चंद्रगुप्त - तृतिय - अंक - 25 Jayshankar Prasad द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चंद्रगुप्त - तृतिय - अंक - 25

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(पथ में चर और राक्षस)

चरः छल! प्रवञ्चना! विश्वासघात!

राक्षसः क्या है, कुछ सुनूँ भी!

चरः मगध से आज मेरा सखा कुरंग आया है, उससे यह मालूमहुआ है कि महाराज नन्द का कुछ भी क्रोध आपके ऊपर नहीं, वह आपके शीघ्र मगध लौटने के लिए उत्सुक हैं।

राक्षसः और सुवासिनी?

चरः सुवासिनी सुखी और स्वतंत्र है। मुझे चाणक्य के चर सेवह धोखा हुआ था, जब मैंने आपसे वहाँ का समाचार कहा था।

राक्षसः तब क्या मैं कुचक्र में डाला गया हूँ? (विचार कर)चाणक्य की चाल है। ओह, मैं समझ गया। मुझे निकल भागना चाहिए।सुवासिनी पर भी कोई अत्याचार मेरी मुद्रा दिखाकर न किया जा सके,इसके लिए मुझे शीघ्र मगध पहुँचना चाहिए।

चरः क्या आपने मुद्रा भी दे दी है?

राक्षसः मेरी मूर्खता। चाणक्य, मगध में विद्रोह कराना चाहता है।

चरः अभी हम लोगों को मगध-मुल्म मार्ग में मिल जायगा,चाणक्य से बचने के लिए उसका आश्रय अच्छा होगा। दो तीव्रगामी अश्व

मेरे अधिकार में हैं, शीघ्रता कीजिए।

राक्षसः तो चलो! चाणक्य के हाथों की कठपुतली बनकर मगधका नाश नहीं करा सकता।

(दोनों का प्रस्थान - अलका और सिंहरण का प्रवेश)

सिंहरणः देवी! पर इसका उपाय क्या है?

अलकाः उपाय जो कुछ हो, मित्र के कार्य में तुमको सहायताकरनी ही चाहिए। चन्द्रगुप्त आज कह रहे थए कि मैं मगध जाऊँगा।देखूँ पर्वतेश्वर क्या करते हैं।

सिंहरणः चन्द्रगुप्त के लिए यह प्राण अर्पित है अलके, मालव

कृतघ्न नहीं होते। देखो, चन्द्रगुप्त और चाणक्य आ रहे हैं।

अलकाः और उधर से पर्वतेश्वर भी।

(चन्द्रगुप्त, चाणक्य और पर्वतेश्वर का प्रवेश)

सिंहरणः मित्र! अभी कुछ दिन और ठहर जाते तो अच्छा था,अथवा जैसी गुरुदेव की आज्ञा!

चाणक्यः पर्वतेश्वर, तुमने मुझसे प्रतिज्ञा की है।

पर्वतेश्वरः मैं प्स्तुत हूँ, आर्य।

चाणक्यः अच्छा तो तुम्हें मेरे साथ चलना होगा। सिंहरण मालवगणराष्ट्र का एख व्यक्ति है, वह अपनी शक्ति भर प्रयत्न कर सकता है,किन्तु सहायता बिना परिषद्‌ की अनुमति लिये असम्भव है। मैं परिषद्‌के सामने अपना भेद खोलना नहीं चाहता। इसलिए पौरव, सहायता केवलतुम्हें करनी होगी। मालव अपने शरीर और खड्‌ग का स्वामी है, वह मेरेलिए प्रस्तुत है। मगध का अधिकार प्राप्त होने पर जैसा तुम कहोगे...

पर्वतेश्वरः मैं कह चुका हूँ आर्य चाणक्य! इस शरीर में या धनमें, विभव में या अधिकार, मेरी स्पृहा नहीं रह गयी। मेरी सेना केमहाबलाधिृत सिंहरण और मेरा कोष आपका है।

चन्द्रगुप्तः मैं आप लोगों का कृतज्ञ होकर मित्रता को लघु नहींबनाना चाहता। चन्द्रगुप्त सदैव आप लोगों का वही सहचर है।

चाणक्यः परन्तु तुम्हें मगध नहीं जाना होगा। अभी जो मगध सेसंदेश मिले हैं, वे बड़े भयानक हैं। सेनापति तुम्हारे पिता कारागार में हैं।और भी...

चन्द्रगुप्तः इतने पर भी आपक मुझे मगध जाने से रोक रहे हैं?

चाणक्यः यह प्रश्न अभी मत करो।

(चन्द्रगुप्त सिर झुका लेता है, एक पत्र लिए मालविका का प्रवेश)

मालविकाः यह सेनापति के नाम पत्र है।

चाणक्यः क्यों?

चन्द्रगुप्तः युद्ध का आह्‌वान है। द्वन्द्व के लिए फिलिप्स कानिमंत्रण है।

चाणक्यः तुम डरते तो नहीं?

चन्द्रगुप्तः आर्य! आप मेरा उपहास कर रहे हैं।

चाणक्यः (हँसकर) तब ठीक है पौरव! तुम्हारा यहाँ रहनाहानिकारक होगा। उपरापथ की दासता के अवशिष्ट चिह्न फिलिप्स का नाशनिश्चित है। चन्द्रगुप्त उसके लिए उपयुक्त है। परन्तु यवनों से तुम्हारा फिरसंघर्ष मुझे ईप्सित नहीं है। यहाँ रहने से तुम्हीं पर सन्देह होगा, इसलिएतुम मगध चलो। और सिंहरण! तुम सन्नद्ध रहना, यवन-विद्रोह तुम्हीं कोशान्त करना होगा।

(सब का प्रस्थान)