चन्द्रगुप्त
जयशंकर प्रसाद
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(कुसुमपुर का प्रांत भाग - चाणक्य, मालविका और अलका)
मालविकाः सुवासिनी और राक्षस स्वतंत्र हैं। उनका परिणय शीघ्रही होगा। इधर मौर्य कारागार में, वररुचि अपदस्थ, नागरिक लोग नन्दकी उच्छृंखलताओं से असन्तुष्ट हैं।
चाणक्यः ठीक है, समय हो चला है। मालविका, तुम नर्तकी बनसकती हो।
मालविकाः हाँ, मैं नृत्य-कला जानती हूँ।
चाणक्यः तो नन्द की रंगशाला में जाओ और लो यह मुद्रा तथापत्र, राक्षस का विवाह होने के पहले - ठीक एक घड़ी पहले - नन्दके हाथ में देना। और पूछने पर बता देना कि अमात्य राक्षस ने सुवासिनीको देने के लिए कहा था। परन्तु मुझसे भेंट न हो सकी, इसलिए यहउन्हें लौटा देने को लायी हूँ।
मालविकाः (स्वगत) क्या असत्य बोलना होगा! चन्द्रगुप्त के लिएसब कुछ करूँगी। (प्रकट) अच्छा।
चाणक्यः मैंने सिंहरण को लिख दिया था कि चन्द्रगुप्त को शीघ्रयहाँ भेजो। तुम यवनों के सिर उठाने पर उन्हें शान्त करके आना, तबतक अलका मेरी रक्षा कर लेगी। मैं चाहता हूँ कि सब सेना वणिकों केरूप में धीरे-धीरे कुसुमपुर में इकट्ठी हो जाय। उसी दिन राक्षस का ब्याहहोगा, उसी दिन विद्रोह होगा और उसी दिन चन्द्रगुप्त राजा होगा!
अलकाः परन्तु फिलिप्स से द्वंद्व-युद्ध से चन्द्रगुप्त को लौट तोआने दीजिए, क्या जाने क्या हो!
चाणक्यः क्या हो! वही होकर रहेगा जिसे चाणक्य ने विचारकरके ठीक कर लिया है। किन्तु... अवसर पर एक क्षण का विलम्बअसफलता का प्रवर्तक हो जाता है।
(मालविका जाती है।)
अलकाः गुरुदेव, महानगरी कुसुमपुर का ध्वंस और नन्द-पराजय इस प्रकार संभव है?
चाणक्यः अलके! चाणक्य अपना कार्य, अपनी बुद्धि से साधन करेगा। तुम देखती भर रहो और मैं जो बताऊँ करती चलो। मालविकाअभी बालिका है, उसकी रक्षा आवश्यक है। उसे देखो तो।
(अलका जाती है।)
चाणक्यः वह सामने कुसुमपुर है, जहाँ मेरे जीवन का प्रभात हुआथा। मेरे उस सरल हृदय में उत्कट इच्छा थी कि कोई भी सुन्दर मनमेरा साथी हो। प्रत्येक नवीन परिचय में उत्सुकता थी और उसके लिएमन में सर्वस्व लुटा देने की सन्नद्धता थी। परन्तु संसार-कठोर ससार नेसिखा दिया है कि तुम्हें परखना होगा। समझदारी आने पर यौवन चलाजाता है - जब तक माला गूँथी जाती है, तब तक फूल कुम्हला जातेहैं। जिससे मिलने के सम्भार की इतनी धूम-धाम, सजावट, बनावट होतीहै, उसके आने तक मनुष्य-हृदय को सुन्दर और उपयुक्त नहीं बनाये रहसकता। मनुष्य की चञ्चल स्थिति कब तक उस श्यामल कोमल हृदय कोमरूभूमि बना देती है। यही तो विषमता है। मैं अविश्वास, कूट-चक्र औरछलनाओं का कंकाल, कठोरता का केन्द्र। ओह! तो इस विश्व में मेराकोई सुहृद नहीं है? मेरा संकल्प, अब मेरा आत्माभिधान ही मेरा मित्रहै। और थी एक क्षीण रेखा, वह जीवन-पट से धुल चली है। धुल जानेदूँ? सुवासिनी न न न, वह कोई नहीं। मैं अपनी प्रतिज्ञा पर आसक्तहूँ। भयानक रमणीयता है। आज उस प्रतिज्ञा में जन्मभूमि के प्रति कर्तव्यका भी यौवन चमक रहा है। तृण-शय्या पर आधे पेट खाकर सो रहनेवाले के सिर पर दिव्य यश का स्वर्ण-मुकुट! और सामने सफलता कास्मृति-सौंध (आकाश की ओर देखकर) वह, इन लाल बादलों में दिग्दाहका धूम मिल रहा है। भीषण रव से सब जैसे चाणक्य का नाम चिल्लारहे हैं। (देखकर) है! यह कौन भूमि - सन्धि तोड़कर सर्प के समाननिकल रहा है! छिप कर देखूँ - (छिप जाता है। एक ढूह की मिट्टीगिरती है, उसमें से शकटार वनमानुष के समान निकलता है।)
शकटारः (चारों ओर देखकर आँख बन्द कर लेता है, फिरखोलता हुआ) आँखें नहीं सह सकती, इन्हीं प्रकाश किरणों के लिए तड़परही थीं! ओह, तीखी हैं! तो क्या मैं जीवित हूँ? कितने दिन हुए, कितनेमहीने, कितने वर्ष? नहीं स्मरण है। अन्धकूप की प्रधानता सर्वोपरि थी।सात लड़के भूख से तड़प कर मरे। कृतज्ञ हूँ उस अन्धकार का, जिसनेउन विवर्ण मुखों को न देखने दिया। केवल उनके दम तोड़ने का क्षीणशब्द सुन सका। फिर भी जीवित रहा - सपू और नमक पानी सेमिलाकर, अपनी नसों से रक्त पीकर जीवित रहा! प्रतिहिंसा के लिए!पर अब शेष है, दम घुट रहा है। ओह!
(गिर पड़ता है।)
(चाणक्य पास आकर कपड़ा निचोड़ कर मुँह में डल जाल सचेतकरता है।)
चाणक्यः आह! तम कोई दुखी मनुष्य हो! घबराओ मत, मैंतुम्हारी सहायता के लिए प्रस्तुत हूँ।
शकटारः (ऊपर देखकर) तुम सहायता करोगे? आश्चर्य! मनुष्यमनुष्य की सहायता करेगा, वह उसे हिंस्र पशु के समान नोंच न ड़ालेगा!हाँ, यह दूसरी बात है कि वह जोंक की तरह बिना कष्ट दिये रक्त चूसे।जिसमें कोई स्वार्थ न हो, ऐसी सहायता! तुम भूखे भेड़िये!
चाणक्यः अभागे मनुष्य! सब से चौंक कर अलग न उछल!अविश्वास की चिनगारी पैरों के नीचे से हटा। तुझ जैसे दुखी बहुत पड़ेहैं। यदि सहायता नहीं तो परस्पर का स्वार्थ ही सही।
शकटारः दुःख! दुःख का नाम सुना होगा, या कल्पित आशंकासे तुम उसका नाम लेकर चिल्ला उठते होगे। देखा है कभी सात-सातगोद के लालों को भूख से तड़प कर मरते? अन्धकार की घनी चादरमें बरसों भूगर्भ की जीवित समाधि में एक-दूसरे को, अपना आहार देकरस्वेच्छा से मरते देखा है - प्रतिहिंसा की स्मृति को ठोकर मार-मार करजगाते, और प्राण विसर्जन करते? देखा है कभी यह कष्ट - उन सबोंने अपना आहार मुझे दिया और पिता होकर भी मैं पत्थर-सा जीवितरहा! उनका आहार खा डाला - उन्हें मरने दिया! जानते हो क्यों? वेसुकुमार थे, वे सुख की गोद में पले थे, वे नहीं सहन कर सकते थे,अतः सब मर जाते। मैं बच रहा प्रतिशोध के लिए! दानवी प्रतिहिंसा केलिए! ओह! उस अत्याचारी नर-राक्षस की अँतड़ियों में से खींचकर एकबार रक्त का फुहारा छोड़ता? इस पृथ्वी को उसी से रँगा देखता!
चाणक्यः सावधान! (शकटार को उठाता है।)
शकटारः सावधान हों वे, जो दुर्बलों पर अत्याचार करते हैं!पीड़ित पददलित, सब तर लुटा हुआ! जिसने पुत्रों की हड्डियों के सुरंगखोदा है, नखों से मिट्टी हटाती है, उसके लिए सावधान रहने कीआवश्यकता नहीं। मेरी वेदना अपने अन्तिम अस्त्रों से सुसज्जित है।
चाणक्यः तो भी तुमको प्रतिशोध लेना है। हम लोग एक ही पथके पथिक हैं। घबराओ मत। क्या तुम्हारा कोई भी इस संसार में जीवितनहीं!
शकटारः बची थी, पर न जाने कहाँ है। एक बालिका - अपनीमाता की स्मृति-सुवासिनी। पर अब कहाँ है, कौन जाने।
चाणक्यः क्या कहा? सुवासिनी?
शकटारः हाँ सुवासिनी।
चाणक्यः और तुम शकटार हो?
शकटारः (चाणक्य का गला पकड़ कर) घोंट दूँगा गला - यदिफिर यह नाम तुमने लिया। मुझे नन्द से प्रतिशोध ले लेने दो, फिर चाहेडौंडी पीटना।
चाणक्यः (उसका हाथ हटाते हुए) वह सुवासिनी नन्द कीरंगशाला में है। मुझे पहचानते हो?
शकटारः नहीं तो। (देखता है।)
चाणक्यः तुम्हारे प्रतिवेशी, सखा ब्राह्मण चणक का पुत्र विष्णुगुप्त।तुम्हारी दिलायी हुई जिसकी ब्राह्मणवृपि छीन ली गयी, जो तुम्हारा सहकारीजानकार निर्वासित कर दिया गया, मैं उसी चणक का पुत्र चाणक्य हूँ,जिसकी शिखा पकड़ कर राजसभा में खींची गयी, जो बन्दीगृह में मृत्युकी प्रतीक्षा कर रहा था! मुझ पर विश्वास करोगे?
शकटारः (विचारता हुआ खड़ा हो जाता है।) करूँगा, जो तुमकहोगे वही करूँगा। किसी तरह प्रतिशोध चाहिए।
चाणक्यः तो चलो मेरी झोंपड़ी में, इस सुरंग को घास-फूल सेढँक दो।
(दोनों ढँक कर जाते हैं।)