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चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 32

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(पथ में राक्षस और सुवासिनी)

सुवासिनीः राक्षस! मुझे क्षमा करो!

राक्षसः क्यों सुवासिनी, यदि वह बाधा एक क्षण और रुकी रहतीतो क्या हम लोग इस सामाजिक नियम के बन्धन से बँध न गये होते!अब क्या हो गया?

सुवासिनीः अब पिताजी की अनुमति आवश्यक हो गयी है।

राक्षसः (व्यंग्य से) क्यों? क्या अब वह तुम्हारे ऊपर अधिकारनियंत्रण रखते हैं? क्या उनका तुम्हारे विगत जीवन से कुछ सम्पर्क नहीं?क्या...

सुवासिनीः अमात्य! मैं अनाथ थी, जीविका के लिए मैंने चाहेकुछ भी किया हो, पर स्त्रीत्व नहीं बेचा।

राक्षसः सुवासिनी, मैंने सोचा था, तुम्हारे अंक में सिर रखकरविश्राम करते हुए मगध की भलाई से विपथगामी न हूँगा। पर तुमने ठोकरमार दिया? क्या तुम नहीं जानती कि मेरे भीतर एक दुष्ट प्रतिभा सदैवसचेष्ट रहती है? अवसर न दो, उसे न जगाओ! मुझे पाप से बचाओ!

सुवासिनीः मैं तुम्हारा प्रणय स्वीकार नहीं करती। किन्तु अबइसका प्रस्ताव पिताजी से करो। तुम मेरे रूप और गुण के ग्राहक हो,और सच्चे ग्राहक हो, परन्तु राक्षस! मैं जानती हूँ कि यदि ब्याह छोड़करअन्य किसी भी प्रकार से मैं तुम्हारी हो जाती तो तुम ब्याह से अधिकसुखी होते। उधर पिता ने - उनके लिए मेरा चारित्र्य, मेरी निष्कलंकतानितान्त वाञ्छनीय हो सकती है - मुझे इस मलिनता के कीचड़ से कमलके समान हाथों में ले लिया है! मेरे चिर दुःखी पिता! राक्षस, तुम वासनासे उपेजित हो, तुम नहीं देख रहे हो कि सामने एक जुड़ता हुआ घायलवृद्ध बिछुड़ जायगा, एक पवित्र कल्पना सहज ही नष्ट हो जायगी?

राक्षसः यह मैं मान लेता, कदाचित्‌ इस पर पूर्ण विश्वास भीकर लेता, परन्तु सुवसिनी, मुझे शंका है। चाणक्य का तुम्हारा बाल्यपरिचय है। तुम शक्तिशाली की उपासना...

सुवासिनीः ठहरो अमात्य! मैं चाणक्य को इधर तो एक प्रकारसे विस्मृत ही हो गयी थी, तुम इस सोयी हुई भ्रान्ति को न जगाओ!

(प्रस्थान)

राक्षसः चाणक्य भूल सकता है? कभी नहीं। वह राजनीति काआचार्यहो जाय, वह विरक्त तपस्वी हो जाय, परन्तु सुवासिनी का चित्र-यदि अंकित हो गया है तो उहूँ (सोचता है।)

(नेपथ्य से गान)

कैसी कड़ी रूप की ज्वाला?

पड़ता है पतंगा सा इसमें मन होकर मतवाला,

सान्ध्य-गगन-सी रागमयी यह बड़ी तीव्र है हाला,

लौह-श्रृंखला से न कड़ी क्या यह फूलों की माला?

राक्षसः (चैतन्य होकर) तो चाणक्य से फि मेरी टक्कर होगी,होने दो! यह अधिकारी सुखदायी होगा। आज से हृदय का यही ध्येयरहा। शकटार से किस मुँह से प्रस्ताव करूँ! वह सुवासिनी को मेरे हाथमें सौंप दे, यह असम्भव है! तो मगध में फिर एक आँधी आवे! चलूँ,चन्द्रगुप्त भी तो नहीं है, चन्द्रगुप्त सम्राट्‌ हो सकता है, तो दूसरे भी इसकेअधिकारी हैं। कल्याणी की मृत्यु से बहुत से लोग उपेजित हैं। आहुतिकी आवश्यकता है, बह्नि प्रज्वलित है।

(प्रस्थान)

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