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चंद्रगुप्त - प्रथम अंक - 4

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(कुसुमपुर के सरस्वती मन्दिर के उपवन का पथ)

राक्षसः सुवासिनी! हठ न करो।

सुवासिनीः नहीं, उस ब्राह्मण को दण्ड दिये बिना सुवासिनी जीनहीं सकती अमात्य, तुमको करना होगा। मैं बौद्ध-स्तूप की पूजा करकेआ रही थी, उसने व्यंग किया और वह बड़ा कठोर था, राक्षस! उसनेकहा - “वेश्याओं के लिए भी एक धर्म की आवश्यकता थी, चलो अच्छाही हुआ। ऐसे धर्म के अनुगत पतितों की भी कमी नहीं।”

राक्षसः यह उसका अन्याय था।

सुवासिनीः परन्तु अन्याय का प्रतिकार भी है। नहीं तो मैं समझूँगीकि तुम भी वैसे ही एक कठोर ब्राह्मण हो।

राक्षसः मैं वैसा हूँ कि नहीं, यह पीछे मालूम होगा। परन्तुसुवासिनी, मैं स्वयं हृदय से बौद्धमत का समर्थक हूँ, केवल उसकी दार्शनिकसीमा तक - इतना ही कि संसार दुःखमय है।

सुवासिनीः इसके बाद?

राक्षसः मैं इस क्षणिक जीवन की घड़ियों को सुखी बनाने कापक्षपाती हूँ। और तुम जानती हो कि मैंने ब्याह नहीं किया, परन्तु भिक्षुभी न बन सका।

सुवासिनीः तब आज से मेरे कारण तुमको राजचक्र मं बौद्धमतका समर्थन करना होगा।

राक्षसः मैं प्रस्तुत हूँ।

सुवासिनीः फिर लो, मैं तुम्हारी हूँ। मुझे विश्वास है कि दुराचारीसदाचार के द्वारा शुद्ध हो सकता है, और बौद्धमत इसका समर्थन करताहै, सबको शरण देता है। हम दोनों उपासक होकर सुखी बनेंगे।

राक्षसः इतना बड़ा सुख-स्वप्न का जाल आँखों में न फैलाओ।

सुवासिनीः नहीं प्रिय! मैं तुम्हारी अनुचरी हूँ। मैं नन्द की

विलास-लीला का क्षुद्र उपकरण बनकर नहीं रहना चाहती।

(जाती है।)

राक्षसः एक परदा उठ रहा है, या गिर रहा है, समझ में नहींआता - (आँख मींचकर) - सुवासिनी! कुसुमपुर का स्वर्गीय कुसुम मैंहस्तगत कर लूँ? नहीं, राजकोप होगा! परन्तु जीवन वृथा है। मेरी विद्या,मेरा परिष्कृत विचार सब व्यर्थ है। सुवासिनी एक लालसा है, एक प्यासहै। वह अमृत है, उसे पाने के लिए सौ बार मरूँगा।

(नेपथ्य से - हटो, माग छोड़ दो।)

राक्षसः कोई राजकुल की सवारी है? तो चलूँ।

(जाता है।)

(रक्षियों के साथ शिविका पर राजकुमारी कल्याणी का प्रवेश)

कल्याणीः (शिविका से उतरती हुई लीला से) शिविका उद्यान केबाहर ले जाने के लिए कहौ और रक्षी लोग भी वहीं ठहरें।

(शिविका ले कर रक्षक जाते हैं।)

कल्याणीः (देखकर) आज सरस्वती-मन्दिर में कोई समाज हैक्या? जा तो नीला, देख आ।

(नीला जाती है।)

लीलाः राजकुमारी, चलिए इस श्वेत शिला पर बैठिए। यहाँअशोक की छाया बड़ी मनोहर है। अभी तीसरे पहर का सूर्य कोमल होनेपर भी स्पृहणीय नहीं।

कल्याणीः चल।

(दोनों जाकर बैठती हैं, नीला आती है।)

नीलाः राजकुमारी, आज तक्षशिला से लौटे हुए स्नातक लोगसरस्वती-दर्शन के लिए आये हैं।

कल्याणीः क्या सब लौट आये हैं?

नीलाः यह तो न जान सकी।

कल्याणीः अच्छा, तू भी बैठ। देख, कैसी सुन्दर माधवी लताफैल रही है। महाराज के उद्यान में भी लताएँ ऐसी हरी-भरी नहीं, जैसेराज - आतंक से वे भी डरी हुई हों। सच नीला, मैं देखती हूँ किमहाराज से कोई स्नेह नहीं करता, डरता भले ही हो।

नीलाः सखी, मुझ पर उनका कन्या-सा ही स्नेह है, परन्तु मुझेडर लगता है।

कल्याणीः मुझे इसका बड़ा दुःख है। देखती हूँ कि समस्त प्रजाउनसे त्रस्त और भयभीत रहती है, प्रचण्ड शासन करने के कारण उनकाबड़ा दुर्नान है।

नीलाः परन्तु इसका उपाय क्या है? देख लीला, वे दो कौन इधरआ रहे हैं। चल, हम लोग छिप जायँ।

(सब कुंज में चली जाती हैं, दो ब्रह्मचारियों का प्रवेश)

एक ब्रह्मचारीः धर्मपालित, मगध को उन्माद हो गया है। वहजनसाधारण के अधिकार अत्याचारियों के हाथ में देकर विलासिता कास्वप्न देख रहा है। तुम तो गये नहीं, मैं अभी उपरापथ से आ रहा हूँ।गणतन्त्रों में सब प्रजा वन्यवीरुध के समान स्वच्छन्द फल-फूल रही है।इधर उन्मप मगध, साम्राज्य की कल्पना में निमग्न है।

दूसराः स्नातक, तुम ठीक कह रहे हो। महापद्म का जारज -पुत्र नन्द केवल शस्त्र-बल और कूटनीति के द्वारा सदाचारों के शिर परताण्डव नृत्य कर रहा है। वह सिद्धान्त विहीन, नृशंस, कभी बौद्धों कापक्षपाती, कभी वैदिकों का अनुायी बनकर दोनों में भेदनीति चलाकर बल-संचय करता रहता है। मुझे जनता धर्म की ओट में नचायी जा रही है।

परन्तु तुम देश-विदेश देखकर आये हो, आज मेरे घर पर तुम्हारा निमन्त्रणहै, वहाँ सब को तुम्हारी यात्रा का विवरम सुनने का अवसर मिलेगा।

पहिलाः चलो। (दोनों जाते हैं, कल्याणी बाहर आती है।)

कल्याणीः सुन कर हृदय गी गति रुकने लगती है। इतना कदर्थितराजपद! जिसे साधारण नागरिक भी घृणा की दृष्टि से देखता है - कितनेमूल्य का है लीला?

नेपथ्य सेः भागो - भागो! यह राजा का अहेरी चीता पिंजरेसे निकल भागा है, भागो, भागो!

(तीनों डरती हुई कुंज में छिपने लगती हैं। चीता आता है। दूरसे तीर आकर उसका शिर भेद कर निकल जाता है। धनुष लिये हुएचन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः कौन यहाँ है? किधर से स्त्रियों का क्रन्दन सुनाई पड़ाथा! - (देखकर) - अरे, यहाँ तो तीन कुसुमारियाँ हैं! भद्रे, पशु ने कुछचोट तो नहीं पहुँचायी?

लीलाः साधु! वीर! राजकुमारी की प्राण-रक्षा के लिए तुम्हेंअवश्य पुरस्कार मिलेगा !

चन्द्रगुप्तः कौन राजकुमारी, कल्याणी देवी?

लीलाः हाँ, यही न है? भय से मुख विवर्ण हो गया है।

चन्द्रगुप्तः राजकुमारी, मौर्य सेनापति का पुत्र चन्द्रगुप्त प्रणामकरता है।

कल्याणीः (स्वस्थ होकर, सलज्ज) नमस्कार, चन्द्रगुप्त, मैं कृतज्ञहुई। तुम भी स्नातक होकर लौटे हो?

चन्द्रगुप्तः हां देवि, तक्षशिला में पाँच वर्ष रहने के कारण यहाँके लोगों को पहचानने में विलम्ब होता है। जिन्हें किशोर छोड़कर गयाथा, अब वे तरुण दिखाई पड़ते हैं। मैं अपने कई बाल-सहचरों को भीपहचान न सका।

कल्याणीः परन्तु मुझे आशा थी कि तुम मुझे न भूल जाओगे।

चन्द्रगुप्तः देवि, यह अनुचर सेवा के उपयुक्त अवसर पर हीपहुँचा। चलिए, शिविका तक पहुँचा दूँ। (सब जाते हैं।)

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