पुष्प कीट Shesh Amit द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

पुष्प कीट

पुष्पकीट

{मूल बांग्ला लेखकः सुबोध घोष}

{भाषान्तरः शेष अमित}

सड़क पर भारी भीड़ थी, इस भीड़ के किसी भी छोर से निकल पाना मुश्किल था। एक युवती अपनी कुबड़ी नानी का हाथ थामे बहुत देर से खड़ी थी। वह बढ़ने के लिए राह ढूँढ रही थी, मिले तब न!

किसे राह मिले, किसे न मिले इसके लिये भीड़ के मन में न कोई परवाह थी, न ही कोई संकोच। इस मज़मे में भीड़ से घिरे बाज़ीगर ने तब तक उस किशोर लड़के की जीभ काट डाली थी। किषोर कराह रहा था, उसके होठों के कोरो से खून बह रहा था। सिर के घुंघराले बालों को झटके देता हुआ वह बाज़ीगर एक हाथ में नंगी कटार लिये गला फाड़कर चीख रहा था। उसने भीड़ की कांपती आँखों, सिकुड़े नाक, भवों और अवाक् दृष्टि पर अपनी नज़रें फेरते हुए अब एक भयानक आवेदन करने लगा था -

’’ऑर्डर मिस्टर सर, साहेब लोग ऑर्डर करिये, बाबू लोग हुकुम दीजिये और महाषय लोग आज्ञा दें। काबुली हो, बंगाली हो, सेठ, नौकर, भिष्ती, अमीर, फकीर महात्मा सब लोग खड़े होकर देखिये, मैं इस कटार से इस लड़के को दो टुकड़ों में काट दूँगा। इसके बाद देखना जादू का खेल ........ यह दो टुकड़ों में कटा लड़का, ज़िंदा हो उठेगा........ हँॅंसते हुये आप सभी को सलाम करेगा।

भीड़ में हुक्म का शोर जाग उठाः हाँ.-हॉँ काटो.....काटो हम सब देखेंगे तुम्हारी करामात।’’

बाजीगर ने अपने हाथ के कटार को आकाश की ओर उठा रखा था। दूसरे हाथ की ऊँगली से कटार पर टन् से मारते हुये, वह जादू का मंत्र पढ़ने लगा- ’’इरि-मिरि....चिरि.....चिरि.....मिरि....वाऊ। कम ऑंन मंकी-स्कल....कम ऑन नाऊ.....’’ अचानक एक बिदके भैंस के गरज़ने की आवाज़ सुनाई पड़ी। भीड़ के बाँयी ओर से यह आवाज़ दौड़ती आ रही थी, अब जैसे करीब आ गई हो। भागो..... भागो ...... आतंकित भीड़ को चीरते हुये एक आवाज़ आई। पल भर में ही जमी भीड़ तितर-बितर हो बिखर गई। बाज़ीगर के जीभ कटे लड़के ने फुर्ती से कूदकर, बाज़ीगर का हाथ थामते हुये कहा - ’’भागिये बाबाजान।’’ बाज़ीगर भी डरकर चीख उठा- ’’भैंसा .... पागल भैंसा’’ इसके बाद एक ही छलांग में वह लड़के का हाथ पकड़े सामने मिठाई वाले के घर में घुस गया।

सड़क खाली थी। खाली सड़क पर एक युवती अपनी बूढ़ी नानी का हाथ थामे, धीरे-धीरे निश्चिन्त चली जा रही थी। युवती के सुंदर चेहरे पर एक स्मित मुस्कराहट थी। कुछ कदम चलने के बाद, वह तरूणी पीछे मुड़कर एक बार देख लेती और हँस पड़ती थी। सिगरेट पीते हुए, धीमे कदमों से जो चला आ रहा था, उसे देखकर, मन के आनंदित तरंगों को दबाने में विफल होने की हँसी थी यह। अचरज की बात थी कि जिस पागल भैसें की आवाज़ सुनकर भीड़ पलभर में भाग खड़ी हुई थी, उसे सुनकर दो व्यक्ति नहीं भागे थे- एक वह तरूणी और दूसरी उसकी कूबड़वाली बूढ़ी नानी जो आगे बढ़े जा रही थी- निःसंकोच। वह युवक, मस्ती से सिगरेट पीता हुआ चला आ रहा था। आधी बॉंह की कमीज़ और धोती में था युवक। धोती का एक सिरा, उसकी कमीज़ की जेब में था। पैरों में धूल सना एक नागरा जूता, हाथ में एक झोला। मालूम नहीं उस झोले में क्या था? सड़क के दोनों किनारे बनी दुकानों में बिखरी भीड़ ने जहाँ शरण लिया था, वे एक दूसरे से सवाल कर रहे थे- किधर गया वह पागल भैंसा? उसका गर्जन भयानक था। दुकानदार हँस पड़े - साहब वह कोई भैंसा-वैसा नहीं है, वह एक हरबोला है। ’’हरबोला? नहीं ऐसा नहीं हो सकता।’’

दुकानदारों ने अपनी तर्जनियॉं उठाकर इशारा किया – हॉँ साहब, हॉँ.....वह देखिये..... उसी लड़के ने पागल भैंसे की आवाज़ निकालकर आप लोगों को छका दिया है’’। फिर भी गलतफहमी दूर नहीं हो रही थी। थोड़े गुस्से में ही, बहुत सारे लोग फिर से सड़क पर उतर आये थे। दुकानदारों ने हँसकर तेज आवाज़ लगाई - अरे नृपेन, अपनी कलाकारी एक बार फिर से दिखा दो, लोग विश्वास नहीं कर रहे हैं’’।

गां.......गां......गां...... क्या डरावनी आवाज़ थी। होठों से सिगरेट को हटाकर फेंकते हुये, वह लड़का, सचमुच उस सींगवाले बनैले जानवर की तरह सिर हिलाकर, दुकानों की तरफ दौड़कर आने लगा। पागल भैंसे की आवाज़!! चारों ओर ठहाकों की गूंज फैल गई। अब लड़का भी हनहनाते हुये उधर बढ़ने लगा, जिधर वह तरूणी और कूबड़वाली बूढ़ी नानी चली जा रही थी। उसका नाम नृपेन है। दुकानदार उसे पहचानते हैं। प्रतिदिन सुबह उस बैंगनी रंग के झोले को हाथ में लटकाये, वह इसी रास्ते से गुज़रता दिखता है। झोले के अंदर रहती हैं ढ़ेर सारी सुगंधित अगरबत्तियॉं। दिनभर अगरबत्तियॉं बेचकर, नृपेन लौटता भी है, इसी रास्ते से। प्रायः प्रतिदिन घर लौटते समय सड़क के दोनों तरफ जितनी व्यस्ततायें रहती हैं, तनाव रहता है, दुश्चिन्ताएँ रहती हैं, हिसाब-किताब उलझे रहते हैं, जितने भी आक्षेप और स्वार्थ बिखरे रहते हैं, उन्हें कुछ देर के लिये हँसाकर निकल जाता है, नृपेन। दुकानों में रोशनियाँ जब टिमटिमाती हैं, सड़क पर तैरते धूल और धुयें आराम करने की तलब में होते हैं, म्युनिसिपैलिटी के जंग लगे लैंप पोस्टों पर दम तोड़ती चिरागों का प्रकाश होता है, उस अॅंधेरे और रौशनी के रहस्य में, एक और रहस्य उभर कर आता है। सब लोग सुनते हैं। वह ध्वनि के विस्मयों का चित्रकार था। शोक के किसी रोदन के साथ एक विदेशी मेम साहब चली जा रहीं हैं, क्या करूणा थी विलायती स्वर के इस रोदन में। सुननेवाले आश्चर्य में होते, दुःख से भर जाते। शहर के इस कोने में, अंग्रेज़ महिला के रोने की ध्वनि कहाँ से आयी? दूसरे ही पल यह भ्रांति दूर हो जाती, समझने को कुछ रह नहीं जाता था। हरबोला नृपेन ही रूदन के इस करूण स्वर को निकालते हुये चला जा रहा है। राहगीरों और दुकानदारों के चेहरों पर स्मित हास्य के रंग में कूची डुबोकर, जैसे किसी ने फेर दिया हो। कई बार कुत्ते की आवाज़ निकालते हुये, सड़क के आवारा कुत्तों को चिढ़ाकर, उन्हें गुस्से में भरकर नृपेन निकल जाता था अपने घर की ओर। क्रुद्ध कुत्तों को देखकर लोग परेशान हो जाते थे। आषाढ़ महीने की सीलन हवा में एक नवजात शिशु के रोने की आवाज़ तैरने लगती। एक अंतहीन क्रंदन, जिसपर किसी सांत्वना का कोई असर नहीं था। रोने की आवाज़ ऐसी जैसे नवज़ात का दम घुटा जा रहा हो। लोग चौंक उठते, फिर समझ जाते कि यह हरबोले नृपेन का खेल है, जो अभी-अभी जन्में बच्चे के रोने की आवाज़ निकालते हुये चला जा रहा है। कुछ हँसते हें, कुछ तारीफ़ भी करते हैं। स्साले नृपेन ने इन तरीक़ों को अपने अंदर बहुत सुंदर ढंग से आत्मसात कर लिया है। हरबोले नृपेन के इन क़रामातों को देख-सुन न जाने कितने ही लोग ख़ुश होते हैं, लेकिन आज पहली बार है कि नृपेन खुश है। लड़की, वही सुंदर लड़की, कूबड़वाली अपनी बूढ़ी नानी के हाथ को थामें बहुत देर से खड़ी थी लेकिन उसे आगे बढ़ने की कोई गुंजाईश नहीं मिल रही थी। भीड़ बेपरवाह थी। सभी लोग अपनी मस्ती में डूबकर उस बाज़ीगर की कलाकारी को देख रहे थे। सड़क के दोनों तरफ भारी भीड़ जमा थी, मज़मा लगा था। उस लड़की और बूढ़ी नानी के लिये आगे बढ़ने का कोई उपाय नहीं दिख रहा था, न ही उनमें वह ताक़त थी। दूर खड़े नृपेन ने इस दृश्य को देर तक देखा था। उसने सुना भी था कि लड़की कई बार चीखते हुये अनुरोध कर चुकी थी- ’’आप लोग हमें जाने के लिये थोड़ी राह दे दें।’’ कोई असर नहीं हुआ था। भीड़ में जिन लोगों ने लड़की को देखा, अनुरोध के स्वर भी सुने, वे लोग भी ज़रा सा नहीं हिले। सब गूँगे-बहरे की तरह, बाज़ीगर का खेल देख रहे थे। नृपेन आगे बढ़ आया था। लड़की से पूछा- ’’कोई हटने को तैयार नहीं है न ?’’ लड़की ने कहा - ’’हाँ देखिये न, पूरे रास्ते को घेरकर खड़े हैं, इतनी बार निवेदन किया, कोई भी ज़रा सी राह देने को तैयार नहीं है’’।

नृपेन ने कहा -’’अभी हटा देता हूँ ’’

उसके बाद वही गां.....गां.......गां........, पागल भैसें का प्रचण्ड-गंभीर गर्जन। पल भर में भीड़ तितर-बितर हो गई थी। लड़की हॅंस पड़ी थी। उसकी यह क़रामात, एक ऐसी सुंदर लड़की के काम आयेगी, उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। शायद आज इस कारण ही नृपेन का मन ख़ुशी से भर उठा था। नृपेन के इस क़रामात को देखकर रोज़ाना कितने ही लोग हँसते थे, लेकिन इतनी सुंदर हँसी....... कोई भी तो नहीं हॅंसा आज तक। हाथ में बैंगनी रंग का झोला। अगरबत्ती के पैकेटों ने झोले को भारी बनाकर रखा है। आज उसकी बिक्री अच्छी नहीं हुई है। शरीर थका है, लेकिन न जाने क्यूँ आज मन बहुत खुश है। नृपेन को लगा, अगरू धूप से सुगंधित हवा, उसके अंदर प्रवेश कर गई है। कूबड़वाली बूढ़ी नानी के हाथ थामे चल रही उस लड़की के पीछे-पीछे, उसी रास्ते पर बहुत दूर तक पैदल चल चुका है नृपेन। दोनों, नानी और लड़की, बाँयी तरफ के कच्चे रास्ते पर उतरकर कहीं चली गयीं। कहॉं गईं, क्या मालूम ? कहॉं रहती हैं ये दोनों? इतनी टिप टॉप और सुंदर लड़की के लिये, इधर निम्न बस्ती में घर होने की बात समझ में नहीं आ रही थी। उधर की ओर तो कुछ पोखर हैं, केना की झाड़ियॉं हैं और ईंट के कुछ भट्टे। हॉं उधर मिट्टी के बने कुछ घर जरूर बने हैं। इसी में रहते हैं, लक्ष्मी भोजनालय के शिबूदा। बेचारे शिबूदा दस रूपये महीने, घर का किराया देने के बाद भी, उनकी हालत लचर रहती हे। एक शाम ही भोजन कर पाते हैं। ईंट भट्टे के कुली-सरदार भी अपनी भेड़ बकरियों के साथ इन कच्चे घरों में रहते हैं। खिले फूल की तरह चेहरेवाले वह सुंदर लड़की, केना के इन जंगल-झाड़ियों के पीछे बने माटी के कच्चे घर में क्यूँ रहेगी? लेकिन अगर रहती हो तो? अग़र वे भी, नृपेन की तरह ग़रीब हों तो ? नृपेन के हृदय में आशा की एक अद्भुत धड़कन होने लगी। गाँगुलीपाड़ा के अॅंधेरे में खड़े होकर, दाहिने तरफ की बस्ती को देखने लगा नृपेन। उसी बस्ती के एक घर के रौशनदान से अभी तक कोई रौशनी बाहर नहीं आ रही थी। यही था नृपेन का घर। अभी घर जाकर, इस झोले को उतारकर रखना है, किरासन तेल की कुप्पी को जलाना है, चूल्हा जलाना हे और उसके बाद भोजन बनाने के लिए जुटना है। नहीं अच्छा नहीं लग रहा था उसका मन, चित्त में अशांति की कसौटी पर पड़ी महीन रेखायें थीं। आज दो मुठ्ठी चावल उबालकर, मिर्च के अचार के साथ खा लेना उचित होगा, उसने सोचा। मध्य रात्रि तक छैंक-छौंक कर खाना बनाना उसे अच्छा नहीं लग रहा है, नाहक समय की बर्बादी है। उससे अच्छा है कि उस सुंदर लड़की के चेहरे को घंटे भर तक सोचता रहे। आज उसे भूख नहीं थी। धीरे-धीरे बस्ती की ओर बढ़ने लगा नृपेन।

केना के जंगलों के पीछे, एक पोखर के किनारे, मिट्टी का बना एक छोटा सा घर है। कूबड़वाली बूढ़ी नानी, सुबह की धूप में, पैरों को फैलाये, बरामदे पर बैठी थी। नानी इधर-उधर देख रही थी। सुबह के इस शोभा और सौंदर्य को जैसे उसने गालियॉं देते हुये ऊँची आवाज में कहा - ’’सिर्फ सजना और धजना, साड़ियॉं पहनना, जूड़ा बाँधना। कौन शहरी तुम्हारे रूप को देखकर ग़श खायेगा कि तुम दिन-रात इतना सजती सॅंवरती रहती हो’’।

खिड़की के ताखे़ में रखे आईने को देखकर, सुमति मन ही मन मुस्करा देती है। बूढ़ी नानी का मज़ाक और गालियॉं एक जैसी थी। हर दिन इन बुझे तीरों को सुनती थी, सुमति। अब कोई असर नहीं होता। खिड़की के ऊपर रखे इस आईने के पास खड़ी होकर वह हर दिन कुछ गुनगुनाकर गाती है, जूड़ा बॉंधती है, माथे पर एक बिंदी लगाती है, आँखों में काजल। बूढ़ी नानी अब सुमति को छोड़कर, अपने बेटे को ही गरियाने लगती है -’’अरे ऐ नटू, मैं कहती हूँ, अपनी दुलारी भान्जी को क्या परी बनाकर, साहबों के मोहल्ले में बेचने ले जाओगे ? उसे इतना बढ़ावा क्यों देते हो। सिर्फ श्रृंगार करेगी, घर का कोई छोटा-मोटा काम भी तो कर दे कभी। यह छोकरी अपने को समझती क्या है?’’

नूट बिहारी, दंतमंजन और लोटे में पानी लेकर बरामदे पर आकर बैठते हैं ’’सुबह-सुबह उठते ही, बिना मॉंँ-बाप के इस लड़की को क्यूँ कोसती रहती हो मॉं? सजने पर सुंदर दिखती है, सजने में उसे अच्छा लगता है, यही तो सजने की उम्र है, इसमें क्या दोष है? बूढ़ी नानी फट पड़ती है- ’’नहीं उसकी कोई गलती नहीं, कोई दोष नहीं, जितनी गल्तियॉं हैं मेरी हैं। ठीक तो है, अपनी प्यारी भान्जी को परी की तरह सजाकर, साहबों के मोहल्ले में दे आओ और जब मैं मर जाऊॅं, तो मेरे पेट में भूसे भरवाकर संग्रहालय में रख आना।’’

सुमति के नटू मामा लेकिन ज़रा भी विचलित नहीं हुये, कोई गुस्सा नहीं। हाथ -मुँह धोकर, शांत भाव से कमरे के अंदर चले गये। फिर अपने हाथों से कोयला तोड़कर चूल्हा जलाने में जुट गये। सुबह नौ बजे तक उन्हें निकल जाना है। गॉंगुलीपाड़ा से बहुत दूर, चिड़ियाघर पार करने के बाद, बी टी रोड पर एक कारखाने के ऑफिस में फाइल-दफ्तरी का काम करते हैं, सुमति के नटूमामा।

अब तक सुमति का श्रृंगार पूरा हो चुका है। फिर भी वह एक बार, खिड़की पर रखे आइने को निहारती है, कंधे के दोनों तरफ पाउडर लगाती है। उसके बाद ? उसके बाद पोखर के उस पार, सुपारी के बग़ीचे की ओर देखते हुये, चुपचाप खड़ी रहती है। कुहू.......कुहू ....कुहू.... कोयल की मधुर आवाज। अगहन महीने की सुबह, कोयल आई कहॉं से ?

सुमति की चंचल दृष्टि, सुपारी, नारियल, आम नीम और सेमल के पेड़ों के डाल-पत्तों के बीच उस कोयल को खोजती रहती है। लेकिन समझ में नहीं आता, यह कोयल की आवाज़ आई कहॉं से?

अचानक सुमति चौंक गई। यह क्या!! शिबू बाबू के घर के बरामदे पर यह कौन बैठा है! आधी बाँह की कमीज़, धोती का एक सिरा कमीज़ की जेब में, हाथों के पास रखा बैंगनी रंग का एक झोला। वाह आश्चर्य सुमति का मन विस्मय से जैसे खिलखिलाकर हॅंस उठा हो।

नज़रें उठाकर अच्छी तरह देखती है सुमति। कल रात, उस भीड़ में इस आदमी को देखकर यह नज़र नहीं आया था कि, उसका चेहरा इतना मासूम है। देखने में सुंदर है। उम्र जो भी हो, पच्चीस से ऊपर नहीं था।

बूढ़ी नानी चिल्ला पड़ीं- ’’अरे तेईस साल की छोकरी, तुम्हारे मामा हाथ जलाकर चावल पका रहे हैं और तुम अपनी ऑँखों में काजल लगाये किसकी आँखें खराब कर रही हो ....ऐं.....?’’

कुहू.....कुहू.....कुहू...... कोयल फिर एक बार कूक पड़ी। लेकिन इस बार, सुमति को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। समझने को कुछ और रह नहीं गया था। कोयल की जो यह आवाज़ निकाल रहा है, वह शिबूदा के बरामदे पर बैठकर इधर ही देख रहा था। सुमति का पूरा चेहरा मधुर हो उठा, होठों के दोनों कोरों से एक मुस्कराहट रिसने लगी।

वही आधे बॉंह की कमीज़, जेब में धोती का एक सिरा, हाथ में रंगीन बैंगनी झोला, पैरों में धूल सने नागरा जूते, लेकिन नृपेन के दैनिक जीवन की राह ने एक हल्का मोड़ लेते ही, सामने का पथ बहुत चौड़ा हो गया था - राजमार्ग। नृपेन अपनी बस्ती से निकलकर, केयातल्ला के इस सड़क से थोड़ा घूमकर, गॉंगुलीपाड़ा की सड़क पर आता है। मिट्टी के इस कच्चे घर की खिड़की में, खिले फूल की तरह एक सुंदर मुख की हॅंसी को अपने दोनों ऑंखों में भरकर वह अपने काम पर निकल जाता था।

शिबूदा ने कहा है- ’’इस लड़की की शादी नहीं होगी, सुमति के मामा नटूबाबू की औक़ात ही नहीं है, शादी का खर्च जुटायेंगे कहॉं से?

नृपेन ने कहा- ’’क्यूँ अगर कोई अपनी इच्छा से शादी करना चाहे तो’’?

शिबूदा हॅंसते थे- ’’कौन इस लड़की से अनुरोध कर शादी करेगा? तुम करोगे?

नृपेन ने कोई जवाब नहीं दिया, बेहया की तरह हॅंसने लगा। लक्ष्मी भोजनालय के शिबूदा ने ऑंखे मटकाकर मज़ाक किया -’’घुइएं के जंगल के बिल्ले, तुम्हारे अनुरोध पर तो कोई भी लड़की तुमसे शादी करने के लिये राज़ी नहीं होगी।

फैंश...... फैंश....फैंश.... क्रुद्ध बिल्ले की तरह अपने दोनों हाथ बिल्ले के पंजे की तरह बढ़ाकर शिबूदा की तोंद पर खरोंच मार, हॅंसते-हॅंसते नृपेन चला गया।

शिबूदा को भरोसा नहीं है, इस दुनिया में शायद किसी को भरोसा नहीं है, लेकिन नृपेन को भरोसा है कि केयातल्ला के नटू बाबू के घर की इस लड़की, सुमति जिसका नाम है, वह लड़की रोज सुबह, अपने घर की खिड़की के पास, नृपेन के आने की प्रतीक्षा मे व्याकुल होकर खड़ी रहती है। केयातल्ला के इस सड़क पर उसके आते ही, सुमति के चेहरे पर एक अद्भुत हँसी बिखर जाती है। अपना चेहरा फेर नहीं लेती, कोई शर्म नहीं। केयातल्ला के माटी के इस कच्चे घर की खिड़की, नृपेन को एक आश्वासन से भर देती थी। खिले फूल से सुंदर चेहरे पर अविराम, अविरत मुस्कराहट देखा था उसने। किसी भी दिन, किसी भी पल उसने सुमति का गंभीर चेहरा नहीं देखा, कोई विरक्ति नहीं, कजरारे नयनों के ऊपर भवों में कोई वक्रता के चिह्न भी नहीं दिखे। नृपेन के दैनिक जीवन में, अपनी मुस्कुराहट का नैवेद्य लिये खड़ी रहती थी, सुमति।

अब डरने की कोई बात नहीं है। शिबूदा की बातें, बस झूठी धमकी है। आकाश में चाँद हो, केयातल्ला की गलियों में चॉंदनी बिखरी हो, तो इस पथ पर चले बिना रह नहीं पाता था नृपेन। बहुत मधुर, नकियाये वायलिन का स्वर बजता था, नृपेन के होठों से। सुमति खुली खिड़की के पास खड़ी रहती थी। सुमति के चेहरे की हॅँसी दिखाई तो नहीं देती थी, लेकिन नृपेन को लगता था, वायलिन के इस झूठे स्वर को सुनकर, सुमति का हृदय हॅंस रहा हो।

फिर उस दिन, उस रात, नृपेन के मन का साहस अब शावक नहीं रह गया था। नूर बिहारी बाबू के उस कच्चे घर की खिड़की के बिल्कुल क़रीब जाकर खड़ा हो गया था नृपेन। सुमति मुस्कुराई: ’’किसे ढूँढ रहे हैं?

नृपेन ने कहा - ’’थक गया हूँ, एक ग्लास पानी मिलेगा, सुमति’’?

चौंक गई थी सुमति: ’’.....ऐं....देख रही हूँ ..... आप मेरा नाम भी जानते हैं?’’

-’’वह नहीं जानूँगा ? न जानने का कोई विकल्प है क्या?

-’क्या कहा’’?

-’’मेरा नाम भी तो तुम्हें जानना चाहिये’’

सुमति हॅंस पड़ी - ’’बताइये’’

-’’मेरा नाम नृपेन है, तुम्हारी तरह हम लोग भी कायस्थ हैं’’।

-’’क्या करते हैं, आप?’’

-’’कहने को तो अब तक कुछ नहीं कर रहा था, लेकिन अब कर रहा हूँ’’

-’’क्या?’’

-’’लोहे के एक ढलाई कारखाने में काम सीख रहा हूँ। एक साल काम सीखने के बाद, साठ रूपये की नौकरी मिलेगी’’

-’’उसके बाद?’’

-’’उसके बाद तुम्हीं कहो न- ’’

-’’मैं क्या कहूँ, आप मामा जी को कहिये’’।

- ’’वक्त आने पर ही कहूँगा’’

घर के अंदर से बूढ़ी नानी की आवाज़ गरज़ उठी - ’’फुसफुसा कर यह बातें कौन कर रहा है? अरे ओ सुमति .....’’।

-चिक्..... चिक.....! किच्.....किच्....। तालू से जीभ को सटाकर, एक अद्भुत आवाज़ निकालकर, नृपेन ने नानी के संदेह को मज़ाक का रूप दे दिया था। सुमति ने ऑंचल से अपने चेहरे को छिपाकर, हॅंसी को दबा दिया था।

बूढ़ी नानी ने और अधिक आतंकित होते हुये चीखा- ’’छछुंदर .... छछुंदर..... घर में छछुंदर कहॉं से आया सुमति? जल्दी लालटेन से देखो’’।

नृपेन ने अब कोई देर नहीं कीं। सुमति ने हाथ में लालटेन उठा लिया था। उसकी रौशनी में, सुमति का चेहरा रंगीन हो उठा था। नृपेन को लगा, लालटेन की रौशनी में नहीं, जीवन के सबसे सुखद आश्वासन को पाकर रंगीन हो उठा था सुमति का चेहरा। सड़क पार कर नृपेन ने एक बार सोचा, शिबूदा को सारी बातें बता देना ही उचित रहेगा। चकित हो जायेंगे, विश्वास-मुक्त शिबूदा।

अगहन के किसी सुबह में एक नक़ली कोयल ने कूक लगाई थी और फागुन की उस शाम को सचमुच एक कोयल कुहक उठी थी। शिबूदा के घर के बरामदे पर बैठा नृपेन, नूटबिहारी बाबू के घर में रौशनी से नहायी उस मूर्ति को स्तब्ध देखता रहता है। यहॉँ आने तक अक्सर शाम हो जाती है। आज भी ढलाई कारखाने में अप्रेंटिस के हाड़ तोड़ श्रम के बाद, काम निपटने तक शाम हो चुकी है।

केयातल्ला के कच्ची सड़क के धूल पर एक मोटरगाड़ी खड़ी है। नूटबिहारी बाबू के घर के बरामदे और आंगन में गैस बत्तियॉं जल रही हैं। शंख और मंगलध्वनियों का शोर है। आम के बाग़ीचे में सचमुच कोयल कूक रही है........बार......बार।

स्तब्ध बैठा रहा नृपेन देर तक। फिर शिबूदा के गंभीर चेहरे की ओर देखकर पूछा - ’’ लग रहा है सुमति की शादी हो रही है’’

-तुम्हें क्या अब भी समझने में कठिनाई है?

-’’लेकिन अचानक यह शादी कैसे हो रही है?’’

-’’लड़की के रंग-रूप को देखकर, नूटबिहारी बाबू के ऑफिस के स्टोर बाबू ने लड़की को पसंद कर लिया है। लड़की को एक जोड़ी जड़ाऊ कंगन देकर सगाई की रस्म भी अदा की है। यहाँ तक कि, शादी का पूरा खर्च भी वही उठा रहे हैं। आदमी तो शरीफ़ है, लेकिन सुमति की उम्र को देखते हुये उतना युवा भी नहीं है, चेहरा भी काला है और साथ ही सिर पर चमकता केशहीन काला चाँद’’।

’’वाह तब तो यह जोड़ी खूब फ़बेगी - ’’हॅंसते हुये चीख पड़ा नृपेन। उसकी आँखो में व्यंग था, जिसमें एक तीव्र अग्नि थी।

शिबूदा ने पूछा- ’’चाय पीओगे?’’

-’’नहीं, मेरे मन में एक बात आ रही है’’

-’’क्या?’’

-’’कल जब वर-वधू विदा होंगे तब .....’’

-’’कल नहीं जी, आज ही, थोड़ी देर बाद वर-वधू रवाना होंगे। लड़के के घर पर ही कोहबर है’’।

एक ही छलांग में नृपेन खड़ा हो गया। -’’तब अभी चलिये शिबूदा, शादी वाले घर के सामने सड़क पर खड़े होते हैं’’।

-क्यूँ रे?

- ’’गधे की आवाज़ निकालूँगा।

शिबूदा हॅंस पड़े, लेकिन विरोध भी किया।

-’’दूसरों के घर के मामले में जबरन रगड़ा करने की क्या जरूरत है, नृपेन? जब मेरी शादी होगी, तब तुम जितना गधे-घोड़े की आवाज़ निकाल सकते हो, निकालना’’।

मंगल ध्वनियों का शोर अब और बढ़ गया था। बाराती भी बाहर निकल आये हैं। मोटर गाड़ी के ड्राइवर ने होठों से बीड़ी को फेंककर स्ट्यिरिंग संभाल लिया है। वर-वधू बाहर निकल आये हैं, गाड़ी के अंदर प्रवेश कर रहे हैं।

-’’जल्दी चलिये शिबूदा’’ - दौड़ते हुये नृपेन सड़क पर आकर रूक गया।

सुमति का चेहरा स्पष्ट दिख रहा था। बिल्कुल वैसा ही खिला चेहरा, फूल की तरह। स्मित मुस्कान। चेहरे पर एक बूँद दर्द नहीं। काजल लगे आँखों के कोरों में एक बूँद पानी नहीं था।

गाड़ी का इंजन गों.....गों..... कर रहा था। अब गाड़ी स्टार्ट लेगी। शिबूदा की तरफ देखकर हँस पड़ा नृपेन। तुरंत जैसे एक झप्पट्टे में, अपने दोनों हाथों से चेहरे को ढॅंककर, गधे की आवाज़ निकालने के लिए तैयार हो गया था वह।

ड्राइवर के गियर लेते ही गाड़ी बस ज़रा सा सरकी थी। इसके साथ ही, एक तीव्र आर्त्तनाद से चौंककर ड्राइवर ने तेज़ी से ब्रेक लगाकर गाड़ी रोकी। मर्मभेदी, करूण और तीक्ष्ण एक आर्त्तस्वर! केऊॅं.....केऊँ.....काईं.....काईं...। गाड़ी के पहिये के नीचे कोई कुत्ता दब गया था। बाधा हुई, शुभ यात्रा में एक बहुत बुरी बाधा। बारातियों में थोड़ी खलबली दिखी, वे गाड़ी के पहिये की ओर देखने लगे। ड्राइवर कूदकर बाहर निकला, उकड़ूँ होकर बैठा और पहियों के नीचे सिर झुकाये देखने लगा। लेकिन कहॉं है कुछ? कुछ भी तो नहीं। गाड़ी के पहिये के नीचे तो कोई घायल कुत्ता दिख नहीं रहा। मामला है क्या? बारातियों में वार्तालाप हो रहा था, कह रहे थे- ’’यह कैसी बात हुई?

शिबूदा ने भी चकित होकर नृपेन के कानों में फुसफुसाकर कहा -’’क्या बात है, नृपेन! रगड़ा करने में, काईं.... काईं....करते हुये तुम रो क्यूँ पड़े थे?’’

ड्राइवर इधर-उधर देखने लगा, उसके बाद हो.....हो.....कर हँसने लगा।

-’’यही तो कह रहा हूँ, हरबोला नृपेन यहीं खड़ा है। गाड़ी के अंदर चंदन के बिंदियों से सजा चेहरा और काजल से सजे आँखों से सुमति ने, नृपेन की ओर अपनी दृष्टि धीरे-धीरे उठायी। होठों के दोनों कोरों में अब भी एक हल्की मुस्कुराहट तैर रही थी।

नृपेन के हाथों को पकड़कर शिबूदा ने अपनी तरफ खींचा - ’’मुँह बाये क्या देख रहे हो, नृपेन? खिले हुये फूल की तरह का चेहरा?’’

नृपेन ने कहा- शिबूदा, लेकिन समझ नहीं पा रहा हूँ फूलों के अंदर भी कीड़े क्यूँ रहते हैं?’’

-’’और समझने की जरूरत नहीं, चलो चाय पीते हैं।’’

*****