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चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 31

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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चतुर्थ अंक

(मगध में राजकीय उपवन - कल्याणी)

कल्याणीः मेरे जीवन के दो स्वप्न थे - दुर्दिन के बाद आकाशके नक्षत्र-विलास-सी चन्द्रगुप्त की छवि, और पर्वतेश्वर से प्रतिशोध, किन्तुमगध की राजकुमारी आज अपने ही उपवन में बन्दिनी है! मैं वही तोहूँ - जिसके संकेत पर मगध का साम्राज्य चल सकता था! वही शरीरहै, वही रूप है, वही हृदय है, पर छिन गया अधिकारी और मनष्य कामान दंड ऐश्वर्य। अब तुलना में सबसे छोटी हूँ। जीवन ज्जा की रंगभूमिबन रहा है। (सिर झुका लेती है) तो जब नन्दवंश का कोई न रहा, तबएक राजकुमारी बचकर क्या करेगी?

(मद्यप की-सी चेष्टा करती हुई पर्वतेश्वर को प्रवेश करते हुए देखचुप हो जाती है।)

पर्वतेश्वरः मगध मेरा है - आधा भाग मेरा है! और मुझसे कुछपूछा तक न गया! चन्द्रगुप्त अकेले सम्राट्‌ बन बैठा। कभी नहीं, यह मेरेजीते-जी नहीं हो सकता। (सामने देखकर) कौन है? यह कोई अप्सराहोगी! अरे कोई अपदेवता न हो! अरे!

(प्रस्थान)

कल्याणीः मगध के राज-मन्दिर उसी तरह खड़े हैं, गंगा शोणसे उसी स्नेह से मिल रही है, नगर का कोलाहल पूर्ववत्‌ है। परन्तु नरहेगा एक नन्दवंश! फिर क्या करूँ? आत्महत्या करूँ? नहीं, जीवन इतनासस्ता नहीं। अहा, देखो - वह मधुर आलोकवाला चन्द्र! उसी प्रकार नित्य- जसे एकटक इसी पृथ्वी को देख रहा हो। कुमद-बन्धु!

(गाती है)

सुधा-सीकर से नहला दो!

लहरें डूब रही हों रस में,

रह न जायँ वे अपने वश में,

रूप-राशि इस व्यथित हृदय-सागर कोब

हला दो!

अन्धकार उजला हो जाये,

हँसी हंसमाला मँडराए,

मधुराका आगमन कलरवों के मिस-

कहला दो!

करुणा के अंचल पर निखरे,

घायल आँसू हैं जो बिखरे,

ये मोती बन जायँ, मृदुल कर से लो-

सहला दो!

(पर्वतेश्वर का फिर प्रवेश)

पर्वतेश्वरः तुम कौन हो सुन्दरी? मैं भ्रमवश चला गया था।

कल्याणीः तुम कौन हो?

पर्वतेश्वरः पर्वतेश्वर।

कल्याणीः मैं हूँ कल्याणी, जिसे नगर-अवरोध के समय तुमनेबन्दी बनाया था।

पर्वतेश्वरः राजकुमारी! नन्द की दुहिता तुम्हीं हो?

कल्याणीः हाँ पर्वतेश्वर।

पर्वतेश्वरः तुम्हीं से मेरा विवाह होनेवाला था?

कल्याणीः अब यम से होगा!

पर्वतेश्वरः नहीं सुन्दरी, ऐसा भरा हुआ यौवन!

कल्याणीः सब छीन कर अपमान भी!

पर्वतेश्वरः तुम नहीं जानती हो, मगध का आधा राज्य मेरा है।तुम प्रियतमा होकर सुखी रहोगी।

कल्याणीः मैं अब सुख नहीं चाहती। सुख अच्छा है या दुःख...मैं स्थिर न कर सकी। तुम मुझे कष्ट न दो।

पर्वतेश्वरः हमारे-तुम्हारे मिल जाने से मगध का पूरा राज्य हमलोगों का हो जायगा। उपरापथ की संकटमयी परिस्थिति से अलग रहकरयहीं शान्ति मिलेगी।

कल्याणीः चुप रहो।

पर्वतेश्वरः सुन्दरी, तुम्हें देख लेने पर ऐसा नहीं हो सकता।

(उसे पकड़ना चाहता है, वह भागती है, परन्तु पर्वतेश्वर पकड़ही लेता है। कल्याणी उसी का छुरा निकाल कर उसका वध करती है,चीत्कार सुनकर चन्द्रगुप्त आ जाता है।)

चन्द्रगुप्तः कल्याणी! कल्याणी! यह क्या!!

कल्याणीः वही जो होना था। चन्द्रगुप्त! यह पशु मेरा अपमानकरना चाहता था - मुझे भ्रष्ट करके, अपनी संगिनी बनाकर पूरे मगधपर अधिकार करना चाहता था। परन्तु मौर्य! कल्याणी ने वरण लिया थाकेवल एक पुरुष को - वह था चन्द्रगुप्त।

चन्द्रगुप्तः क्या यह सच है कल्याणी?

कल्याणीः हाँ यह सच है। परन्तु तुम मेरे पिता के विरोधी हुए,इसलिए उस प्रणय को - प्रेम-पीड़ा को - मैं पैरों से कुचलकर, दबाकर खड़ी रही! अब मेरे लिए कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहा, पिता! लोमैं भी आती हूँ।

(अचानक छुरी मार कर आत्महत्या करती है, चन्द्रगुप्त उसे गोदमें उठा लेता है।)

चाणक्यः (प्रवेश करके) चन्द्रगुप्त! आज तुम निष्कंटक हुए!

चन्द्रगुप्तः गुरुदेव! इतनी क्रूरता?

चाणक्यः महात्वाकांक्षा का मोती निष्ठुरता की सीपी में रहता है!चलो अपना काम करो, विवाद करना तुम्हारा काम नहीं। अब तुम स्वच्छंदहोकर दक्षिणापथ जाने की आयोजना करो। (प्रस्थान)

(चन्द्रगुप्त कल्याणी को लिटा देता है।)

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