शुतुरमुर्ग की सवारी और शार्क से संवाद
(दक्षिण अफ्रीकी गणतंत्र )
दक्षिण अफ्रिकी गणतंत्र की भूमि के चरण पखारते हिन्द महासागर की मोसेल्स खाड़ी के रमणीक क्षेत्र में हम आउटशूओर्न का शुतुरमुर्ग फार्म देख रहे थे. वहाँ का गाइड हमें उड़ने में असमर्थ लेकिन साठ किलोमीटर की रफ़्तार से भागनेवाले इस विशालकाय पक्षी के बारे मे बहुत सारी नयी जानकारियां दे रहा था. लेकिन जब उसने स्वयं शुतुरमुर्ग की पीठ पर सवार होकर उसे घोड़े की तरह भगाया तो हम दंग रह गए. उस बेचारे आठ फुट ऊंचे पक्षी की आँखें सर पर एक थैली पहना कर ढँक दी गयी थीं. उस निरीह के बारे में सर्वविदित है कि शत्रु को देख नहीं पाने पर वह स्वयं को सुरक्षित समझता है भले उसने अपनी मुंडी बालू में घुसा रखी हो. अतः उसकी आँखें ढँक कर उसकी पीठ पर दो टांग वाला इंसान सवारी कर भी ले तो वह घबराता नहीं. बाएं दायें घुमाने के लिए नकेल कसने की आवश्यकता नहीं. उसकी गर्दन पर एक तरफ से थप्पड़ लगाया जाए तो वह दूसरी तरफ मुड़ जाता है. इसका अर्थ यह नहीं कि बाकायदा पीठ पर काठी बांधकर उसे सवारी की तरह इस्तेमाल करते हैं. यह तो केवल सैलानियों के मनोरंजन के लिए था. फिर जब गाइड ने हम सैलानियों को चुनौती भरा आमंत्रण दिया कि हम भी इस सवारी को आजमायें तो मेरे वयस्क तन के अन्दर छुपा युवा फ़ौजी मन इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए मचल पडा. पत्नी घबडाई. मेरे मन में भी थोड़ा संशय था कि यदि कहीं नीचे टपक गया तो अफ्रीका की यह यात्रा ही न बर्बाद हो जाए. लेकिन सत्तर पार मेरी आयु के चलते उसने मुझे यह मौक़ा देने से जब मना कर दिया तो किसने सबसे ज़्यादा चैन की सांस ली – मेरी पत्नी ने, शुतुरमुर्ग ने या स्वयं मैंने -नहीं कह सकता !
बात शुतुरमुर्ग की सवारी से शुरू हुई है तो उन भयावह क्षणों को भी याद कर लूँ जब मैं और मेरी पत्नी छः मीटर लम्बी, तीन टन वज़न की ‘ ग्रेट व्हाईट शार्क ‘ के खुले हुए जबड़े के तलवार जैसे नुकीले दांतों से हिन्द महासागर के ठंढे पानी की गहराइयों में केवल एक मीटर दूर थे. सतह का तापक्रम बीस डिग्री था. उन ठंढी गहराइयों में हम तीन मीटर गुणा दो मीटर आकार के, तीन मीटर गहरे इस्पाती पिंजड़े में बंद थे. एक बार में चार पांच सैलानियों को अन्दर खड़ा करके वह पिंजडा एक छोटे जहाज़ के डेक से नीचे उतारा गया था. केप टाउन और पोर्ट एलिजाबेथ के महानगरों के बीचों बीच मोसेल्स खाड़ी का यह क्षेत्र व्हेल, शार्क, डोल्फिन और सी-लायन ( तथाकथित सील मछली )से भरा होने के लिए विख्यात है. इस समुद्री जंगल पर राज करती है द ग्रेट व्हाईट शार्क. विश्व भर से लाखों सैलानी इन समुद्री जंतुओं को देखने के लिए यहाँ आते रहते हैं. हम भी रबर के डाइविंग सूट में लैस होकर पानी की सतह से नीचे स्नोर्कल से सांस लेते हुए या फिर सतह से केवल सर ऊपर निकाल कर शार्क से आँखें चार करने के लिए उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे. जहाज़ के डेक से एक रस्से में खूब बड़ा सा ताज़ा कटा मछली का सर एक लोहे के हुक में फंसाकर शार्क का चारा बनाकर नीचे फेंका गया. इस चारे से आकृष्ट होकर कुछ क्षणों में ही तीन चार विशालकाय शार्क हमारे जहाज़ की तरफ वेग से तैरती हुई आईं. जहाज़ के कार्मिकों ने रस्सी में फंसे हुए चारे ( बेट) को तेज़ी से अपनी तरफ खींचा तो अपना विशालकाय जबड़ा खोले हुए उन भीमकाय शार्कों ने क्रुद्ध होकर उसका पीछा किया. ऐसा करते हुए वे हमारे इस्पाती पिंजड़े के बहुत निकट आतीं तो झटके से एक तीखा मोड़ लेकर वे स्वयं को उस पिंजड़े से टक्कर खाने से बचा लेती थीं. पिंजड़े की सलाखों के पीछे खड़े हम उन भयानक जबड़ों से झांकते आरी जैसे तेज़ एक डेढ़ फुट लम्बे दांतों से बस एक मीटर दूर रह जाते थे. भयाक्रांत सैलानियों के मुंह से चीखें निकल रही थीं यद्यपि हम इस्पात की छड़ों के पीछे थे. दिल दहलाने वाला वह क्षण आता और आकर निकल जाता पर उतने में ही उस शीतल जल में डुबकी लगाए सैलानियों को ठंढा पसीना आ जाता. यह मुठभेड़ कई बार दुहराई गयी. लगभग आधे घंटे तक बार बार उन क्रुद्ध शार्कों के साथ यही खेल खेला गया. हताश होकर वे उस चारे के पीछे भागना बंद न कर दें इसलिए कई बार मछली का खोपडा बिना लोहे के हुक में पिरोये, केवल रस्सी से बाँध कर उनके निकट फेंका गया. उसे वे ताबड़तोड़ गाजर मूली की तरह गटक जातीं. हमने इस मुठभेड़ के लिए प्रति व्यक्ति सोलह सौ रैंड अर्थात आठ आठ हज़ार रुपये के टिकट खरीदे थे पर उन दानवाकार ग्रेट व्हाईट शार्क्स ने भी कम परिश्रम से अपनी खूराक नहीं अर्जित की थी.
ग्रेट व्हाईट शार्क से संवाद करने के लिए जाने से पहले हमें उस एडवेंचर कंपनी ने एक तरफ तो स्टाम्प पेपर पर हस्ताक्षर कराया था कि किसी दुर्घटना के लिए हम उन्हें उत्तरदायी नहीं ठहराएंगे तो दूसरी तरफ बारम्बार आश्वस्त भी किया था कि उनके इस्पाती पिंजड़े बेहद सुरक्षित हैं और उनके यहाँ वर्षों से कोई दुर्घटना नहीं हुई थी. पर अब बताऊँ इस यात्रा की सबसे रोमांचक बात. मोसेल्स बे के इस अविस्मरणीय अनुभव के बाद हम अगले दिन ही केप टाउन के लिए चल पड़े. दिन भर की तीन सौ किलोमीटर की बसयात्रा अंगूर के खूबसूरत बागानों के बीच से गुज़रते हुए और एक विश्वप्रसिद्ध वाइन बनाने वाली कम्पनी की कार्यशालाओं को देखते हुए संपन्न हुई. शाम को थककर, जल्दी खाना खाकर, होटल के नरम गद्दों पर लेटकर, सोने से पहले जब यूँ ही एस ए बी सी अर्थात साउथ एफ्रिकन ब्रोडकास्टिंग कोर्पोरेशन की खबर चैनेल टीवी पर लगाई तो स्क्रीन पर नज़र पड़ते ही आँखों के आमने तारे नाचने लगे और देर रात तक नींद हराम हो गयी. मुख्य खबर जो बार बार दूसरी चैनलों पर भी दुहराई जा रही थी यह थी कि मोसेल्स बे में द ग्रेट व्हाईट शार्क एडवेंचर के लिए समुद्र में उतारे हुए एक पिंजड़े से चारे का पीछा करती हुई एक शार्क टकरा गयी थी. उसका वज़न और वेग जिस भयानक टक्कर के रूप में परिणित हुआ उससे इस्पात का वह सुदृढ़ पिंजरा तहस नहस हो गया था और शार्क उसमे फंस गयी थी. इसके बाद उसने उस इस्पाती जाल से मुक्त होने के लिए वह कूदफांद मचायी कि जहाज़ डूबते डूबते बचा. पिंजड़े के अन्दर एक व्यक्ति को गंभीर चोट आयी थी. टीवी पर बार बार दिखाई जा रही उस भयानक दुर्घटना की तस्वीरें देख कर देर रात सोने पर भी दुह्स्वप्न आते रहे. वैसे अभी भी मैं यही कहूंगा कि वह दुर्घटना इतनी विरल थी कि उसके दुहराए जाने के भय से भविष्य में किसी सैलानी का उस रोमांचक अनुभव से स्वयं को वंचित रखना अनुचित ही होगा.
दक्षिण अफ्रीका की सैर पर जाने से पहले मन में वहाँ के चित्र दो समान्तर फलकों पर उभरते थे. एक पर वहां के वन्य पशुओं को देखने का कौतूहल रहता था. वहां के प्राकृतिक सौन्दर्य के आस्वादन की चाहत रहती थी. लेकिन कौतूहल भरा एक दूसरा फलक भी रहता था. जहाँ सारी दुनिया से गुलामी की घृणित प्रथा पिछली ढाई तीन शताब्दियों में लुप्त हो गयी है वहीं इस देश में गुलामी की प्रथा को एक नया मुखौटा पहना दिया गया था. यह मुखौटा था रंगभेद का. इस पाशविक नीति के शिकार अश्वेत दक्षिण अफ्रीकी नागरिकों को अब मुक्त होकर कैसा लग रहा होगा, क्या अतीत की यादें उन्हें अब भी पीड़ा देती हैं- जानने का कौतूहल दूसरे फलक पर उभरता था. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के उन वर्षों में जब लगभग सारे विश्व ने मानवमात्र की मूलभूत स्वतन्त्रता के अधिकार को पूरी तरह से स्वीकार और आत्मसात कर लिया था तब भी नॅशनल पार्टी का वह शासन कितना उद्दंड, अत्याचारी और बेशर्म रहा होगा जिसने सारी दुनिया के आग्रह को ठुकरा कर अपने नागरिकों को उनकी त्वचा के रंग के आधार पर बाँट दिया था, बहुमत वाली उनकी विशाल संख्या को पशुवत जीवन बिताने के लिए मजबूर कर दिया था. और कितना महान होगा नेल्सन मंडेला नाम का वह अश्वेत शख्स जिसने महात्मा गांधी के बताये हुए मार्ग पर चलकर अपने जीवन के सत्ताईस साल कारागार की सलाखों के पीछे बिता दिए, उनमे से भी छब्बीस साल रुब्ब्न्स नामक एक टापू पर कैद होकर. लेकिन अंततः वह 1994 में कारागार से मुक्त किया गया तो दक्षिण अफ्रीका का राष्ट्रपति बनकर. दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के ज़हरीले घूँट पीने की अनुभवी पीढियां अब युवा और अधेड़ हैं. इस यात्रा में उनकी मनःस्थिति जानने समझने का कौतूहल मन के दूसरे फलक पर बिछ जाता.
बात चूँकि पशुपक्षियों से शुरू हुई थी अतः पहले उसको ही पूरा कर लें. अधिकाँश भारतीयों के मन में अफ्रीका का चित्र वन्यपशुओं से भरे हुए एक ऐसे देश का है जहाँ वन्य जीवन देखने ही सारी दुनिया से सैलानी जाते हैं. किसी हद तक यह धारणा सही भी है. अफ्रीका के ‘बिग फाइव’ माने जाने वाले वन्य प्राणी उस महाद्वीप के कई देशों में पाए जाते हैं. ये हैं अफ्रीकी सिंह, अफ्रीकी हाथी ( जो अपने विशालकाय कानों के कारण भारतीय हाथी से बड़ा और फरक लगता है ), अफ्रीकी गैंडा ( जो अपने दो सींग के चलते भारतीय एक सींग वाले गैंडे से भिन्न होता है) अफ्रीकी तेंदुआ या गुलदार और विशाल सींगो वाला जंगली भैंसा जिसे केप बफेलो भी कहते हैं. डील डौल और आक्रामक स्वभाव के कारण इन पशुओं को बिग फाइव की संज्ञा मिल गयी है पर चीता, जिराफ और जेब्रा जैसे जानवर ,गुरिल्ला और चिम्पांजी जैसी वानर प्रजातियां और शुतुरमुर्ग जैसे पक्षी भी इस महाद्वीप के विशिष्ट और महत्वपूर्ण वन्य जंतु हैं. दक्षिण अफ्रीकी गणतंत्र के अतिरिक्त वन्यजंतु संपदा के लिए बोट्सवाना, जाम्बिया, यूगैंडा, नमीबिया, इथियोपिया, केन्या, तंजानिया, ज़िंबाबवे और मलावी आदि भी प्रसिद्ध हैं. दक्षिण अफ्रीका की विशेषता यह है कि जहाँ एक तरफ वहां बिग फाइव की सारी प्रजातियाँ मिलती हैं वहीँ हिन्द एवं एटलान्टिक दोनों महासागरों को चूमते इसके विशाल समुद्रतट के चलते वहां सील, डोल्फिन, व्हेल और शार्क जैसे समुद्री प्राणियों को भी देखने समझने का अच्छा अवसर मिलता है. क्रूगर नॅशनल पार्क दक्षिण अफ्रीका का सबसे कहत्वापूर्ण वन्यप्राणी उद्यान है. इसके अतिरिक्त क्वाजुलू नेटाल, मिदिक्वे और वाटरबर्ग के वन्य प्राणी उद्यान भी मशहूर हैं. अफ्रीकी महाद्वीप के कई देशों की तरह दक्षिणी अफ्रीकी गणतंत्र में भी विशाल क्षेत्र में फैले हुए निजी सेक्टर के वन्य प्राणी उद्यान अर्थात गेम रिज़र्व है. दक्षिण अफ्रीका एक समृद्ध और विकसित देश है जहाँ जोहांसबर्ग , केपटाउन, डर्बन जैसे महानगर भी हैं. उनमे आधुनिक महानगरों की तरह कई दर्शनीय स्थान हैं और समुद्र तटों पर सैलानियों को आकर्षित करने वाली गतिविधियाँ और सुविधाएं हैं. दक्षिणी गोलार्ध में होने के कारण वहाँ के मौसम हमारे यहाँ के विपरीत होते हैं. मौसम लगभग साल भर ठंढा रहता है पर पर्यटन के लिए अप्रैल , मई और जून के बारिश वाले महीनों के अतिरिक्त अन्य सभी महीने अच्छे हैं.
हमारी यात्रा जोहांसबर्ग से प्रारम्भ हुई थी जहाँ हम सेशेल्स एरलाईन्स के विमान द्वारा मुम्बई से पहुंचे थे. जोहान्सबर्ग दक्षिणी अफ्रीकी गणतंत्र की राजधानी प्रिटोरिया का करीबी सबसे बड़ा महानगर है. दक्षिण अफ्रीका में हीरे की खदानें हैं और सोने की भी. अन्य बहुमूल्य पत्थरों की तो कई खदानें हैं. यहाँ की वाइन भी विश्वप्रसिद्ध है. अतः उद्योग व्यापार की समृद्धि जोहान्सबर्ग शहर की भव्य अट्टालिकाओं में साफ़ दिखता है. रिहायशी मकान यहाँ बहुमंजिले कम हैं. काफी बड़े विस्तार वाले अफ्रीकी शहरों में ज़मीन की कमी न होने से बहुमंजिली इमारतें वहाँ की मजबूरी नहीं हैं, केवल आधुनिकता की दौड़ में शामिल होने के लिए बनी हुई दीखती हैं. अपने महान राष्ट्रनेता और पहले राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला की स्मृति को जोहांसबर्ग ने नेल्सन मंडेला स्क्वायर की भव्य इमारतों में संजो कर रखा है तो उनके आदर्श और प्रेरणापुंज महात्मा गांधी की स्मृति को गांधी स्क्वायर में सजा रखा है जिसकी बहुमंजिली इमारतों में बड़ी बड़ी कंपनियों के दफ्तर हैं. गांधी स्क्वायर के केंद्र में गांधी जी की बड़ी सी मूर्ति लगी हुई है –बैरिस्टर मोहन दास गांधी की वेशभूषा में. उसके सामने ही वह अदालत है जिसमे गांधी जी ने भारतीय मूल के निवासियों पर होते अत्याचारों के खिलाफ मुकदमे में पहली बार पैरवी की थी. काले ग्रेनाईट की एक शिला पर अंकित इस सूचना ने हमें श्रद्धानत कर दिया. यह भी एक संयोग ही था कि तारीख थी दो अक्टूबर 2016 अर्थात बापू का जन्मदिन. पर रविवार होने के कारण गांधी स्क्वायर सूना था. उस दिन वहां गांधी जयन्ती मनाई गई थी इसके कोई चिन्ह नहीं दिखे.
दिन में जोहांसबर्ग शहर में घूमने के बाद हमने वहां संध्याकालीन रौनक देखने की आशा की थी. पर वहां तो शाम के छः बजे ही सारे शहर में सन्नाटा फैला हुआ और सारी दूकानें बंद दिखीं. यही स्थिति अन्य शहरों में भी दिखी. पता चला कि दक्षिण अफ्रीका में सब जगह यही चलन है. बाद में भारतीय मूल के लोगों से हुई अनौपचारिक बातचीत में पता चला कि शहर के बाहरी हिस्सों में जरायम पेशा लोगों द्वारा लूटपाट, बटमारी आदि का यह नतीजा है. तभी खुलासा हुआ समृद्ध और गरीब लोगों के बीच उस बहुत गहरी खाई का जिसके चलते अश्वेत मूल की निर्धन और बेरोजगार युवा पीढी में नशीली दवाओं और वेश्यावृत्ति का चलन चिंता का विषय बन गया है. हमें सलाह दी गयी कि रात में बाहर न घूमें , विशेषकर कीमती सामान के साथ. वैसे पश्चिमी सभ्यता और समृद्धि के प्रतीक नाईट क्लब आदि रात में गुलज़ार तो रहते हैं पर बहुत नहीं हैं.
जोहांसबर्ग से अगले दिन हम सन-सिटी नगर गए जो लगभग दो सौ किलोमीटर दूर था. देशज और विदेशी सैलानियों के लिए एक ऐशगाह के रूप में बना यह शहर हमें लॉस वेगास और डिस्नेलैंड का मिश्रण लगा. मनोरंजन की हर आधुनिक सुख-सुविधा, खेल तमाशे वहां थे. बच्चों के लिए, युवाओं के लिए तरह तरह के खेल तमाशे से लेकर बढ़िया होटलों, पार्कों, झील, चिड़ियाघरों, जुवाखानों आदि की सब सुविधाएं वहां उपलब्ध थीं. गोल्फ कोर्स से लेकर जेटबोट राइड, हॉट एयर बलून राइड, सफारी पार्क, बच्चों की रेलगाड़ी तक और खूबसूरत झील, भूलभुलैया, महल और आलीशान रेस्तरां आदि तमाम मन लुभाने के साज सामान थे वहां. हमने भी अपनी अपनी रूचि के अनुसार उनका आनन्द लिया,रात में वहाँ रुके और अगले दिन जोहांसबर्ग वापस आकर वहां से जॉर्ज नामक शहर जाने के लिए उड़ान भरी.
जॉर्ज स्वयं बहुत महत्वपूर्ण शहर नहीं है पर वह मोसेल्स बे नामक बेहद रमणीक क्षेत्र का प्रवेशद्वार है. मोसेल्स बे क्षेत्र में हम पहले आउटशूओर्न के शुतुरमुर्ग फ़ार्म में गए जिसके विवरण से यह वृत्तान्त शुरू हुआ था. मोसेल्स बे में हम जिस खूबसूरत होटल में ठहरे थे वह हिन्द महासागर की लहरों को चूमती हुई एक बड़ी ऊंची शिला पर बना था. होटल के बगल में ही एक बड़ा सा प्रकाशस्तंभ था. जी पी एस के इस युग में उसकी उपयोगिता तो क्या बची होगी पर उस समाधिस्थ प्रकाशस्तंभ से उस पहाडी और होटल का सौन्दर्य बहुत बढ़ गया था. हमारे कमरे की बालकनी के ठीक सामने मुश्किल से तीस मीटर दूर चट्टानों पर सागर की लहरें पछाड़ें खा कर एक अद्भुत समां बना रही थीं. पता चला कि शाम को हम बालकनी में बैठें तो सामने ही डोल्फिन्स को उछल कूद मचाते देख सकेंगे और सौभाग्यशाली रहे तो कोई व्हेल भी सागर की सतह पर आकर अपने नथुनों से फव्वारा छोड़ कर हमें सम्मोहित करेगा. हम वाकई सौभाग्यशाली निकले. उस विराट रंगमंच पर दोनों ही प्रस्तुतियां देखने को मिलीं हमें.
अगले दिन हमने कैंगो की गुफाएं देखीं. भूमितल से कई सौ फीट नीचे एक बहुत विशालकाय गुफा में जाकर हम धरती की सतह से रिसते पानी की बूंदों के मृदुल प्रहार से लाखों वर्षों में स्टेलकटाईट और स्टेलगमाईट नामक मुलायम चट्टानों के कटने से बनी हुई अद्भुत आकृतियाँ देखकर मंत्रमुग्ध हो गए. इन गुफाओं की दीवारों और छतों पर जहाँ प्रकृति की तूलिका ने अद्भुत आकृतियाँ उकेर रखी थीं वहीं पाषाणकाल में इन गुफाओं में शरण पाने वाले इंसानों ने कई चट्टानों पर अपनी चित्रकला का परिचय दे रखा था. इन गुफाओं का रख रखाव, उनके अन्दर सुरक्षा और प्रकाश की व्यवस्था अद्भुत थी.
कैंगो केव्ज़ के बाद हम केप टाउन की तरफ चले जो पांच सौ किलोमीटर दूर था. रास्ते में हम एक प्रायवेट गेम रिज़र्व में ठहरे. पंद्रह सौ एकड़ के क्षेत्र में फैले एक्विला गेम रिज़र्व में एक सीखचों वाली वैन में बैठकर हमने बिग फाइव को स्वतंत्र विचरण करते देखा. पर सबसे रोमांचक अनुभव रहा सिंहों के एक जोड़े के साथ सैर पर जाने का. तीन वर्ष के नर सिंह मोकैम्बो और सिंहनी लिजा को जन्म के बाद से ही उसके संरक्षक ने बोतल से दूध पिला कर पाला पोसा था. अब वे दोनो या तो स्वयं को आदमी या फिर आदमी को शेर की जाति का समझते थे. हम उनके साथ-साथ दो किलोमीटर लम्बे ट्रेक पर जंगल में गये. लिजा को दिखाकर मांस का एक बड़ा सा टुकडा उसके संरक्षक ने एक पेड़ पर फेंका. उसने एक छलांग में पेड़ के तने पर अपना पंजा जमाया और दूसरी छलांग में ऊपर चढ़ गई. फिर आराम से एक डाल के ऊपर पसर कर अगले पिछले पैर नीचे लटका कर उसने नाश्ता किया. फिर पालतू बिल्ली की तरह बुलाने से नीचे आ गई. इस बीच मोकैम्बो उसके कारनामे को शायद सस्ती लोकप्रियता कमाने का नारीसुलभ कौतुक समझते हुए नीचे ज़मीन पर बैठकर जम्हाइयां लेता रहा. इसके बाद हमने एक अन्य निजी फ़ार्म पर हेलीकोप्टर में बैठकर नीची उड़ान भरते हुए वाइल्डरबीस्ट नामक बकरे के मुंह और नीलगाय के शरीर वाले जानवरों के एक बड़े रेवड़ का पीछा किया. हेलीकोप्टर से उस विशाल क्षेत्र में फैले हुए अनगिनत वन्य पशुओं को देखना एक रोमांचक अनुभव रहा.
अफ्रीका में हमारा अंतिम पड़ाव था केपटाउन. एकीला गेम रिज़र्व से ढाई सौ किलोमीटर की बस यात्रा करके हम केपटाउन के निकट पहुंचे तो दूर से ही वहाँ के प्रसिद्द टेबुलटॉप पर्वतशिखर के दर्शन होने लगे. केपटाउन अफ्रिका में जोहांसबर्ग के बाद दूसरा सबसे बड़ा शहर है. स्वेज़ नहर बनने के पहले जहाज़ों को केप ऑफ़ गुड होप के चक्कर लगाकर यूरोप से एशिया आना जाना पड़ता था. अफ्रीकी महाद्वीप के इस दक्षिणी छोर पर हिन्द और एटलान्टिक महासागर की लहरें एक दूसरे को ललकारते हुए आक्रामक हो उठती हैं. परिणामतः समुद्री तूफानों और तद्जन्य दुर्घटनाओं के लिये यहाँ के निकट का समुद्र कुख्यात था. बीसों बड़े जहाज़ों के डूबने के वृत्तांत टेबुल टॉप माउन्टेन और केप ऑफ़ गुड होप की सबसे ऊंची पहाडी केप पॉइंट के ऊपर शिलाओं में अंकित है. ज्वालामुखी चट्टानों और ग्लेशियर्स के टकराव से लाखों वर्ष पहले बना यह पर्वतशिखर विविध प्रकार के वन्य जंतुओं, पक्षियों और आठ हज़ार से भी अधिक वनस्पति प्रजातियों का आवास है. अक्टूबर के सुहाने मौसम में सारी पहाड़ियां आठ दस फूट ऊंची हरी भरी झाड़ियों से आच्छादित थीं जिन पर दक्षिण अफ्रीका का राष्ट्रीय पुष्प गुलाबी रंग का प्रोटिया गर्व से मुस्करा रहा था. उसकी पीली नीली और अन्य दर्जनों रंग की प्रजातियाँ जिन्हें राष्ट्रीय पुष्प का ओहदा नहीं मिला था बिना अपने गुलाबी सहोदर से कोई ईर्ष्या दिखाए अपने आप में मस्त झूम रही थीं. शायद प्रतिष्ठित और विशेष सम्मानित भाई बिरादर से ईर्ष्या केवल इन्सांन की फितरत है! पर्वतशिखर पर हम केबलकार में बैठकर गए जो एक साथ में पैंसठ सवारियों को लेकर दस मिनट में तीन हज़ार फीट ऊपर चढ़ जाती है वह भी गोल गोल घूमते हुए ताकि अन्दर बैठे सैलानी 360 अंश का विहंगावलोकन कर सकें. टेबलटॉप शिखर पर हमने खरगोश के आकार के भूरे रंग के चूहे जैसी शकल के जानवर ‘डासी’ को बहुत निकट से देखा. वे पर्यटकों के पास बेखटक आकर खाना मांग रहे थे और फोटो खिंचवाने के लिए पेशेवर मॉडल की तरह मूर्तिवत बैठ जाते थे. हम केप पॉइंट के सिखर पर भी मोनोरेल से चढ़े और वहाँ से केप ऑफ़ गुड हॉप से दक्षिणी ध्रुव तक फ़ैली हुई सागर की अपार जलराशि को देखकर स्तब्ध रह गए. अगले दिन हम सील आइलैंड कहलाने वाली एक बड़ी चट्टान पर धूप सेंकते हुए सैकड़ों समुद्री सिंहों ( सी-लायन अथवा सील ) को निकट से देखने एक छोटे जहाज़ से गए. केपटाउन का विक्टोरिया और एल्बर्ट सीफ्रंट घूमने हम दोपहर में गए. वहाँ अफ्रीकी जानवरों की खालों, धातुओं और लकड़ी से बनी तमाम तरह की मूर्तियाँ और सजावट के सामान खरीदने का अच्छा अवसर मिला. अपने दिल्लीहाट की तरह लोकशिल्प की बहुतेरी दूकानें वहाँ थीं और मोलभाव करोलबाग के फूटपाथ पर होते सौदों की टक्कर का था. अगले दिन केप टाउन शहर के दर्शनीय स्थान हमने देखे जिनमे ग्रीन मार्केट स्क्वायर, कम्पनी बाग़ , संसद भवन, मलय बस्तियां और पुराना डच किला प्रमुख थे. हम केपटाउन के निकट एक कारखाने में भी गए जहाँ कीमती और अर्धकीमती पत्थरों को घिस कर, काटकर और चमका कर खूबसूरत और कीमती माणिक्य का रूप दिया जाता है. इस प्रक्रिया की तकनीक तो सीधी सादी थी. कंकरीली मिट्टी जैसे अयस्क को इस्पात के बड़े बड़े सिलिंडरों में कई सप्ताह तक गोल गोल घुमाने के बाद उन्हें धोने और चमकाने का कार्य अंतिम चरण तक स्वचालित मशीनों से किया जाता है. अंतिम चरण में जिन पत्थरों के अधिक कीमती बन पाने की संभावना होती है उन्हें छांटकर अलग कर लिया जाता है. फिर उन्हें मानवचालित छोटी मशीनों पर अंतिम रूप-निखार मिलता है. मुझे अपनी श्रीलंका यात्रा के दौरान एक ऐसी ही खान में कार्यरत मजदूरों की फटेहाली देखकर बहुत दुःख हुआ था. पर अब यहाँ उन स्वचालित मशीनों को देखकर लगा कि श्रीलंका के वे मजदूर दक्षिण अफ्रीका के उन बेरोजगार मजदूरों की अपेक्षा अधिक भाग्यशाली थे. पेट की भूख कम से कम उन्हें अपराधवृत्ति की तरफ तो नहीं धकेलती थी.
दक्षिण अफ्रीका के पर्यटन में जहाँ अनेकों वन्य प्राणियों को इतने निकट से और इतनी बड़ी संख्या में देखने का अनोखा अवसर मिला वहीँ मानव को पशु से भी अधिक दयनीय बना देने वाली रंगभेद नीति के दंश को समझने का भी मौक़ा मिला. रंगभेद के लिए अफ़्रीकांस भाषा में अपार्थायड शब्द है जो अंग्रेज़ी के अपार्टहुड अर्थात अलगाव का अपभ्रंश है. दक्षिण अफ्रीका का भूभाग डच साम्राज्यवादियों के हाथ से ब्रिटिश साम्राज्य में आया सन 1795 में. इन दोनों शक्तियों ने वहाँ की खदानों में कार्य करने के लिए अपने विश्वव्यापी साम्राज्य के विविध देशों से पहले तो सीधे सीधे गुलाम आयातित किये. फिर अमेरिकी स्वतन्त्रता के बाद गुलामी प्रथा के विरुद्ध पूरे विश्व में एक नयी लहर चली तो बंधुआ मजदूरों के रूप में उन्हें भरती किये जाने का छद्म चलाया. कितने अपमान और पीड़ा के दिन थे वे इसका हवाला देते हुए हमारे अश्वेत गाइड ने अपने नाम ‘जोन अक्टूबर’ का इतिहास समझाते हुए बताया कि उसके परदादा बोर्नियो से एक गुलाम के रूप में केपटाउन लाये गए थे. इन गुलामों को उनके मौलिक नाम से पुकारने का कष्ट उठाने के बजाय उनके मालिकों ने किस महीने में खरीदा उसी नाम से पुकारे जाने की परिपाटी चला दी थी. उन्हें अपने मालिक के फ़ार्म से बाहर कहीं भी जाने के लिए परमिट बनवाना पड़ता था. 1948 से 1994 तक श्वेत अल्पसंख्यकों ने दक्षिण अफ्रीका के नागरिकों को श्वेत, काले, अश्वेत (कलर्ड) और भारतीय चार समुदायों में बाँट कर उनके लिए पंजीकरण अनिवार्य कर दिया. इस दौरान पैंतीस लाख अश्वेतों को अलग बस्तियों में बसाकर उनसे नागरिकता के लगभग सारे अधिकार छीन लिए गए. अफ्रीका के मूल निवासियों को उनके समुदाय के अनुसार तेरह ‘बन्तुस्तानों’ में बसा दिया गया. यहाँ रंगभेद के पूरे इतिहास में जाना तो असंगत होगा. पर विभिन्न अश्वेत नागरिकों से बात करके पता चला कि रंगभेद के उन दिनों में उनसे कितना पशुवत व्यवहार किया जाता था. केपटाउन की उस अदालत में जहाँ सारे अश्वेतों को अपना पंजीकरण करना पड़ता था सैलानियों को दिखाते हुए हमारे अश्वेत ड्राईवर और गाइड का गला रुंध गया. उसने अदालत के बाहर गोरों और अश्वेतों के बैठने की अलग अलग बेंचें दिखायीं और बताया कि उसके पिता को तो उनपर बैठने में भी इतना भय लगता था कि उसके किशोर मन में अपने पिता की एक तस्वीर बन गयी थी जो अपने बिल में भय से सिमटे हुए एक चूहे की थी. फिर उसने अपने आंसू छुपाकर मुस्करा कर कहा आपके गांधी जी को धन्यवाद कि उन्होंने हम चूहों में से एक -नेल्स्सन मंडेला- को शेर बना दिया. अपने देश के इस स्वतन्त्रता सेनानी और प्रथम राष्ट्रपति को नमन करते हुए उसने अपने ह्रदय पर क्रोस का निशान बनाया और बोला अब हम आज़ाद हैं. कुछ दिनों में सबको पेट कर भोजन भी मिलने लगेगा. हमें उसकी बातों से ध्यान आया उन टीन, लोहे की चद्दरों और कार्डबोर्ड तथा प्लास्टिक शीटों से बने एक एक कमरों वाले अस्थायी घरों या झोपड़ों की जिन्हें हमने जोहांसबर्ग और केपटाउन जैसे महानगरों के बाहर देखा था. तुरंत मन में कोई चोर बोला ‘मुम्बई की धारावी और दिल्ली में यमुना पुश्ता की झोंपड़पट्टियों की अपेक्षा वे कम से कम अधिक साफ़ सुथरे तो हैं ही.’ समाज के हाशिये पर रहते उन ग़रीबों के वे घर पंक्तिबद्ध भी थे और साफ़ सुथरे भी. दक्षिण अफ्रीका में हमें शहर के व्यस्ततम इलाकों में कूड़े कचरे का एक छोटा टुकडा भी देखने को न मिला, बेहद साफ़ सुथरी सडकों पर न गढ़धे देखने को मिले न आवारा फिरते जानवर. राजमार्गों पर या शहर की सड़कों पर वहाँ कोई गाड़ी किसी मुसीबत में ही ओवरटेक करने या हॉर्न बजाने की जुगत लगाती है. इस अनुशासन के बावजूद वहाँ बेहद गरीब लोग भी दिखे और जरायम पेशा और नशेड़ी युवाओं के होने का भी स्पष्ट संकेत मिला. पर जिस देश में आजसे केवल दो ढाई दशक पहले तक आधे से भी अधिक निवासी जानवरों सा जीवन जीने को मजबूर थे उसका वर्तमान देखते हुए उनका भविष्य हमें उज्जवल ही लगा. जीने की उनकी इच्छा अब बलवती है. वे अब खुलकर हंस तो लेते हैं.