चंद्रगुप्त - तृतिय - अंक - 24 Jayshankar Prasad द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

चंद्रगुप्त - तृतिय - अंक - 24

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


© COPYRIGHTS

This book is copyrighted content of the concerned author as well as Matrubharti.

Matrubharti has exclusive digital publishing rights of this book.

Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.

Matrubharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.


(रावी का तट - सिकन्दर का बेड़ा प्रस्तुत है, चाणक्य औरपर्वतेश्वर)

चाणक्यः पौरव, देखो वह नृशंसता की बाढ़ आज उतर जायगी।चाणक्य ने जो किया, वह भला था या बुरा, अब समझ में आवेगा।

पर्वतेश्वरः मैं मानता हूँ, यह आपक ही का स्तुत्य कार्य है।

चाणक्यः और चन्द्रगुप्त के बाहु-बल का, पौरव! आज फिर मैंउसी बात को दुहराना चाहता हूँ। अत्याचारी नन्द के हाथों में मगध काउद्धार करने के लिए चाणक्य ने तुम्हीं से पहले सहायता माँगी थी औरअब तुम्हीं से लेगा भी, अब तो तुम्हें विश्वास होगा?

पर्वतेश्वरः मैं प्रस्तुत हूँ, आर्य!

चाणक्यः मैं विश्वस्त हुआ। अच्छा, यवनों को आज विदा करनाहै।

(एक ओर से सिकन्दर, सिल्यूसक, कार्नेलिया, फिलिप्स इत्यादिऔर दूसरी ओर से चन्द्रगुप्त, सिंहरण, अलका, मालविका और आम्भीकइत्यादि का यवन और भारतीय रणवाद्यों के साथ प्रवेश)

सिकन्दरः सेनापति चन्द्रगुप्त! बधाई है!

चन्द्रगुप्तः किस बात की राजन्‌?

सिकन्दरः जिस समय तुम भारत के सम्राट्‌ होगे, उस समय मैंउपस्थित न रह सकूँगा, उसके लिए पहले बधाई है। मुझे उस नग्न ब्राह्मणदाण्ड्यायन की बातों का पूर्ण विश्वास हो गया।

चन्द्रगुप्तः आप वीर हैं।

सिकन्दरः आर्य वीर! मैंने भारत में हरक्यूलिस, एचिलिस कीआत्माओं को भी देखा और देखा डिमास्थनीज को। संभवतः प्लेटो औरअरस्तू भी होंगे। मैं भारत का अभिनन्दन करता हूँ।

सिल्यूकसः सम्राट! यही आर्य चाणक्य हैं।

सिकन्दरः धन्य हैं आप, मैं तलवार खींचे हुए भारत में आया,हृदय देकर जाता हूँ। विस्मय-विमुग्ध हूँ। जिनसे खड्‌ग-परीक्षा हुई थी,युद्ध में जिनसे तलवारे मिली थीं, उनसे हाथ मिलाकर - मैत्री के हाथमिलाकर जाना चाहता हूँ।

चाणक्यः हम लोग प्रस्तुत हैं सिकन्दर! तुम वीर हो, भारतीयसदैव उपम गुणों की पूजा करते हैं। तुम्हारी जल-यात्रा मंगलमय हो। हमलोग युद्ध करना जानते हैं, द्वेष नहीं।

(सिकन्दर हँसता हुआ अनुचरों के साथ नौका पर आरोहण करता है, नाव चलती है।)