उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए

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मुझे अपना यह नया उपन्यास " उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए " पाठकों को समर्पित करते हुए अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। मेरे इस उपन्यास का कथ्य यद्यपि समकालीन न होते हुए अब से लगभग चार दशक पूर्व का है, तथापि इसमें तत्कालीन कालखण्ड को चित्रित करने के साथ आज के समय की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक बदलावों को भी रेखांकित करने का प्रयास मैंने किया है। पूर्वी उत्तर प्रदेश का वह क्षेत्र जिसे सतही तौर पर देखने वाले पिछड़ा क्षेत्र मानते थे, मानते हैं। जब कि यथार्थ इसके विपरीत है। देश के अन्य भागो की भाँति यह क्षेत्र भी उस समय विकास की दौड़ में शामिल था। आज उसके विकास की कहानी किसी से छुपी नही है। उस समय इस क्षेत्र के गाँव कस्बों में, कस्बे छोटे-बड़े शहरों में तब्दील हो रहे थे। यह परिवर्तन मात्र भैतिक परिवर्तन नही था।

Full Novel

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 1

नीरजा हेमेन्द्र सम्मान -- उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रदत्त विजयदेव नारायण साही नामित पुरस्कार, शिंगलू स्मृति सम्मान। रेणु स्मृति सम्मान। कमलेश्वर कथा सम्मान। लोकमत पुरस्कार। सेवक साहित्यश्री सम्मान। हाशिये की आवाज़ कथा सम्मान। कथा साहित्य विभूषण सम्मान, अनन्य हिन्दी सहयोगी सम्मान आदि। हिन्दी की लगभग सभी अति प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ, बाल सुलभ रचनाएँ एवं सम सामयिक विषयों पर लेख प्रकाशित। रचनाएँ आकाशवाणी व दूरदर्शन से भी प्रसारित। हिन्दी समय, गद्य कोश, कविता कोश, मातृभारती, प्रतिलिपि, हस्ताक्षर, स्त्रीकाल, पुरवाई, साहित्य कुंज, रचनाकार, हिन्दी काव्य संकलन, साहित्य हंट, न्यूज बताओ डाॅट काॅम, हस्तक्षेप, नूतन कहानियाँ आदि वेब ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 2

भाग 2 घरों की कच्ची-पक्की छतों और मड़ईयों पर फैली लौकी, कद्दू, तुरई की बेलें पीले, श्वेत फूलों से जातीं। उस समय सब्जियों के छोटे बतिया ( फल ) खुशियों की सौगात लाते प्रतीत होते। इसका कारण ये कि ये था कि ये उपजें बहुत लोगों की रोटी-रोजगार से जुड़ी होतीं। विशेषकर छोटे कृषकों की। छतों व मडईयों पर उगी इन सब्जियों को बेचकर वे कुछ पैसे कमा लेते। सर्द ऋतु की गुनगुनी धूप में उपले पाथती औरतें कोई प्रेम गीत गुनगुना उठतीं। कभी-कभी विरह गीत भी.....और उनकी स्वरलहरियों से उदास वातावरण जीवन्त हो उठता। वसंत ऋतु की तो ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 3

भाग 3 इस वर्ष मैं दसवीं की व दीदी बारहवीं की परीक्षा दे रही थी। हम दोनों की इस बोर्ड की परीक्षायें थीं। मेरे मन में बोर्ड परीक्षा को लेकर थोड़ा डर था। मैं कहूँ तो थोड़ा नही मैं बोर्ड परीक्षा से बहुत डर रही थी। मन में हमेशा फेल हो जाने का भय बना रहता। इसीलिए मैं मन लगाकर पढ़ने के साथ-साथ पढ़ाई पर अधिक समय भी दे रही थी। किन्तु ऐसा प्रतीत होता जैसे मुझे कुछ याद नही हो रहा है, न समझ में आ रहा है। ऐसा इसलिए था कि परीक्षा को लकर मेरे मन में ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 4

भाग 4 समय का पहिया अपनी गति से चलता जा रहा था। मैंने इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली तथा दीदी ग्रेजुएशन के अन्तिम वर्ष में थी। मुझे दीदी के साथ रहना अच्छा लगता। एक घड़ी के लिए भी दीदी कहीं चली जाती तो मुझे अच्छा नही लगता। जैसे-जैसे मैं बड़ी होती जा रही थी, दीदी के साथ मेरा जुडा़व बढ़ता ही जा रहा था। मैं दीदी के बिना रहने की कल्पना भी नही कर सकती थी। दीदी मेरा आर्दश थी, संबल थी। कुछ समय पश्चात् उस दिन...... दोपहर का समय था। हम सब भोजन करने के उपरान्त बैठे ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 5

भाग 5 उस समय के पडरौना से अब का पडरौना भिन्न हो चुका है। अब यहाँ उतनी कट्टरता से दिखाई नही देती। शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ, विशेषकर लड़कियों की शिक्षा के साथ चीजें परिवर्तित हो रही है। यहाँ के भी युवा अब बड़े शहरों के प्रबन्धन संस्थानों में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। मल्टीनेशनल कम्पनियों में काम कर रहे हैं। सबसे बढ़कर अच्छी बात ये है कि जाति को अनदेखा करते हुए अपनी पसन्द के साथी से प्रेम विवाह भी कर रहे हैं। अब उस विवाह को घर वाले स्वीकार भी कर रहे हैं। आज दलितों का दक्खिनी ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 6

भाग 6 समय व्यतीत होता जा रहा था। दीदी का ग्रेजुएशन पूरा हो चुका था। उन्होंने स्नातकोत्तर की कक्षा प्रवेश ले लिया था। मेरा स्नातक पूरा होने वाला था। इन्द्रेश के चुनाव जीत जीने पर मेरे घर वालों की कोई प्रतिक्रिया न थी। हम सब जानते थे कि उसके चुनाव जीतने से ताऊजी के परिवार के लिए लोगांे के अहंकार व घंमड बढ़ने का एक और कारण मिला है। उनके दुव्र्यवहार, उनके लड़कों के घमंड में और वृद्धि होने जैसा है यह चुनाव। अब ताऊजी के दरवाजे पर लोगों की भीड़ हर वक्त लगी रहती थी। छोटी जगहों पर ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 7

भाग 7 यही तो हमारे समाज की परम्परा है। यही तो शिक्षा देता है हमारा समाज? हमारे माता- पिता तो बचपन से यही बात स्मरण कराते रहते हैं कि तुम लड़की हो, तुम्हें तोे व्याह कर एक दिन अपने घर जाना है। माता-पिता के घर को अपना घर मानने नही दिया जाता। बार-बार किसी नये दूसरे घर को अपना घर मानने की सीख दी जाती। जिस प्रकार जमीन पर लगे किसी पौधे को वहाँ से उखाड़कर किसी दूसरे स्थान पर, दूसरे वातावरण में लगा दिया जाये। बहुधा ऐसे पौधे मुरझा जाते हैं। कभी-कभी सूख भी जाते हैं। कुछ ऐसा ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 8

भाग 8 आज लगभग दो वर्षों के पश्चात् मैं माँ के घर आयी थी। अन्तराल पश्चात् आयी थी, अतः के कोने-कोने से परायेपन की गन्ध आ रही थी। यद्यपि घर में कुछ भी परिवर्तित नही हुआ था। फिर भी बहुत कुछ बदल गया था। मेरे मन में यह भाव रह-रह कर आता कि अब मेरा इस घर में कुछ नही है। यह एक पराया घर है, जहाँ मेरा कुछ भी नही है। हमारा समाज यही तो शिक्षा देता है कि विवाह पश्चात् ससुराल ही लड़की का घर हो जाता है और पीहर बेगाना। मैं परायी हो चुकी हूँ। माँ ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 9

भाग 9 " बिटिया तू कब ले रूकबू? " दादी ने मेरी ओर देखकर पूछा। " हम..? दो-चार दिन रूकेंगे दादी। " मैंने दादी से कहा। " ठीक बा। " दादी ने कहा। उनके चेहरे पर मुस्कराहट थी। माँ को ऐसा लगा जैसे दादी अब जाने को तत्पर हो रही हैं। " खाना खा के र्जाइं अम्मा! " माँ ने आग्रह करते हुए दादी से कहा। " ठीक बा। का बनईबू बिटिया। तू त जनते बाडू कि हमारा एकौ दाँत नाही बा। " कह कर दादी मुस्करा पड़ीं। " आप जवन कहीं, बन जाई। " माँ ने कहा। " ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 10

भाग 10 वो मेरी सबसे अच्छी मित्र थी। कॉलेज के दिनों में हमारी मित्रता के चर्चे हुआ करते थे। अनिमा नाम था उसका। हँसमुख व मिलनसार स्वभाव की अनिमा प्रारम्भ में जब कॉलेज में आी थी तब मैं उससे तथा वो मुझसे बिलकुल भी बातें नही करते थे। न जाने कैसे व कब वो मेरी प्रिय मित्रों में शुमार हो गयी थी। बल्कि सबसे अच्छी मित्र बन गयी। तब वह स्पष्टवादी इतनी थी कि आपे इसी स्वभाव के कारण अक्सर उसका किसी न किसी से झगड़ा भी हो जाता था। किन्तु कॉलेज में मेरी व उसकी कभी भी अनबन ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 11

भाग 11 मेरा भाई नौकरी के लिए प्रयत्न कर रहा था। माँ ने बताया कि इन्द्रेश पुनः टिकट पाने लिए प्रयत्न कर रहा था। वो क्षेत्र में जनता को लुभाने, अपनी पहचान बनाने के लिए खूब घूम रहा है। वृद्धावस्था के कारण ताऊजी की सक्रियता कम हो गयी है। वो अपनी विधानसभा सीट को ख़ानदानी जाग़ीर बनाने के उद्देश्य से अब अपने बड़े पुत्र इन्द्रेश को टिकट दिला कर पुनः चुनाव लड़वाने की तैयारियो में हैं। इन्द्रेश व उसका अभिन्न मित्र राजेश्वर घर-घर जाकर दोनों हाथ जोड़कर जन-सम्पर्क कर जनता से वोट देने की अपील कर रहे हैं। लोग ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 12

भाग 12 इस समय मेरी सारी जद्दोजहद बच्चों का भविष्य बनाने व अपनी गृहस्थी बचाने के लिए थी। प्रेम आकर्षण मेरे जीवन से लुप्त हो गया था। माँ फोन करके बुलाती रहती। मैं मना कर देती। मेरी अस्वस्थता को देखते हुए अभय अब चाहते थे कि कभी-कभी मैं माँ के घर हो आऊँ। किन्तु अब मैं कहीं भी आना-जाना नही चाहती थी। माँ के घर मुझे न भेजने वाले अभय अब चाहते थे कि एक बार मैं माँ के घर अवश्य हो आऊँ। उनका सोचना था कि स्थान परिवर्तन होने से मेरे स्वास्थ्य में भी परिवर्तन आयेगा। मैं पूर्णतः ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 13

भाग 13 समय व्यतीत होता जा रहा था। आजकल मुझे माँ के घर की बहुत याद आ रही थी। से इन्द्रेश की अस्वस्थता के विषय में ज्ञात हुआ है तब से कुछ अधिक ही। अन्ततः मुझसे रहा नही गया और एक दिन का अवकाश लेकर मैं माँ के घर के लिए चल पड़ी। मुझे कुशीनगर से पडरौना जाते समय मार्ग में पड़ने वाले मनोरम दृश्य तथा वो मुख्य सड़क जो पडरौना छावनी की ओर जाती थी, जो चारों ओर हरियाली के साथ अपने भीतर असीम शान्ति समेटे हुए थी, मुझे सदा से आकर्षित करती थी। कदाचित् तथागत् की शान्ति ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 14

भाग 14 " इस औरत के कारण हमारी खानदानी सीट हमारे हाथों से निकल गयी। " ताई जी जब शालिनी को देखतीं तब कड़वे शब्दों की बौछार करतीं। शालिनी सोचती कि जब इन्दे्रश जीवित था तब शालिनी बहू थी, और अब औरत हो गयी है। " न जाने किस बात की सजा देने के लिए ये जीवित रह गयी है। इन्द्रेश के साथ ये भी चली जाती तो अच्छा था। " ये ताऊजी के शब्द होते थे। सत्ता के लोभ का ऐसा पर्दा पड़ चुका था उन सबकी आँखों पर कि वो यह भी विस्मृत कर बैठे थे कि ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 15

भाग 15 राजेश्वर धीर-गम्भीर रहता तथा उसकी कही गयी किसी भी बात को आदेश मानकर उसका पालन करने को तत्पर रहता। कभी भी ऐसा न हुआ कि उसने राजेश्वर से कुछ कहा हो और किसी भी परिस्थिति में राजेश्वर ने वो काम न किया हो। शालिनी जानती है कि राजेश्वर का अपना परिवार है। उसके माता-पिता हैं, पत्नी है....दो छोटे बच्चों का उत्तरदायित्व भी है उस पर। उसके माता-पिता भी उसके पास ही रहते हैं। एक छोटा भाई है जो दूसरे शहर में सरकारी नौकरी पर तैनात है। भाई का परिवार उसके साथ वहीं रहता है। शालिनी सोचती ऊपर ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 16

भाग 16 आज सुबह से अभय से कोई बात नही हुई मेरी। उसे चाय देने से लेकर घर के कार्य कर मैं घर से कार्यालय के लिए निकली हूँ। बस की खिडकी के पास बैठी मैं बाहर के दृश्य देेख रही हूँ। बस आगे बढती जा रही है, सब कुछ पीछे छूटता जा रहा है। बस की गति के साथ विचारों का प्रवाह भी तीव्र होता जा रहा है। मैं सोच रही हूँ, उम्र ढ़लने पर मर्द औरत के साथ क्यों इस प्रकार का व्यवहार करता है? क्यों वह उस समय उसके समक्ष विजेता बनकर खड़ा हो जाता है, ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 17

भाग 17 शालिनी ने इन्द्रेश के समय चुनाव का प्रचार तो नही देखा था। चुनाव के समय में वह भी इन्द्रेश के साथ नही जाती थी। किन्तु राजेश्वर इन्दे्रश के चुनाव का काम देखता था अतः उसने राजेश्वर साथ मिल कर चुनाव प्रचार का कार्य प्रारम्भ कर दिया। बल्कि राजेश्वर जैसा व जो भी कहता वह शालिनी करती। उसी अनुरूप उसने चुनाव प्रचार का काम प्रारम्भ किया। वो अपने क्षेत्र में जनसम्पर्क अभियान चलाने के लिए अधिकांश समय वहीं व्यतीत करने लगी। इस कठिन समय में उसे सबसे बड़ा सम्बल राजेश्वर का था। अपना घर परिवार जिसमें उसकी पत्नी, ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 18

भाग 18 " क्यों....? हमारे पास अपनी पर्याप्त ज़मीन कुशीनगर में हैं। अब नया प्लाट लेने की आवश्यकता क्यों..? शालिनी ने उत्सुकतावश पूछा। " आवश्यकता अभी नही, आगे पड़ेगी। जमीन लेने की ही नही, उस पर मकान बनवाने की भी आवश्यकता पड़ेगी। " राजेश्वर ने कहा। शालिनी उसकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखती रही। " लखनऊ में तो कोई जमीन नही है आपकी, यहाँ भी आपका आना-जाना लगा रहाता है। आगे भी लगा रहेगा, इसलिए यहा एक अपना मकान आवश्यक है। " शालिनी को प्रश्नवाचक दृष्टि से अपनी ओर देखता हुआ पाकर राजेश्वर ने कहा। राजेश्वर की बातें सुनकर ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 19

भाग 19 आज लगभग एक माह के पश्चात् अनिमा कार्यालय में मुझे मिली । " तुम इतने लम्बे अवकाश थी। क्या हुआ सब ठीक तो है? " मैंने अनिमा से पूछा। " कई दिन-और रातें उसकी यादों में रो-रो कर व्यतीत करने के पश्चात् एक दिन मुझमें वो साहस आ ही गया, कि मैं इन परिस्थितियों से मुठभेड़ करने में स्वंय को सक्षम पा रही थी।.........इतने दिन लग गये मुझे इन सबसे बाहर निकलने में । अन्ततः अब सब कुछ ठीक है। " अनिमा के चेहरे पर दुःख की हल्की-सी परछाँई तो थी किन्तु उससे गहरी मुस्कराहट थी। " ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 20

भाग 20 " तुम्हारे लक्षण ठीक नही है। इन्द्रेश के जाने के बाद तुम हमारे वश में नही हो। हो गयी हो। तुम हमारे घर में नही रह सकती। हमारा घर तुरन्त खाली करो । हमारा तुमसे कोई नाता नही। " उसकी सास ने ससुर के सुर में सुर मिलाते हुए कहा। " ऐसा क्या कर दिया है मैंने जो आप लोग मुझ पर यह झूठा आरोप लगा रहे हैं। मुझे मानसिक रूप से प्रताड़ित कर रहे हैं। " शालिनी रूआँसी हो गयी। " हम पर प्रताड़ना का झूठा आरोप लगा रही हो तो हम आज से ही तुम्हंे ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 21

भाग 21 इस समय शालिनी को महात्मा बुद्ध की वो पंक्तियाँ याद आने लगी हैं जब उनसे किसी ने कि " प्रेम और पसन्द में क्या अन्तर है? " इसका सबसे सुन्दर उत्तर दिया है तथागत् ने " यदि तुम एक पुष्प को पसन्द करते हो तो तुम उसे तोड़कर अपने पास रखना चाहोगे। " "........ लेकिन अगर उस पुष्प से प्रेम करते हो तो उसे तोड़ने बजाय तुम उसमें प्रतिदिन पानी डालोगे, ताकि वो पुष्प मुरझाने न पाये। " जिसने भी इस बात के रहस्य को समझ लिया समझो उसने जीवन का सार समझ लिया। शालिनी तथागत् की ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 22

भाग 22 आजकल प्रातः नित्यकर्म से निवृत्त हो, नहा धोकर ताऊजी बाहर बारामदे में तख़्त पर बैठ जाते। वहीं इत्यादि करते हैं। वहीं बैठे-बैठे दोपहर का भोजन भी करते हैं। सड़क से आते-जाते लोगों को आवाज लगाकर पास बुलाकर हाल-चाल लेने के बहाने उनसे बातें करते हैं। पुराने दिनों की राजनीति की, सत्ता की, उनके उस जलवों की जो अब नही बची हैं, बातें करते हैं। यह सब करना उनका स्वभाव बन गया है। ऐसा इसलिए है कि अब वो अकेले पड़ने लगे हैं। अकेलापन उनको सालने लगा है। धीरे-धीरे सभी को पता चलने लगा कि ये हाल-चाल पूछने ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 23

भाग 23 म्हिलाएँ घुटनों तक पानी में उतर कर सूर्यदेव को अर्पण के लिए प्रसाद के रूप में थोड़ी-थोड़ी सुपली में लेकर डूबते सूर्य की पूजा करती हैं। उस समय अस्ताचलगामी सूर्य की सुनहरी किरणें सृष्टि पर अद्भुत सौन्दर्य बिखेरतीं है। मनोहर कार्तिक माह अपनी मनोहारी छटा के साथ उपस्थित रहता है। नदी के जल में उतर कर अर्घ देती महिलायें और अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें नदियों तालाबों के घाटों पर इन्द्रधनुषी छटा बिखेर देतीं। घाटों से लौट कर व्रती महिलायें घर में कोसी भरने की तैयारी करतीं। कोसी भरना छठ पर्व का महत्वपूर्ण भाग है। कोसी मिट्टी का ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 24

भाग 24 बहुत दिनों के पश्चात् राजेश्वर का फोन आया था। उसे अच्छा लगा कि राजेश्वर इतना स्वस्थ को है कि कम से कम अब फोन तो कर सकता है। अन्यथा उसने तो सुना था कि वो बिस्तर से उठने व चलने-फिरने तक में असमर्थ हो गया है। फोन उठा कर वह बात करने को तत्पर ही हुई कि उधर से राजेश्वर के स्थान पर किसी स्त्री के स्वर सुन कर वह विस्मित् हो गयी। " हलो.....हलो....! आप शालिनी दीदी बोल रही हैं क्या...? " " हाँ......बोल रही हूँ...। उसने धीरे से कहा। " मैं उनकी.....राजेश्वर जी की पत्नी ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 25

भाग 25 मेरे साथ उसके सम्बन्ध अब मधुर नही रहे, अतः मेरे समक्ष प्रस्ताव रखने का प्रश्न ही नही यदि दीदी का ओर से ऐसा कोई प्रस्ताव आता भी है तो बच्चे पर मात्र मेरा अधिकार तो नही है? अभय क्यों चाहेगा अपने बच्चां को दीदी को सौंप, कर उनकी इच्छा पूरी करना? वो भी उस दीदी की जिसने अभय के साथ मेरे विवाह को लेकर मुझे मानसिक प्रताड़ना दी है। उम्र का इतनी सीढ़ियाँ चढ़ लेने बाद, दीदी के साथ रिश्तों में इतनी कड़वाहट घुलने के पश्चात्, दीदी के लिए मुझे अब कुछ नही सोचना। वो भी मात्र ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 26

भाग 26 " मैंने एक एन0 जी0 ओ0 की सदस्यता ग्रहण कर ली है। शाम को कार्यालय व घर कार्य के पश्चात् जो भी समय बचता है, निर्धन-अनाथ बच्चों को पढ़ाती हूँ। उनकी आर्थिक मदद करती हूँ। पुस्तकें, काॅपियाँ, कपड़े, इत्यादि जो भी बन पड़ता है, उनकी सहायता कर देती हूँ। मन को बड़ी शान्ति मिलती हैं। सच कहूँ तो उनकी मदद होती है या नही, ये तो मैं नही जानती किन्तु ऐसा कर के मुझे बड़ी खुशी मिलती है। ये सब मैं अपनी खुशी के लिए कर रही हूँ। " अनिमा की बातें मैं मनोयोग से सुन रही ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 27

भाग 27 " अच्छा! कहाँ मिला उसे ऐसा बच्चा....? " माँ उत्सुक थीं, जैसे सब कुछ शीघ्र जान लेना हों। मैंने भी माँ सब कुछ बताने के लिए ही फोन किया था। " माँ अनिमा के कोई बच्चा नही था। विवाह-विच्छेद के पश्चात उसे अपने पति के मकान से हिस्सा और जीविकोपार्जन के लिए पैसे मिले थे। वो एक बच्चे की परिवरिश करने में सक्षम थी। अतः उसने एन0 जी0 ओ 0 के माध्यम से कानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए एक अनाथ बच्चा गोद ले लिया है। " मैंने माँ का पूरी बात अच्छे ढंग से समझा दी। ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 28

भाग 28 मेरे बार-बार हँस पड़ने का कारण यह था कि अनिमा ने परिस्थिति ही ऐसी बना दी थी। साफ-साफ कुछ बता भी नही रही थी और अपनी बात भी बताना चाह रही थी। वैसे भी अनिमा मेरी घनिष्ठ मित्र है। उसके साथ हास-परिहास चलता रहता है। " प्रेमी...? वो भी मेरा....? उम्र देखी है उसकी...? मुझसे बहुत छोटा है उम्र में वो और मुझसे कहीं अधिक आकर्षक। " अनिमा ने तुरन्त स्थिति इस प्रकार स्पष्ट कर रही थी, जैसे मैं उसे उसका प्रेमी ही न बना दूँ। " अरे भई, कुछ नही। मैं यूँ ही परिहास कर रही ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 29

भाग 29 " चलो कोई बात नही। तुमने अपना सब कुछ स्वंय सम्हाला है। एक साहसी, संवेदनशील महिला का प्रस्तुत किया है तुमने सबके समक्ष। " मैंने अनिमा से कहा। कुछ देर में अनिमा चली गयी। लंच का समय समाप्त जो हो गया था। किन्तु मैं अनिमा को जाते हुए देखती रही। उसका परिश्रम, लगन और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण देखकर सोच रही थी कि अनिमा को न समझ पाने वाले व्यक्ति ने कितना अमूल्य साथी खो दिया है। इधर कई दिनों तक व्यस्त रही मैं। दीपावली पर्व समीप था। उसी की तैयारियों में लगी रही। इस बार ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 30

भाग 30 दीदी का जीवन समय की नदी में चलते-चलते सहसा जैसे मँझधार में अटक गया हो। जीवन की हुई गति को दीदी किसी प्रकार गति देने का प्रयास कर रही थी। किन्तु ठहरे हुए जल में उलझी जलकुम्भियों की भाँति जीवन उलझ कर ठहर-सा गया था। इन उलझाी जलकुम्भियों में मार्ग तो दीदी को स्वंय बनाना होगा। दीदी जो कुछ भी करेगी अपनी इच्छा के अनुसार करेगी। किसी का सहयोग विशेष रूप से मेरा तो कदापि नही। दीदी किसी पूर्वागह से ग्रस्त है या कोई मनोग्रन्थि जो उसे ऐसा करने से रोकती है। एक दिन माँ का फोन ...और पढ़े

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 31 (अंतिम भाग)

भाग 31 सचमुच अभय ने तथागत् के शब्दों के सही अर्थों को समझा है। मैं समझ नही पा रही कि अभय की सोच में, उसके व्यक्तित्व में इतनी विशिष्टतायें हैं तो विवाह के प्रारम्भिक कुछ वर्षों की अवधि तक उसे क्या हो गया था। क्यों वह कभी-कभी मेरे प्रति संवेदनहीन हो उठता था? मेरे साथ इस प्रकार का व्यवहार करने लगता था जैसे कि मुझसे कभी प्रेम न किया हो। मैं उसकी पहले वाली नीरू न रही। जो भी हो समय अब आगे बढ़ चुका है। विगत् दिनों को याद कर मैं हृदय के जख़्मों को हरा करना नही ...और पढ़े

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