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चंद्रगुप्त - प्रथम अंक - 2

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(मगध-सम्राट्‌ का विलास-कानन)

(विलासी युवक और युवतियों का विहार)

नन्दः (प्रवेश करके) आज वसन्त उत्सव है क्या?

एक युवकः जय हो देव! आपकी आज्ञा से कुसुमपुर के नागरिकोंने आयोजन किया है।

नन्दः परन्तु मदिरा का तो तुम्हारे समाज में अभाव है, फिर

आमोद कैसा? (एक युवती से) देखो-देखो! तुम सुन्दरी हो; परन्तु तुम्हारेयौवन का विभ्रम अभी संकोच की अर्गला से जकड़ा हुआ है! तुम्हारीआँखों में काम का सुकुमार संकेत नहीं, अनुराग की लाली नहीं! फिरकैसा प्रमोद!

एक युवतीः हम लोक तो निमंत्रित नागरिक हैं देव! इसकादायित्व तो निमंत्रण देने वाले पर है।

नन्दः वाह, अच्छा उलाहना रहा! (अनुचर से) मूर्ख! अभी औरकुछ सुनावेगा? तून नहीं जानता कि मैं ब्रह्मास्त्र से अधिक इन सुन्दरियोंके कुटिल कटाक्षों से डरता हूँ! ले आ - शीघ्र ले जा - नागरिकों परतो मैं राज्य करता हूँ; परन्तु मेरी मगध की नागरिकाओं का शासन मेरेऊपर है। श्रीमती, सबसे कह हो - नागरिक नन्द, कुसुमपुर के कमनीयकुसुमों से अपराध के लिए क्षमा माँगता है और आज के दिन वह तुमलोगों का कृतज्ञ सहचर-मात्र है।

(अनुचर लोग प्रत्येक कुञ्ज मं मदिरा-कलश और चषक पहुँचातेहैं। राक्षस और सुवासिनी का प्रवेश, पीछे-पीछे कुछ नागरिक।)

राक्षसः सुवासिनी! एक पात्र और; चलो इस कुञ्ज में।

सुवासिनीः नहीं, अब मैं न सँभव सकूँगी।

राक्षसः फिर इन लोगों से कैसे पीछा छूटेगा?

सुवासिनीः मेरी एक इच्छा है।

एक नागरिकः क्या इच्छा है सुवासिनी, हम लोग अनुचर हैं।केवल एक सुन्दर अलाप की, एक कोमल मूर्च्छना की लालसा है।

सुवासिनीः अच्छा तो अभिनय के साथ।

सबः (उल्लास से) सुन्दरियों की रानी सुवासिनी की जय!

सुवासिनीः परन्तु राकषस को कच का अभिनय करना पड़ेगा।

एक नागरिकः और तुम देवयानी, क्यों? यही न? राक्षस सचमुचराक्षस होगा, यदि इसमें आनाकानी करे तो... चलो राक्षस!

दूसराः नहीं मूर्ख! आर्य राक्षस कह, इतने बड़े कला-कुशलविद्वान को किस प्रकार सम्बोधित करना चाहिए, तू इतना भी नहीं जानता।आर्य राक्षस! इन नागरिको की प्रार्थना से इस कष्ट को स्वीकार कीजिए।

(राक्षस उपयुक्त स्थान ग्रहण करता है। कुछ मूक अभिनय, फिरउसके बाद सुवासिनी का भाव-सहित गान)

तुम कनक किरण के अन्तराल में

लुक-छिप कर चलते हो क्यों?

नत मस्तक गर्व वहन करते

यौवन के धन, रस-कन ढरते।

हे लाज भरे सौन्दर्य!

बता दो मौन बने रहते हो क्यों?

अधरों के मधुर कगारों में

कल-कल ध्वनि की गुंजारों में!

मधुसरिता-सी यह हँसी तरल

अपनी पीते रहते हो क्यों?

बेला विभ्रम की बीत चली

रजनीगंधा की कली खिली-

अब सान्ध्य मलय-आकुलित

दुकूल कलित हो, यों छिपते हो क्यों?

(‘साधु-साधु’ की ध्वनि)

नन्दः उस अभिनेत्री को यहाँ बुलाओ।

(सुवासिनी नन्द के समीप आकर प्रणत होती है।)

नन्दः तुम्हारा अभिनय तो अभिनय नहीं हुआ!

नागरिकः अपितु वास्तविक घटना, जैसी देखने में आवे, वैसी ही।

नन्दः तुम बड़े कुशल हो। ठीक कहा।

सुवासिनीः तो मुझे दण्ड मिले। आज्ञा कीजिए देव!

नन्दः मेरे साथ एक पात्र।

सुवासिनीः परन्तु देव, एक बड़ी भूल होगी।

नन्दः वह क्या?

सुवासिनीः आर्य राक्षस का अभिनयपूर्ण गान नहीं हुआ।

नन्दः राक्षस!

नागरिकः यही है, देव!

(राक्षस आकर प्रणाम करता है।)

नन्दः वसन्तोत्सव की रानी की आज्ञा से तुम्हें गाना होगा।

राक्षसः उसका मूल्य होगा एक पात्र कादम्ब।

(सुवासिनी पात्र भर कर देती है।)

(सुवासिनी मान का मूक अभिनय करती है, राक्षस सुवासिनी केसम्मुख अभिनय सहित गाता है -)

निकल मत बाहर दुर्बल आह।

लगेगा तुझे हँसी का शीत

शरद नीरद माला के बीच

तड़प ले चपला-सी भयभीत

पड़ रहे पावन प्रेम-फुहार

जलन कुछ-कुछ हैं मीठी पर

सम्हाले चल कितनी है दूर

प्रलय तक व्याकुल हो न अधीर

अश्रुमय सुन्दर विरह निशीथ

भरे तारे न ढुलकते आह!

न उफना दे आँसू हैं भरे

इन्हीं आँखों में उनकी चाह

काकली-सी बनने की तुम्हें

लगन लग जाय न हे भगवान्‌

पपीहा का पी सुनता कभी!

अरे कोकिल की देख दशा न;

हृदय है पास, साँस की राह

चले आना-जाना चुपचाप

अरे छाया बन, छू मत उसे

भरा है तुझमें भीषण ताप

हिला कर धड़कन से अविनीत

जगा मत, सोया है सुकुमार

देखता है स्मृतियों का स्वप्न,

हृदय पर मत कर अत्याचार।

कई नागरिकः स्वर्गीय अमात्‌ वक्रनास के कुल की जय!

नन्दः क्या कहा, वक्रनास का कुल?

नागरिकः हाँ देव, आर्य राक्षस उन्हीं के भ्रातुष्पुत्र हैं।

नन्दः राक्षस! आज से तुम मेरे अमात्यवर्ग मं नियुक्त हुए। तुमतो कुसुमपुर के एक रत्न हो!

(उसे माला पहनाता है और शस्त्र देता है।)

सबः सम्राट की जय हो! अमात्य राक्षस की जय हो!

नन्दः और सुवासिनी, तुम मेरी अभिनयशाला की रानी!

(सब हर्ष प्रकट करते हुए जाते हैं।)

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