चंद्रगुप्त - तृतिय - अंक - 26 Jayshankar Prasad द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चंद्रगुप्त - तृतिय - अंक - 26

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(मगध में नन्द की रंगशाला)

(नन्द का प्रवेश)

नन्दः सुवासिनी!

सुवासिनीः देव!

नन्दः कहीं दो घडी चैन से बैठने की छुट्टी भी नहीं, तुम्हारीछाया में विश्राम करने आया हूँ।

सुवासिनीः प्रभु, क्या आज्ञा है? अभिनय देखने की इच्छा है?

नन्दः नहीं सुवासिनी, अभिनय तो नित्य देख रहा हूँ। छल, प्रतारणा,विद्रोह के अभिनय देखते-देखते आँखें जल रही है। सेनापति मौर्य-जिसकेबल पर मैं भूला था, जिसके विश्वासन पर मैं निश्चिन्त सोता था, विद्रोही- पुत्र चन्द्रगुप्त को सहायता पहुँचाता है। उसी का न्याय करना था -आजीवन अन्धपूप का दण्ड देकर आ रहा हूँ। मन काँप रहा है - न्यायहुआ कि अन्याय! हृदय संदिग्ध है। सुवासिनी, किस पर विश्वास करूँ?

सुवासिनीः अपने परिजनों पर देव!

नन्दः अमात्य राक्षस भी नहीं, मैं तो घबरा गया हूँ।

सुवासिनीः द्राक्षासव ले आऊँ?

नन्दः ले आओ (सुवासिनी जाती है।) सुवासिनी कितनी सरल है!प्रेम और यौवन के शीतल मेघ इस लहलही लता पर मँडरा रहे हैं। परन्तु...

(सुवासिनी का पान-पात्र लिये प्रवेश, पात्र भर कर देती है।)

नन्दः सुवासिनी! कुछ गाओ - वही उन्मादक गान!

(सुवासिनी गाती है।)

आज इस यौवन के माधवी कुञ्ज में कोकिल बोल रहा।

मधु पीकर पागल हुआ, करता प्रेम-प्रलाप,

शिथिल हुआ जाता हृदय, जैसे अपने आप!

लाज के बन्धन खोल रहा।

बिछल रही है चाँदनी, छवि-मतवाली रात,

कहती कम्पित अधर से, बहकाने की बात।

कौन मधु-मदिरा घोल रहा?

नन्दः सुवासिनी! जगत्‌ में और भी कुछ है - ऐसा मुझे नहींप्रतीत होता! क्या उस कोकिल की पुकार केवल तुम्हीं सुनती हो? ओह!मैं इस स्वर्ग से कितनी दूर था! सुवासिनी!

(कामुक की-सी चेष्टा करता है।)

सुवासिनीः भ्रम है महाराज! एक वेतन पानेवाली का यह अभिनय है।

नन्दः कभी नहीं, यह भ्रम है तो समस्त संसार मिथ्या है। तुमसच कहती हो, निर्बोध नन्द ने कभी वह पुकार नहीं सुनी। सुन्दरी! तुममेरी प्राणेश्वरी हो।

सुवासिनीः (सहसा चकित होकर) मैं दासी हूँ महाराज!

नन्दः यह प्रलोभन देकर ऐसी छलना! नन्द नहीं भूल सकतासुवासिनी! आओ - (हाथ पकड़ता है।)

सुवासिनीः (भयभीत होकर) महाराज! मैं अमात्य राक्षस कीधरोहर हूँ, सम्राट्‌ की भोग्या नहीं बन सकती।

नन्दः अमात्य राक्षस इस पृथ्वी पर तुम्हारा प्रणी होकर नहीं जीसकता।

सुवासिनीः तो उसे खोजने के लिए स्वर्ग में जाऊँगी।

(नन्द उसे बलपूर्वक पकड़ लेता है। ठीक उसी समय अमात्य काप्रवेश)

नन्दः (उसे देखते ही छेड़ता हुआ) तुम! अमात्य, राक्षस!

राक्षसः हाँ सम्राट्‌! एक अबला पर अत्याचार न होने देने के लिएठीक समय पर पहुँचा।

नन्दः यह तुम्हारी अनुरक्ता है राक्षस! मैं लज्जित हूँ।

राक्षसः मैं प्रस्नन हुआ कि सम्राट्‌ अपने को परखने की चेष्टाकरते हैं अच्छा, तो इस समय जाता हूँ। चलो सुवासिनी।

(दोनों जाते हैं।)