उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 14 Neerja Hemendra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 14

भाग 14

" इस औरत के कारण हमारी खानदानी सीट हमारे हाथों से निकल गयी। " ताई जी जब भी शालिनी को देखतीं तब कड़वे शब्दों की बौछार करतीं।

शालिनी सोचती कि जब इन्दे्रश जीवित था तब शालिनी बहू थी, और अब औरत हो गयी है।

" न जाने किस बात की सजा देने के लिए ये जीवित रह गयी है। इन्द्रेश के साथ ये भी चली जाती तो अच्छा था। " ये ताऊजी के शब्द होते थे।

सत्ता के लोभ का ऐसा पर्दा पड़ चुका था उन सबकी आँखों पर कि वो यह भी विस्मृत कर बैठे थे कि शालिनी भी उन्हीं के परिवार की सदस्य है। ये बातें सुनकर शालिनी का हृदय टूटकर तार-तार होता रहा। नेत्रों के अश्रु तो इन्दे्रश की अस्वस्थता से लेकर निधन तक की यात्रा में न जाने कब सूख गये थे। घर में अपनों की बातों के कटाक्ष से हृदय भी पथरा गया था। वह पथराये हृदय से सबकी बातो के अर्थ समझने का प्रयत्न करती जो दूर-दूर तक जाते।

घर में तिरस्कृत होकर रह रही शालिनी के दिन-रात व्यतीत हो जा रहे थे। कब सूर्योदय होता और कब सूर्यास्त उसे पता ही नही चलता। एक दिन पार्टी मुख्यालय से शालिनी के लिए बुलावा आया। शालिनी ने इस विषय में घर में किसी से कुछ न कहा।

वैसे भी उसके कहने-सुनने का यहाँ कोई मूल्य नही था। उसने उसी को फोन करना उचित समझा जिसने उसे सही मार्ग दिखाया था, राजेश्वर को। लगभग पैंतिस-चालिस वर्ष का युवा राजेश्वर इन्दे्रश का मित्र था। वह उसके विधानसभा क्षेत्र का प्रचार कार्य देखता था। अब से पूर्व शालिनी उसे ठीक से जानती तक न थी। इस संकट की घड़ी में अब वही उसके सबसे समीप व एकमात्र विश्वासपात्र व्यक्ति था, सहारा था।

उसे तो यह बात अब ज्ञात हुई है कि राजेश्वर इन्दे्रश के चुनाव क्षेत्र में देखभाल व सहयोग करता था। राजेश्वर ने शालिनी को लखनऊ जाने के लिए टेªन का रिजर्वेशन कराया। साथ में लखनऊ तक गया। वहाँ भी वह शालिनी के साथ लगा रहा। चुनाव क्षेत्र में प्रचार के लिए पार्टी का दिशा निर्देश पाकर वह शालिनी के साथ कुशीनगर लौटा तथा शालिनी को उसके घर तक छोड़ा। लौटकर आने पर घर में किसी ने शालिनी से बात नही की। तीनों बच्चे शालिनी के पास दौड़कर ऐसे आये जैसे माँ से तीन दिनों से नही तीन युगों के पश्चात् मिल रहे हों।

शालिनी बच्चों से लिपटकर देर तक रोती रही। पहली बार वो बच्चों को छोड़कर कुशीनगर से बाहर तीन दिनों के लिए गयी थी। अब घर से बाहर निकलना उसकी विवशता थी। जब से बाहर निकलने लगी है, तब से घर में और तिरस्कृत हो गयी है। अब मात्र राजेश्वर का सहारा रह गया था उसके लिए। जब भी वो राजेश्वर को फोन करती, परिस्थिति और समय जो भी हो वो तुरन्त आ जाता। चुनाव क्षेत्र में अपने साथ चलने व जन-सम्पर्क के लिए भी वो उसे बुलाने लगी थी। आखिर ऐसा कौन था जिसे वो अपने साथ गाँवों-गाँवों, खेतों-खेतों, पगडंडियों-पगडंडियों, घर-घर लेकर जा सकती थी

राजेश्वर ही तो था जिस पर वह भरोसा कर सकती थी। इन्द्रेश के चुनाव कार्य की कमान राजेश्वर ही तो सम्हालता था। विधायक रहते हुए इन्दे्रश ने बहुत पैसे कमाये थे। पैसों के प्रति उसका लोभ सर्वविदित था। शालिनी के पास पैसों की कमी न थी। अतः चुनाव प्रचार में भी शालिनी ने पैसों की कमी न आने दी। पानी की भाँति पैसा चुनाव क्षेत्र में बहाया। संवेदना की लहर भी उसके साथ थी। चुनाव प्रचार कार्य सुचारू रूप से चलने लगा। चुनाव होने में मात्र दो माह शेष रह गए थे। घर की सभी कटुताएँ घर में ही छोड़कर शालिनी पूरी तरह चुनाव में व्यस्त हो गयी थी।

ये तो मुझे समझ में आ गया था कि दीदी अभय और मेरे विवाह का लेकर रूष्ट थी। मैं भी कैसी नासमझ थी कि दीदी से अब भी पूर्व की भाँति ही स्नेह कर रही थी। अभय से विवाह में मेरा हाथ नही था, न मैंने भागकर अभय के साथ प्रेम विवाह किया था। फिर भी दीदी इस बात को समझाने को तैयार नही। माँ-बाबूजी ने अभय से मेरा रिश्ता अपनी रूचि के अनुसार किया था।

दीदी का रिश्ता आया था तो बाबूजी ने दीदी से पूछा भी था। दीदी ने अपनी सहमति दी थी, तब जाकर बाबूजी ने दीदी का विवाह सोेमेश के साथ तय किया था। मुझसे तो बाबूजी ने मेरी इच्छा भी नही पूछी थी। उन्हांेने आकर्षक, युवा और सरकारी नौकरी करता हुआ लड़का देख और मुझसे पूछे बिना विवाह तय कर दिया। विवाह से पहले मेरे आकर्षण में बँधा अभय मेरे घर आने लगा था। इस बात का लाभ बाबूजी ने विवाह करने में उठाया व दीदी ने मुझसे व अभय से शत्रुता करने में।

मैं और दीदी दोनों कुशीनगर में रहते हैं। फिर भी मैं दीदी से कम मिलती हूँ। इसका कारण मैं नही बल्कि मेरे प्रति दीदी का उपेक्षापूर्ण व्यवहार है। जब भी मैं दीदी को फोन करती हूँ, वह औपचारिक बातें कर फोन रख देती है। कभी भी मुझे व अभय को अपने घर आने के लिए आमंत्रित नही करती है। अब तो माँ के घर पडरौना में ही किसी पारिवारिक समारोह में हम एक-दूसरे से मिल पाते हैं।

अब की बार दीदी माँ के घर होली में गयी थी। कुछ व्यस्तायें व कुछ स्वास्थ्य कारणों से मैं नही जा सकी थी। दो दिनों के पश्चात् स्वास्थ्य कुछ ठीक होने के बाद मैं गयी यह सोच कर कि होली के बहाने दीदी व जीजा से भी मिल लूँगी। मेरे वहाँ पहुँचने से पहले दीदी वहाँ से चली आयी थी। मैंने दीदी को फोन कर स्नेह भरा उलाहना देकर उनके शीघ्र चले जाने का कारण और हालचाल जानना चाहा तो दीदी ने कटाक्ष करते हुए कहा कि " मुझे क्या पता था कि तुम आने वाली हो, सारे काम छोड़कर मैं वहीं रूक जाती तुम्हारे लिए। " दीदी के शब्दों से मुझे कितनी चोट पहुँची ये मैं ही जानती हूँ।

" तुम दोनों युवा लोग हो, फिर भी अस्वस्थ हो जाते हो। तुम से तो अच्छे हम ही हैं। " दीदी के व्यंग्य वाण चलते ही जा रहे थे।

दीदी की बातें यहीं पर समाप्त नही हुईं। उनकी ऐसी कड़वी, व्यंग्य भरी भाषा सुनकर मैं हत्प्रभ थी, आहत थी। मैं उनसे अधिक देर तक बातें नही कर पायी। फोन रख दिया। मैं सोेचती रह गयी कि दीदी को ये क्या हो गया है? मेरे साथ ऐसा व्यवहार करने का क्या कारण है? मैं छोटी बच्ची तो न थी जो ये भी न समझ पाती कि दीदी अपने बेमेल विवाह से उत्पन्न हीनभावना से ग्रस्त है।

अब मैं ये समझ गयी थी कि दीदी अपने बेमेल विवाह से फ्रस्टेटेड है और मेरी काई ग़लती न होते हुए भी मुझे अपना फ्रस्टेशन निकालने का माध्यम बनाई हुई है। माँ- बाबूजी से कुछ कह नही सकती थी। मैं असानी से उपलब्ध थी । यही कारण है कि वो मुझे व अभय को युवा-युवा बोलकर अपना फ्रस्टेशन निकालती है। कदाचित् इसी कारण मेरे प्रति ईष्र्या का भाव भी रखती है। मेरे साथ बुरा व्यवहार करती है। उनका अपना बेमेल विवाह ही एक मात्र कारण था कि वो मेरे व अभय के विवाह के विरोध में थीं। अन्यथा अभय में कोई कमी न थी कि उसे स्वीकार न किया जाये।

एक छोटे से स्थान कुशीनगर में रहते हुए भी मुझसे कभी मिलने का प्रयत्न नही करतीं न मुझे अपने घर बुलाती है। दीदी की यही इच्छा है तो ऐसा ही सही। जैसा वो चाहती है वैसा ही मैं करूँगी। मेरा भाग्य मुझे अभय तक खींच कर ले गया, मैं इसमें कुछ नही कर सकती थी। तब भी दीदी को मुझसे गिला है। माँ-बाबूजी को दीदी और मेरे बीच रिश्तों में बढ़ती दूरियों से कोई मतलब न था।

मेरा समय कार्यालय, घर व बच्चों के बीच बँट गया था। इन सबके बीच सामंजस्य बैठाते हुए सही ढंग से व्यतीत हो रहा था। यह सब करते हुए एक छोटी-सी समस्या खड़ी होती जा रही थी, वो ये कि मेरे ऊपर काम का बोझ बढ़ता जा रहा था। घर के उत्तरदायित्व पूरे कर, बच्चों को स्कूल भेजकर कार्यालय के लिए निकलती।

कार्यालय से आने के पश्चात् बच्चों की समस्याएँ सुनना, गृहकार्य में उनकी सहायता करना, शाम के भोजन कर तैयारी करना इत्यादि कार्य मेरी आवश्यक दिनचर्या में सम्मिलित थे। मेरे ऊपर बढ़ते जा रहे काम के बोझ को अभय देखता रहता, किन्तु मेरे साथ हाथ बँटाने का प्रयत्न नही करता। मैं संकोच के कारण कुछ कह नही पाती और अकेले सब कुछ करती रहती। मैं सोचती मेरे साथ विवाह करने को उतावला अभय अब मेरी ओर से विमुख क्यों होता जा रहा है?

जब कि मैं प्रत्येक परिस्थिति में घर के उत्तरदायित्व पूर्ण करने का प्रयत्न करती। अस्वस्थता की स्थिति में भी मुझे सब कुछ करना होता। मैं अभय की आर्थिक सहायता भी करती। कभी बिजली का बिल, तो कभी गृहकर, कभी गाड़ी के इन्श्योरेन्स, तो कभी बीमा प्रीमियम के पैसे बिना मेरी सहायता से जमा नही हो पाते। फिर भी उसका उपेक्षापूर्ण व्यवहार मेरी समझ से परे था।

मेरे बच्चे किशोरवय की ओर बढ़ने लगें हैं। दीदी की कोख अब तक सूनी है। अब तक तो मैं यही अनुमान लगाती थी कि विवाह के पश्चात् दीदी इतनी शीघ्र बच्चे नही चाहती। कई वर्ष यही अनुमान लगानेे व सोचने में व्यतीत हो गये। किन्तु दीदी के कुछ न बताने पर भी वास्तविकता समझ में आने लगी थी। वास्तविकता यही थी कि दीदी के भाग्य में मातृत्व सुख नही था। मेरे प्रति उसके बेरूखी भरे व्यवहार के कारणों में एक कारण कदाचित् यह भी था। इतना होने के पश्चात् भी मैं दीदी से रूष्ट नही थी। मुझे उनसे सहानुभूति थी।

कई दिनों के पश्चात् आज लंच टाईम में कार्यालय में मुझे अनिमा दिख गयी। वो कार्यालय के कैंटिन की ओर तीव्र कदमों से जा रही थी।

" अनिमा! " मैंने आवाज दी उसने पलट कर मुझे देखा और रूक गयी।

" कहाँ जा रही हो......लंच कर लिया क्या..? " मैंने पूछा।

" अरे नही.....आज लंच नही लाई। कैंटीन से कुछ ले लूँगी। वहीं जा रही थी। "

" कैटीन में क्या मिलेगा....? मैंने कहा। मै जानती हूँ कि यहाँ के कैंटीन में जलपान की व्यवस्था रहती है। भोजन यहाँ नही मिलता।

" शाम तक रूकना है। कुछ तो लेना ही पड़ेगा। पैटीज वगैरह ले लूँगी। " कह कर अनिमा मुस्करा पड़ी।

" चल मेरे साथ। मैंने अभी लंच नही किया है। " मैंने कहा।

" तुम्हारा भोजन मैं खा लूँगी तो तुम्हारी भूख कैसे पूरी होगी? " अनिमा ने कहा।

" हो जाएगी। दो लोगों के लिए पर्याप्त है। " कह कर मैंने अनिमा का हाथ पकड़ लिया। फिर भी अनिमा ने दो पैटीज लिए और मेरे साथ चल पड़ी। हमने मिलकर लंच किया। मुद्दतों के पश्चात् अपने मन की बातें साझा की।

अनिमा भी अपने पारिवारिक जीवन में कछ-कुछ मेरी भाँति ही समस्याओं से जूझ रही थी। समस्याएँ वहीं........सदियों से परिवार की धुरी रहने के पश्चात् भी अपनी पहचान व अपनी अपने अधिकारों से वंचित स्त्रियों की दुर्दशा मानसिक शारीरिक उत्पीड़न की व्यथा हमसे साझा कर अनिमा के चेहरे पर संतोष की छाया देखी। ऐसा प्रतीत हुआ उसके मन से कोई बोझ उतर गया हो।

अनिमा अपने वैवाहिक जीवन में जिस प्रकार कठिन समस्या से जूझ रही थी उसे सुनकर मुझे मेरी समस्या हल्की व कम लगने लगी थी। अनिमा के साथ मेरी सहानुभूति तो थी ही, किन्तु उसके साथ घट रही घटनाओं से मेरा मन बड़ा आहत था। पति-पत्नी में छोटी -मोटी नोक-झोंक, बहस, लड़ाई-झगड़े तो होते ही रहते हैं, जिसे बाद में क्रोध शान्त होने पर सुलझा लिया जाता है। यहाँ अनिमा का पति किसी और स्त्री के प्रेम में पड़कर अनिमा को प्रताड़ित कर रहा हैं। मैं समझ नही पा रही थी कि अनिमा इस समस्या से कैसे सामना करेगी.....?

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चुनाव के तिथियों की घोषणा हो चुकी थी। एक-एक दिन व्यतीत होते हुए तिथि समीप आती जा रही थीं। तीसरे चरण के मतदान में पूर्वाचंल के अधिकांश क्षेत्रों में चुनाव थे। पडरौना, कुशीनगर में भी एक दिन ही मतदान था। शालिनी ने चुनाव में पैसा व पूरी ताकत झोंक दिया था। इन्द्रेश के घर से कोई भी उसकी मदद करने को उसके साथ क्षेत्र में नही जाता। वो अकेले ही गाड़ी निकलवा कर ड्राईवर के साथ निकल पड़ती। राजेश्वर उसे क्षेत्र में मिल जाता। लौटकर आने पर उससे कोई बात नही करता।

बस, यही अच्छा था कि किसी का मौन मुखर नही होने पाता। न ही अब कोई भी उसे अपशब्द कह पाता। चुनाव का टिकट मिल जाने से शालिनी के घर वालों में उसे कुछ कहने का साहस न था। पार्टी का प्रभाव घर में दिखाई देता व सब खामोश रहते। कोई उससे अच्छी बात न करता तो झगड़े वाली बात भी न करता। खामोशी के साथ पूरी तरह उसका बहिष्कार किया जाता। शालिनी जानती थी कि उसे कोई कुछ भले ही कह रहा हो किन्तु सभी उससे नाराज़ हैं। नाराज़ ही नही बल्कि उससे घृणा करते हैं। अपना दुख-सुख यदि वो किसी से बाँट सकती थी, तो वो था राजेश्वर।