उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 31 (अंतिम भाग) Neerja Hemendra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 31 (अंतिम भाग)

भाग 31

सचमुच अभय ने तथागत् के शब्दों के सही अर्थों को समझा है। मैं समझ नही पा रही थी कि अभय की सोच में, उसके व्यक्तित्व में इतनी विशिष्टतायें हैं तो विवाह के प्रारम्भिक कुछ वर्षों की अवधि तक उसे क्या हो गया था। क्यों वह कभी-कभी मेरे प्रति संवेदनहीन हो उठता था? मेरे साथ इस प्रकार का व्यवहार करने लगता था जैसे कि मुझसे कभी प्रेम न किया हो। मैं उसकी पहले वाली नीरू न रही। जो भी हो समय अब आगे बढ़ चुका है। विगत् दिनों को याद कर मैं हृदय के जख़्मों को हरा करना नही चाहती। उन दिनों को मैं विस्मृतियों के उन पलों में डाल देना चाहती हूँ जिन्हें विस्मृत करना ही बेहतर है। उन दिनों को मैं एक बुरे सपने की भाँति भूल जाना चाहती हूँ। उन दिनों को विस्मृत करने के प्रयास में यदाकदा मुझे पहले का अभय याद आ ही जाता है। जो मुझे बेहद चाहता था। उसी चाहत व प्यार का परिणातम थ कि वो बार-बार मुझसे मिलने, मुझे देखने पडरौना आता था। मैं जानती हूँ कि अभय का वो बुरा व्यवहार मेरे प्रति नही बल्कि मेरे घर वालों की उसके प्रति किये गये व्यवहार की प्रतिक्रिया थी। मेरे घर वाले, मेरी बहन का उसके किया गया उपेक्षापूर्ण व्यवहार ही उसका उत्त्रदायी था। आखिर मैं ही तो उसके समक्ष थी जिस पर वो अपनी भावनायें व्यक्त कर सकता था। अपना क्रोध, अपनी अच्छी या बुरी जो भी थीं प्रतिक्रिया थी, मुझ पर ही तो व्यक्त होनी थीं। ये तो अभय के अच्छे संस्कार व शालीनता थी जो उसने दीदी के उपेक्षापूर्ण व्यवहार का कभी पलटकर उनको उत्तर नही दिया। मुझ पर ही अपनी खीज व्यक्त करता रहा।

जो भी हो वो एक प्रतिकूल समय था, जिसे मैंने समझदारी व खामोशी के साथ व्यतीत कर दिया। पति-पत्नी के रिश्ते में यदाकदा एक पक्ष की समझदारी भी रिश्तों को बचाने में सफल हो जाती है। यदि कभी-कभी एक पक्ष थोड़ा उग्र हो जाये तो दूसरे को शान्ति के माहौल का सृजन कर समय को आगे बढ़ा देना चाहिए, न कि दूसरे पक्ष को भी उग्र होकर वातावरण को बोझिल बना देना चाहिए। रिश्तो को इस हद तक तनाव नही देना चाहिए कि रिश्तों की डोर तन कर टूट ही जाये। किन्तु मूल प्रश्न वहीं खड़ा रह जाता है कि समझदारी मात्र स्त्री ही क्यों दिखाये? पुरूष भी तो अपने अहं का त्याग कर कभी समझदार होकर दिखाये।

जैसा कि सर्वविदित है कि मृत्यु अटल सत्य है। एक दिन माँ हम सबको छोड़कर इस दुनिया से दूसरी दुनिया में चली गईं। उन्हें जाने व विछोह की पीड़ा हम सब अनुभव कर रहे थे। इन सब से परे बाबूजी के दुख का अनुमान नही लगाया जा सकता था। घर में उनकी देखभाल करने व बोलने-बतियाने वाली माँ खामोश हो चुकी थी। इतने बड़े घर में बाबूजी अकेले रहते हैं। कैसे रहते हांेगे अकेले.......? सोच-सोच कर हृदय में कचोट-सी उठती, किन्तु विवशता थी कि हम कुछ नही कर सकते। मैं अवकाश में किसी प्रकार समय निकालकर उनका हालचाल लेने पडरौना जाती। उनके अकेलेपन की पीड़ा का अनुभव करती और वापस चली आती। बाबूजी के पास अधिक दिनों तक रूक नही पाती। मेरी विवशता थी मेरी नौकरी। दीदी अकेली थी, तब भी बाबूजी के पास कभी-कभार ही आ पाती। इसका कारण था कि उसे अपने घर की रखवाली करनी रहती। नौकरों-चाकरों के भरोसे वह अकेला घर नही छोड़ सकती थी। दीदी की अपनी विवशतायें थीं। अब सबकी आशायें भाई पर ही केन्द्रित थीं। इस समस्या पर वो ही कुछ सोच व कर सकता था। प्राजंल हम सबकी आशाओं पर सदा की भाँति इस बार भी खरा उतरा। उसने बाबूजी के बड़े-से घर में दो किरायेदार रख दिये। दो कक्ष ,खाली रखे और उनमें माँ व बाबूजी का सारा सामान रखवा दिया। माँ के उपयोग की अधिकांश वस्तुयें जरूरतमन्दों में बाँट दी गयीं। कुछ वस्तुयें प्रांजल ने स्मृति स्वरूप रखी ली थीं। घर में किरायेदार को रखने का उद्देश्य यही था कि घर की साफ-सफाई होती रहे। प्राजंल बाबूजी को अपने साथ लेकर चला गया। उसके इस कदम से हम सब प्रसन्न थे तथा चिन्तामुक्त भी। इन सबके साथ ही एक बात का दुख भी कि माँ-बाबूजी के चले जाने से मेरा वो पीहर छूट गया, जहाँ जाकर मैं अपने बचपन व युवावस्था को पुनः जी लिया करती थी। माँ से, बाबूजी से मन की बात कर लिया करती थी तथा उनके मन की सुन लिया करती थी। अब ऐसी अनुभूति होने लगी थी जैसे अब पडरौना में कुछ भी न रह गया हो हमारा। यही सोच कर मन को ढाढ़स बँधाया कि बाबूजी कभी-कभी पडरौना आया करेंगे और हम सब उनसे मिलने जाया करेंगे। अत्यधिक मन व्याकुन होगा तो प्रांजल के घर जाकर उनसे मिल लेंगे, किन्तु बाबूजी तो अकेलेपन की पीड़ा से बच जायेंगे।

शालिनी राजनीति में पूरी तरह रम चुकी थी। उसमें राजनीति की समझ भी विकसित हो चुकी भी। उसने अपने दो बच्चों का व्याह कर दिया था। उसके आसपास नये रिश्ते विकसित हो गए थे। वह यह समझ गयी थी कि उसके इर्दगिर्द ये जो नये रिश्ते विकसित हुए हैं, उनमें उसके और राजेश्वर के सम्बन्धों के लिए कोई स्थान नही है, न आवश्यकता है। वह चाहती है कि उन्हें कभी भी यह पता नही चलना चाहिए कि वह राजेश्वर के साथ चल कर यहाँ तक पहुँची है। उसके जीवन के इस भव्य सफर में राजेश्वर नींव का पत्थर रहा है। इन्दे्रश के बाद का सफर उसने राजेश्वर की बाहें पकड़ कर तय की हैं, इस बात का वह उन्हें आभास तक नही कराना चाहती। इसीलिए वह राजेश्वर के समीप रह कर भी इस बात को वह प्रकट नही करना चाहती कि राजेश्वर उसके साथ है या वह राजेश्वर के साथ है। उसके और राजेवर के बीच की नजदीकियां उन्हे दिखनी नही चाहिए। इसके लिए वह सबके समझ राजेश्वर से औपचारिक बातचीत करती है। वह अब उससे दूरी बनाकर रहती है। वह वास्तविकता प्रकट नही होने देती। सभी रिश्तेदार यही समझते हैं कि अपनी पारिवारिक पृष्ठभूति के कारण राजनीति में शालिनी यहाँ तक यहाँ तक पहुँची है और सफल हुई है। राजेश्वर मात्र उसकी पार्टी का कार्यकर्ता है, जो चुनाव में उसकी मदद करता है। शालिनी लोगों के इस भ्रम को बनाये रखना चाहती है। जब कि वह जानती है कि यदि राजेश्वर न होता तो वह राजनीति में तो क्या अपने परिवार में भी नही रह पाती। आज उसके बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त कर अच्छा जीवन जी रहे है, तो वो राजेश्वर के ही कारण। राजेश्वर आज भी पूर्णनिष्ठा के साथ शालिनी के प्रति समर्पित है। शालिनी के मन का भी कोई न कोई कोना राजेश्वर के लिए सुरक्षित है। आज भी वह कोई भी महत्वपूर्ण निर्णय राजेश्वर से पूछे बिना नही लेती। विशषेकर राजनीति से सम्बन्धित निर्णय। शालिनी अपने परिवार के अतिरिक्त राजनीति की जीत और हार के प्रति समर्पित है। राजनीति में रहकर उसने चल-अचल सम्पत्ति खूब इकट्ठी कर ली है। अतः कुशीनगर के पुराने, पुश्तैनी घर की उसे कोई आवश्यकता नही है, न ही वी अब वहाँ अपने कदम रखती है। उन सभी चीजों से वह शरीरिक व भावनात्मक दोनों रूपों से दूर हो चुकी है, जो चीजें उसे बेचैन करती हैं। इन्द्रेश, उसका परिवार व उसका टूटा-फूटा, खण्डहर होता घर सभी कुछ वह विस्मृत कर आगे बढ़ चुकी है।

♦ ♦ ♦ ♦

अनिमा अपने बेटे अच्छी शिक्षा दे रही है। उसका बेटा पढ़ने में होशियार है व समझदार भी। वह बहुत बातूनी व जिज्ञासु प्रवृति का है। युवावस्था की ओर बढ़ते श्लोक को अनिमा अपने हृदय के टुकड़े-सा सम्हाल कर रखती है। श्लाक को नही ज्ञात कि अनिमा उसकी सगी माँ नही है, यदि भविष्य में कभी उसे ज्ञात भी हो जाये कि अनिमा उसकी सगी माँ नही है, बल्कि उस अनाथ का पालन पोषण कर उसे सगी माँ की भाँति ही नही बल्कि उससे कहीं अधिक स्नेह दिया है...... देखभाल की है.....यहाँ तक कि श्लोक मे ही अपना भविष्य देखा है, तो क्या उसका हृदय अनिमा प्रति न श्रद्धा से और नतमष्तक् न हो जायेगा? अनिमा ने उसका पालन पोषण इस ढंग से किया है कि उसमें समस्त मानवीय संवेदनायें दृष्टिगत् होती हैं। अनिमा ने अपना जीवन अपने साहस व मेधा से सम्हाल लिया है, किसी पुरूष का सम्बल लिए बिना। वह अपनी मेधा से जीवन का सही मार्ग चुनकर आगे बढ़ रही है। साथ ही एन0 जी0 ओ0 के माध्यम से समाज में महिलाओं ब बच्चियों के अधिकरों के लिए काम कर रही है। उसने महिलाओं के लिए एक आर्दश स्थापित किया है।

दीदी अभी तक समझ नही पा रही है कि उसे करना क्या है? प्रारम्भ से ही वह भ्रमित थी और आज भी भ्रमित है। सही समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता का उसमें सदा से अभाव रहा है। यह स्थिति उम्र के इस पड़ाव पर आकर भी उसमें बनी हुई है। मैं समझती हूँ कि इस स्थिति का कारण दीदी के मन में बचपन से उसके हृदय में बैठा कोई भय है। इस स्थिति के लिए जो भी उत्तरदायी है मैं काई चिकित्सक या मनाबैज्ञानी नही हूँ न ही इस क्षेत्र की जानकारी रखती हूँ किन्तु इतना कह सकती हूँ कि दीदी के मन में बचपन में बैठे भय की कोई गाँठ मन में रह गयी है जो उसे कोई भी निर्णय लेने में भयभीत करती है। दीदी को अब तक उस भय पर विजय प्राप्त कर लेना चाहिए था, अनिमा की भाँति। दीदी की बड़ी सम्पत्ति, उसका अकेलापन व उसके चारों ओर घेरा बनाते उसके लोभी रिश्तेदारों की भीड़। दीदी को इन सबसे निपटना है। यदि दीदी चाहे तो अनिमा की भाँति सही निर्णय लेकर सरलता ने उन समस्यााओं से सरलता से बाहर निकलकर जीवन पथ पर प्रसन्न्तापूर्वक आगे बढ़ सकती है। सब कुछ दीदी के हाथ में है। दीदी की समस्याये.....उसके मन की पीड़ाजो कुछ भी है उसे सुनने के लिएइस दुनिया में अब कोई नही है। न इस दुनिया में माँ, न पडरौना में बाबूजी। दीदी की दृष्टि में मैं दीदी के योग्य हूँ या नही ये मैं नही जानती किन्तु दीदी के योग्य मैं स्वंय को नही मानती।

दीदी के बारे में साचते-सोचते मुझे उनसे मिलने की इच्छा जागृत हो गयी। कैसी होगी दीदी.......कैसे रहती होगी......उन्हें अपनो की यानि मेरी आवश्यकता तो न होगी......? आदि-आदि अनेक प्रश्न मुझे उनसे मिलने के लिए उद्वेलित कर रहे थे। आज अवकाश था और ये अच्छा अवसर था दीदी से मिलने का। दोपहर तक घर के सभी कार्य समाप्त कर मैं दीदी से मिलने उनके घर की ओर पैदल ही चल दी। रास्ते भर मन में भाँति-भाँति के ख्याल आ रहे थे। दीदी के लिए मन सशंकित हो रहा था। दिन का तीसरा पहर था। अगहन माह के दोपहर की गुनगुनी धूप अच्छी लग रही थी। पैदल चलना अच्छा लग रहा था। आखिर कुशीनगर है कितना बड़ा? छोटा-सा शहर है। यहाँ कई स्थानों पर घर से पैदल ही आया जाया जा सकता है। अगहन माह की ऋतु मनोरम लग रही थी। चारों ओर हरियाली से घिरा कुशीनगर किस स्वर्ग से कम प्रतीत नही हो रहा था। हरे-भरे धन के नन्हें बिरवे खेतों में लहरा रहे थे। ज्वार-बाजरे, मक्के की बालियों पर आकर्षित होते हरे तोते खेतों को और भी हरितिमा से भर दे रहे थे। रंग-बिरंगे पक्षियों के कलरव से कुश्ीनगर का वातावरण गुंजित हो रहा था। घरों की छतों और झोपड़ियों पर फैली लतरों में कद्दू और लौकी के सफेद-पीले पुष्प अपनी पूरी रंगत व सौंदर्य के साथ खिले लहरा रहे थे। छोटी कलियों व फूलों से लतरें भर गयीं थीं। अगहन के गुलाबी मौसम में कुशीनगर का प्राकृतिक वातावरण मनोरम हो उठा था। चलते-चलते दीदी का घर कब आ गया मुझे पता ही नही चला।

" कौन? " दरवाजा खटखटाते ही अन्दर से दीदी की आवाज़ आयी।

" मैं हूँ दीदी, नीरू। " मैंने कहा। आश्वस्त हो जाने के पश्चात् दीदी ने दरवाजा खोला।

मुझे देखते ही दीदी के उदास चेहरे पर प्रसन्नता दौड़ गयी।

" तुम अकेली आयी हो? अभय नही आया....? " यह क्या दीदी के मुँह से अभय के बारे में सुनकर मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे संसार के आठवे आश्चर्य के बारे में सुन लिया हो। आज तक दीदी ने न तो कभी अभय के बारे में पूछा न उनकी चर्चा ही करती थी।

" आज तो उसका भी अवकाश होगा? " इससे पूर्व मैं दीदी के प्रश्न का कोई उत्तर देती वह पुनः पूछ बैठी।

" अभय को अकेला क्यों छोड़कर आ गयी.....? " आज दीदी अभय के बारे में ही पूछ रही थी और मुझे कोई उत्तर देते नही बन रहा था। किन्तु कुछ न कुछ तो कहना ही था।

" अकेले नही दीदी, उन्हें मम्मी-पापा को डाक्टर के पास लेकर जाना था। सप्ताह में एक ही अवकाश मिलता है। उसमें भी अनेकों काम निपटाने रहते हैं। " मैंने दीदी के प्रश्न का समुचित उत्तर व उनकी जिज्ञासा शान्त करते हुए कहा।

" हाँ वो तो है। " दीदी ने मेरा समर्थन करते हुए कहा।

मैं दीदी के पास लगभग दो घंटे बैठी रही। मेरे और दीदी के मध्य अधिकांश समय खामोशी में ही व्यतीत हो रहा था। दीदी मुझसे खुलना चाह कर भी खुल नही पा रही थी। दीदी के साथ मैं कितना खुल सकती हूँ उसकी सीमायें मुझे ज्ञात नही हैं, अतः मैंने भी खामोशी का आवरण ओढ़े रखा। दीदी के ड्राइंगरूम की खिड़की से मैंने बाहर देखा, शनैः शनैः शाम खिड़की पर उतर रही थी। कुछ ही देर में मैंने दीदी से घर जाने की आज्ञा ली और उठ खड़ी हुई।

" पुनः शीघ्र आना नीरू! बहुत दिनों बाद आयी हो। " दीदी ने कहा।

" जी अवश्य। " कहकर मैं चल पड़ी।

दीदी के घर से बाहर निकल कर मैंने देखा सृष्टि पर साँझ अपना श्यामल आँचल फैलाने लगी थी। अगहन मास में साँझ का धँुधलका कुछ अधिक ही गहरा होने लगता है। अतः दिन में हरे-भरे दिखते वृक्ष इस समय काली परछाँईयों में तब्दील हो गए थे। आसमान में उड़ते हुए पक्षियों के झुण्ड रात होने से पूर्व वृक्षों में समा जाना चाह रहे थे। शाम होते ही कदाचित् उन्हें अपना नीड़ तलाशने में भ्रम की स्थिति न रहे। गोधूलि की बेला में कृषक अपनी गायों...ढोरों के साथ घरों को लौट रहे थे। दूर किसी गाँव में महिलाओं के लोकगीत गाने के स्वर वातावरण में मधुर संगीत उत्पन्न कर रहे थे। कदाचित् ग्रामीण महिलायें शाम का भोजन बनाने कर तैयारी कर रही थीं। वे कुँए से जल भरते समय प्रेम व विरह के गीत गा रही थीं। मैं गहराती साँझ की अनदेखी करते हुए क्षितिज के मनोरम रंगों के सौन्दयै में स्वंय को गुम करती न जाने किन ख्यालों में डूबती जा रही थी। कदाचित् दीदी.....अनिमा...शालिनी के....? मेरे पग घर की ओर बढ़ते ही चले जा रह थे।

 

समाप्त

 

नीरजा हेमेन्द्र

दूरभाष-9450362276