे एजुकेशन सिस्टम, हमारे रिसर्चर्स की जो टैलेंट थी उस टैलेंट को जोड़ा, तो हमें परिणाम मिला। और इसलिए मित्राो, मैं कहता हूँ कि ऐसा नहीं है कि भारत के अंदर टैलेंट नहीं है, रिसर्च नहीं हो रही है, लेकिन उसका माहात्म्य नहीं बढ़ रहा है। और इसलिए मैं मानता हूँ कि अगर एजुकेशन और नेशन बिल्डिंग की हम चर्चा करते हैं तो हमारे लिए आवश्यक है कि हमें रिसर्च पर बल देना पड़ेगा। और जो रिसर्च हो रही है तो वो सिर्फ किसी के घर के अंदर अपने दीवानखाने में एक सर्टिफिकेट लगाने के लिए नहीं होनी चाहिए, वो हमारे राष्ट्रनिर्माण के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण दस्तावेज होना चाहिए। और जब जिम्मेवारी के साथ रिसर्च जुड़ेगी, तो रिसर्च की क्वालिटी में भी परिवर्तन आएगा, रिसर्च के जो गाइड हैं वो भी कहेंगे कि नहीं भाई, तुम भी जरा दुनिया के रेफरेंस ले आओ। दुनिया में क्या हो रहा है, वो जरा खोज कर के लाओ। देखो, हमारे देश के अनुकूल क्या हो सकता है। देखो, वेद और उपनिषद्‌ के काल में क्या हो रहा था, देखो जरा! आप देखिए, परिवर्तन अपने—आप शुरू हो जाएगा! मित्राो, कोई देश अगर रिसर्च को प्राथमिकता नहीं देता है तो ठहराव आ जाता है। समयानुकूल परिवर्तन के लिए निरंतर खोज, निरंतर नए आविष्कार एक सजीव और विकासशील जीवन की निशानी होती है, मित्राो। और उसके लिए हमें एक माहौल बनाना पड़ेगा। हम पुरानी चीजों को ऊपर—नीचे करके, बहुत बढ़िया बाइंडिंग करके डिग्री तो ले सकते हैं, लेकिन समाज—जीवन में बदलाव नहीं ला सकते हैं। और इसलिए क्वालिटेटिव रिसर्च समय की माँग है!

मित्राो, शिक्षा कैसे जीवन बदलती है और कैसे परिवर्तन लाती है! छोटी—छोटी चीजें होती हैं। हमारे पूर्वज कैसे काम करते थे? देखिए, जरा ध्यान देने जैसा है। आज आप जानते होंगे, हिंदुस्तान में सर्वाधिक फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्री, दवाइयाँ बनाने वाली कंपनियाँ, गुजरात में हैं। शायद हिंदुस्तान का 45÷ दवाइयाँ उपलब्ध करवाने का काम ये हमारे यहाँ की दवाई की कंपनियाँ कर रही हैं और जो गुजरात के बाहर हैं उनमें भी ज्यादातर गुजराती हैं। भले कंपनी कहीं पर भी होगी, लेकिन होता है गुजराती! क्यों? मैं यहाँ गुजराती की बात करने नहीं आया हूँ। मैं उस बात पर ध्यान देना चाहता हूँ कि हिंदुस्तान में सबसे पहली फार्मेसी कॉलेज का जन्म उस समय के दीर्घ द्रष्टा लोगों ने, सरकार ने नहीं, माफ करना सरकार ने नहीं, उन नागरिकों ने शायद पचास—साठ साल पहले एक फार्मेसी कॉलेज को शुरू किया। उस फार्मेसी कॉलेज में बच्चे पढ़ने लगे और उसमें से फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्री को बल मिला और आज वो पूरे हिंदुस्तान की बीमारी को दूर करने वाला एक बहुत बड़ा हब बन चुका है। मित्राो, एक छोटी—सी एजुकेशन सिस्टम कितना बड़ा परिवर्तन ला सकती है इसका ये एक उदाहरण है!

अब देखिए मित्राो, हमारे देश में इन दिनों कभी आप देश के डिफेंस और सिक्योरिटी फोर्सेस की चर्चा सुनते होंगे, आर्टीकल पढ़ते होंगे तो आपको ध्यान में आता होगा। मित्राो, रक्षा के क्षेत्रा में हम चारों ओर पढ़ रहे हैं और अड़ोस—पड़ोस में हम कैसे लोगों से घिरे हैं इसका वर्णन करने की जरूरत नहीं है। हमारे देश का हाल देखिए, कोई पड़ोस में दोस्त नहीं हमारा! मित्राो, मैं हैरान हूँ, लेकिन मुझे कहना दूसरा है। मित्राो, आज हमारे यहाँ डिफेंस फोर्सेस में टॉप आफिसर्स में बहुत बड़ा वैक्यूम है। हमारे देश के नौजवान आर्मी में, नेवी में, एयर फोर्स में टॉप रैंक की पोजीशन पर नहीं जा रहे हैं। मित्राो, क्या ये देश आठवीं कक्षा से ही बच्चों को ट्रैन नहीं कर सकता है कि हमें हमारे इन अफसरों की जरूरत है! मित्राो, दस साल के भीतर—भीतर वो जगहें पूरी की जा सकती हैं या नहीं की जा सकतीं? आप मुझे बताइए मित्राो, हो सकता है या नहीं हो सकता? मैं कोई आसमान से बहुत बड़ा सोल्यूशन लेकर के आया हूँ क्या? ये सीधी समझ की बात है ना? वो रोते रहते हैं कि यार, क्या करें, अफसर नहीं मिलते! क्या मतलब है, जी? आप देखिए मित्राो, हिंदुस्तान अपनी पेट्रोलियम रिक्वायरमेंट के लिए जितना फॉरेन एक्सचेंज विदेशों में देता है, उससे ज्यादा हम अपनी मुद्रा विदेशी शस्त्राों को खरीदने में देते हैं। भारत की सुरक्षा के लिए विदेशों से शस्त्रा उठाने के लिए बहुत बड़ी मात्राा में इंडियन करंसी जाती है। मित्राो, क्या इस देश में ऐसे इंजीनियर नहीं हैं, क्या इस देश के पास ऐसा लोहा नहीं है, क्या इस देश के पास ऐसा टैलेंट नहीं है कि जो हमारे सारे डिफेंस इक्विपमेंट बनाए और जो ना सिर्फ हिंदुस्तान की रक्षा करें, बल्कि दुनिया को भी हम अपने शस्त्रा बेचकर के हम हिंदुस्तान के सामान्य मानवी को गर्व से जीने की व्यवस्था कर सकते हैं। शिक्षा को किस दिशा में ले जाना है ये तय करना चाहिए। हिंदुस्तान के इंजीनियरिंग कॉलेजों में डिफेंस इंजीनियरिंग के सब्जेक्ट नहीं हैं! बताइए, क्या करेंगे?

मित्राो, इन दिनों पूरे विश्व में टूरिज्म सेक्टर की चर्चा हो रही है। ऐसा कहा जाता है कि दुनिया में टूरिज्म बिजनेस थी ट्रिलियन डॉलर का है! आजकल पूरे विश्व में लोग, उसमें भी नियो मिडिल क्लास जिसको कहते हैं, वो टूरिज्म को जीवन का एक हिस्सा बना रहे हैं। हमारे यहाँ सदियों से ये परंपरा थी, हर बच्चे को लगता था कि अपने माता—पिता को चार धाम की यात्राा करवाए, हर बच्चे को लगता था कि माँ को गंगा जी के दर्शन करवाए, हर बच्चे को लगता था कि माँ को द्वादश ज्योतिर्लिंग करवाए, हर बच्चे को लगता था कि श्री गणेश जी के स्थान पर चले जाएँ, ये हमारे देश में परंपरा थी! वो यात्राी के रूप में थी, लेकिन दुनिया में इन दिनों टूरिज्म एक बहुत बड़ा सेक्टर विकसित हो रहा है। मित्राो, पूरे विश्व को देने के लिए हमारे पास क्या नहीं है! दुनिया के देशों में अगर आप टूरिज्म के लिए जाएँ, और लोगों से पूछें कि ये कितने साल पुराना है, तो कोई कहेगा सौ साल, कोई कहेगा दो सौ साल, कोई ढाई सौ कहेगा, ज्यादा—से—ज्यादा कहेगा चार सौ साल। हम यहाँ कोई आए तो कहते हैं कि ये पाँच हजार साल पुराना है, ये ढाई हजार साल पुराना है, ये चार हजार साल पुराना है। मित्राो, वो हैरान हो जाता है कि ये क्या है हमारे पास! क्या सामर्थ्य पड़ा है! मित्राो, सिर्फ हमारे देश ने टूरिज्म सेक्टर को ध्यान में रखते हुए झूलन रिसोर्स डेवलपमेंट पर बल दिया होता, हमने उस प्रकार के मानव संसाधन को तैयार किया होता जो टूरिज्म सेक्टर को बढ़ावा दे! आप देखिए मित्राो, मैं आज पुणे में जाऊँ और ये कहूँ कि मुझे एक दिन के लिए गाइड चाहिए जो पूरा पुणे दिखाए, शिवाजी महाराज से लेकर के सारी बातें बताए, लोकमान्य तिलक की बातें बताए! मुझे गाइड मिलेगा? मुझे शक है कि मिलेगा कि नहीं मिलेगा! क्यों? हमने कभी सोचा ही नहीं, मित्राो। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था में इन चीजों पर हमने बल नहीं दिया। ये क्यों नहीं दिया? क्योंकि हम 1200 साल की गुलामी की मानसिकता से बाहर नहीं आ रहे हैं। हमारे पास भी दुनिया को देने के लिए कुछ है इसके लिए भीतर से जो गर्व होना चाहिए, उस गर्व का अभाव है और इसलिए ताज—बाज से बाहर निकल नहीं पाते हैं, मित्राो। इस देश के हर कोने में दुनिया को कुछ—न—कुछ देने का हमारे पास सामर्थ्य है, हम दुनिया को देते नहीं हैं। ताजमहल पूरे विश्व में हमारी अमानत के रूप में इतना प्रचलित हुआ है, ताजमहल मैग्नेटिक रूप से दुनिया को आकर्षित कर सकता है। लोगों को लाने का काम ताजमहल कर रहा है, लेकिन लोगों को दूर—दूर तक पहुँचाने का काम हमें करना चाहिए, हमारी पीढ़ी को करना चाहिए, हमारी सरकारों को और हमारे समाज को सोचना चाहिए और शिक्षा के माध्यम से इस काम को भी किया जा सकता है! हॉस्पिटैलिटी मैनेजमेंट टूरिज्म से जुडा हुआ है। मित्राो, मैं एक छोटा—सा उदाहरण बताता हूँ, कैसे परिवर्तन आता है! हमारे यहाँ सरदार सरोवर डेम, जो नर्मदा जिले के पास ट्राइबल बेल्ट के अंदर है। और पता नहीं पहले क्या नियम थे, यानी कैसी स्थगित होती है! वहाँ पर किसी को एंट्री नहीं दी जाती थी, नो एंट्री! दूसरा होता था, वहाँ फोटो निकालना मना था! मैंने अपने अफसरों को बुलाया, मैंने कहा भाई, आज सैटेलाइट से आपके घर के बाहर पार्क किया हुआ स्कूटर कौन—सा है, उसका नंबर क्या है, उसका कलर क्या हैसारी फोटो मैं ले सकता हूँ, ये पुराना बोर्ड किस काम का है ये बताओ! ये नो एंट्री किस काम की है? मित्राो, हमने उसे खोला, और खोला इतना ही नहीं, टिकट रखी। जो भी आएगा, टिकट लेता है। मित्राो, मैं हैरान था, पहले दो साल के भीतर—भीतर पाँच लाख विजीटर्स आए! फिर हमारे ध्यान में आया कि हमें यहाँ गाइड की जरूरत है, तो हमने वहाँ के ट्राइबल बच्चों को बुलाया, दसवीं कक्षा तक पढ़े—लिखे थे उनको सारा ट्रेनिंग दिया। और मित्राो, वो धीरे—धीरे करके दो—तीन लैंग्वेजिज में, विथ फैक्ट एंड फिगर्स, कोई भी आता है तो उनको एक छोटी—सी लकड़ी हाथ में रखकर के, बड़े ध्यान से यूनिफार्म—वूनिफार्म पहन कर के दिखाते हैं कि इतना सीमेंट लगा है, इतना लोहा लगा है, इस तारीख को शिलान्यास हुआ था, ऐसा हुआ! मित्राो, उनका इतना कॉन्फिडेंस लेवल बढ़ गया है! मित्राो, चीज छोटी है! सवाल ये है कि क्या हम देश में उन चीजों में बदलाव ला सकते हैं? मित्राो, लाया जा सकता है। अगर हम इन चीजों पर कोशिश करें तो हम स्थितियों को बदल सकते हैं। लेकिन मित्राो, देश का दुर्भाग्य है कि हम मानव संसाधन पर बल नहीं दे रहे हैं!

आज हमारे देश का कृषि विकास दर 2÷ से 3÷ के बीच रहता है। हम बचपन से पढ़ते आए हैं, भारत कृषि प्रधान देश है! ठीक है ना, जागते रहो! ठीक है ना! लेकिन टी.वी. पर देखते हैं तो लगता है कि भारत साबुन प्रधान देश है, हम साबुन का ही उत्पादन कर रहे हैं! इस क्वालिटी का सोप, उस क्वालिटी का सोप, यही! मित्राो, क्यों ना हम हमारी एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटीज में दुनिया की एग्रो टैक्लोलॉजी को लेकर के हमारे किसानों को, हमारे नौजवानों को तैयार करें? हमने हमारे किसानों को उसके भाग्य पर छोड़ दिया है! उसके पिताजी ने उसके लिए जो आदतें छोड़ी थीं, बिचारा आज भी, देश की आजादी के साठ साल के बाद भी, उसी परंपरा को लेकर जी रहा है। मित्राो, हिंदुस्तान की तीस करोड़ की जनता का पेट भरने के लिए जितना अन्न लगता था, अब किसानों की संख्या कम हो रही है, जमीन कम हो रही है और 120 करोड़ का पेट भरने की नौबत आई है तब जाकर के हमें आधुनिक एग्रीकल्चर की जरूरत पड़ती है, हमें हमारी प्रोडक्टिविटी बढ़ाने की जरूरत होती है। और ये चीजें सिर्फ परंपराओं से नहीं आती हैं, हमारे इनोवेशन्स से आती हैं, रिसर्च से आती हैं, उस प्रकार के झूलन रिसोर्स डेवलपमेंट से आती हैं, इस प्रकार की टैक्नोलॉजी इन्वॉल्व करने से आती है और उन सबको जब जोड़ते हैं तब परिवर्तन आता है। मित्राो, दुर्भाग्य है इस देश का कि इन सब बातों की तरफ हमारा ध्यान नहीं है। और इन चीजों को बदला जा सकता है, अगर एक बार हम शिक्षा के मूल्यों को स्वीकार कर लें!

मित्राो, हमने एक काम अभी शुरू किया है, इनोवेशन पर बल देना! अब ये काम तो हिंदुस्तान की सरकार को करना चाहिए, लेकिन कोई ना करे तो हम इंतजार थोड़े ही कर सकते हैं? किसी को तो करना चाहिए! मित्राो, हमने एक ‘आई—क्रियेट' इंस्टीट्यूट बनाई है। हिंदुस्तान के किसी भी कोने से कोई भी व्यक्ति, कोई भी नौजवान, इवन स्कूल का बच्चा भी, जिसके अंदर स्पार्क है, इनोवेशन करना चाहता है, कोई टेक्निकल सोल्यूशन देना चाहता है, तो हमने एक वर्ल्ड क्लास इन्क्यूबेशन सेंटर बनाया है, ‘आई—क्रियेट'! अभी उसका कन्स्ट्रक्शन का काम चल रहा है। और ‘आई—क्रियेट' में हम ऐसे नौजवानों को लाकर के उनको पूरा एन्वायरमेंट देने वाले हैं ताकि वो अपने टैलेंट का भरपूर उपयोग करें और देश और दुनिया को कुछ दें! मैंने नारायण मूर्ति जी से प्रार्थना की, मैंने कहा ये हमारा सपना है! सरकार पैसे देने के लिए तैयार है लेकिन मैं इसको सरकार के पास रखना नहीं चाहता हूँ। मित्राो, ये बहुत बड़ा फर्क है हमारे में और औरों में! और लोग पावर में इन्टरेस्टिड हैं, हम एम्पावर की प्रायोरिटी रखते हैं! उनको सत्ता चाहिए, पावर चाहिए और हमें देश के हर नागरिक को एम्पावरमेंट देना है। मित्राो, बहुत बड़ा अंतर है हमारी सोच में। और इसलिए हमने नारायण मूर्ति जी को कहा कि इसको सँभालिए। नारायण मूर्ति जी ने सारा अध्ययन किया कि मोदी है, इसके पास जाया जाए तो क्या होगा, कहीं इनकम टैक्स की नोटिस तो नहीं आएगी? उन्होंने छह महीने लगाए, लेकिन बाद में हिम्मत दिखाई और आज वो इसके चेयरमैन के नाते मेरे यहाँ काम कर रहे हैं, समय दे रहे हैं। मैं एक वर्ल्ड क्लास इंस्टीट्यूशन इस देश को देना चाहता हूँ!

मित्राो, हम लोग चिल्लाते रहते हैं कि यार, ये पुलिस! ये ही करते हैं ना! मित्राो, वे भी इंसान हैं, बदला नहीं जा सकता है क्या? आप सोचिए मित्राो, ये हमने कैसे मान लिया कि सब बेकार ही हैं, कैसे मान लिया? मित्राो, हमने एक शुरुआत की है। हमने एक रक्षा शक्ति यूनिवर्सिटी बनाई। अभी—अभी शुरू किया है, अभी उसके तीन साल हुए। और जो बच्चे यूनिफॉर्म्ड सेवा में जाना चाहते हैं, उनको दसवीं और बारहवीं के बाद वहाँ ग्रेजुएशन का एडमिशन देते हैं। उनकी फिजिकल ट्रेनिंग की जाती है, उसको हिस्ट्री, कंस्टीट्यूशन, लॉ, क्राउड साइकोलॉजी, ये सारी चीजें पढ़ाई जाती हैं। अब वहाँ से ग्रेजुएट होकर जब वो पुलिस में जाएगा तो आप मुझे बताइए मित्राो, कुछ बदलाव आएगा कि नहीं आएगा? कहीं से तो हम शुरू करें! मित्राो, हर चीज के अंदर ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेंट सबसे पहली बात होती है।

मित्राो, आज हम चर्चा कर रहे हैं साइबर क्राइम की! चारों तरफ हल्ला मचा है कि हॉलैंड में बैठा हुआ एक बच्चा कंप्यूटर पर अपनी उँगलियाँ चलाकर के आपकी बैंक में से पूरा सामान ले जा सकता है। ये ताकत है साइबर क्राइम की! मित्राो, हम रोते बैठेंगे क्या? और हमारी पुलिस की जिस प्रकार से उसकी ट्रेनिंग हुई है, उसके माध्यम से हम साइबर क्राइम को सॉल्व कर पाएँगे क्या? हमें उसके लिए काम करना पड़ेगा। और मित्राो, आज मैं आपके सामने गर्व से कहता हूँ कि गुजरात दुनिया का पहला राज्य है जिसने फोरेंसिक साइंस यूनिवर्सिटी प्रारंभ की है। लेकिन मित्राो, कभी—कभी क्या होता है कि हम सुनते हैं, फिर थोड़ा—बहुत याद रखते हैं और थोड़ा—बहुत भूल जाते हैं! मैं बोल रहा हूँ फोरेंसिक साइंस यूनिवर्सिटी, बराबर है? कल हमारे कांग्रेस के मित्रा बयान देंगे कि मोदी झूठ बोल रहा है, फलानी जगह पर फोरेंसिक साइंस का कोर्स है, ढिकानी जगह पर है! मैं फॉरेसिंक साइंस का कोर्स नहीं बोल रहा हूँ, मैं फॉरेंसिक साइंस यूनिवर्सिटी बोल रहा हूँ! तो हर चीज में एक खेल चलता रहता है। और इसलिए मित्राो, क्या हम हमारी आवश्यकताओं के अनुरूप, देश की रिक्वायरमेंट के अनुरूप, मानव संसाधन को तैयार नहीं कर सकते?

मित्राो, हम कहते हैं कि हिन्दुस्तान में अर्बनाइजेशन बहुत फास्ट हो रहा है। हम बहुत तेजी से शहरीकरण की तरफ आगे बढ़ रहे हैं। गाँव से लोग निकल—निकलकर शहरों में बस रहे हैं। आप मुझे बताइए, पूरे हिंदुस्तान में अर्बन प्लानिंग के कितने कॉलेज हैं? अर्बन इन्फ्रास्ट्रक्चर के कितने कॉलेज हैं? अर्बन मैंनेजमेंट के कितने कॉलेज हैं? अर्बन वाटर रिसोर्सिस के कितने कॉलेज हैं? नहीं है, मित्राो! अगर हम देख रहे हैं कि बहुत तेजी से अर्बनाइजेशन हो रहा है तो कौन रोकता है आपको, उस प्रकार से एजुकेशन सिस्टम खड़ा करो ताकि उस प्रकार का मैन पावर हमें उपलब्ध हो!

मित्राो, हमारे देश की जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। डाक्टर उपलब्ध नहीं हो रहे हैं, लेकिन अगर आपको मेडिकल कॉलेज करनी है तो दिल्ली जाकर के जब तक दो साल अपनी नाक नहीं रगड़ोगे, आपको मेडिकल कॉलेज की परमिशन नहीं मिलती है! एक तरफ डाक्टरों की जरूरत है, स्टूडेंट को डाक्टर बनना है, माँ—बाप बच्चों को डाक्टर बनाना चाहते हैं, डाक्टर बनने वाले को जीवन में पैसा और सेवा दोनों की संभावना है, लेकिन हम डाक्टर बनाने को तैयार नहीं हैं। और इसलिए कोई रशिया जा रहा है पढ़ने के लिए, कोई चाइना जा रहा है! मित्राो, आज हिंदुस्तान का कोई जिला ऐसा नहीं होगा जिसके बच्चे चाइना या रशिया में मेडिकल की पढ़ाई के लिए गए ना हों! हमारे हिंदुस्तान की अरबों—खरबों डॉलर की करेंसी जा रही है। लेकिन एक होलिस्टिक एप्रोच ले कर के हिंदुस्तान के हर गाँव को डाक्टर मिले इस प्रकार से मास स्केल पर डाक्टरों के एजुकेशन के लिए हम क्यों ना आगे बढ़ें? मित्राो, राष्ट्र को कहीं ले जाना है, उसके लिए एक, समस्याओं का समाधान कैसे करना है और दूसरा, नई ऊँचाइयों को कैसे पार करना है, उसके विजन के साथ ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेंट पर हम बल देते हैं तो बाकी संसाधन खड़े करने की ताकत उस व्यक्ति में होती है! आप मुझे बताइए मित्राो, यहाँ कोई भी व्यक्ति होगा, उसे मैं सवाल पूछता हूँ। आप मुझे बताइए, एक सवाल का जवाब दीजिए, अगर आपसे कोई पूछता है कि आपके जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण इच्छा क्या है? आप मन में जवाब सोचिए। मित्राो, मैं विश्वास से कहता हूँ, आप सबके मन में एक ही विचार आया होगा, बच्चों की अच्छी शिक्षा! ठीक है ना, मैं सही कह रहा हूँ? हर माँ—बाप को, और उसमें माँ को विशेष, बाप तो और भी चीजें सँभालने में बिजी हो जाते हैं, हर माँ—बाप के मन में एक सपना होता है कि मेरे बच्चे को अच्छी शिक्षा मिले! मित्राो, अगर अच्छी शिक्षा देनी है तो हमें अच्छे शिक्षक तैयार करने की व्यवस्था करनी चाहिए कि नहीं? हम आई.आई.एम. खड़ी करते हैं जो सी.ई.ओ. तैयार करते हैं और दुनिया में जाकर के हमारे सी.ई.ओ. कंपनियाँ चलाते हैं, लेकिन हमारी नई पीढ़ी तैयार करने के लिए अच्छे शिक्षक तैयार करना हमारी प्रायोरिटी नहीं है! मित्राो, हिंदुस्तान समृद्ध था उसका कारण था कि हमारे पास अच्छे शिक्षकों की पूरी एक गुरु—परंपरा थी। हमने उसको नष्ट कर दिया और हम तबाही की गर्त में डूबते चले गए! मित्राो, आज विदेश जाने का फैशन है, मैं विदेश जाऊँगा, विदेश जाऊँगा! उसमें भी हम तय कर सकते हैं कहाँ जाना है। आज पूरे विश्व को मीलियन्स और मीलियन्स टीचर्स की जरूरत है, मीलियन्स ऑफ मीलियन्स नर्सिस की जरूरत है। दुनिया को मैथ्स और साइंस के टीचर्स नहीं मिल रहे हैं। क्या हम टीचर्स एक्सपोर्ट करने का सपना नहीं देख सकते? जिस देश में 65÷ पॉपुलेशन 35 से नीचे हो, पूरे विश्व में हम टीचर्स भेज सकते हैं या नहीं भेज सकते? दोस्तों, एक व्यापारी विदेश जाता है, एक प्रोफेशनल विदेश जाता है तो वो डॉलर—पाउंड तो कमा लेता है, लेकिन अगर एक टीचर विदेश जाता है तो उस देश की पूरी एक पीढ़ी पर कब्जा कर लेता है। अगर आपका ग्लोबल विजन हो, तो विश्व के हर कोने में हिंदुस्तान का शिक्षक क्यों ना हो? और हमारा शिक्षक जाएगा तो सिर्फ मैक्स और साइंस लेकर नहीं जाएगा, वो हमारे इथोस को लेकर जाएगा, हमारे कल्चर को लेकर के जाएगा और दुनिया को परिचित कराएगा। लेकिन सपना तो होना चाहिए! मित्राो, हमने छोटा काम शुरू किया है। वी आर द फर्स्‌ट इन इंडिया, हमने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टीचर्स एजुकेशन नाम की एक यूनिवर्सिटी शुरू की है। जिसमें 12वीं के बाद ही अगर आपका एप्टीट्यूड टीचर बनना है तो आपको ग्रेजुएट होने की जरूरत नहीं है। आप वहीं आइए, आपका टीचिंग प्रोफेशन में ही ग्रेजुएशन होगा, पोस्ट ग्रेजुएशन भी वहीं होगा, पाँच साल का कोर्स होगा। मित्राो, मैं सपना देख रहा हूँ कि जिस प्रकार से आई.आई.एम. के अंदर कैंपस इंटरव्यू करके दो—तीन करोड़ के पैकेज पर सी.ई.ओ. उठाए जाते हैं, वो दिन दूर नहीं होगा जब कैंपस इंटरव्यू करके करोड़ों रुपया देकर के टीचर्स की माँग बढ़ेगी, वो स्थिति मुझे पैदा करनी है। अगर हर माँ—बाप के मन की इच्छा है कि अपने बच्चे को अच्छा टीचर मिले, अगर हर माँ—बाप का सपना है कि उसके बच्चे को अच्छी शिक्षा मिले, तो हम उसको प्राथमिकता क्यों नहीं दें!

मित्राो, मैं हैरान हूँ! आज हम ग्लोबल इकॉनोमी की बात करते हैं, विश्व व्यापार की चर्चा करते हैं। विश्व व्यापार में सबसे बड़ी ताकत लगती है आपके सामुद्रिक व्यापार की! हिन्दुस्तान भाग्यवान है कि हमारे पास टू—थर्ड कोस्टल एरिया है। हिन्दुस्तान का अगर इतना कोस्टल एरिया है, हमको विश्व व्यापार भी करना है, लेकिन मित्राो, सिंगापुर जैसा एक छोटा—सा देश, जिसके समुद्री तट से जितना समुद्री व्यापार होता है, उसकी तुलना में इतना बड़ा हिंदुस्तान, लेकिन हम कहीं नहीं हैं, दोस्तो! कारण, हमारे देश में मरीन इंजीनियरिंग, पोर्ट मैनेजमेंट, इन सारे विषयों के लिए एजुकेशन की व्यवस्थाएँ बहुत कम मात्राा में हैं। अगर टू—थर्ड समुद्री तट है, पूरा विश्व व्यापार एक हो रहा है, पूरे विश्व के अंदर इस इन्फ्रास्ट्रक्चर का महत्त्व बढ़ने वाला है, तो क्यों ना मरीन इंजीनियरिंग, पोर्ट मैनेजमेंट, पोर्ट से लेकर के समुद्री व्यापार तक के सारे प्रोफेशनल एजुकेशन पर हम बल दें! मित्राो, अगर हम ये करते हैं तो क्या हमारे नौजवान बेरोजगार रहेंगे? मित्राो, मुझे गर्व से कहना है, भारत सरकार कहती है कि पूरे हिन्दुस्तान में कोई एक राज्य है जहाँ बेरोजगारी कम—से—कम है, तो उस राज्य का नाम गुजरात है! मित्राो, क्यों? जिस प्रकार के विकास की आवश्यकता है, उसके अनुरूप अगर आप डेवलपमेंट करते हो तो परिवर्तन आता है! मेरे यहाँ कोई भी इंडस्ट्री आती है तो मैं उससे पहले पूछता हूँ कि आपको ह्यूमन रिसोर्स की किस प्रकार की रिक्वायरमेंट है? वो कहते हैं कि मुझे ऐसे—ऐसे लोग चाहिए, तो मैं कहता हूँ कि पहले वहाँ कॉलेज चालू करो, आई.टी.आई. चालू करो, फिर बाद में वहाँ पर तुम्हारी इन्डस्ट्री चालू होगी! वहाँ पर उस इलाके के बच्चों को आई. टी. आई. का कोर्स करवाओ, एक—डेढ़ साल का कोर्स करवाओ और फिर तुम्हारे वहाँ उन लोगों को लेकर करो। मित्राो, हम एक पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के मॉडल को लेकर चलते हैं, ताकि उस इलाके के नौजवानों को तुरंत रोजगार मिल जाए, और उनको जैसा चाहिए वैसा स्किल मिल जाए! मित्राो, हिंदुस्तान को अगर आगे बढ़ना है तो स्किल डेवलपमेंट पर बल देना पड़ेगा। अभी ओबामा जब दोबारा प्रेसीडेंट बने तो उन्होंने जो भाषण दिया वो सुनने जैसा है, मित्राो! ओबामा, अमेरिका जैसे समृद्ध देश का प्रेसीडेंट भी दुनिया के सामने विषय रखता है कि हमें सबसे पहले प्रायोरिटी देनी है स्किल मैनेजमेंट को! मित्राो! हमारे पास 65÷ नौजवान हैं, उनके पास दो—दो भुजाएँ हैं, लेकिन उनके हाथ में हुनर नहीं है, उनके हाथ में सिर्फ एक सर्टिफिकेट है। और ये दिल्ली में ऐसी सरकार है जिसको लगता है कि सर्टिफिकेट आ गया तो सब आ गया। फूड सिक्योरिटी बिल आ गया, मतलब आपकी थाली में खाना आ गया। यही चल रहा है, मित्राो! और इसलिए हमारे देश में स्किल डेवलपमेंट पर बहुत बल देने की आवश्यकता है। और अगर हम स्किल डेवलपमेंट पर ध्यान देंगे, हमारे नौजवान को कोई—न—कोई हुनर सिखाएँगेऔर मित्राो, आज हमारा नौजवान कोई भी काम करने के लिए तैयार है, उसको कोई संकोच नहीं है, वो मैंने देखा है। थोड़ा हम उन पर भरोसा करें, उन पर विश्वास करें, उनके अंदर विश्वास पैदा करें, तो हम स्थितियों को बदल सकते हैं!

मित्राो, बहुत सारे विषय हैं, बहुत सारी बातें मैं नॉन स्टॉप आपके सामने कर सकता हूँ। अपने अनुभव के आधार पर मैं बातें बता रहा हूँ। लेकिन मेरा विश्वास है कि राष्ट्र निर्माण के अंदर शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान होता है। हमारी शिक्षा राष्ट्र निर्माण के हमारे सपने के अनुकूल होनी चाहिए। मित्राो, हमारी शिक्षा वो हो, जो हमें ‘अहम' से ‘वयम्‌' की ओर ले जाए! हमारी शिक्षा वो हो जो हमें ‘स्व' से ‘समष्टि' को जोड़ने का रास्ता दिखाती हो! हमारी शिक्षा वो हो जो ‘वसुधैव कुटुंबकम्‌' की भावना को चरितार्थ करने वाली हो! हमारी शिक्षा वो हो जो पूरे—के—पूरे ब्रह्मांड को एक परिवार मानने वाली हो! अगर हम इस बात को मानते हैं तो एन्वायरमेंट की समस्या कहीं से आएगी, मित्राो! अगर हम कहते हैं कि गंगा मेरी माँ है, वृक्षों को मैं माँ की तरह पूजता हूँ, पिता की तरह पूजता हूँ तो हम उन वृक्षों को क्यों काटेंगे! मित्राो, हमारी शिक्षा और दीक्षा का माहात्म्य है, अगर उसको लेकर हम देश को चलाने की कोशिश करते हैं, तो समस्याओं का समाधान बहुत दूर नहीं है। हम स्थितियों को पलट सकते हैं। हमें जिस प्रकार की आवश्यकता है, उस प्रकार के मनुष्यों के निर्माण की तरफ हम बल दे सकते हैं। और जिस बात को लेकर के आज मुझे इस पवित्रा जगह पर आने का अवसर मिला है, मुझे विश्वास है कि हम सब मंथन करके, विचार—विमर्श करके, एक समाज की शक्ति के आधार पर कभी—न—कभी तो इस देश को नई ऊँचाइयों पर ले जाने के लिए ये शिक्षा नाम की जो व्यवस्था है, उसकी एक मजबूत नींव को डालने में सफल होंगे! इसी एक कामना के साथ मेरी आप सबको बहुत—बहुत शुभकामनाएँ! और जैसा मैंने उन नौजवानों को प्रोमिस किया था, जो मेरे से थोड़े से दूर बैठे हैं, दोस्तो मैं आ रहा हूँ।

धन्यवाद!