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चंद्रगुप्त - प्रथम अंक - 6

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(सिन्धु-तटः अलका और मालविका)

मालविकाः राजकुमारी! मैं देख आयी, उद्‌भांड में सिन्धु पर सेतुबन रहा है। युवराज स्वयं उसका निरीक्षण करते हैं और मैंने उक्त सेतुका एक मानचित्र भी प्रस्तुत किया था। यह कुछ अधूरा-सा रह गया है;पर इसके देखने से कुछ आभास मिल जायगा।

अलकाः सखी! बड़ा दुःख होता है, जब मैं यह स्मरण करतीहूँ कि स्वयं महाराज का इसमें हाथ है। देखूँ तेरा मानचित्र!

(मालविका मानचित्र देती है, अलका उसे देखती है; एक यवन-सैनिक का प्रवेश - वह मानचित्र अलका से लेना चाहता है।अलकाः दूर हो दुर्विनीत दस्यु! (मानचित्र अपने कंचुक में छिपालेती है।)

यवनः यह गुप्तचर है, मैं इसे पहचानता हूँ। परन्तु सुन्दरी! तुम कौन हो; जो इसकी सहायता कर रही हो, अच्छा हो कि मुझे मानचित्रमिल जाय, और मैं इसे सप्रमाण बन्दी बनाकर महाराज के सामने लेजाऊँ।

अलकाः यह असम्भव है। पहले तुम्हें बताना होगा कि तुम यहाँकिस अधिकार से यह अत्याचार किया चाहते हो?

यवनः मैं? मैं देवपुत्र विजेता अलक्षेन्द्र का नियुक्त अनुचर हूँऔर तक्षशिला की मित्रता का साक्षी हूँ। यह अधिकार मुझे गांधार-नरेशने दिया है।

अलकाः ओह! यवन, गांधार-नरेश ने तुम्हें यह अधिकार कभीनदीं दिया होगा कि तुम आर्य-ललनाओं के साथ धृष्टता का व्यवहार करो।

यवनः करना ही पड़ेगा, मुझे मानचित्र लेना ही होगा।

अलकाः कदापि नहीं।

यवनः क्या यह वही मानचित्र नहीं है, जिसे इस स्त्री ने उद्‌भांडमें बनाना चाहा था।

अलकाः परन्तु यह तुम्हें नहीं मिल सकता। यदि तुम सीधे यहाँसे न टलोगे तो शांति-रक्षकों को बुलाऊँगी।

यवनः तब तो मेरा उपकार होगा, क्योंकि इस अँगूठी को देखकरवे मेरी ही सहायता करेंगे - (अँगूठी दिखाता है।)

अलकाः (देखकर सिर पकड़ लेती है।) ओह!

यवनः (हँसता हुआ) अब ठीक पथ पर आ गयी होगी बुद्धि।लाओ, मानचित्र मुझे दे दो।

(अलका निस्सहाय इधर-उधर देखती है; सिंहरण का प्रवेश)

सिंहरणः (चौंककर) हैं...कौन... राजकुमारी! और यह यवन!

अलकाः महावीर! स्त्री की मर्यादा को न समझने वोल इस यवनको तुम समझा दो कि यह चला जाय।

सिंहरणः यवन, क्या तुम्हारे देश की सभ्यता तुम्हें स्त्रियों कासम्मान करना नहीं सिखाती? क्या सचमुच तुम बर्बर हो?

यवनः मेरी उस सभ्यता ही ने मुझे रोक लिया है, नहीं तो मेरायह कर्तव्य था कि मैं उस मानचित्र को किसी भी पुरुष के हाथ में होनेसे उसे जैसे बनता, ले ही लेता।

सिंहरणः तुम बड़े प्रगल्भ हो यवन! क्या तुम्हें भय नहीं कि तुमएक दूसरे राज्य में ऐसा आचरण करके अपनी मृत्यु बुला रहे हो?

यवनः उसे आमन्त्रण देने के लिए ही उतनी दूर से आया हूँ।

सिंहरणः राजकुमारी! यह मानचित्र मुझे देकर आप निरापद होजायँ, फिर मैं देख लूँगा।

अलकाः (मानचित्र देती हुई) तुम्हारे ही लिए तो यह मँगाया गयाथा।

सिंहरणः (उसे रखते हुए) ठीक है, मं रुका भी इसीलिए था।(यवन से) हाँ जी, कहो अब तुम्हारी क्या इच्छा है?

यवनः (खड्‌ग निकालकर) मानचित्र मुझे दे दो या प्राण देनाहोगा।

सिंहरणः उसके अधिकारी का निर्वाचन खड्‌ग करेगा। तो फिरसावधान हो जाओ। (तलवार खींचता है।)

(यवन के साथ युद्ध - सिंहरण घायल होता है; परन्तु यवन कोउसक भीषण प्रत्याक्रमण से भय होता है, वह भाग निकलता है।)

अलकाः वीर! यद्यपि तुम्हें विशअराम की आवश्यकता है; परन्तुअवस्था बड़ी भयानक है। वह जाकर कुछ उत्पात मचावेगा। पिताजीपूर्णरूप से यवनों के हाथ में आत्म-समर्पण कर चुके हैं।

सिंहरणः (हँसता और रक्त पोंछता हुआ) मेरा काम हो गयाराजकुमारी! मेरी नौका प्रस्तुत है, मैं जाता हूँ। परन्तु बड़ा अनर्थ हुआचाहता है। क्या गांधार-नरेश किसी तरह न मानेंगे?

अलकाः कदापि नहीं। पर्वतेश्वर से उनका बद्धमूल बैर है।

सिंहरणः अच्छा देखा जायगा, जो कुछ होगा। देखिए, मेरी नौकाआ रही है, अब विदा माँगता हूँ।

(सिन्धु में नौका आती है, घायल सिंहरण उस पर बैठता है,सिंहरण और अलका दोनों एक-दूसरे को देखते हैं।)

अलकाः मालविका भी तुम्हारे साथ जायगी - तुम जाने योग्यइस समय नहीं हो।

सिंहरणः जैसी आज्ञा। बहुत शीघ्र फिर दर्शन करूँगा। जन्मभूमिके लिए ही यह जीवन है, फिर अब आप-सी सुकुमारियाँ इसकी सेवामें कटिबद्ध हैं, तब मैं पीछे कब रहूँगा। अच्छा, नमस्कार!

(मालविका नाव में बैठती है। अलका सतृष्ण नयनों से देखती हुईनमस्कार करती है। नाव चली जाती है।)

(चार सैनिकों के साथ यवन का प्रवेश)

यवनः निकल गया - मेरा अहेर! यह सब प्रपंच इसी रमणीका है। इसको बन्दी बनाओ।

(सैनिक अलका को देखकर सिर झुकाते है।)

यवनः बन्दी करो सैनिक।

सैनिकः मैं नहीं कर सकता।

यवनः क्यों, गांधार-नरेश ने तुम्हें क्या आज्ञा दी है?

सैनिकः यही कि आप जिसे कहें, उसे हम लोग बन्दी करकेमहाराज के पास ले चलें।

यवनः फिर विलम्ब क्यों?

(अलका संकेत से वर्जित करती है।)

सैनिकः हम लोगों की इच्छा।

यवनः तुम राजविद्रोही हो?

सैनिकः कदापि नहीं, पर यह काम हम लोगों से न हो सकेगा।

यवनः सावधान! तुमको इस आज्ञा-भंग का फल भोगना पड़ेगा।मैं स्वयं बन्दी बनाता हूँ।

(अलका की ओर बढ़ता है, सैनिक तलवार खींच लेते हैं।)

यवनः (ठहरकर) यह क्या?

सैनिकः डरते हो क्या? कायर! स्त्रियों पर वीरता दिखाने में बड़ेप्रबल हो और एक युवक के सामने से भाग निकले!

यवनः तो क्या, तुम राजकीय आज्ञा का स्वयं न पालन करोगेऔर न करने दोगे!

सैनिकः यदि साहस को महने का तो आगे बढ़ो।

अलकाः (सैनिकों से) ठहरो; विवाद करने का समय नहीं है।(यवन से) कहो, तुम्हारा अभिप्राय क्या है?

यवनः मैं तुम्हें बन्दी बनाना चाहता हूँ।

अलकाः कहाँ ले चलोगे?

यवनः गांधार-नरेश के पास।

अलकाः मैं चलती हूँ, चलो।

(आगे अलका, पीछे यवन और सैनिक जाते हैं।)

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